Guru Granth Sahib Translation Project

Guru Granth Sahib Hindi Page 161

Page 161

ਇਸੁ ਕਲਿਜੁਗ ਮਹਿ ਕਰਮ ਧਰਮੁ ਨ ਕੋਈ ॥ इस कलियुग में कोई भी व्यक्ति धर्म-कर्म करने में सफल नहीं होता।
ਕਲੀ ਕਾ ਜਨਮੁ ਚੰਡਾਲ ਕੈ ਘਰਿ ਹੋਈ ॥ कलियुग का जन्म चंडाल के घर में हुआ है।
ਨਾਨਕ ਨਾਮ ਬਿਨਾ ਕੋ ਮੁਕਤਿ ਨ ਹੋਈ ॥੪॥੧੦॥੩੦॥ हे नानक ! परमात्मा के नाम पर ध्यान किए बिना किसी को भी विकारों से मुक्ति नहीं मिलती है। ॥ ४ ॥ १० ॥ ३० ॥
ਗਉੜੀ ਮਹਲਾ ੩ ਗੁਆਰੇਰੀ ॥ राग गौड़ी, तृतीय गुरु, ग्वारायरी:॥
ਸਚਾ ਅਮਰੁ ਸਚਾ ਪਾਤਿਸਾਹੁ ॥ भगवान विश्व का सच्चा बादशाह है और उसकी आज्ञा भी सत्य अर्थात् अटल है।
ਮਨਿ ਸਾਚੈ ਰਾਤੇ ਹਰਿ ਵੇਪਰਵਾਹੁ ॥ जो व्यक्ति अपने मन से सत्यस्वरूप एवं बेपरवाह भगवान के प्रेम में मग्न रहते हैं।
ਸਚੈ ਮਹਲਿ ਸਚਿ ਨਾਮਿ ਸਮਾਹੁ ॥੧॥ वे उसकी उपस्थिति में निवास प्राप्त करते हैं और उसके सत्य-नाम में ही समा जाते हैं।॥ १॥
ਸੁਣਿ ਮਨ ਮੇਰੇ ਸਬਦੁ ਵੀਚਾਰਿ ॥ हे मेरे मन ! सुनो, गुरु उपदेश का चिन्तन करो।
ਰਾਮ ਜਪਹੁ ਭਵਜਲੁ ਉਤਰਹੁ ਪਾਰਿ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ राम का भजन करो और भवसागर से पार हो जाओ ॥ १॥ रहाउ ॥
ਭਰਮੇ ਆਵੈ ਭਰਮੇ ਜਾਇ ॥ जीव मोह-माया के भ्रम में फँसने के कारण जन्मता एवं मरता रहता है।
ਇਹੁ ਜਗੁ ਜਨਮਿਆ ਦੂਜੈ ਭਾਇ ॥ इस जगत् के जीवों ने माया के प्रेम कारण जन्म लिया है।
ਮਨਮੁਖਿ ਨ ਚੇਤੈ ਆਵੈ ਜਾਇ ॥੨॥ स्वेच्छाचारी मनुष्य प्रभु को स्मरण नहीं करता इसलिए वह जनम-मरण के आवागमन में फंसा रहता है।॥ २॥
ਆਪਿ ਭੁਲਾ ਕਿ ਪ੍ਰਭਿ ਆਪਿ ਭੁਲਾਇਆ ॥ क्या प्राणी स्वयं कुमार्गगामी होता है अथवा ईश्वर स्वयं उसको कुमार्गगामी करता है ?
