Guru Granth Sahib Translation Project

Guru Granth Sahib Hindi Page 1343

Page 1343

ਧਾਵਤੁ ਰਾਖੈ ਠਾਕਿ ਰਹਾਏ इससे चंचल मन काबू में आ जाता है और
ਸਚਾ ਨਾਮੁ ਮੰਨਿ ਵਸਾਏ ॥੪॥ सच्चा नाम मन में अवस्थित हो जाता है।॥ ४॥
ਬਿਸਮ ਬਿਨੋਦ ਰਹੇ ਪਰਮਾਦੀ ॥ प्रमाद उत्पन्न करने वाले खेल-तमाशे खत्म हो जाते हैं।
ਗੁਰਮਤਿ ਮਾਨਿਆ ਏਕ ਲਿਵ ਲਾਗੀ ॥ गुरु की शिक्षा पर भरोसा रखकर एक ईश्वर में ध्यान लगा रहता है।
ਦੇਖਿ ਨਿਵਾਰਿਆ ਜਲ ਮਹਿ ਆਗੀ ॥ दर्शन करके जीव तृष्णाग्नि को नाम जल से दूर कर देता है।
ਸੋ ਬੂਝੈ ਹੋਵੈ ਵਡਭਾਗੀ ॥੫॥ इस रहस्य को समझने वाला भाग्यशाली माना जाता है॥ ५॥
ਸਤਿਗੁਰੁ ਸੇਵੇ ਭਰਮੁ ਚੁਕਾਏ ॥ जीव यदि सतिगुरु की सेवा करे तो उसका हर भ्रम दूर हो जाता है,
ਅਨਦਿਨੁ ਜਾਗੈ ਸਚਿ ਲਿਵ ਲਾਏ ॥ वह दिन-रात जाग्रत रहकर ईश्वर में ध्यानस्थ रहता है।
ਏਕੋ ਜਾਣੈ ਅਵਰੁ ਨ ਕੋਇ ॥ ਸੁਖਦਾਤਾ ਸੇਵੇ ਨਿਰਮਲੁ ਹੋਇ ॥੬॥ एक परमशक्ति के अलावा वह किसी को नहीं मानता औरसुखदाता प्रभु की उपासना से वह निर्मल हो जाता है।॥ ६॥
ਸੇਵਾ ਸੁਰਤਿ ਸਬਦਿ ਵੀਚਾਰਿ ॥ जब शब्द के चिंतन द्वारा सेवा में ध्यान लगता है तो
ਜਪੁ ਤਪੁ ਸੰਜਮੁ ਹਉਮੈ ਮਾਰਿ ॥ अहंम् समाप्त हो जाता है, यही जप तप संयम है।
ਜੀਵਨ ਮੁਕਤੁ ਜਾ ਸਬਦੁ ਸੁਣਾਏ ॥ शब्द को सुनने वाला जीवन्मुक्त होता है और
ਸਚੀ ਰਹਤ ਸਚਾ ਸੁਖੁ ਪਾਏ ॥੭॥ सत्कर्म द्वारा सच्चा सुख पाता है॥ ७॥
ਸੁਖਦਾਤਾ ਦੁਖੁ ਮੇਟਣਹਾਰਾ ॥ ईश्वर सुख देने वाला है, सब दुखों को मिटाने वाला है
ਅਵਰੁ ਨ ਸੂਝਸਿ ਬੀਜੀ ਕਾਰਾ ॥ उसकी भक्ति के अतिरिक्त अन्य सब कर्म व्यर्थ हैं।
ਤਨੁ ਮਨੁ ਧਨੁ ਹਰਿ ਆਗੈ ਰਾਖਿਆ ॥ नानक का कथन है कि जो जिज्ञासु अपना तन-मन धन सर्वस्व प्रभु के सम्मुख अर्पण करता है,
ਨਾਨਕੁ ਕਹੈ ਮਹਾ ਰਸੁ ਚਾਖਿਆ ॥੮॥੨॥ उसे ही महारस प्राप्त होता है॥ ८॥ २॥
ਪ੍ਰਭਾਤੀ ਮਹਲਾ ੧ ॥ प्रभाती महला १ ॥
ਨਿਵਲੀ ਕਰਮ ਭੁਅੰਗਮ ਭਾਠੀ ਰੇਚਕ ਪੂਰਕ ਕੁੰਭ ਕਰੈ ॥ मनुष्य न्योली कर्म करता है, कुण्डलिनी द्वारा साँस को भरने, रोकने तथा छोड़ने की क्रिया करता है।
