Guru Granth Sahib Translation Project

Guru Granth Sahib Hindi Page 1331

Page 1331

ਹੀਣੌ ਨੀਚੁ ਬੁਰੌ ਬੁਰਿਆਰੁ ॥ हीणौ नीचु बुरौ बुरिआरु ॥ हीन तथा नीच व्यक्ति बुरे से भी बुरा है।
ਨੀਧਨ ਕੌ ਧਨੁ ਨਾਮੁ ਪਿਆਰੁ ॥ नीधन कौ धनु नामु पिआरु ॥ निर्धन को हरिनाम धन ही प्यारा लगता है।
ਇਹੁ ਧਨੁ ਸਾਰੁ ਹੋਰੁ ਬਿਖਿਆ ਛਾਰੁ ॥੪॥ इहु धनु सारु होरु बिखिआ छारु ॥४॥ यह धन सार तत्व है, बाकी सब विकारों की धूल नात्र है॥ ४॥
ਉਸਤਤਿ ਨਿੰਦਾ ਸਬਦੁ ਵੀਚਾਰੁ ॥ ਜੋ ਦੇਵੈ ਤਿਸ ਕਉ ਜੈਕਾਰੁ ॥ उसतति निंदा सबदु वीचारु ॥ वह प्रभु किसी को प्रशंसा तो किसी को निंदा तथा किसी को शब्द-चिंतन की योग्यता प्रदान करता है।
ਤੂ ਬਖਸਹਿ ਜਾਤਿ ਪਤਿ ਹੋਇ ॥ जो देवै तिस कउ जैकारु ॥ उस देने वाले को हमारा वंदन है।
ਨਾਨਕੁ ਕਹੈ ਕਹਾਵੈ ਸੋਇ ॥੫॥੧੨॥ तू बखसहि जाति पति होइ ॥ जिस पर कृपा करता है, उसे ही मान-प्रतिष्ठा प्राप्त होती है
ਪ੍ਰਭਾਤੀ ਮਹਲਾ ੧ ॥ नानकु कहै कहावै सोइ ॥५॥१२॥ गुरु नानक का कथन है कि वह स्वयं ही सब करने वाला है ।॥ ५॥ १२॥
ਖਾਇਆ ਮੈਲੁ ਵਧਾਇਆ ਪੈਧੈ ਘਰ ਕੀ ਹਾਣਿ ॥ प्रभाती महला १ ॥ प्रभाती महला १ ॥
ਬਕਿ ਬਕਿ ਵਾਦੁ ਚਲਾਇਆ ਬਿਨੁ ਨਾਵੈ ਬਿਖੁ ਜਾਣਿ ॥੧॥ खाइआ मैलु वधाइआ पैधै घर की हाणि ॥ जीव खा-पीकर शरीर में मैल बढ़ाता है और बढ़िया वस्त्र पहनकर घर की हानि करता है।
ਬਾਬਾ ਐਸਾ ਬਿਖਮ ਜਾਲਿ ਮਨੁ ਵਾਸਿਆ ॥ बकि बकि वादु चलाइआ बिनु नावै बिखु जाणि ॥१॥ कड़वा बोलकर लड़ाई-झगड़ा उत्पन्न करता है, इस तरह प्रभु नाम बिना जहर ही है॥ १॥
ਬਿਬਲੁ ਝਾਗਿ ਸਹਜਿ ਪਰਗਾਸਿਆ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ बाबा ऐसा बिखम जालि मनु वासिआ ॥ हे बाबा ! कठिन जगत-जाल में फँसा हुआ मन
ਬਿਖੁ ਖਾਣਾ ਬਿਖੁ ਬੋਲਣਾ ਬਿਖੁ ਕੀ ਕਾਰ ਕਮਾਇ ॥ बिबलु झागि सहजि परगासिआ ॥१॥ रहाउ ॥ प्रभु-नाम के साबुन जल से धुलकर साफ हो जाता है॥ १॥रहाउ॥
