Guru Granth Sahib Translation Project

Guru Granth Sahib Hindi Page 352

Page 352

ਸਤਿਗੁਰੁ ਸੇਵਿ ਪਾਏ ਨਿਜ ਥਾਉ ॥੧॥ सतिगुरु सेवि पाए निज थाउ ॥१॥ सतगुरु की सेवा करने से मनुष्य आत्मस्वरूप प्राप्त कर लेता है॥ १॥
ਮਨ ਚੂਰੇ ਖਟੁ ਦਰਸਨ ਜਾਣੁ ॥ मन चूरे खटु दरसन जाणु ॥ अपने मन का स्वामी बनने वाला, शास्त्रों के ज्ञान में निष्णात होता है।
ਸਰਬ ਜੋਤਿ ਪੂਰਨ ਭਗਵਾਨੁ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ सरब जोति पूरन भगवानु ॥१॥ रहाउ ॥ भगवान् की ज्योति सर्व जीव-जन्तुओं में परिपूर्ण हो रही है॥१॥ रहाउ ॥
ਅਧਿਕ ਤਿਆਸ ਭੇਖ ਬਹੁ ਕਰੈ ॥ अधिक तिआस भेख बहु करै ॥ माया की अधिकतर तृष्णा के कारण मनुष्य अधिकतर वेष धारण करता है।
ਦੁਖੁ ਬਿਖਿਆ ਸੁਖੁ ਤਨਿ ਪਰਹਰੈ ॥ दुखु बिखिआ सुखु तनि परहरै ॥ दु:ख की पीड़ा शरीर के सुख को नष्ट कर देती है।
ਕਾਮੁ ਕ੍ਰੋਧੁ ਅੰਤਰਿ ਧਨੁ ਹਿਰੈ ॥ कामु क्रोधु अंतरि धनु हिरै ॥ काम वासना एवं क्रोध आत्मा के धन को चुरा कर ले जाते हैं।
ਦੁਬਿਧਾ ਛੋਡਿ ਨਾਮਿ ਨਿਸਤਰੈ ॥੨॥ दुबिधा छोडि नामि निसतरै ॥२॥ दुविधा को छोड़कर मनुष्य प्रभु के नाम का जाप करने से मोक्ष प्राप्त कर लेता है॥ २॥
ਸਿਫਤਿ ਸਲਾਹਣੁ ਸਹਜ ਅਨੰਦ ॥ सिफति सलाहणु सहज अनंद ॥ प्रभु की प्रशंसा एवं उपमा में ही सहज आनंद है।
ਸਖਾ ਸੈਨੁ ਪ੍ਰੇਮੁ ਗੋਬਿੰਦ ॥ सखा सैनु प्रेमु गोबिंद ॥ गोबिन्द का प्रेम मनुष्य का मित्र एवं संबंधी है।
ਆਪੇ ਕਰੇ ਆਪੇ ਬਖਸਿੰਦੁ ॥ आपे करे आपे बखसिंदु ॥ प्रभु स्वयं ही सबकुछ करने वाला और स्वयं ही क्षमाशील है।
ਤਨੁ ਮਨੁ ਹਰਿ ਪਹਿ ਆਗੈ ਜਿੰਦੁ ॥੩॥ तनु मनु हरि पहि आगै जिंदु ॥३॥ मेरा तन, मन एवं जीवन परमेश्वर के समक्ष अर्पण है॥ ३॥
ਝੂਠ ਵਿਕਾਰ ਮਹਾ ਦੁਖੁ ਦੇਹ ॥ झूठ विकार महा दुखु देह ॥ झूठ एवं विकार बहुत दुःख देते हैं।
ਭੇਖ ਵਰਨ ਦੀਸਹਿ ਸਭਿ ਖੇਹ ॥ भेख वरन दीसहि सभि खेह ॥ जिसने सत्य को जाना, उसे धर्म का दिखावा और जाति का अहंकार राख की तरह व्यर्थ प्रतीत होता है।
ਜੋ ਉਪਜੈ ਸੋ ਆਵੈ ਜਾਇ ॥ जो उपजै सो आवै जाइ ॥ जिसने जन्म लिया है, वह जन्मता-मरता रहता है अर्थात् जन्म मरण के चक्र में फँसा रहता है।
