Guru Granth Sahib Translation Project

Guru Granth Sahib Hindi Page 680

Page 680

ਠਾਕੁਰੁ ਗਾਈਐ ਆਤਮ ਰੰਗਿ ॥ आत्मा के स्नेह से जगत के ठाकुर परमात्मा का स्तुतिगान करना चाहिए।
ਸਰਣੀ ਪਾਵਨ ਨਾਮ ਧਿਆਵਨ ਸਹਜਿ ਸਮਾਵਨ ਸੰਗਿ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ उसकी शरण लेने से एवं नाम-स्मरण करने से मनुष्य सहज ही उसके साथ समा जाता है॥ १ ॥ रहाउ ॥
ਜਨ ਕੇ ਚਰਨ ਵਸਹਿ ਮੇਰੈ ਹੀਅਰੈ ਸੰਗਿ ਪੁਨੀਤਾ ਦੇਹੀ ॥ भगवान के भक्तों के चरण मेरे हृदय में निवास करते है और उनकी संगति करने से मेरा तन पवित्र हो गया है।
ਜਨ ਕੀ ਧੂਰਿ ਦੇਹੁ ਕਿਰਪਾ ਨਿਧਿ ਨਾਨਕ ਕੈ ਸੁਖੁ ਏਹੀ ॥੨॥੪॥੩੫॥ हे कृपा के भण्डार ! नानक के लिए तो यही परम-सुख है कि मुझे अपने भक्तों की चरण-धूलि प्रदान करो ॥ २॥ ४॥ ३५॥
ਧਨਾਸਰੀ ਮਹਲਾ ੫ ॥ धनासरी महला ५ ॥
ਜਤਨ ਕਰੈ ਮਾਨੁਖ ਡਹਕਾਵੈ ਓਹੁ ਅੰਤਰਜਾਮੀ ਜਾਨੈ ॥ लोभी आदमी अनेक प्रयास करता है एवं अन्य लोगों से बड़ा छल-कपट करता है परन्तु अन्तर्यामी ईश्वर सब कुछ जानता है।
ਪਾਪ ਕਰੇ ਕਰਿ ਮੂਕਰਿ ਪਾਵੈ ਭੇਖ ਕਰੈ ਨਿਰਬਾਨੈ ॥੧॥ आदमी त्यागी साधुओं वाला भेष बनाकर रखता है। लेकिन फिर भी वह बहुत पाप करता रहता है परन्तु पाप करके भी मुकरता रहता है॥ १॥
ਜਾਨਤ ਦੂਰਿ ਤੁਮਹਿ ਪ੍ਰਭ ਨੇਰਿ ॥ हे प्रभु ! तू सब जीवों के निकट ही रहता है, परन्तु वह तुझे कहीं दूर ही समझते हैं।
ਉਤ ਤਾਕੈ ਉਤ ਤੇ ਉਤ ਪੇਖੈ ਆਵੈ ਲੋਭੀ ਫੇਰਿ ॥ ਰਹਾਉ ॥ लोभी आदमी इधर-उधर झांकता है, फिर इधर-उधर देखता है और धन-दौलत के चक्र में ही फंसा रहता है।॥ रहाउ ॥
ਜਬ ਲਗੁ ਤੁਟੈ ਨਾਹੀ ਮਨ ਭਰਮਾ ਤਬ ਲਗੁ ਮੁਕਤੁ ਨ ਕੋਈ ॥ जब तक मनुष्य के मन का भ्रम नाश नहीं होता, तब तक कोई भी माया के बन्धनों से मुक्त नहीं होता।
ਕਹੁ ਨਾਨਕ ਦਇਆਲ ਸੁਆਮੀ ਸੰਤੁ ਭਗਤੁ ਜਨੁ ਸੋਈ ॥੨॥੫॥੩੬॥ हे नानक ! जिस पर सृष्टि का स्वामी भगवान दयालु हो जाता है, वास्तव में वही संत एवं वही भक्त है॥ २॥ ५ ॥ ३६॥
ਧਨਾਸਰੀ ਮਹਲਾ ੫ ॥ धनासरी महला ५ ॥
