Guru Granth Sahib Translation Project

Guru Granth Sahib Hindi Page 1285

Page 1285

ਇਕਿ ਨਗਨ ਫਿਰਹਿ ਦਿਨੁ ਰਾਤਿ ਨੀਦ ਨ ਸੋਵਹੀ ॥ इकि नगन फिरहि दिनु राति नींद न सोवही ॥ कई लोग नग्न ही घूमते हैं, दिन-रात सोते तक नहीं।
ਇਕਿ ਅਗਨਿ ਜਲਾਵਹਿ ਅੰਗੁ ਆਪੁ ਵਿਗੋਵਹੀ ॥ इकि अगनि जलावहि अंगु आपु विगोवही ॥ कुछ आग जलाकर अपने अंगों को बिगाड़ते हैं।
ਵਿਣੁ ਨਾਵੈ ਤਨੁ ਛਾਰੁ ਕਿਆ ਕਹਿ ਰੋਵਹੀ ॥ विणु नावै तनु छारु किआ कहि रोवही ॥ प्रभु के नाम बिना शरीर राख बन जाता है, किसी की मृत्यु पर रोने का क्या फायदा।
ਸੋਹਨਿ ਖਸਮ ਦੁਆਰਿ ਜਿ ਸਤਿਗੁਰੁ ਸੇਵਹੀ ॥੧੫॥ सोहनि खसम दुआरि जि सतिगुरु सेवही ॥१५॥ जो सतिगुरु की सेवा करते हैं, मालिक के द्वार पर वही शोभा देते हैं।॥१५॥
ਸਲੋਕ ਮਃ ੩ ॥ सलोक मः ३ ॥ श्लोक महला ३॥
ਬਾਬੀਹਾ ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਵੇਲੈ ਬੋਲਿਆ ਤਾਂ ਦਰਿ ਸੁਣੀ ਪੁਕਾਰ ॥ बाबीहा अम्रित वेलै बोलिआ तां दरि सुणी पुकार ॥ जब भोर के समय पपीहे ने फरियाद की तो प्रभु के दरबार में सुनी गई।
ਮੇਘੈ ਨੋ ਫੁਰਮਾਨੁ ਹੋਆ ਵਰਸਹੁ ਕਿਰਪਾ ਧਾਰਿ ॥ मेघै नो फुरमानु होआ वरसहु किरपा धारि ॥ बादलों को हुक्म हुआ कि कृपा करके वर्षा करो।
ਹਉ ਤਿਨ ਕੈ ਬਲਿਹਾਰਣੈ ਜਿਨੀ ਸਚੁ ਰਖਿਆ ਉਰਿ ਧਾਰਿ ॥ हउ तिन कै बलिहारणै जिनी सचु रखिआ उरि धारि ॥ मैं उन पर कुर्बान जाता हूँ, जिन्होंने ईश्वर को मन में बसा लिया है।
ਨਾਨਕ ਨਾਮੇ ਸਭ ਹਰੀਆਵਲੀ ਗੁਰ ਕੈ ਸਬਦਿ ਵੀਚਾਰਿ ॥੧॥ नानक नामे सभ हरीआवली गुर कै सबदि वीचारि ॥१॥ हे नानक ! गुरु के उपदेश द्वारा मनन कर लो, प्रभु के नाम से सब हरा-भरा हो जाता है॥१॥
ਮਃ ੩ ॥ मः ३ ॥ महला ३॥
ਬਾਬੀਹਾ ਇਵ ਤੇਰੀ ਤਿਖਾ ਨ ਉਤਰੈ ਜੇ ਸਉ ਕਰਹਿ ਪੁਕਾਰ ॥ बाबीहा इव तेरी तिखा न उतरै जे सउ करहि पुकार ॥ हे पपीहे ! यदि सौ बार भी फरियाद करोगे तो इस तरह तेरी प्यास दूर नहीं होगी।
