Guru Granth Sahib Translation Project

Guru Granth Sahib Hindi Page 472

Page 472

ਨੀਲ ਵਸਤ੍ਰ ਪਹਿਰਿ ਹੋਵਹਿ ਪਰਵਾਣੁ ॥ ब्राह्मण नीले वस्त्र पहन कर मुसलमानों की नज़र में स्वीकृत होना चाहते हैं।
ਮਲੇਛ ਧਾਨੁ ਲੇ ਪੂਜਹਿ ਪੁਰਾਣੁ ॥ मुसलमानों से धन-धान्य लेते हैं, जिन्हें मलेच्छ कहते हैं और पुराणों की फ़िर भी पूजा करते हैं।
ਅਭਾਖਿਆ ਕਾ ਕੁਠਾ ਬਕਰਾ ਖਾਣਾ ॥ एक ओर अभाषा अरबी-फारसी का कलमा पढ़कर हलाल किया बकरा खाते हैं
ਚਉਕੇ ਉਪਰਿ ਕਿਸੈ ਨ ਜਾਣਾ ॥ परन्तु दूसरी ओर अपनी रसोई के भीतर किसी को दाखिल नहीं होने देते।
ਦੇ ਕੈ ਚਉਕਾ ਕਢੀ ਕਾਰ ॥ वे रसोई की लिपाई करके उसके गिर्द रेखा लगाते हैं और
ਉਪਰਿ ਆਇ ਬੈਠੇ ਕੂੜਿਆਰ ॥ चौकी रसोई में वे झूठे आकर बैठ जाते हैं।
ਮਤੁ ਭਿਟੈ ਵੇ ਮਤੁ ਭਿਟੈ ॥ ਇਹੁ ਅੰਨੁ ਅਸਾਡਾ ਫਿਟੈ ॥ दूसरों को वे कहते हैं कि, रसोई (चौकी) के निकट मत आना, हमारी चौकी को स्पर्श मत करना, अन्यथा हमारा भोजन भ्रष्ट हो जाएगा।
ਤਨਿ ਫਿਟੈ ਫੇੜ ਕਰੇਨਿ ॥ भ्रष्ट मलिन शरीर से वे दुष्कर्म करते हैं।
ਮਨਿ ਜੂਠੈ ਚੁਲੀ ਭਰੇਨਿ ॥ उनका मन विकारों से मलिन है, परन्तु वे कुल्ला करके अपना मुंह शुद्ध करने का प्रयास करते हैं।।
ਕਹੁ ਨਾਨਕ ਸਚੁ ਧਿਆਈਐ ॥ हे नानक ! सत्य का ध्यान करने से
ਸੁਚਿ ਹੋਵੈ ਤਾ ਸਚੁ ਪਾਈਐ ॥੨॥ जब मन शुद्ध हो जाता है तो सत्य (प्रभु) प्राप्त हो जाता है॥ २ ॥
ਪਉੜੀ ॥ पउड़ी ॥
ਚਿਤੈ ਅੰਦਰਿ ਸਭੁ ਕੋ ਵੇਖਿ ਨਦਰੀ ਹੇਠਿ ਚਲਾਇਦਾ ॥ परमात्मा सब जीवों को अपने चित्त में याद रखता है और वह सबको देखकर अपनी निगाह में रखकर अपनी इच्छा से चलाता है।
ਆਪੇ ਦੇ ਵਡਿਆਈਆ ਆਪੇ ਹੀ ਕਰਮ ਕਰਾਇਦਾ ॥ वह स्वयं ही जीवों को प्रशंसा प्रदान करता है और स्वयं ही उन से कर्म करवाता है।
ਵਡਹੁ ਵਡਾ ਵਡ ਮੇਦਨੀ ਸਿਰੇ ਸਿਰਿ ਧੰਧੈ ਲਾਇਦਾ ॥ बड़ों से बड़ा प्रभु महान है और उसकी सृष्टि भी अनन्त है। वह प्रत्येक को काम-काज में लगाता है।
ਨਦਰਿ ਉਪਠੀ ਜੇ ਕਰੇ ਸੁਲਤਾਨਾ ਘਾਹੁ ਕਰਾਇਦਾ ॥ यदि प्रभु कोप-दृष्टि धारण कर ले तो वह राजाओं-महाराजाओं को भी घास के तृण की तरह कंगाल बना देता है।
ਦਰਿ ਮੰਗਨਿ ਭਿਖ ਨ ਪਾਇਦਾ ॥੧੬॥ चाहे वे द्वार-द्वार माँगते रहें परन्तु उन्हें भिक्षा नहीं मिलती॥ १६ ॥
