Guru Granth Sahib Translation Project

guru-granth-sahib-hindi-page-1

Page 1

ੴ ਸਤਿ ਨਾਮੁ ਕਰਤਾ ਪੁਰਖੁ ਨਿਰਭਉ ਨਿਰਵੈਰੁ ਅਕਾਲ ਮੂਰਤਿ ਅਜੂਨੀ ਸੈਭੰ ਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥ ੴ सतिनामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुरप्रसादि ॥ अकाल-पुरख एक है, जिसका नाम ‘अस्तित्व वाला’ है जो सृष्टि का रचनहार है, (करता है) जो सब में व्यापक है, भय से रहित है (निर्भय), वैर से रहित है (निरवैर), जिसका स्वरूप काल से परे है, (भाव, जिसका शरीर नाश-रहित है), जो योनियों में नहीं आता, जिसका प्रकाश अपने आप से हुआ है और जो सत्गुरू की कृपा से मिलता है।
॥ ਜਪੁ ॥ ॥ जपु ॥ जाप करो। (इसे गुरु की वाणी का शीर्षक भी माना गया है।)
ਆਦਿ ਸਚੁ ਜੁਗਾਦਿ ਸਚੁ ॥ आदि सचु जुगादि सचु ॥ निरंकार (अकाल पुरख) सृष्टि की रचना से पहले सत्य था, युगों के प्रारम्भ में भी सत्य (स्वरूप) था।
ਹੈ ਭੀ ਸਚੁ ਨਾਨਕ ਹੋਸੀ ਭੀ ਸਚੁ ॥੧॥ है भी सचु नानक होसी भी सचु ॥१॥ अब वर्तमान में भी उसी का अस्तित्व है, श्री गुरु नानक देव जी का कथन है भविष्य में भी उसी सत्यस्वरूप निरंकार का अस्तित्व होगा II १ II
ਸੋਚੈ ਸੋਚਿ ਨ ਹੋਵਈ ਜੇ ਸੋਚੀ ਲਖ ਵਾਰ ॥ सोचै सोचि न होवई जे सोची लख वार ॥ यदि कोई लाख बार शौच (स्नानादि) करता रहे तो भी इस शरीर के बाहरी स्नान से मन की पवित्रता नहीं हो सकती। मन की पवित्रता के बिना परमेश्वर (वाहेगुरु) के प्रति विचार भी नहीं किया जा सकता।
ਚੁਪੈ ਚੁਪ ਨ ਹੋਵਈ ਜੇ ਲਾਇ ਰਹਾ ਲਿਵ ਤਾਰ ॥ चुपै चुप न होवई जे लाइ रहा लिव तार ॥ यदि कोई एकाग्रचित्त समाधि लगाकर मुंह से चुप्पी धारण कर ले तो भी मन की शांति (चुप) प्राप्त नहीं हो सकती; जब तक कि मन से झूठे विकार नहीं निकल जाते।
ਭੁਖਿਆ ਭੁਖ ਨ ਉਤਰੀ ਜੇ ਬੰਨਾ ਪੁਰੀਆ ਭਾਰ ॥ भुखिआ भुख न उतरी जे बंना पुरीआ भार ॥ हे जीव! निःसंदेह इस संसार में तू कितने भी भोग्य पदार्थों को ग्रहण कर ले या कितने भी पूजा-पाठ, व्रत जैसे आडम्बरों को करके उस परमात्मा को पाने की चाह रख किन्तु अगर अपने अंदर के तृष्णा रूपी हिरण का शिकार नहीं किया तो सब व्यर्थ है भाव परमात्मा इन तृष्णाओं से परे है। अगर तुम्हारे अंदर उन पदार्थों के लिए तृष्णा समाप्त नहीं होती तो तू उस परमात्मा को नहीं पा सकता I
ਸਹਸ ਸਿਆਣਪਾ ਲਖ ਹੋਹਿ ਤ ਇਕ ਨ ਚਲੈ ਨਾਲਿ ॥ सहस सिआणपा लख होहि त इक न चलै नालि ॥ चाहे किसी के पास हज़ारों-लाखों चतुराई भरे विचार हों लेकिन ये सब अहंयुक्त होने के कारण परमेश्वर तक पहुँचने में कभी सहायक नहीं होते।
ਕਿਵ ਸਚਿਆਰਾ ਹੋਈਐ ਕਿਵ ਕੂੜੈ ਤੁਟੈ ਪਾਲਿ ॥ किव सचिआरा होईऐ किव कूड़ै तुटै पालि ॥ अब प्रश्न पैदा होता है कि फिर परमात्मा के समक्ष सत्य का प्रकाश पुंज कैसे बना जा सकता है, हमारे और निरंकार के बीच मिथ्या की जो दीवार है वह कैसे टूट सकती है?