ਨਦਰੀ ਸਤਿਗੁਰੁ ਪਾਈਐ ਨਦਰੀ ਉਪਜੈ ਪਿਆਰੁ ॥ नदरी सतिगुरु पाईऐ नदरी उपजै पिआरु ॥ प्रभु-कृपा से सतगुरु प्राप्त होता है और कृपा से ही प्रेम उत्पन्न होता है।
ਨਾਨਕ ਸਾਹਿਬੁ ਮਨਿ ਵਸੈ ਵਿਚਹੁ ਜਾਹਿ ਵਿਕਾਰ ॥੨॥ नानक साहिबु मनि वसै विचहु जाहि विकार ॥२॥ हे नानक ! जब मालिक मन में बस जाता है तो सब विकार दूर हो जाते हैं।॥२॥
ਪਉੜੀ ॥ पउड़ी ॥ पउड़ी॥
ਇਕਿ ਜੈਨੀ ਉਝੜ ਪਾਇ ਧੁਰਹੁ ਖੁਆਇਆ ॥ इकि जैनी उझड़ पाइ धुरहु खुआइआ ॥ कुछ जैनी लोग हैं, पथभ्रष्ट रहते हैं, विधाता ने आरम्भ से ही उनका ऐसा भाग्य बनाया है।
ਤਿਨ ਮੁਖਿ ਨਾਹੀ ਨਾਮੁ ਨ ਤੀਰਥਿ ਨ੍ਹ੍ਹਾਇਆ ॥ तिन मुखि नाही नामु न तीरथि न्हाइआ ॥ वे मुँह से प्रभु-नाम का भजन नहीं करते और न ही तीर्थो पर स्नान करते हैं।
ਹਥੀ ਸਿਰ ਖੋਹਾਇ ਨ ਭਦੁ ਕਰਾਇਆ ॥ हथी सिर खोहाइ न भदु कराइआ ॥ वे अपना सिर नहीं मुंडवाते बल्कि हाथों से सिर के बाल खींचकर निकाल देते हैं।
ਕੁਚਿਲ ਰਹਹਿ ਦਿਨ ਰਾਤਿ ਸਬਦੁ ਨ ਭਾਇਆ ॥ कुचिल रहहि दिन राति सबदु न भाइआ ॥ वे दिन-रात मैले ही रहते हैं और उनको ईश्वर-शब्द से प्रेम नहीं होता।
ਤਿਨ ਜਾਤਿ ਨ ਪਤਿ ਨ ਕਰਮੁ ਜਨਮੁ ਗਵਾਇਆ ॥ तिन जाति न पति न करमु जनमु गवाइआ ॥ न उनकी जाति है, न प्रतिष्ठा है, न ही कोई कर्म है, इस तरह वे अपना जीवन व्यर्थ ही गंवा देते हैं।
ਮਨਿ ਜੂਠੈ ਵੇਜਾਤਿ ਜੂਠਾ ਖਾਇਆ ॥ मनि जूठै वेजाति जूठा खाइआ ॥ ऐसे लोगों के मन में जूठन ही विद्यमान होती है और जूठन का ही भोजन लेते हैं।
ਬਿਨੁ ਸਬਦੈ ਆਚਾਰੁ ਨ ਕਿਨ ਹੀ ਪਾਇਆ ॥ बिनु सबदै आचारु न किन ही पाइआ ॥ शब्द-गुरु के आचरण के बिना किसी को परमेश्वर प्राप्त नहीं हुआ।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਓਅੰਕਾਰਿ ਸਚਿ ਸਮਾਇਆ ॥੧੬॥ गुरमुखि ओअंकारि सचि समाइआ ॥१६॥ जो गुरमुख बन जाता है, वह ऑकार में ही लीन रहता है॥१६॥
ਸਲੋਕ ਮਃ ੩ ॥ सलोक मः ३ ॥ श्लोक महला ३॥
ਸਾਵਣਿ ਸਰਸੀ ਕਾਮਣੀ ਗੁਰ ਸਬਦੀ ਵੀਚਾਰਿ ॥ सावणि सरसी कामणी गुर सबदी वीचारि ॥ सावन के महीने में गुरु के उपदेश का चिंतन करने वाली जीव-स्त्री ही प्रसन्न होती है।