ਬਿਨੁ ਸਤਿਗੁਰ ਕਿਛੁ ਸੋਝੀ ਨਾਹੀ ਭਰਮੇ ਭੂਲਾ ਬੂਡਿ ਮਰੈ ॥ परन्तु सच्चे गुरु के बिना कोई ज्ञान नहीं होता और भ्रम में गलतियाँ करते हुए डूब मरता है।
ਅੰਧਾ ਭਰਿਆ ਭਰਿ ਭਰਿ ਧੋਵੈ ਅੰਤਰ ਕੀ ਮਲੁ ਕਦੇ ਨ ਲਹੈ ॥ अज्ञानांध व्यक्ति शरीर को तो खूब साफ करता है, परन्तु उसकी मन की मैल कभी नहीं उतरती।
ਨਾਮ ਬਿਨਾ ਫੋਕਟ ਸਭਿ ਕਰਮਾ ਜਿਉ ਬਾਜੀਗਰੁ ਭਰਮਿ ਭੁਲੈ ॥੧॥ प्रभु नाम के बिना सब कर्म व्यर्थ हैं, जिस प्रकार बाजीगर लोगों को भ्रम में डाल रखता है॥ १॥
ਖਟੁ ਕਰਮ ਨਾਮੁ ਨਿਰੰਜਨੁ ਸੋਈ ॥ परमात्मा का पावन नाम ही छः कर्म हैं।
ਤੂ ਗੁਣ ਸਾਗਰੁ ਅਵਗੁਣ ਮੋਹੀ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ हे प्रभु ! तू गुणों का सागर है, लेकिन मुझ में केवल अवगुण ही भरे हुए हैं।॥ १॥रहाउ॥
ਮਾਇਆ ਧੰਧਾ ਧਾਵਣੀ ਦੁਰਮਤਿ ਕਾਰ ਬਿਕਾਰ ॥ मनुष्य माया के धंधों में भागदौड़ करता है, खोटी बुद्धि के कारण विकारयुक्त कार्य करता है।
ਮੂਰਖੁ ਆਪੁ ਗਣਾਇਦਾ ਬੂਝਿ ਨ ਸਕੈ ਕਾਰ ॥ मूर्ख व्यक्ति अभिमान में आकर स्वयं को बड़ा मानता है, लेकिन सच्चे कार्य को नहीं समझता।
ਮਨਸਾ ਮਾਇਆ ਮੋਹਣੀ ਮਨਮੁਖ ਬੋਲ ਖੁਆਰ ॥ माया में मोहित होकर वह वासनाओं में फस जाता है, ऐसा स्वेच्छाचारी कटु वचन ही बोलता है।
ਮਜਨੁ ਝੂਠਾ ਚੰਡਾਲ ਕਾ ਫੋਕਟ ਚਾਰ ਸੀਂਗਾਰ ॥੨॥ उस चाण्डाल का स्नान भी झूठा होता है और चार प्रकार का कमों वाला श्रृंगार भी व्यर्थ सिद्ध होता है॥ २॥
ਝੂਠੀ ਮਨ ਕੀ ਮਤਿ ਹੈ ਕਰਣੀ ਬਾਦਿ ਬਿਬਾਦੁ ॥ उसकी मन की मति झूठी होती है और जीवन-आचरण वाद-विवाद ही बना रहता है।
ਝੂਠੇ ਵਿਚਿ ਅਹੰਕਰਣੁ ਹੈ ਖਸਮ ਨ ਪਾਵੈ ਸਾਦੁ ॥ ऐसा अहंकारी झूठ में फंसा रहता है और मालिक का आनंद नहीं पाता।
ਬਿਨੁ ਨਾਵੈ ਹੋਰੁ ਕਮਾਵਣਾ ਫਿਕਾ ਆਵੈ ਸਾਦੁ ॥ हरिनाम स्मरण बिना अन्य कर्म करने से आनंद प्राप्त नहीं होता।
ਦੁਸਟੀ ਸਭਾ ਵਿਗੁਚੀਐ ਬਿਖੁ ਵਾਤੀ ਜੀਵਣ ਬਾਦਿ ॥੩॥ दुष्ट लोगों की संगत में रहने से दुख ही मिलते हैं और जहर पाने से जिन्दगी समाप्त ही होती है।॥ ३॥
