Guru Granth Sahib Translation Project

Guru Granth Sahib Hindi Page 155

Page 155

ਹਉ ਤੁਧੁ ਆਖਾ ਮੇਰੀ ਕਾਇਆ ਤੂੰ ਸੁਣਿ ਸਿਖ ਹਮਾਰੀ ॥ हे मेरी काया ! मैं तुझे फिर कहता हूँ, मेरी सीख को ध्यानपूर्वक सुन।
ਨਿੰਦਾ ਚਿੰਦਾ ਕਰਹਿ ਪਰਾਈ ਝੂਠੀ ਲਾਇਤਬਾਰੀ ॥ तुम दूसरों की निन्दा और प्रशंसा करती हो और झूठी चुगली करती रहती हो।
ਵੇਲਿ ਪਰਾਈ ਜੋਹਹਿ ਜੀਅੜੇ ਕਰਹਿ ਚੋਰੀ ਬੁਰਿਆਰੀ ॥ हे मन ! तुम पराई नारी को कुदृष्टि से देखते हो, तुम चोरी करते हो और कुकर्म करते हो।
ਹੰਸੁ ਚਲਿਆ ਤੂੰ ਪਿਛੈ ਰਹੀਏਹਿ ਛੁਟੜਿ ਹੋਈਅਹਿ ਨਾਰੀ ॥੨॥ हे मेरी काया ! जब आत्मा रूपी राजहंस निकल कर परलोक चला जाएगा तो तू यही परित्यक्ता स्त्री की तरह पीछे रह जाओगी।॥ २॥
ਤੂੰ ਕਾਇਆ ਰਹੀਅਹਿ ਸੁਪਨੰਤਰਿ ਤੁਧੁ ਕਿਆ ਕਰਮ ਕਮਾਇਆ ॥ हे मेरी काया ! तुम स्वप्न की तरह वास करती हो। तुमने कौन-सा शुभ कर्म किया है।
ਕਰਿ ਚੋਰੀ ਮੈ ਜਾ ਕਿਛੁ ਲੀਆ ਤਾ ਮਨਿ ਭਲਾ ਭਾਇਆ ॥ जब मैं चोरी करके कोई वस्तु लाया तो यह हृदय को अच्छा लगता रहा।
ਹਲਤਿ ਨ ਸੋਭਾ ਪਲਤਿ ਨ ਢੋਈ ਅਹਿਲਾ ਜਨਮੁ ਗਵਾਇਆ ॥੩॥ इस मृत्यु लोक में मुझे कोई शोभा नहीं मिली और परलोक में मुझे कोई सहारा नहीं मिलेगा। मैंने अपना अनमोल मानव जीवन व्यर्थ ही गंवा लिया है॥ ३॥
ਹਉ ਖਰੀ ਦੁਹੇਲੀ ਹੋਈ ਬਾਬਾ ਨਾਨਕ ਮੇਰੀ ਬਾਤ ਨ ਪੁਛੈ ਕੋਈ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ हे नानक ! मैं बहुत दुःखी हो गई हूँ, और कोई भी मेरी चिन्ता नहीं करता ॥ १॥ रहाउ॥
ਤਾਜੀ ਤੁਰਕੀ ਸੁਇਨਾ ਰੁਪਾ ਕਪੜ ਕੇਰੇ ਭਾਰਾ ॥ हे नानक ! यदि किसी के पास तुर्की घोड़े, सोना-चांदी एवं वस्त्रों के अम्बार हो,
ਕਿਸ ਹੀ ਨਾਲਿ ਨ ਚਲੇ ਨਾਨਕ ਝੜਿ ਝੜਿ ਪਏ ਗਵਾਰਾ ॥ हे मूर्ख मनुष्य ! इनमें से कुछ भी मृत्यु के बाद तुम्हारे साथ नहीं जाएगा। ये सांसारिक वस्तुएं शरीर से अलग हो जाती हैं और अंगारे की तरह नीचे गिर जाती हैं भाव ये सभी दुनिया में ही रह जाते हैं।
ਕੂਜਾ ਮੇਵਾ ਮੈ ਸਭ ਕਿਛੁ ਚਾਖਿਆ ਇਕੁ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਨਾਮੁ ਤੁਮਾਰਾ ॥੪॥ हे प्रभु! मैंने मिश्री एवं मेवा इत्यादि सभी फल खा कर देखे हैं, परन्तु एक तुम्हारा ही नाम अमृत रूप है॥ ४॥
ਦੇ ਦੇ ਨੀਵ ਦਿਵਾਲ ਉਸਾਰੀ ਭਸਮੰਦਰ ਕੀ ਢੇਰੀ ॥ गहरी नीवं रख-रख कर मनुष्य मकान की दीवार खड़ी करता है। परन्तु काल आने पर यह ध्वस्त होकर मिट्टी का ढेर बन जाता है।