ਜਮ ਦਰਿ ਬਾਧੇ ਮਾਰੀਅਹਿ ਛੂਟਸਿ ਸਾਚੈ ਨਾਇ ॥੨॥ बिखु खाणा बिखु बोलणा बिखु की कार कमाइ ॥ मनुष्य विष खाता है, जहर रूप कड़वा बोलता है और जहर रूप कुटिल कर्म करता है।
ਜਿਵ ਆਇਆ ਤਿਵ ਜਾਇਸੀ ਕੀਆ ਲਿਖਿ ਲੈ ਜਾਇ ॥ जम दरि बाधे मारीअहि छूटसि साचै नाइ ॥२॥ जिस कारण यमराज के द्वार पर दण्ड भोगता है, लेकिन परमात्मा का नाम जपने से मुक्ति पा सकता है॥ २॥
ਮਨਮੁਖਿ ਮੂਲੁ ਗਵਾਇਆ ਦਰਗਹ ਮਿਲੈ ਸਜਾਇ ॥੩॥ जिव आइआ तिव जाइसी कीआ लिखि लै जाइ ॥ मनुष्य जैसे खाली हाथ आता है, वैसे ही चला जाता है तथा कृत कर्मो का हिसाब साथ ले जाता है।
ਜਗੁ ਖੋਟੌ ਸਚੁ ਨਿਰਮਲੌ ਗੁਰ ਸਬਦੀਂ ਵੀਚਾਰਿ ॥ मनमुखि मूलु गवाइआ दरगह मिलै सजाइ ॥३॥ स्वेच्छाचारी गुणों की राशि गवां कर प्रभु के दरबार में दण्ड प्राप्त करता है॥ ३॥
ਤੇ ਨਰ ਵਿਰਲੇ ਜਾਣੀਅਹਿ ਜਿਨ ਅੰਤਰਿ ਗਿਆਨੁ ਮੁਰਾਰਿ ॥੪॥ जगु खोटौ सचु निरमलौ गुर सबदीं वीचारि ॥ शब्द-गुरु के चिंतन द्वारा बोध हुआ है कि संसार दोषयुक्त है, केवल सत्यस्वरूप ईश्वर ही पावन है।
ਅਜਰੁ ਜਰੈ ਨੀਝਰੁ ਝਰੈ ਅਮਰ ਅਨੰਦ ਸਰੂਪ ॥ ते नर विरले जाणीअहि जिन अंतरि गिआनु मुरारि ॥४॥ ऐसे व्यक्ति विरले ही माने जाते हैं, जिनके मन में ईश्वर का ज्ञान है॥ ४॥
ਨਾਨਕੁ ਜਲ ਕੌ ਮੀਨੁ ਸੈ ਥੇ ਭਾਵੈ ਰਾਖਹੁ ਪ੍ਰੀਤਿ ॥੫॥੧੩॥ अजरु जरै नीझरु झरै अमर अनंद सरूप ॥ अगर असह्य को सहन किया जाए तो अमर आनंद की धारा चलने लगती है।
ਪ੍ਰਭਾਤੀ ਮਹਲਾ ੧ ॥ नानकु जल कौ मीनु सै थे भावै राखहु प्रीति ॥५॥१३॥ गुरु नानक विनय करते हैं कि हे प्रभु ! जैसे मछली जल को चाहती है, वैसे ही हमारी तुमसे प्रीति बनी हुई है॥ ५॥ १३॥
ਗੀਤ ਨਾਦ ਹਰਖ ਚਤੁਰਾਈ ॥ प्रभाती महला १ ॥ प्रभाती महला १ ॥
ਰਹਸ ਰੰਗ ਫੁਰਮਾਇਸਿ ਕਾਈ ॥ गीत नाद हरख चतुराई ॥ गीत, संगीत, ख़ुशी, चतुराई,
ਪੈਨ੍ਹ੍ਹਣੁ ਖਾਣਾ ਚੀਤਿ ਨ ਪਾਈ ॥ रहस रंग फुरमाइसि काई ॥ रंगरलियां, फरमाइशें,
ਸਾਚੁ ਸਹਜੁ ਸੁਖੁ ਨਾਮਿ ਵਸਾਈ ॥੧॥ पैन्हणु खाणा चीति न पाई ॥ खाना-पहनना कुछ भी मन को पसंद नहीं आता।