ਏ ਭ੍ਰਮਿ ਭੂਲੇ ਮਰਹੁ ਨ ਕੋਈ ॥ हे भ्रम में भूले हुए लोगो ! किसी भूल में मत पड़ो,
ਸਤਿਗੁਰੁ ਸੇਵਿ ਸਦਾ ਸੁਖੁ ਹੋਈ ॥ सतिगुरु की सेवा में तल्लीन रहने से सदैव सुख पाया जा सकता है।
ਬਿਨੁ ਸਤਿਗੁਰ ਮੁਕਤਿ ਕਿਨੈ ਨ ਪਾਈ ॥ सतिगुरु के बिना किसी ने भी मुक्ति प्राप्त नहीं की,
ਆਵਹਿ ਜਾਂਹਿ ਮਰਹਿ ਮਰਿ ਜਾਈ ॥੪॥ अन्यथा आवागमन में जीव बार-बार जन्मता-मरता है॥ ४॥
ਏਹੁ ਸਰੀਰੁ ਹੈ ਤ੍ਰੈ ਗੁਣ ਧਾਤੁ ॥ यह शरीर तीन गुणों का बना हुआ है और
ਇਸ ਨੋ ਵਿਆਪੈ ਸੋਗ ਸੰਤਾਪੁ ॥ इसे शोक-संताप सताते रहते हैं।
ਸੋ ਸੇਵਹੁ ਜਿਸੁ ਮਾਈ ਨ ਬਾਪੁ ॥ सो उस परमात्मा की उपासना करो, जिसकी कोई माता अथवा पिता नहीं।
ਵਿਚਹੁ ਚੂਕੈ ਤਿਸਨਾ ਅਰੁ ਆਪੁ ॥੫॥ मन से तृष्णा एवं अहम् को दूर करो॥ ५॥
ਜਹ ਜਹ ਦੇਖਾ ਤਹ ਤਹ ਸੋਈ ॥ मैं जहाँ भी देखता हूँ, वहाँ परमेश्वर ही विद्यमान है।
ਬਿਨੁ ਸਤਿਗੁਰ ਭੇਟੇ ਮੁਕਤਿ ਨ ਹੋਈ ॥ परन्तु सतगुरु से भेंट किए बिना मुक्ति नहीं होती।
ਹਿਰਦੈ ਸਚੁ ਏਹ ਕਰਣੀ ਸਾਰੁ ॥ हृदय में सत्य को धारण करना ही उत्तम कर्म है,
ਹੋਰੁ ਸਭੁ ਪਾਖੰਡੁ ਪੂਜ ਖੁਆਰੁ ॥੬॥ अन्य पूजा-पाठ सब पाखण्ड है॥ ६॥
ਦੁਬਿਧਾ ਚੂਕੈ ਤਾਂ ਸਬਦੁ ਪਛਾਣੁ ॥ जब दुविधा दूर होती है तो शब्द की पहचान हो जाती है।
ਘਰਿ ਬਾਹਰਿ ਏਕੋ ਕਰਿ ਜਾਣੁ ॥ तब जीव घर बाहर एक प्रभु को ही मानता है।
ਏਹਾ ਮਤਿ ਸਬਦੁ ਹੈ ਸਾਰੁ ॥ शब्द को मानना ही उत्तम बुद्धि है,
ਵਿਚਿ ਦੁਬਿਧਾ ਮਾਥੈ ਪਵੈ ਛਾਰੁ ॥੭॥ दुविधा में अपमान ही प्राप्त होता है॥ ७॥
ਕਰਣੀ ਕੀਰਤਿ ਗੁਰਮਤਿ ਸਾਰੁ ॥ गुरु का उत्तम सिद्धांत यही है कि शुभ कर्म ही परमात्मा का कीर्ति-गान करना है।
ਸੰਤ ਸਭਾ ਗੁਣ ਗਿਆਨੁ ਬੀਚਾਰੁ ॥ संत पुरुषों की संगत में प्रभु के गुणों एवं ज्ञान का चिंतन होता है।
ਮਨੁ ਮਾਰੇ ਜੀਵਤ ਮਰਿ ਜਾਣੁ ॥ जो मन की वासनाओं को समाप्त कर देता है, वही जीवन्मुक्त माना जाता है।
ਨਾਨਕ ਨਦਰੀ ਨਦਰਿ ਪਛਾਣੁ ॥੮॥੩॥ हे नानक ! परमात्मा की कृपा-दृष्टि से ही इसकी पहचान होती है।॥ ८॥ ३॥


© 2017 SGGS ONLINE
error: Content is protected !!
Scroll to Top