Guru Granth Sahib Translation Project

Guru Granth Sahib Hindi Page 375

Page 375

ਦਰਸਨ ਕੀ ਮਨਿ ਆਸ ਘਨੇਰੀ ਕੋਈ ਐਸਾ ਸੰਤੁ ਮੋ ਕਉ ਪਿਰਹਿ ਮਿਲਾਵੈ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ मेरे मन में उसके दर्शन की तीव्र अभिलाषा है। क्या कोई ऐसा संत (सच्चा गुरु) है जो मेरा प्रियतम से मिलन करवा दे ॥ १॥ रहाउ ॥
ਚਾਰਿ ਪਹਰ ਚਹੁ ਜੁਗਹ ਸਮਾਨੇ ॥ दिन के चार प्रहर चार युगों के बराबर हैं।
ਰੈਣਿ ਭਈ ਤਬ ਅੰਤੁ ਨ ਜਾਨੇ ॥੨॥ जब रात्रि होती है तो वह समाप्त होने में नहीं आती॥ २॥
ਪੰਚ ਦੂਤ ਮਿਲਿ ਪਿਰਹੁ ਵਿਛੋੜੀ ॥ पाँच वैरियों (काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार) ने मिलकर मुझ आत्मा-रूपी वधू मेरे कंत-प्रभु से अलग किया है।
ਭ੍ਰਮਿ ਭ੍ਰਮਿ ਰੋਵੈ ਹਾਥ ਪਛੋੜੀ ॥੩॥ अब वह पछतावे में विलाप करती हुई भटकती फिर रही है।॥ ३॥
ਜਨ ਨਾਨਕ ਕਉ ਹਰਿ ਦਰਸੁ ਦਿਖਾਇਆ ॥ नानक को हरि ने अपना दर्शन करवा दिया है और
ਆਤਮੁ ਚੀਨ੍ਹ੍ਹਿ ਪਰਮ ਸੁਖੁ ਪਾਇਆ ॥੪॥੧੫॥ अपने आत्मिक जीवन को अनुभव करके उसे परम सुख मिल गया है॥ ४॥ १५ ॥
ਆਸਾ ਮਹਲਾ ੫ ॥ राग आसा, पांचवें गुरु: ५ ॥
ਹਰਿ ਸੇਵਾ ਮਹਿ ਪਰਮ ਨਿਧਾਨੁ ॥ हे भाई ! हरि की सेवा में ही परम निधान हैं।
ਹਰਿ ਸੇਵਾ ਮੁਖਿ ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਨਾਮੁ ॥੧॥ नामामृत को मुंह में जपना ही हरि की सेवाभक्ति है॥ १॥
ਹਰਿ ਮੇਰਾ ਸਾਥੀ ਸੰਗਿ ਸਖਾਈ ॥ हरि मेरे साथी, संगी एवं सहायक है।
ਦੁਖਿ ਸੁਖਿ ਸਿਮਰੀ ਤਹ ਮਉਜੂਦੁ ਜਮੁ ਬਪੁਰਾ ਮੋ ਕਉ ਕਹਾ ਡਰਾਈ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ जब भी मैं दुःख-सुख में उसको याद करती हूँ तो वह उपस्थित होते हैं। फिर बेचारा यमदूत मुझे कैसे भयभीत कर सकता है॥ १॥ रहाउ॥
ਹਰਿ ਮੇਰੀ ਓਟ ਮੈ ਹਰਿ ਕਾ ਤਾਣੁ ॥ हरि मेरी ओट है और मुझे हरि का ही बल है।
ਹਰਿ ਮੇਰਾ ਸਖਾ ਮਨ ਮਾਹਿ ਦੀਬਾਣੁ ॥੨॥ हरि मेरे मित्र है और मेरे मन में बसे हुए हैं। २॥
ਹਰਿ ਮੇਰੀ ਪੂੰਜੀ ਮੇਰਾ ਹਰਿ ਵੇਸਾਹੁ ॥ हरि मेरी पूंजी है और हरि ही मेरे लिए प्रेरक स्रोत है।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਧਨੁ ਖਟੀ ਹਰਿ ਮੇਰਾ ਸਾਹੁ ॥੩॥ गुरुमुख बनकर मैं नाम-धन कमाता हूँ और हरि ही मेरा शाह है॥ ३॥