ਨਾਨਕ ਅਸਥਿਰੁ ਨਾਮੁ ਰਜਾਇ ॥੪॥੧੧॥ नानक असथिरु नामु रजाइ ॥४॥११॥ हे नानक ! केवल प्रभु की इच्छा ही अटल है॥ ४॥ ११॥
ਆਸਾ ਮਹਲਾ ੧ ॥ आसा महला १ ॥ राग आसा, प्रथम गुरु द्वारा रचित १ ॥
ਏਕੋ ਸਰਵਰੁ ਕਮਲ ਅਨੂਪ ॥ एको सरवरु कमल अनूप ॥ संत पवित्र सभा में कमल-से खिले प्रतीत होते हैं।
ਸਦਾ ਬਿਗਾਸੈ ਪਰਮਲ ਰੂਪ ॥ सदा बिगासै परमल रूप ॥ यह सदैव ही खिले रहते हैं और सुन्दर रूप वाले एवं सुगन्धित हैं।
ਊਜਲ ਮੋਤੀ ਚੂਗਹਿ ਹੰਸ ॥ ऊजल मोती चूगहि हंस ॥ जिस प्रकार हंस तालाब में मोती चुनते हैं, उसी प्रकार संत पवित्र सभा में नामरस का स्वाद लेते हैं।
ਸਰਬ ਕਲਾ ਜਗਦੀਸੈ ਅੰਸ ॥੧॥ सरब कला जगदीसै अंस ॥१॥ वह सर्वकला सम्पूर्ण जगदीश्वर का एक अंश है॥१॥
ਜੋ ਦੀਸੈ ਸੋ ਉਪਜੈ ਬਿਨਸੈ ॥ जो दीसै सो उपजै बिनसै ॥ जो कोई दिखता है, वह जन्म-मरण के अधीन है।
ਬਿਨੁ ਜਲ ਸਰਵਰਿ ਕਮਲੁ ਨ ਦੀਸੈ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ बिनु जल सरवरि कमलु न दीसै ॥१॥ रहाउ ॥ जिस प्रकार जल के बिना तालाब में कमल नहीं खिलता, उसी प्रकार ईश्वर के नाम के बिना संतों की संगति नहीं मिलती। ॥ १॥ रहाउ॥
ਬਿਰਲਾ ਬੂਝੈ ਪਾਵੈ ਭੇਦੁ ॥ बिरला बूझै पावै भेदु ॥ कोई विरला पुरुष ही इस रहस्य को जानता एवं समझता है।
ਸਾਖਾ ਤੀਨਿ ਕਹੈ ਨਿਤ ਬੇਦੁ ॥ साखा तीनि कहै नित बेदु ॥ यहाँ तक कि वेद भी केवल माया के तीन गुणों — पाप, गुण और शक्ति की इच्छा का ही वर्णन करते हैं।
ਨਾਦ ਬਿੰਦ ਕੀ ਸੁਰਤਿ ਸਮਾਇ ॥ नाद बिंद की सुरति समाइ ॥ जो निर्गुण एवं सर्गुण प्रभु की वृति में लीन होता है,"
ਸਤਿਗੁਰੁ ਸੇਵਿ ਪਰਮ ਪਦੁ ਪਾਇ ॥੨॥ सतिगुरु सेवि परम पदु पाइ ॥२॥ वह सतगुरु की सेवा करके परम पदवी प्राप्त कर लेता है॥ २॥
ਮੁਕਤੋ ਰਾਤਉ ਰੰਗਿ ਰਵਾਂਤਉ ॥ मुकतो रातउ रंगि रवांतउ ॥ जो मनुष्य प्रभु के प्रेम में अनुरक्त है और उसका नाम-स्मरण करता है, वह मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
ਰਾਜਨ ਰਾਜਿ ਸਦਾ ਬਿਗਸਾਂਤਉ ॥ राजन राजि सदा बिगसांतउ ॥ वह राजाओं का महाराजा है और हमेशा खिला रहता है।
ਜਿਸੁ ਤੂੰ ਰਾਖਹਿ ਕਿਰਪਾ ਧਾਰਿ ॥ जिसु तूं राखहि किरपा धारि ॥ हे प्रभु ! अपनी कृपा करके जिसे आप बचाते हो,"
ਬੂਡਤ ਪਾਹਨ ਤਾਰਹਿ ਤਾਰਿ ॥੩॥ बूडत पाहन तारहि तारि ॥३॥ चाहे वह डूबता हुआ पत्थर हो, उसे आप पार कर देते हो।॥ ३॥