ਨਾਨਕ ਸਦਾ ਸੁਹਾਗਣੀ ਗੁਰ ਕੈ ਹੇਤਿ ਅਪਾਰਿ ॥੧॥ नानक सदा सुहागणी गुर कै हेति अपारि ॥१॥ हे नानक ! गुरु के प्रेम से वह सदा सुहागिन रहती है।॥१॥
ਮਃ ੩ ॥ मः ३ ॥ महला ३॥
ਸਾਵਣਿ ਦਝੈ ਗੁਣ ਬਾਹਰੀ ਜਿਸੁ ਦੂਜੈ ਭਾਇ ਪਿਆਰੁ ॥ सावणि दझै गुण बाहरी जिसु दूजै भाइ पिआरु ॥ जिसे द्वैतभाव से प्रेम होता है, ऐसी गुणविहीन स्त्री सावन के मौसम में भी दुखों में ही जलती है।
ਨਾਨਕ ਪਿਰ ਕੀ ਸਾਰ ਨ ਜਾਣਈ ਸਭੁ ਸੀਗਾਰੁ ਖੁਆਰੁ ॥੨॥ नानक पिर की सार न जाणई सभु सीगारु खुआरु ॥२॥ हे नानक ! वह पति-प्रभु की कद्र नहीं जानती और उसके सब श्रृंगार व्यर्थ ही सिद्ध होते हैं॥२॥
ਪਉੜੀ ॥ पउड़ी ॥ पउड़ी॥
ਸਚਾ ਅਲਖ ਅਭੇਉ ਹਠਿ ਨ ਪਤੀਜਈ ॥ सचा अलख अभेउ हठि न पतीजई ॥ वह सच्चा अदृष्ट अभेद परमात्मा हठ कर्म से नहीं रीझता।
ਇਕਿ ਗਾਵਹਿ ਰਾਗ ਪਰੀਆ ਰਾਗਿ ਨ ਭੀਜਈ ॥ इकि गावहि राग परीआ रागि न भीजई ॥ कोई राग-रागनियां गाता है, इससे भी वह खुश नहीं होता।
ਇਕਿ ਨਚਿ ਨਚਿ ਪੂਰਹਿ ਤਾਲ ਭਗਤਿ ਨ ਕੀਜਈ ॥ इकि नचि नचि पूरहि ताल भगति न कीजई ॥ कुछ अनेक तालों पर नाचते हैं, परन्तु भक्ति नहीं करते।
ਇਕਿ ਅੰਨੁ ਨ ਖਾਹਿ ਮੂਰਖ ਤਿਨਾ ਕਿਆ ਕੀਜਈ ॥ इकि अंनु न खाहि मूरख तिना किआ कीजई ॥ कोई भोजन खाना छोड़ देते हैं, इन मूर्खों का क्या किया जाए।
ਤ੍ਰਿਸਨਾ ਹੋਈ ਬਹੁਤੁ ਕਿਵੈ ਨ ਧੀਜਈ ॥ त्रिसना होई बहुतु किवै न धीजई ॥ मन में बहुत तृष्णा उत्पन्न होती है और किसी भी प्रकार से धैर्य नहीं होता।
ਕਰਮ ਵਧਹਿ ਕੈ ਲੋਅ ਖਪਿ ਮਰੀਜਈ ॥ करम वधहि कै लोअ खपि मरीजई ॥ अनेक लोग कर्मकाण्ड में फंसकर मर खप जाते हैं।
ਲਾਹਾ ਨਾਮੁ ਸੰਸਾਰਿ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਪੀਜਈ ॥ लाहा नामु संसारि अम्रितु पीजई ॥ संसार में हरिनाम अमृत का पान ही लाभदायक है।