ਸਲੋਕੁ ਮਃ ੧ ॥ श्लोक महला १॥
ਜੇ ਮੋਹਾਕਾ ਘਰੁ ਮੁਹੈ ਘਰੁ ਮੁਹਿ ਪਿਤਰੀ ਦੇਇ ॥ यदि कोई चोर पराया घर लूट ले और पराए घर की लूट पितरों के नमित श्राद्ध करे तो
ਅਗੈ ਵਸਤੁ ਸਿਞਾਣੀਐ ਪਿਤਰੀ ਚੋਰ ਕਰੇਇ ॥ परलोक में वस्तु पहचानी जाती है। इस तरह वह पितरों को चोर बना देती है अर्थात् पित्तरों को दण्ड मिलता और चोरी की वस्तु से पुण्य नहीं मिलता।
ਵਢੀਅਹਿ ਹਥ ਦਲਾਲ ਕੇ ਮੁਸਫੀ ਏਹ ਕਰੇਇ ॥ प्रभु आगे यह न्याय करता है कि जो ब्राहाण अपने यजमान से वह चोरी की वस्तु पितरों निमित दान करवाता है, उस मध्यस्थ ब्राहाण के हाथ काट दिए जाते हैं।
ਨਾਨਕ ਅਗੈ ਸੋ ਮਿਲੈ ਜਿ ਖਟੇ ਘਾਲੇ ਦੇਇ ॥੧॥ हे नानक ! आगे परलोक में केवल यही प्राप्त होता है, जो मनुष्य अपने परिश्रम से कम कर देता है॥ १॥
ਮਃ ੧ ॥ महला १॥
ਜਿਉ ਜੋਰੂ ਸਿਰਨਾਵਣੀ ਆਵੈ ਵਾਰੋ ਵਾਰ ॥ जैसे स्त्री को बार-बार मासिक-धर्म होता है,
ਜੂਠੇ ਜੂਠਾ ਮੁਖਿ ਵਸੈ ਨਿਤ ਨਿਤ ਹੋਇ ਖੁਆਰੁ ॥ वैसे झूठे मनुष्य के मुँह में झूठ ही बना रहता है। ऐसा मनुष्य सदैव ही दु:खी होता है।
ਸੂਚੇ ਏਹਿ ਨ ਆਖੀਅਹਿ ਬਹਨਿ ਜਿ ਪਿੰਡਾ ਧੋਇ ॥ ऐसा मनुष्य पवित्र नहीं कहा जाता, जो अपने शरीर को शुद्ध करके बैठ जाता है।
ਸੂਚੇ ਸੇਈ ਨਾਨਕਾ ਜਿਨ ਮਨਿ ਵਸਿਆ ਸੋਇ ॥੨॥ हे नानक ! पवित्र लोग वही हैं, जिनके मन में प्रभु निवास करता है॥ २ ॥
ਪਉੜੀ ॥ पउड़ी।
ਤੁਰੇ ਪਲਾਣੇ ਪਉਣ ਵੇਗ ਹਰ ਰੰਗੀ ਹਰਮ ਸਵਾਰਿਆ ॥ जिन लोगों के पास पवन-वेग की तरह तेज चलने वाले सुन्दर काठीधारी घोड़े हैं,
ਕੋਠੇ ਮੰਡਪ ਮਾੜੀਆ ਲਾਇ ਬੈਠੇ ਕਰਿ ਪਾਸਾਰਿਆ ॥ जिन्होंने अपनी रानियों के रनिवास को हर प्रकार के रंगों से सजाया है, जो मकानों, मंडपों एवं ऊँचे मन्दिरों में रहते हैं और आडम्बर करते रहते हैं।
ਚੀਜ ਕਰਨਿ ਮਨਿ ਭਾਵਦੇ ਹਰਿ ਬੁਝਨਿ ਨਾਹੀ ਹਾਰਿਆ ॥ जो अपनी मन लुभावनी बातें करते हैं, परन्तु प्रभु को नहीं जानते इसलिए उन्होंने अपने जीवन की बाजी हार दी है।
ਕਰਿ ਫੁਰਮਾਇਸਿ ਖਾਇਆ ਵੇਖਿ ਮਹਲਤਿ ਮਰਣੁ ਵਿਸਾਰਿਆ ॥ जिन व्यक्तियों ने दूसरों पर हुक्म चला कर भोजन खाया है और अपने महलों को देखकर मृत्यु को भुला दिया है
ਜਰੁ ਆਈ ਜੋਬਨਿ ਹਾਰਿਆ ॥੧੭॥ जब उन पर बुढ़ापा आ गया तो उसके आगे उनका यौवन हार गया अर्थात् बुढ़ापे ने उनका यौवन नष्ट कर दिया ॥ १७ ॥