ਤ੍ਰਿਭਵਣ ਮਹਿ ਜੋਤਿ ਤ੍ਰਿਭਵਣ ਮਹਿ ਜਾਣਿਆ ॥ त्रिभवण महि जोति त्रिभवण महि जाणिआ ॥ हे प्रभु ! तीनों लोकों में आपका प्रकाश है और मैं आपको तीनों लोकों में व्यापत अनुभव करता हूँ।
ਉਲਟ ਭਈ ਘਰੁ ਘਰ ਮਹਿ ਆਣਿਆ ॥ उलट भई घरु घर महि आणिआ ॥ जब मेरी सुरति माया से हट गई तो इसने मुझे शरीर रूपी घर में ही आत्म स्वरूप में स्थित कर दिया।
ਅਹਿਨਿਸਿ ਭਗਤਿ ਕਰੇ ਲਿਵ ਲਾਇ ॥ अहिनिसि भगति करे लिव लाइ ॥ जो प्रेम में भीगा दिन-रात प्रभु की भक्ति करता है
ਨਾਨਕੁ ਤਿਨ ਕੈ ਲਾਗੈ ਪਾਇ ॥੪॥੧੨॥ नानकु तिन कै लागै पाइ ॥४॥१२॥ मैं नानक उसके चरण पकड़ता हूँ, ॥ ४॥ १२॥
ਆਸਾ ਮਹਲਾ ੧ ॥ आसा महला १ ॥ राग आसा, प्रथम गुरु द्वारा रचित १ ॥
ਗੁਰਮਤਿ ਸਾਚੀ ਹੁਜਤਿ ਦੂਰਿ ॥ गुरमति साची हुजति दूरि ॥ गुरु की सच्ची शिक्षा द्वारा मनुष्य का वाद-विवाद दूर हो जाता है।
ਬਹੁਤੁ ਸਿਆਣਪ ਲਾਗੈ ਧੂਰਿ ॥ बहुतु सिआणप लागै धूरि ॥ अधिक चतुरता से प्राणी को पापों की धूल लग जाती है।
ਲਾਗੀ ਮੈਲੁ ਮਿਟੈ ਸਚ ਨਾਇ ॥ लागी मैलु मिटै सच नाइ ॥ (लेकिन) प्रभु के सत्यनाम से लगी हुई मैल मिट जाती है।
ਗੁਰ ਪਰਸਾਦਿ ਰਹੈ ਲਿਵ ਲਾਇ ॥੧॥ गुर परसादि रहै लिव लाइ ॥१॥ गुरु की दया से जीव सत्यनाम के प्रेम में लीन रहता है। १॥
ਹੈ ਹਜੂਰਿ ਹਾਜਰੁ ਅਰਦਾਸਿ ॥ है हजूरि हाजरु अरदासि ॥ ईश्वर प्रत्यक्ष है उसकी उपस्थिति में प्रार्थना कर।
ਦੁਖੁ ਸੁਖੁ ਸਾਚੁ ਕਰਤੇ ਪ੍ਰਭ ਪਾਸਿ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ दुखु सुखु साचु करते प्रभ पासि ॥१॥ रहाउ ॥ दुःख एवं सुख सत्यस्वरूप कर्तार प्रभु के पास हैं॥ १॥ रहाउ॥
ਕੂੜੁ ਕਮਾਵੈ ਆਵੈ ਜਾਵੈ ॥ कूड़ु कमावै आवै जावै ॥ जो मनुष्य झूठ की कमाई करता है, वह जन्म-मरण के चक्र में फंस जाता है।
ਕਹਣਿ ਕਥਨਿ ਵਾਰਾ ਨਹੀ ਆਵੈ ॥ कहणि कथनि वारा नही आवै ॥ कहने एवं प्रवचन करने से आवागमन (जन्म-मरण के चक्र) के अन्त का पता नहीं लगता।
ਕਿਆ ਦੇਖਾ ਸੂਝ ਬੂਝ ਨ ਪਾਵੈ ॥ किआ देखा सूझ बूझ न पावै ॥ ऐसे व्यक्ति ने वास्तविक सत्य नहीं देखा है, इसलिए उसे ईश्वर के बारे में कोई सत्य ज्ञान नहीं मिलता है,