ਗੁਰ ਕਿਰਪਾ ਤੇ ਇਹ ਮਤਿ ਆਵੈ ॥ गुरु की कृपा से यह सुमति प्राप्त होती है।
ਜਨ ਨਾਨਕੁ ਹਰਿ ਕੈ ਅੰਕਿ ਸਮਾਵੈ ॥੪॥੧੬॥ नानक तो हरि के अंक (गोद) में समा गए हैं॥ ४॥ १६
ਆਸਾ ਮਹਲਾ ੫ ॥ राग आसा, पांचवें गुरु:५ ॥
ਪ੍ਰਭੁ ਹੋਇ ਕ੍ਰਿਪਾਲੁ ਤ ਇਹੁ ਮਨੁ ਲਾਈ ॥ जब प्रभु कृपालु हुए तो यह मन उनमें ही लग गया।
ਸਤਿਗੁਰੁ ਸੇਵਿ ਸਭੈ ਫਲ ਪਾਈ ॥੧॥ गुरु की सेवा करने से सभी फल मिल गए हैं।॥ १॥
ਮਨ ਕਿਉ ਬੈਰਾਗੁ ਕਰਹਿਗਾ ਸਤਿਗੁਰੁ ਮੇਰਾ ਪੂਰਾ ॥ हे मन ! तू क्यों वैरागी होता है? मेरा सतगुरु पूर्ण है।
ਮਨਸਾ ਕਾ ਦਾਤਾ ਸਭ ਸੁਖ ਨਿਧਾਨੁ ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਸਰਿ ਸਦ ਹੀ ਭਰਪੂਰਾ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ मन की आकांक्षाओं के अनुरूप देन प्रदान करने वाला वह सर्व सुखों का कोष है और उसका अमृत का सरोवर सदैव ही भरा रहता है॥ १॥ रहाउ॥
ਚਰਣ ਕਮਲ ਰਿਦ ਅੰਤਰਿ ਧਾਰੇ ॥ जब प्रभु के चरण-कमल अपने हृदय में बसाए तो
ਪ੍ਰਗਟੀ ਜੋਤਿ ਮਿਲੇ ਰਾਮ ਪਿਆਰੇ ॥੨॥ उसकी दिव्य ज्योति प्रगट हो गई और वह प्रिय राम मुझे मिल गए॥ २॥
ਪੰਚ ਸਖੀ ਮਿਲਿ ਮੰਗਲੁ ਗਾਇਆ ॥ पाँच सहेलियों (ज्ञानेन्द्रियों) अब मिलकर मंगल गीत गाने लगी हैं और
ਅਨਹਦ ਬਾਣੀ ਨਾਦੁ ਵਜਾਇਆ ॥੩॥ अन्तर्मन में अनहद वाणी का नाद गूंज रहा है॥ ३॥
ਗੁਰੁ ਨਾਨਕੁ ਤੁਠਾ ਮਿਲਿਆ ਹਰਿ ਰਾਇ ॥ गुरु नानक के प्रसन्न होने पर जगत का बादशाह प्रभु मिल गए हैं,"
ਸੁਖਿ ਰੈਣਿ ਵਿਹਾਣੀ ਸਹਜਿ ਸੁਭਾਇ ॥੪॥੧੭॥ इसलिए अब जीवन रूपी रात्रि सहज स्वभाव ही सुखपूर्वक व्यतीत होती है॥ ४॥ १७॥
ਆਸਾ ਮਹਲਾ ੫ ॥ राग आसा, पांचवें गुरु : ५ ॥
ਕਰਿ ਕਿਰਪਾ ਹਰਿ ਪਰਗਟੀ ਆਇਆ ॥ भगवान् अपनी कृपा से स्वयं ही मेरे मन में प्रकट हुए है।
ਮਿਲਿ ਸਤਿਗੁਰ ਧਨੁ ਪੂਰਾ ਪਾਇਆ ॥੧॥ सतगुरु से मिलकर मुझे पूर्ण नाम-धन प्राप्त हुआ है॥ १॥
ਐਸਾ ਹਰਿ ਧਨੁ ਸੰਚੀਐ ਭਾਈ ॥ हे भाई ! ऐसा हरि नाम रूपी धन संचित करना चाहिए,"