ਸੰਚੇ ਸੰਚਿ ਨ ਦੇਈ ਕਿਸ ਹੀ ਅੰਧੁ ਜਾਣੈ ਸਭ ਮੇਰੀ ॥ मूर्ख प्राणी धन-दौलत संचित करता है और किसी से भी साझा नहीं करता। वह सोचता है कि सब कुछ उसका अपना है।
ਸੋਇਨ ਲੰਕਾ ਸੋਇਨ ਮਾੜੀ ਸੰਪੈ ਕਿਸੈ ਨ ਕੇਰੀ ॥੫॥ उसे याद नहीं रहता कि माया किसी के पास नहीं रहती। परन्तु यह नहीं जानता कि सोने की लंका, सोने के महल भी अंत में रावण के भी नहीं रहे। ॥ ५॥
ਸੁਣਿ ਮੂਰਖ ਮੰਨ ਅਜਾਣਾ ॥ ਹੋਗੁ ਤਿਸੈ ਕਾ ਭਾਣਾ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ हे मूर्ख एवं अज्ञानी मन ! मेरी बात सुनो,केवल परमेश्वर की इच्छा प्रबल होती है।॥ १॥ रहाउ॥
ਸਾਹੁ ਹਮਾਰਾ ਠਾਕੁਰੁ ਭਾਰਾ ਹਮ ਤਿਸ ਕੇ ਵਣਜਾਰੇ ॥ मेरा ठाकुर-प्रभु बहुत बड़ा साहूकार है और मैं उसका एक व्यापारी हूँ।मेरी आत्मा एवं शरीर यह सब उसकी दी हुई पूंजी है।
ਜੀਉ ਪਿੰਡੁ ਸਭ ਰਾਸਿ ਤਿਸੈ ਕੀ ਮਾਰਿ ਆਪੇ ਜੀਵਾਲੇ ॥੬॥੧॥੧੩॥ वह स्वयं ही जीवों को मारता है और जीवन देता है॥ ६॥ १॥ १३ ॥
ਗਉੜੀ ਚੇਤੀ ਮਹਲਾ ੧ ॥ राग गौड़ी चैती, प्रथम गुरु: १ ॥
ਅਵਰਿ ਪੰਚ ਹਮ ਏਕ ਜਨਾ ਕਿਉ ਰਾਖਉ ਘਰ ਬਾਰੁ ਮਨਾ ॥ हे मेरे मन ! मेरे काम, क्रोध, लोभ, मोह एवं अहंकार पाँच शत्रु हैं, मैं अकेला हूँ, मैं इन शत्रुओं से अपने सद्गुणों की रक्षा कैसे कर सकता हूँ।
ਮਾਰਹਿ ਲੂਟਹਿ ਨੀਤ ਨੀਤ ਕਿਸੁ ਆਗੈ ਕਰੀ ਪੁਕਾਰ ਜਨਾ ॥੧॥ ये पाँच मुझे प्रतिदिन मारते और लूटते रहते हैं। फिर मैं किस के समक्ष विनती करूं ॥ १॥
ਸ੍ਰੀ ਰਾਮ ਨਾਮਾ ਉਚਰੁ ਮਨਾ ॥ ਆਗੈ ਜਮ ਦਲੁ ਬਿਖਮੁ ਘਨਾ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ हे मेरे मन ! श्री राम के नाम का सिमरन कर।अन्यथा परलोक में तुम्हें मृत्यु के राक्षसों की एक बहुत शक्तिशाली सेना का सामना करना पड़ेगा।॥ १॥ रहाउ॥
ਉਸਾਰਿ ਮੜੋਲੀ ਰਾਖੈ ਦੁਆਰਾ ਭੀਤਰਿ ਬੈਠੀ ਸਾ ਧਨਾ ॥ परमात्मा ने देहि का दरवाजा बनाया है, इसको दस द्वार(आँख, कान, मुँह, आदि) लगाए हैं और इसके भीतर ईश्वर के आदेश से आत्मा रूपी स्त्री बैठी है।
ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਕੇਲ ਕਰੇ ਨਿਤ ਕਾਮਣਿ ਅਵਰਿ ਲੁਟੇਨਿ ਸੁ ਪੰਚ ਜਨਾ ॥੨॥ परन्तु वह स्वयं को अमर समझकर प्रतिदिन सांसारिक लीलाओं में लगी रहती है और पाँच चोर (काम, क्रोध, लोभ, अहंकार आदि) उसके सद्गुणों को लूटते रहते हैं।॥ २॥
ਢਾਹਿ ਮੜੋਲੀ ਲੂਟਿਆ ਦੇਹੁਰਾ ਸਾ ਧਨ ਪਕੜੀ ਏਕ ਜਨਾ ॥ अंततः मृत्यु देहि रूपी इमारत को ध्वस्त कर देती है, मन्दिर को लूट लेती है और आत्मा-दुल्हन को अकेले ही पकड़ लिया जाता है।