ਕਿਆ ਜਾਨਾਂ ਕਿਆ ਕਰੈ ਕਰਾਵੈ ॥ साचु सहजु सुखु नामि वसाई ॥१॥ दरअसल परमात्मा के नाम में ही स्वाभाविक परम सुख मिलता है।॥ १॥
ਨਾਮ ਬਿਨਾ ਤਨਿ ਕਿਛੁ ਨ ਸੁਖਾਵੈ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ किआ जानां किआ करै करावै ॥ मैं नहीं जानता कि ईश्वर क्या करता है और क्या करवाता है।
ਜੋਗ ਬਿਨੋਦ ਸ੍ਵਾਦ ਆਨੰਦਾ ॥ नाम बिना तनि किछु न सुखावै ॥१॥ रहाउ ॥ हरिनामोच्चारण बिना शरीर को कुछ भी सुखकारी नहीं लगता॥ १॥रहाउ॥
ਮਤਿ ਸਤ ਭਾਇ ਭਗਤਿ ਗੋਬਿੰਦਾ ॥ जोग बिनोद स्वाद आनंदा ॥ इसी से योग की खुशी एवं आनंद है की
ਕੀਰਤਿ ਕਰਮ ਕਾਰ ਨਿਜ ਸੰਦਾ ॥ मति सत भाइ भगति गोबिंदा ॥ सच्चे प्रेम के फलस्वरूप ईश्वर की भक्ति मन में स्थित रहे ।
ਅੰਤਰਿ ਰਵਤੌ ਰਾਜ ਰਵਿੰਦਾ ॥੨॥ कीरति करम कार निज संदा ॥ परमात्मा का कीर्तिगान ही मेरा कर्म है।
ਪ੍ਰਿਉ ਪ੍ਰਿਉ ਪ੍ਰੀਤਿ ਪ੍ਰੇਮਿ ਉਰ ਧਾਰੀ ॥ अंतरि रवतौ राज रविंदा ॥२॥ अन्तर्मन में सूर्य-चांद की तरह प्रभु रमण कर रहा है।॥ २॥
ਦੀਨਾ ਨਾਥੁ ਪੀਉ ਬਨਵਾਰੀ ॥ प्रिउ प्रिउ प्रीति प्रेमि उर धारी ॥ प्रियतम प्रभु का प्रेम मन में धारण कर लिया है,
ਅਨਦਿਨੁ ਨਾਮੁ ਦਾਨੁ ਬ੍ਰਤਕਾਰੀ ॥ दीना नाथु पीउ बनवारी ॥ वह दीन-दुखियों का हमदर्द है।
ਤ੍ਰਿਪਤਿ ਤਰੰਗ ਤਤੁ ਬੀਚਾਰੀ ॥੩॥ अनदिनु नामु दानु ब्रतकारी ॥ मैं प्रतिदिन उसके नाम का व्रत रखता हूँ।
ਅਕਥੌ ਕਥਉ ਕਿਆ ਮੈ ਜੋਰੁ ॥ त्रिपति तरंग ततु बीचारी ॥३॥ परमतत्व का चिंतन करने से मन को तृप्ति प्राप्त हुई है॥ ३॥
ਭਗਤਿ ਕਰੀ ਕਰਾਇਹਿ ਮੋਰ ॥ अकथौ कथउ किआ मै जोरु ॥ मुझ में इतनी योग्यता नहीं केि मैं अकथनीय प्रभु के गुण कथन कर सकूं।
ਅੰਤਰਿ ਵਸੈ ਚੂਕੈ ਮੈ ਮੋਰ ॥ भगति करी कराइहि मोर ॥ यदि वह करवाए तो ही उसकी भक्ति कर सकता हूँ।
ਕਿਸੁ ਸੇਵੀ ਦੂਜਾ ਨਹੀ ਹੋਰੁ ॥੪॥ अंतरि वसै चूकै मै मोर ॥ अहम्-भाव दूर होने पर ही वह मन में बसता है।
ਗੁਰ ਕਾ ਸਬਦੁ ਮਹਾ ਰਸੁ ਮੀਠਾ ॥ किसु सेवी दूजा नही होरु ॥४॥ हे विधाता ! तुझ बिन मैं किसकी उपासना करूं, क्योंकि तेरे सिवा कोई बड़ा नहीं॥ ४॥