ਬਿਨੁ ਨਾਵੈ ਮਨਿ ਤ੍ਰਿਪਤਿ ਨ ਆਵੈ ॥੨॥ बिनु नावै मनि त्रिपति न आवै ॥२॥ प्रभु-नाम के बिना मनुष्य के मन में तृप्ति नहीं होती ॥ २॥
ਜੋ ਜਨਮੇ ਸੇ ਰੋਗਿ ਵਿਆਪੇ ॥ जो जनमे से रोगि विआपे ॥ जिन्होंने (मृत्युलोक में) जन्म लिया है, वह रोगों में ग्रस्त हैं और
ਹਉਮੈ ਮਾਇਆ ਦੂਖਿ ਸੰਤਾਪੇ ॥ हउमै माइआ दूखि संतापे ॥ माया के अहंकार की पीड़ा से दुःखी किए हुए हैं।
ਸੇ ਜਨ ਬਾਚੇ ਜੋ ਪ੍ਰਭਿ ਰਾਖੇ ॥ से जन बाचे जो प्रभि राखे ॥ जिन पुरुषों की परमात्मा स्वयं रक्षा करते हैं, वें (रोगों की पीड़ा से) बच जाते हैं।
ਸਤਿਗੁਰੁ ਸੇਵਿ ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਰਸੁ ਚਾਖੇ ॥੩॥ सतिगुरु सेवि अम्रित रसु चाखे ॥३॥ सतगुरु की सेवा करके वह अमृत रस चखते हैं॥ ३॥
ਚਲਤਉ ਮਨੁ ਰਾਖੈ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਚਾਖੈ ॥ चलतउ मनु राखै अम्रितु चाखै ॥ जो मनुष्य अपने चंचल मन पर अंकुश लगाता है,वह अमृत रस चखता है।
ਸਤਿਗੁਰ ਸੇਵਿ ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਸਬਦੁ ਭਾਖੈ ॥ सतिगुर सेवि अम्रित सबदु भाखै ॥ वह सतगुरु की सेवा करता है और अमृत वचन बोलता है।
ਸਾਚੈ ਸਬਦਿ ਮੁਕਤਿ ਗਤਿ ਪਾਏ ॥ ਨਾਨਕ ਵਿਚਹੁ ਆਪੁ ਗਵਾਏ ॥੪॥੧੩॥ साचै सबदि मुकति गति पाए ॥ नानक विचहु आपु गवाए ॥४॥१३॥ हे नानक! अहंकार त्यागने वाला गुरु की शरण में विकारों से मुक्त होकर परम अवस्था प्राप्त करता है। ॥ ४॥ १३॥
ਆਸਾ ਮਹਲਾ ੧ ॥ आसा महला १ ॥ राग आसा, प्रथम गुरु द्वारा रचित १ ॥
ਜੋ ਤਿਨਿ ਕੀਆ ਸੋ ਸਚੁ ਥੀਆ ॥ जो तिनि कीआ सो सचु थीआ ॥ परमात्मा ने जो कुछ भी किया है, वह सत्य हुआ है।
ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਨਾਮੁ ਸਤਿਗੁਰਿ ਦੀਆ ॥ अम्रित नामु सतिगुरि दीआ ॥ प्रभु का अमृत नाम सतगुरु ने दिया है।
ਹਿਰਦੈ ਨਾਮੁ ਨਾਹੀ ਮਨਿ ਭੰਗੁ ॥ हिरदै नामु नाही मनि भंगु ॥ उसका हृदय सदा नाम में रमा रहता है और वह प्रभु से कभी अलग नहीं होता।
ਅਨਦਿਨੁ ਨਾਲਿ ਪਿਆਰੇ ਸੰਗੁ ॥੧॥ अनदिनु नालि पिआरे संगु ॥१॥ वह दिन-रात अपने प्रियतम-प्रभु की संगति में रहता है ॥ १॥
ਹਰਿ ਜੀਉ ਰਾਖਹੁ ਅਪਨੀ ਸਰਣਾਈ ॥ हरि जीउ राखहु अपनी सरणाई ॥ हे श्रीहरि ! मुझे अपनी शरण में रखें।


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