ਜਮ ਡੰਡਾ ਗਲਿ ਸੰਗਲੁ ਪੜਿਆ ਭਾਗਿ ਗਏ ਸੇ ਪੰਚ ਜਨਾ ॥੩॥ अकेले आत्मा को बुरे कर्मों के लिए मृत्यु के राक्षस यम द्वारा प्रताड़ित किया जाता है, बुरी प्रवृत्ति वाले पांचों विकार भाग जाते हैं। ॥ ३॥
ਕਾਮਣਿ ਲੋੜੈ ਸੁਇਨਾ ਰੁਪਾ ਮਿਤ੍ਰ ਲੁੜੇਨਿ ਸੁ ਖਾਧਾਤਾ ॥ कामिनी (जीव-स्त्री) सोने-चांदी के आभूषणों की माँग करती है, उसके संबंधी स्वादिष्ट भोजन पदार्थ मांगते रहते हैं।
ਨਾਨਕ ਪਾਪ ਕਰੇ ਤਿਨ ਕਾਰਣਿ ਜਾਸੀ ਜਮਪੁਰਿ ਬਾਧਾਤਾ ॥੪॥੨॥੧੪॥ हे नानक ! इनके लिए प्राणी पाप करता है। अंतत: पापों के कारण बंधा हुआ यम (मृत्यु) की नगरी में जाता है। ॥४॥२॥१४॥
ਗਉੜੀ ਚੇਤੀ ਮਹਲਾ ੧ ॥ राग गौड़ी चैती, प्रथम गुरु: १ ॥
ਮੁੰਦ੍ਰਾ ਤੇ ਘਟ ਭੀਤਰਿ ਮੁੰਦ੍ਰਾ ਕਾਂਇਆ ਕੀਜੈ ਖਿੰਥਾਤਾ ॥ हे योगी ! कानों में पहनने के बजाय, इन कुण्डलों को अपने मन में पहनो और अपनी बुरी इच्छाओं पर नियंत्रण रखो और मृत्यु में विश्वास को अपना पैबन्द लगा आवरण बनाओ।
ਪੰਚ ਚੇਲੇ ਵਸਿ ਕੀਜਹਿ ਰਾਵਲ ਇਹੁ ਮਨੁ ਕੀਜੈ ਡੰਡਾਤਾ ॥੧॥ हे योगी ! अपनी पांच इंद्रियों (वाणी, स्पर्श, गंध, दृष्टि और श्रवण) को अपना शिष्य बना लें और अपने मन को अपनी इंद्रियों को नियंत्रित करने वाली छड़ी बना लें। ॥ १॥
ਜੋਗ ਜੁਗਤਿ ਇਵ ਪਾਵਸਿਤਾ ॥ इस तरह तुझे योग करने की युक्ति मिल जाएगी।
ਏਕੁ ਸਬਦੁ ਦੂਜਾ ਹੋਰੁ ਨਾਸਤਿ ਕੰਦ ਮੂਲਿ ਮਨੁ ਲਾਵਸਿਤਾ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ एक प्रभु का नाम ही सदैव स्थिर है, शेष सब कुछ क्षणभंगुर है। अपने मन को नाम-सिमरन में लगा, यह नाम ही तेरे लिए कन्दमूल रूपी भोजन है॥ १॥ रहाउ॥
ਮੂੰਡਿ ਮੁੰਡਾਇਐ ਜੇ ਗੁਰੁ ਪਾਈਐ ਹਮ ਗੁਰੁ ਕੀਨੀ ਗੰਗਾਤਾ ॥ यदि गंगा पर जाकर सिर मुंडाने से गुरु मिलता है तो मैंने तो पहले ही गुरु को गंगा मान लिया है अर्थात् गुरु ही पवित्र तीर्थ है।
ਤ੍ਰਿਭਵਣ ਤਾਰਣਹਾਰੁ ਸੁਆਮੀ ਏਕੁ ਨ ਚੇਤਸਿ ਅੰਧਾਤਾ ॥੨॥ एक ईश्वर तीनों लोकों (के प्राणियों) को पार करने में समर्थ है। ज्ञानहीन मनुष्य प्रभु को स्मरण नहीं करता ॥ २॥
ਕਰਿ ਪਟੰਬੁ ਗਲੀ ਮਨੁ ਲਾਵਸਿ ਸੰਸਾ ਮੂਲਿ ਨ ਜਾਵਸਿਤਾ ॥ हे योगी ! तुम आडम्बर रचते हो और मौखिक बातों से अपने मन को लगाते हो। लेकिन तेरा संशय कदापि दूर नहीं होगा।


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