ਐਸਾ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਅੰਤਰਿ ਡੀਠਾ ॥ गुर का सबदु महा रसु मीठा ॥ गुरु का उपदेश मीठा महारस है,
ਜਿਨਿ ਚਾਖਿਆ ਪੂਰਾ ਪਦੁ ਹੋਇ ॥ ऐसा अम्रितु अंतरि डीठा ॥ इस अमृत को मन में देख लिया है।
ਨਾਨਕ ਧ੍ਰਾਪਿਓ ਤਨਿ ਸੁਖੁ ਹੋਇ ॥੫॥੧੪॥ जिनि चाखिआ पूरा पदु होइ ॥ जिसने भी इसे चखा है, उसे ही पूर्ण अवस्था प्राप्त हुई है।
ਪ੍ਰਭਾਤੀ ਮਹਲਾ ੧ ॥ नानक ध्रापिओ तनि सुखु होइ ॥५॥१४॥ हे नानक ! वह तृप्त हो गया है और उसके तन को सुख उपलब्ध हुआ।॥५॥१४॥
ਅੰਤਰਿ ਦੇਖਿ ਸਬਦਿ ਮਨੁ ਮਾਨਿਆ ਅਵਰੁ ਨ ਰਾਂਗਨਹਾਰਾ ॥ प्रभाती महला १ ॥ प्रभाती महला १ ॥
ਅਹਿਨਿਸਿ ਜੀਆ ਦੇਖਿ ਸਮਾਲੇ ਤਿਸ ਹੀ ਕੀ ਸਰਕਾਰਾ ॥੧॥ अंतरि देखि सबदि मनु मानिआ अवरु न रांगनहारा ॥ अन्तर्मन में प्रभु-शब्द को देखकर मन प्रसन्न हो गया है, मन में यही निष्ठा है कि उस दाता के सिवा अन्य कोई प्रेम,भक्ति में रंगने वाला नहीं।
ਮੇਰਾ ਪ੍ਰਭੁ ਰਾਂਗਿ ਘਣੌ ਅਤਿ ਰੂੜੌ ॥ अहिनिसि जीआ देखि समाले तिस ही की सरकारा ॥१॥ वह नित्य जीवों का पालन-पोषण करता है, केवल उसी की सार्वभौमिकता है॥ १॥
ਦੀਨ ਦਇਆਲੁ ਪ੍ਰੀਤਮ ਮਨਮੋਹਨੁ ਅਤਿ ਰਸ ਲਾਲ ਸਗੂੜੌ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ मेरा प्रभु रांगि घणौ अति रूड़ौ ॥ मेरे प्रभु का प्रेम-रंग अत्यंत गहरा है, वह अत्यंन्त सुन्दर है।
ਊਪਰਿ ਕੂਪੁ ਗਗਨ ਪਨਿਹਾਰੀ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਪੀਵਣਹਾਰਾ ॥ दीन दइआलु प्रीतम मनमोहनु अति रस लाल सगूड़ौ ॥१॥ रहाउ ॥ वह दीन-दुखियों पर सदैव दयालु है, मन को मोहित करने वाला प्रियतम है, उसका प्रेम अत्यंत गहरा है॥ १॥रहाउ॥
ਜਿਸ ਕੀ ਰਚਨਾ ਸੋ ਬਿਧਿ ਜਾਣੈ ਗੁਰਮੁਖਿ ਗਿਆਨੁ ਵੀਚਾਰਾ ॥੨॥ ऊपरि कूपु गगन पनिहारी अम्रितु पीवणहारा ॥ ऊपर आकाश (दसम द्वार) में कुआँ है, बुद्धि पानी भरने वाली है और मन उस कुएँ का नामामृत पीता है।


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