ਨਾਮੁ ਗੁਰਿ ਦੀਓ ਹੈ ਅਪੁਨੈ ਜਾ ਕੈ ਮਸਤਕਿ ਕਰਮਾ ॥ जिसके माथे पर शुभ भाग्य है, गुरु ने अपने उस सेवक को नाम ही प्रदान किया है।
ਨਾਮੁ ਦ੍ਰਿੜਾਵੈ ਨਾਮੁ ਜਪਾਵੈ ਤਾ ਕਾ ਜੁਗ ਮਹਿ ਧਰਮਾ ॥੧॥ इस युग में गुरु का यही धर्म है कि वह अपने सेवकों को नाम का जाप करवाता है और नाम ही उनके मन में दृढ़ करता है॥१॥
ਜਨ ਕਉ ਨਾਮੁ ਵਡਾਈ ਸੋਭ ॥ प्रभु के दास के लिए नाम ही उसकी बड़ाई है और नाम ही उसकी शोभा है।
ਨਾਮੋ ਗਤਿ ਨਾਮੋ ਪਤਿ ਜਨ ਕੀ ਮਾਨੈ ਜੋ ਜੋ ਹੋਗ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ परमात्मा का नाम ही उसकी मुक्ति है और नाम ही उसकी लाज-प्रतिष्ठा है।जो कुछ भी ईश्वरेच्छा में होता है, वह उसे भला ही समझता है॥ १॥ रहाउ॥
ਨਾਮ ਧਨੁ ਜਿਸੁ ਜਨ ਕੈ ਪਾਲੈ ਸੋਈ ਪੂਰਾ ਸਾਹਾ ॥ जिस व्यक्ति के पास नाम का धन है, वही पूर्ण साहूकार है।
ਨਾਮੁ ਬਿਉਹਾਰਾ ਨਾਨਕ ਆਧਾਰਾ ਨਾਮੁ ਪਰਾਪਤਿ ਲਾਹਾ ॥੨॥੬॥੩੭॥ हे नानक ! प्रभु का नाम ही उस मनुष्य का व्यवसाय है, नाम का ही उसे सहारा है और वह नाम रूपी लाभ ही प्राप्त करता है॥ २ ॥ ६ ॥ ३७ ॥
ਧਨਾਸਰੀ ਮਹਲਾ ੫ ॥ धनासरी महला ५ ॥
ਨੇਤ੍ਰ ਪੁਨੀਤ ਭਏ ਦਰਸ ਪੇਖੇ ਮਾਥੈ ਪਰਉ ਰਵਾਲ ॥ भगवान के दर्शन करके मेरे नेत्र पावन हो गए हैं। मेरे माथे पर उसकी चरण-धूलि ही पड़ी रहे।
ਰਸਿ ਰਸਿ ਗੁਣ ਗਾਵਉ ਠਾਕੁਰ ਕੇ ਮੋਰੈ ਹਿਰਦੈ ਬਸਹੁ ਗੋਪਾਲ ॥੧॥ हे गोपाल ! मेरे हृदय में आकर बस जाओ। मैं तो स्वाद ले-लेकर ठाकुर जी के ही गुण गाता रहता हूँ॥१॥
ਤੁਮ ਤਉ ਰਾਖਨਹਾਰ ਦਇਆਲ ॥ हे दयालु परमेश्वर ! तुम सबके रखवाले हो।
ਸੁੰਦਰ ਸੁਘਰ ਬੇਅੰਤ ਪਿਤਾ ਪ੍ਰਭ ਹੋਹੁ ਪ੍ਰਭੂ ਕਿਰਪਾਲ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ हे मेरे प्रभु-पिता ! तुम बड़े सुन्दर, चतुर एवं अनन्त हो। मुझ पर भी कृपालु हो जाओ॥ १॥ रहाउ॥
ਮਹਾ ਅਨੰਦ ਮੰਗਲ ਰੂਪ ਤੁਮਰੇ ਬਚਨ ਅਨੂਪ ਰਸਾਲ ॥ हे महा आनंद एवं प्रसन्नता के रूप ! तुम्हारी वाणी बड़ी अनूप एवं अमृत का घर है।