ਸਲੋਕੁ ਮਃ ੧ ॥ श्लोक महला १॥
ਜੇ ਕਰਿ ਸੂਤਕੁ ਮੰਨੀਐ ਸਭ ਤੈ ਸੂਤਕੁ ਹੋਇ ॥ यदि सूतक रूपी वहम को सत्य मान लिया जाए तो सूतक सब में होता है।
ਗੋਹੇ ਅਤੈ ਲਕੜੀ ਅੰਦਰਿ ਕੀੜਾ ਹੋਇ ॥ गोबर एवं लकड़ी में भी कीड़ा होता है।
ਜੇਤੇ ਦਾਣੇ ਅੰਨ ਕੇ ਜੀਆ ਬਾਝੁ ਨ ਕੋਇ ॥ जितने भी अनाज के दाने इस्तेमाल किए जाते हैं, कोई भी दाना जीव के बिना नहीं।
ਪਹਿਲਾ ਪਾਣੀ ਜੀਉ ਹੈ ਜਿਤੁ ਹਰਿਆ ਸਭੁ ਕੋਇ ॥ सर्वप्रथम जल ही जीवन है, जिससे सब कुछ हरा-भरा (ताजा) होता है।
ਸੂਤਕੁ ਕਿਉ ਕਰਿ ਰਖੀਐ ਸੂਤਕੁ ਪਵੈ ਰਸੋਇ ॥ सूतक किस तरह दूर रखा जा सकता है ? यह सूतक हमारी पाकशाला (रसोई) में भी रहता है।
ਨਾਨਕ ਸੂਤਕੁ ਏਵ ਨ ਉਤਰੈ ਗਿਆਨੁ ਉਤਾਰੇ ਧੋਇ ॥੧॥ हे नानक ! भ्रमों के कारण पड़ा सूतक इस तरह कभी दूर नहीं होता, इसे ज्ञान द्वारा ही शुद्ध करके दूर किया जा सकता है॥ १॥
ਮਃ ੧ ॥ महला १॥
ਮਨ ਕਾ ਸੂਤਕੁ ਲੋਭੁ ਹੈ ਜਿਹਵਾ ਸੂਤਕੁ ਕੂੜੁ ॥ मन का सूतक लोभ है अर्थात् लोभ रूपी सूतक मन को चिपकता है और जीभ का सूतक झूठ है अर्थात् झूठ रूपी सूतक जीभ से लगता है।
ਅਖੀ ਸੂਤਕੁ ਵੇਖਣਾ ਪਰ ਤ੍ਰਿਅ ਪਰ ਧਨ ਰੂਪੁ ॥ आंखों का सूतक पराई नारी, पराया-धन एवं रूप-यौवन को देखना है।
ਕੰਨੀ ਸੂਤਕੁ ਕੰਨਿ ਪੈ ਲਾਇਤਬਾਰੀ ਖਾਹਿ ॥ कानों का सूतक कानों से पराई निन्दा सुनना है।
ਨਾਨਕ ਹੰਸਾ ਆਦਮੀ ਬਧੇ ਜਮ ਪੁਰਿ ਜਾਹਿ ॥੨॥ हे नानक ! इन सूतकों के कारण मनुष्य की आत्मा जकड़ी हुई यमपुरी जाती है॥ २॥
ਮਃ ੧ ॥ महला १॥
ਸਭੋ ਸੂਤਕੁ ਭਰਮੁ ਹੈ ਦੂਜੈ ਲਗੈ ਜਾਇ ॥ यह जीवन-मृत्यु वाला सूतक केवल भ्रम ही है, जो द्वैतभाव के कारण सबको लगा हुआ है।
ਜੰਮਣੁ ਮਰਣਾ ਹੁਕਮੁ ਹੈ ਭਾਣੈ ਆਵੈ ਜਾਇ ॥ जन्म एवं मरण प्रभु की आज्ञा है और उसकी इच्छा द्वारा ही मनुष्य जन्म लेता और प्राण त्यागता है।
ਖਾਣਾ ਪੀਣਾ ਪਵਿਤ੍ਰੁ ਹੈ ਦਿਤੋਨੁ ਰਿਜਕੁ ਸੰਬਾਹਿ ॥ खाना-पीना पवित्र है, क्योंकि प्रभु ने सभी जीवों को भोजन दिया है।
ਨਾਨਕ ਜਿਨ੍ਹ੍ਹੀ ਗੁਰਮੁਖਿ ਬੁਝਿਆ ਤਿਨ੍ਹ੍ਹਾ ਸੂਤਕੁ ਨਾਹਿ ॥੩॥ हे नानक ! जो गुरुमुख बनकर इस भेद को समझ लेता है, उसे सूतक नहीं लगता॥ ३॥
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