ਇਹੁ ਜੀਉ ਵਿਡਾਣੀ ਚਾਕਰੀ ਲਾਇਆ ॥ सांसारिक धन के प्रति अपने प्रेम के कारण, नश्वर को माया की सेवा का आदेश दिया गया है।
ਮਹਾ ਦੁਖੁ ਖਟੇ ਬਿਰਥਾ ਜਨਮੁ ਗਵਾਇਆ ॥੩॥ भगवान ने इस जीव को माया की सेवा में लगाया है, जिसके फलस्वरूप यह भारी दुःख प्राप्त करता है और अपना अनमोल जीवन व्यर्थ ही गंवा देता है॥ ३॥
ਕਿਰਪਾ ਕਰਿ ਸਤਿਗੁਰੂ ਮਿਲਾਏ ॥ प्रभु अपनी कृपा करके मनुष्य का सतगुरु से मिलन करवाते हैं।
ਏਕੋ ਨਾਮੁ ਚੇਤੇ ਵਿਚਹੁ ਭਰਮੁ ਚੁਕਾਏ ॥ वह तब, केवल नाम का ही स्मरण करता है और अपने अन्तर्मन से वह भ्रम को निकाल देता है।
ਨਾਨਕ ਨਾਮੁ ਜਪੇ ਨਾਉ ਨਉ ਨਿਧਿ ਪਾਏ ॥੪॥੧੧॥੩੧॥ हे नानक ! वह नाम का जाप करता है और ईश्वर के नाम की नवनिधि प्राप्त कर लेता है॥ ४ ॥ ११ ॥ ३१ ॥
ਗਉੜੀ ਗੁਆਰੇਰੀ ਮਹਲਾ ੩ ॥ राग गौड़ी, तृतीय गुरु, ग्वारायरी: ३ ॥
ਜਿਨਾ ਗੁਰਮੁਖਿ ਧਿਆਇਆ ਤਿਨ ਪੂਛਉ ਜਾਇ ॥ जिन लोगों ने गुरु की प्रेरणा से भगवान् के नाम का ध्यान किया है, मैं उन से जाकर पूछता हूँ।
ਗੁਰ ਸੇਵਾ ਤੇ ਮਨੁ ਪਤੀਆਇ ॥ वे मुझे बताते हैं कि गुरु की शिक्षाओं का पालन करने से, व्यक्ति का मन नाम पर ध्यान करने से मन संतुष्ट हो जाता है।
ਸੇ ਧਨਵੰਤ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਕਮਾਇ ॥ वास्तव में इस संसार में वहीं धनवान हैं जो हरि का नाम धन कमाते हैं।
ਪੂਰੇ ਗੁਰ ਤੇ ਸੋਝੀ ਪਾਇ ॥੧॥ इस बात का ज्ञान पूर्ण-गुरु से ही प्राप्त होता है॥ १॥
ਹਰਿ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਜਪਹੁ ਮੇਰੇ ਭਾਈ ॥ हे मेरे भाई ! हरि-परमेश्वर के नाम का जाप करते रहो।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਸੇਵਾ ਹਰਿ ਘਾਲ ਥਾਇ ਪਾਈ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ गुरु की प्रेरणा से की हुई सेवा-भक्ति के परिश्रम को भगवान स्वीकार कर लेता है॥ १॥ रहाउ॥
ਆਪੁ ਪਛਾਣੈ ਮਨੁ ਨਿਰਮਲੁ ਹੋਇ ॥ अपने स्वरूप की पहचान करने से मन निर्मल हो जाता है।
ਜੀਵਨ ਮੁਕਤਿ ਹਰਿ ਪਾਵੈ ਸੋਇ ॥ वह अपने जीवन में माया के बंधनों से मुक्त होकर भगवान् को पा लेता है।
ਹਰਿ ਗੁਣ ਗਾਵੈ ਮਤਿ ਊਤਮ ਹੋਇ ॥ जो व्यक्ति भगवान् की गुणस्तुति करता है, उसकी बुद्धि श्रेष्ठ हो जाती है।
ਸਹਜੇ ਸਹਜਿ ਸਮਾਵੈ ਸੋਇ ॥੨॥ वह सहज ही ईश्वर में लीन हो जाता है।॥ २ ॥
ਦੂਜੈ ਭਾਇ ਨ ਸੇਵਿਆ ਜਾਇ ॥ मोह-माया में फंसने से परमात्मा की सेवा-भक्ति नहीं की जा सकती।
ਹਉਮੈ ਮਾਇਆ ਮਹਾ ਬਿਖੁ ਖਾਇ ॥ मनुष्य अहंकारवश माया रूपी महा विष सेवन करता है।
ਪੁਤਿ ਕੁਟੰਬਿ ਗ੍ਰਿਹਿ ਮੋਹਿਆ ਮਾਇ ॥ उसके पुत्र, कुटुंब एवं घर इत्यादि के मोह के कारण माया उसे ठगती रहती है
ਮਨਮੁਖਿ ਅੰਧਾ ਆਵੈ ਜਾਇ ॥੩॥ माया के प्रेम में फंसा ज्ञानहीन स्वेच्छाचारी व्यक्ति जन्मता-मरता रहता है॥ ३॥