ਹਿਰਦੈ ਚਰਣ ਸਬਦੁ ਸਤਿਗੁਰ ਕੋ ਨਾਨਕ ਬਾਂਧਿਓ ਪਾਲ ॥੨॥੭॥੩੮॥ हे नानक ! मेरे हृदय में भगवान के चरण कमल बस गए हैं और मैंने गुरु का शब्द अपने दामन में बाँध लिया है॥ २॥ ७॥ ३८ ॥
ਧਨਾਸਰੀ ਮਹਲਾ ੫ ॥ धनासरी महला ५ ॥
ਅਪਨੀ ਉਕਤਿ ਖਲਾਵੈ ਭੋਜਨ ਅਪਨੀ ਉਕਤਿ ਖੇਲਾਵੈ ॥ अपनी युक्ति से ही भगवान हमें भोजन खिलाता है और अपनी युक्ति से ही हमें (जीवन की) खेल खेलाता है।
ਸਰਬ ਸੂਖ ਭੋਗ ਰਸ ਦੇਵੈ ਮਨ ਹੀ ਨਾਲਿ ਸਮਾਵੈ ॥੧॥ वह हमें समस्त सुख एवं स्वादिष्ट भोजन देता है और हमारे मन में ही रहता है ॥ १॥
ਹਮਰੇ ਪਿਤਾ ਗੋਪਾਲ ਦਇਆਲ ॥ दया का घर परमेश्वर हमारा पिता है।
ਜਿਉ ਰਾਖੈ ਮਹਤਾਰੀ ਬਾਰਿਕ ਕਉ ਤੈਸੇ ਹੀ ਪ੍ਰਭ ਪਾਲ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ जैसे माता अपने बालक की देखरेख करती है, वैसे ही प्रभु हमारा पालन-पोषण करता है॥ १॥ रहाउ॥
ਮੀਤ ਸਾਜਨ ਸਰਬ ਗੁਣ ਨਾਇਕ ਸਦਾ ਸਲਾਮਤਿ ਦੇਵਾ ॥ हे गुरुदेव प्रभु ! तू सच्चा मित्र एवं सज्जन है, तू ही गुणों का मालिक है और तू सदा शाश्वत रूप है।
ਈਤ ਊਤ ਜਤ ਕਤ ਤਤ ਤੁਮ ਹੀ ਮਿਲੈ ਨਾਨਕ ਸੰਤ ਸੇਵਾ ॥੨॥੮॥੩੯॥ लोक-परलोक में जहाँ कहीं तू ही विद्यमान है। हे नानक ! ईश्वर तो संतों की निष्काम सेवा करने से ही मिलता है॥ २ ॥ ८ ॥ ३६ ॥
ਧਨਾਸਰੀ ਮਹਲਾ ੫ ॥ धनासरी महला ५ ॥
ਸੰਤ ਕ੍ਰਿਪਾਲ ਦਇਆਲ ਦਮੋਦਰ ਕਾਮ ਕ੍ਰੋਧ ਬਿਖੁ ਜਾਰੇ ॥ कृपालु एवं दयालु संतजन अपने मन में से काम-क्रोध के विष को जला देते हैं।
ਰਾਜੁ ਮਾਲੁ ਜੋਬਨੁ ਤਨੁ ਜੀਅਰਾ ਇਨ ਊਪਰਿ ਲੈ ਬਾਰੇ ॥੧॥ मैंने अपना राज्य, धन, यौवन, तन एवं प्राण सब कुछ इन पर न्यौछावर कर दिया है॥ १॥
ਮਨਿ ਤਨਿ ਰਾਮ ਨਾਮ ਹਿਤਕਾਰੇ ॥. वे अपने मन एवं तन में राम-नाम से ही प्रेम करते हैं।
ਸੂਖ ਸਹਜ ਆਨੰਦ ਮੰਗਲ ਸਹਿਤ ਭਵ ਨਿਧਿ ਪਾਰਿ ਉਤਾਰੇ ॥ ਰਹਾਉ ॥ वे स्वयं सुख-शांति, आनंद एवं प्रसन्नता से रहते ही हैं, दूसरों को भी भवसागर से पार करवा देते हैं ॥ रहाउ ॥


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