ਹਰਿ ਭਗਤੀ ਅਸਨੇਹਿ ਗੁਰਮੁਖਿ ਘੀਜਈ ॥੧੭॥ हरि भगती असनेहि गुरमुखि घीजई ॥१७॥ गुरु के द्वारा परमात्मा की भक्ति-में स्नेह पैदा होता है॥१७॥
ਸਲੋਕ ਮਃ ੩ ॥ सलोक मः ३ ॥ श्लोक महला ३॥
ਗੁਰਮੁਖਿ ਮਲਾਰ ਰਾਗੁ ਜੋ ਕਰਹਿ ਤਿਨ ਮਨੁ ਤਨੁ ਸੀਤਲੁ ਹੋਇ ॥ गुरमुखि मलार रागु जो करहि तिन मनु तनु सीतलु होइ ॥ जो गुरु के निर्देशानुसार मलार राग गाता है, उसके मन तन को शान्ति प्राप्त होती हैं।
ਗੁਰ ਸਬਦੀ ਏਕੁ ਪਛਾਣਿਆ ਏਕੋ ਸਚਾ ਸੋਇ ॥ गुर सबदी एकु पछाणिआ एको सचा सोइ ॥ गुरु की शिक्षा से एक प्रभु की पहचान होती है और एकमात्र वही सच्चा है।
ਮਨੁ ਤਨੁ ਸਚਾ ਸਚੁ ਮਨਿ ਸਚੇ ਸਚੀ ਸੋਇ ॥ मनु तनु सचा सचु मनि सचे सची सोइ ॥ जिसके मन में सच्चा प्रभु अवस्थित होता है, उसी का मन सच्चा होता है और वह सच्चे की उपासना में ही लीन रहता है।
ਅੰਦਰਿ ਸਚੀ ਭਗਤਿ ਹੈ ਸਹਜੇ ਹੀ ਪਤਿ ਹੋਇ ॥ अंदरि सची भगति है सहजे ही पति होइ ॥ जिसके अन्तर्मन में सच्ची भक्ति उत्पन्न होती है, वह स्वाभाविक ही सम्मान प्राप्त करता है।
ਕਲਿਜੁਗ ਮਹਿ ਘੋਰ ਅੰਧਾਰੁ ਹੈ ਮਨਮੁਖ ਰਾਹੁ ਨ ਕੋਇ ॥ कलिजुग महि घोर अंधारु है मनमुख राहु न कोइ ॥ कलियुग में अज्ञान का घोर अंधकार फैला हुआ है, स्वेच्छाचारी को कोई रास्ता नहीं मिलता।
ਸੇ ਵਡਭਾਗੀ ਨਾਨਕਾ ਜਿਨ ਗੁਰਮੁਖਿ ਪਰਗਟੁ ਹੋਇ ॥੧॥ से वडभागी नानका जिन गुरमुखि परगटु होइ ॥१॥ हे नानक ! गुरु के द्वारा जिनके अन्तर्मन में प्रभु प्रगट होता है, वही भाग्यशाली हैं।॥१॥
ਮਃ ੩ ॥ मः ३ ॥ महला ३॥
ਇੰਦੁ ਵਰਸੈ ਕਰਿ ਦਇਆ ਲੋਕਾਂ ਮਨਿ ਉਪਜੈ ਚਾਉ ॥ इंदु वरसै करि दइआ लोकां मनि उपजै चाउ ॥ जब दया करके इन्द्र देवता बारिश करता है तो लोगों के मन में चाव उत्पन्न हो जाता है।
ਜਿਸ ਕੈ ਹੁਕਮਿ ਇੰਦੁ ਵਰਸਦਾ ਤਿਸ ਕੈ ਸਦ ਬਲਿਹਾਰੈ ਜਾਂਉ ॥ जिस कै हुकमि इंदु वरसदा तिस कै सद बलिहारै जांउ ॥ जिस परमात्मा के हुक्म से इन्द्र देवता वर्षा करता है, मैं उस पर सदैव बलिहारी जाता हूँ।


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