ਹੁਕਮਿ ਰਜਾਈ ਚਲਣਾ ਨਾਨਕ ਲਿਖਿਆ ਨਾਲਿ ॥੧॥ हुकमि रजाई चलणा नानक लिखिआ नालि ॥१॥ सत्य रूप होने का मार्ग बताते हुए श्री गुरु नानक देव जी कथन करते हैं - यह सृष्टि के प्रारंभ से ही लिखा चला आ रहा है कि ईश्वर के आदेश अधीन चलने से ही सांसारिक प्राणी यह सब कर सकता है II १ II
ਹੁਕਮੀ ਹੋਵਨਿ ਆਕਾਰ ਹੁਕਮੁ ਨ ਕਹਿਆ ਜਾਈ ॥ हुकमी होवनि आकार हुकमु न कहिआ जाई ॥ (सृष्टि की रचना में) समस्त शरीर (निरंकार के) आदेश द्वारा ही रचे गए हैं, किन्तु उसके आदेश को मुँह से शब्द निकाल कर वर्णित नहीं किया जा सकता।
ਹੁਕਮੀ ਹੋਵਨਿ ਜੀਅ ਹੁਕਮਿ ਮਿਲੈ ਵਡਿਆਈ ॥ हुकमी होवनि जीअ हुकमि मिलै वडिआई ॥ परमेश्वर के आदेश से (इस धरा पर) अनेकानेक योनियों में जीवों का सृजन होता है, उसी के आदेश से ही मान-सम्मान (अथवा ऊँच - नीच का पद) प्राप्त होता है।
ਹੁਕਮੀ ਉਤਮੁ ਨੀਚੁ ਹੁਕਮਿ ਲਿਖਿ ਦੁਖ ਸੁਖ ਪਾਈਅਹਿ ॥ हुकमी उतमु नीचु हुकमि लिखि दुख सुख पाईअहि ॥ परमेश्वर (वाहेगुरु) के आदेश से ही जीव श्रेष्ठ अथवा निम्न जीवन प्राप्त करता है, उसके द्वारा ही लिखे गए आदेश से जीव सुख और दुःख की अनुभूति करता है।
ਇਕਨਾ ਹੁਕਮੀ ਬਖਸੀਸ ਇਕਿ ਹੁਕਮੀ ਸਦਾ ਭਵਾਈਅਹਿ ॥ इकना हुकमी बखसीस इकि हुकमी सदा भवाईअहि ॥ परमात्मा के आदेश से ही कई जीवों को कृपा मिलती है, कई उसके आदेश से आवागमन के चक्र में फँसे रहते हैं।
ਹੁਕਮੈ ਅੰਦਰਿ ਸਭੁ ਕੋ ਬਾਹਰਿ ਹੁਕਮ ਨ ਕੋਇ ॥ हुकमै अंदरि सभु को बाहरि हुकम न कोइ ॥ उस सर्वोच्च शक्ति परमेश्वर के अधीन ही सब-कुछ रहता है, उससे बाहर संसार का कोई कार्य नहीं है।
ਨਾਨਕ ਹੁਕਮੈ ਜੇ ਬੁਝੈ ਤ ਹਉਮੈ ਕਹੈ ਨ ਕੋਇ ॥੨॥ नानक हुकमै जे बुझै त हउमै कहै न कोइ ॥२॥ हे नानक ! यदि जीव उस अकाल पुरख के आदेश को प्रसन्नचित्त होकर जान ले तो कोई भी अहंकारमयी 'मैं' के वश में नहीं रहेगा। यही अहंतत्व सांसारिक वैभव में लिप्त प्राणी को निरंकार के निकट नहीं होने देता॥ २ II
ਗਾਵੈ ਕੋ ਤਾਣੁ ਹੋਵੈ ਕਿਸੈ ਤਾਣੁ ॥ गावै को ताणु होवै किसै ताणु ॥ परमेश्वर की कृपा से ही) जिस किसी के पास आत्मिक शक्ति है, वही उस (सर्वशक्तिमान) की ताकत का यश गायन कर सकता है।
ਗਾਵੈ ਕੋ ਦਾਤਿ ਜਾਣੈ ਨੀਸਾਣੁ ॥ गावै को दाति जाणै नीसाणु ॥ कोई उसके द्वारा प्रदत आर्शीवादों को (उसकी) कृपादृष्टि मानकर ही उसकी कीर्ति का गुणगान कर रहा है।
ਗਾਵੈ ਕੋ ਗੁਣ ਵਡਿਆਈਆ ਚਾਰ ॥ गावै को गुण वडिआईआ चार ॥ कोई जीव उसके अकथनीय गुणों व महिमा को गा रहा है।
ਗਾਵੈ ਕੋ ਵਿਦਿਆ ਵਿਖਮੁ ਵੀਚਾਰੁ ॥ गावै को विदिआ विखमु वीचारु ॥ कोई उसके विषम विचारों (ज्ञान) का गान विद्या द्वारा कर रहा है।
ਗਾਵੈ ਕੋ ਸਾਜਿ ਕਰੇ ਤਨੁ ਖੇਹ ॥ गावै को साजि करे तनु खेह ॥ कोई उसका गुणगान रचयिता व संहारक ईश्वर का रूप जानकर करता है।
ਗਾਵੈ ਕੋ ਜੀਅ ਲੈ ਫਿਰਿ ਦੇਹ ॥ गावै को जीअ लै फिरि देह ॥ कोई उसका वर्णन इस प्रकार करता है कि वह परम सत्ता जीवन देकर फिर वापिस ले लेती है।
ਗਾਵੈ ਕੋ ਜਾਪੈ ਦਿਸੈ ਦੂਰਿ ॥ गावै को जापै दिसै दूरि ॥ कोई जीव उस निरंकार को स्वयं से दूर जानकर उसका यश गाता है।


© 2025 SGGS ONLINE
error: Content is protected !!
Scroll to Top