ਹਰਿ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਦੇਵੈ ਜਨੁ ਸੋਇ ॥ जिस मनुष्य को हरि-प्रभु अपना नाम देता है,
ਅਨਦਿਨੁ ਭਗਤਿ ਗੁਰ ਸਬਦੀ ਹੋਇ ॥ गुरु के शब्द के माध्यम से वह दिन-रात उसकी भक्ति करता रहता है।
ਗੁਰਮਤਿ ਵਿਰਲਾ ਬੂਝੈ ਕੋਇ ॥ परन्तु कोई विरला पुरुष ही गुरु की मति द्वारा इस भेद को समझता है।
ਨਾਨਕ ਨਾਮਿ ਸਮਾਵੈ ਸੋਇ ॥੪॥੧੨॥੩੨॥ हे नानक ! ऐसा व्यक्ति हमेशा ही ईश्वर के नाम में लीन रहता है॥ ४ ॥ १२ ॥ ३२ ॥
ਗਉੜੀ ਗੁਆਰੇਰੀ ਮਹਲਾ ੩ ॥ राग गौड़ी, तृतीय गुरु, ग्वारायरी ३ ॥
ਗੁਰ ਸੇਵਾ ਜੁਗ ਚਾਰੇ ਹੋਈ ॥ गुरु की सेवा चारों युगों (सतयुग, त्रैता, द्वापर एवं कलियुग) में सफल हुई है।
ਪੂਰਾ ਜਨੁ ਕਾਰ ਕਮਾਵੈ ਕੋਈ ॥ यह कार्य कोई विरला सिद्ध पुरुष ही पूर्ण आस्था से करता है।
ਅਖੁਟੁ ਨਾਮ ਧਨੁ ਹਰਿ ਤੋਟਿ ਨ ਹੋਈ ॥ सेवा करने वाला मनुष्य अक्षय हरि-नाम रूपी धन संचित कर लेता है और उस नाम-धन में कभी कोई कमी नहीं आती।
ਐਥੈ ਸਦਾ ਸੁਖੁ ਦਰਿ ਸੋਭਾ ਹੋਈ ॥੧॥ उस मनुष्य को इहलोक में सदैव सुख मिलता है और वह प्रभु के दरबार में भी शोभा प्राप्त करता है॥ १॥
ਏ ਮਨ ਮੇਰੇ ਭਰਮੁ ਨ ਕੀਜੈ ॥ हे मेरे मन ! इसके बारे कोई शंका मत कर।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਸੇਵਾ ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਰਸੁ ਪੀਜੈ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ अमृत रस गुरु की सेवा करके ही पान किया जाता है।॥ १॥ रहाउ॥
ਸਤਿਗੁਰੁ ਸੇਵਹਿ ਸੇ ਮਹਾਪੁਰਖ ਸੰਸਾਰੇ ॥ जो व्यक्ति सतगुरु की तन-मन से सेवा करते हैं, वह इस संसार में महापुरुष हैं।
ਆਪਿ ਉਧਰੇ ਕੁਲ ਸਗਲ ਨਿਸਤਾਰੇ ॥ वह स्वयं भवसागर से पार हो जाते हैं और अपने समूचे वंशों को भी पार कर देते हैं।
ਹਰਿ ਕਾ ਨਾਮੁ ਰਖਹਿ ਉਰ ਧਾਰੇ ॥ हरि के नाम को वह अपने हृदय में धारण करके रखते हैं।
ਨਾਮਿ ਰਤੇ ਭਉਜਲ ਉਤਰਹਿ ਪਾਰੇ ॥੨॥ हरि के नाम में मग्न हुए वह भवसागर से पार हो जाते हैं। २॥
ਸਤਿਗੁਰੁ ਸੇਵਹਿ ਸਦਾ ਮਨਿ ਦਾਸਾ ॥ जो व्यक्ति मन में विनीत भावना रखकर अपने सतगुरु की श्रद्धापूर्वक सेवा करते हैं,
ਹਉਮੈ ਮਾਰਿ ਕਮਲੁ ਪਰਗਾਸਾ ॥ वे अपने अहंत्व को नष्ट कर देते हैं और उनका हृदय कमल प्रफुल्लित हो जाता है।
ਅਨਹਦੁ ਵਾਜੈ ਨਿਜ ਘਰਿ ਵਾਸਾ ॥ उनके मन में अनहद शब्द गूंजने लगता है और वे आत्म-स्वरूप में निवास कर लेते हैं।
ਨਾਮਿ ਰਤੇ ਘਰ ਮਾਹਿ ਉਦਾਸਾ ॥੩॥ नाम के साथ अनुरक्त हुए वे अपने घर में निर्लिप्त रहते हैं।॥ ३॥
ਸਤਿਗੁਰੁ ਸੇਵਹਿ ਤਿਨ ਕੀ ਸਚੀ ਬਾਣੀ ॥ उनकी वाणी सत्य है जो सतगुरु की सेवा करते हैं।
ਜੁਗੁ ਜੁਗੁ ਭਗਤੀ ਆਖਿ ਵਖਾਣੀ ॥ प्रत्येक युग में भगवान् के भक्तों ने वाणी की रचना करके उसका बखान किया है।
ਅਨਦਿਨੁ ਜਪਹਿ ਹਰਿ ਸਾਰੰਗਪਾਣੀ ॥ वे दिन-रात प्रभु का सिमरन करते रहते हैं।


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