ਭਾਹਿ ਨ ਜਾਲੈ ਜਲਿ ਨਹੀ ਡੂਬੈ ਸੰਗੁ ਛੋਡਿ ਕਰਿ ਕਤਹੁ ਨ ਜਾਈ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ क्योंकि इस नाम-धन को न ही अग्नि जलाती है, न ही जल डुबाता है और यह मनुष्य का साथ छोड़कर कहीं नहीं जाता ॥ १॥ रहाउ ॥
ਤੋਟਿ ਨ ਆਵੈ ਨਿਖੁਟਿ ਨ ਜਾਇ ॥ हरि का नाम धन ऐसा है कि इसमें कभी कमी नहीं आती और न ही यह कभी समाप्त होता है।
ਖਾਇ ਖਰਚਿ ਮਨੁ ਰਹਿਆ ਅਘਾਇ ॥੨॥ इसे खर्च करते और खाते हुए मनुष्य का मन तृप्त रहता है॥ २॥
ਸੋ ਸਚੁ ਸਾਹੁ ਜਿਸੁ ਘਰਿ ਹਰਿ ਧਨੁ ਸੰਚਾਣਾ ॥ वही सच्चा साहूकार है जो हरि के नाम-धन को अपने हृदय घर में संचित करता है।
ਇਸੁ ਧਨ ਤੇ ਸਭੁ ਜਗੁ ਵਰਸਾਣਾ ॥੩॥ इस नाम-धन से समूचा जगत लाभ प्राप्त करता है॥ ३॥
ਤਿਨਿ ਹਰਿ ਧਨੁ ਪਾਇਆ ਜਿਸੁ ਪੁਰਬ ਲਿਖੇ ਕਾ ਲਹਣਾ ॥ केवल वही मनुष्य हरि नाम रूपी धन को प्राप्त करता है जिसके भाग्य में इसकी प्राप्ति आदि से लिखी हुई है।
ਜਨ ਨਾਨਕ ਅੰਤਿ ਵਾਰ ਨਾਮੁ ਗਹਣਾ ॥੪॥੧੮॥ हे नानक ! हरि का नाम-धन ही अन्तिम समय का आभूषण है॥ ४॥ १८॥
ਆਸਾ ਮਹਲਾ ੫ ॥ राग आसा, पांचवें गुरु : ५ ॥
ਜੈਸੇ ਕਿਰਸਾਣੁ ਬੋਵੈ ਕਿਰਸਾਨੀ ॥ हे प्राणी ! जैसे कोई किसान अपनी फसल बोता है और
ਕਾਚੀ ਪਾਕੀ ਬਾਢਿ ਪਰਾਨੀ ॥੧॥ जिस प्रकार एक किसान अपनी इच्छा से पका या कच्चा फल तोड़ लेता है,उसी प्रकार जीवन का स्वामी परमेश्वर भी जब चाहे हमें बुला सकता है - चाहे हम युवा हों या वृद्ध।॥ १॥
ਜੋ ਜਨਮੈ ਸੋ ਜਾਨਹੁ ਮੂਆ ॥ वैसे ही समझ लो कि जिसने जन्म लिया है, एक न एक दिन उसने अवश्य मरना भी है।
ਗੋਵਿੰਦ ਭਗਤੁ ਅਸਥਿਰੁ ਹੈ ਥੀਆ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ इस दुनिया में गोविंद का भक्त ही सदा स्थिरचित रहता है॥ १I रहाउ ॥
ਦਿਨ ਤੇ ਸਰਪਰ ਪਉਸੀ ਰਾਤਿ ॥ दिन के पश्चात् रात्रि अवश्य ही होगी।
ਰੈਣਿ ਗਈ ਫਿਰਿ ਹੋਇ ਪਰਭਾਤਿ ॥੨॥ जब रात्रि बीत जाती है तो फिर प्रभात अर्थात् सवेरा हो जाता है॥ २॥
ਮਾਇਆ ਮੋਹਿ ਸੋਇ ਰਹੇ ਅਭਾਗੇ ॥ माया के मोह में भाग्यहीन मनुष्य सोये रहते हैं।
ਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ਕੋ ਵਿਰਲਾ ਜਾਗੇ ॥੩॥ गुरु की कृपा से कोई विरला मनुष्य ही मायावी निद्रा से जागता है॥ ३॥


© 2025 SGGS ONLINE
error: Content is protected !!
Scroll to Top