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ਓਅੰਕਾਰਿ ਸਬਦਿ ਉਧਰੇ ॥
ऑकार शब्द से ही सबका उद्धार हुआ है और
ਓਅੰਕਾਰਿ ਗੁਰਮੁਖਿ ਤਰੇ ॥
ऑकार से गुरुमुख संसार-सागर से तैर गए हैं।
ਓਨਮ ਅਖਰ ਸੁਣਹੁ ਬੀਚਾਰੁ ॥
‘ओम्’ अक्षर का विचार सुनो;
ਓਨਮ ਅਖਰੁ ਤ੍ਰਿਭਵਣ ਸਾਰੁ ॥੧॥
ओम् अक्षर पृथ्वी, आकाश, पाताल तीनों लोकों का सार है॥ १॥
ਸੁਣਿ ਪਾਡੇ ਕਿਆ ਲਿਖਹੁ ਜੰਜਾਲਾ ॥
हे पांडे ! जरा सुन; क्यों जंजाल में फँसाने वाली बातें लिख रहा है ?
ਲਿਖੁ ਰਾਮ ਨਾਮ ਗੁਰਮੁਖਿ ਗੋਪਾਲਾ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
गुरुमुख बनकर राम नाम लिखो ॥ १॥ रहाउ ॥
ਸਸੈ ਸਭੁ ਜਗੁ ਸਹਜਿ ਉਪਾਇਆ ਤੀਨਿ ਭਵਨ ਇਕ ਜੋਤੀ ॥
स-समस्त जगत् परमात्मा ने सहज स्वभाव ही उत्पन्न किया है और तीनों लोकों में उसकी ही ज्योति समाई हुई है।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਵਸਤੁ ਪਰਾਪਤਿ ਹੋਵੈ ਚੁਣਿ ਲੈ ਮਾਣਕ ਮੋਤੀ ॥
नाम रूपी वस्तु गुरु के माध्यम से ही प्राप्त होती है और इन नाम रूपी माणिक्य एवं मोतियों को चुन लेना चाहिए।
ਸਮਝੈ ਸੂਝੈ ਪੜਿ ਪੜਿ ਬੂਝੈ ਅੰਤਿ ਨਿਰੰਤਰਿ ਸਾਚਾ ॥
जो व्यक्ति बार-बार वाणी पढ़कर उसे समझने का प्रयास करता है, वह इस तथ्य को बूझ लेता है केि अन्तर्मन में परम-सत्य परमेश्वर ही स्थित है।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਦੇਖੈ ਸਾਚੁ ਸਮਾਲੇ ਬਿਨੁ ਸਾਚੇ ਜਗੁ ਕਾਚਾ ॥੨॥
गुरुमुख सबमें ईश्वर को ही देखता है और सत्य का ही चिंतन करता है, सत्य के बिना समूचा जगत् नाशवान् है॥ २॥
ਧਧੈ ਧਰਮੁ ਧਰੇ ਧਰਮਾ ਪੁਰਿ ਗੁਣਕਾਰੀ ਮਨੁ ਧੀਰਾ ॥
ध-धर्म की नगरी सत्संग में ही जीव धर्म को धारण करता है, यही उसके लिए गुणकारी है और मन धैर्यवान बना रहता है।
ਧਧੈ ਧੂਲਿ ਪੜੈ ਮੁਖਿ ਮਸਤਕਿ ਕੰਚਨ ਭਏ ਮਨੂਰਾ ॥
जिनके मुख मस्तक पर संतों-महापुरुषों की चरण-धूलि पड़ती है, उनका पत्थर जैसा मन भी स्वर्ण बन जाता है।
ਧਨੁ ਧਰਣੀਧਰੁ ਆਪਿ ਅਜੋਨੀ ਤੋਲਿ ਬੋਲਿ ਸਚੁ ਪੂਰਾ ॥
वह परमेश्वर धन्य है, जन्म-मरण से रहित है एवं हर प्रकार से पूर्ण सत्य है।
ਕਰਤੇ ਕੀ ਮਿਤਿ ਕਰਤਾ ਜਾਣੈ ਕੈ ਜਾਣੈ ਗੁਰੁ ਸੂਰਾ ॥੩॥
उस कर्ता-प्रभु की गति वह प्रभु स्वयं ही जानता है या शूरवीर गुरु जानता है॥ ३ ॥
ਙਿਆਨੁ ਗਵਾਇਆ ਦੂਜਾ ਭਾਇਆ ਗਰਬਿ ਗਲੇ ਬਿਖੁ ਖਾਇਆ ॥
द्वैतभाव में फंसकर जीव ने अपना ज्ञान गंवा दिया है और माया रूपी विष को खाकर घमण्ड में ही नष्ट हो गया है।
ਗੁਰ ਰਸੁ ਗੀਤ ਬਾਦ ਨਹੀ ਭਾਵੈ ਸੁਣੀਐ ਗਹਿਰ ਗੰਭੀਰੁ ਗਵਾਇਆ ॥
उसे गुरु की वाणी के कीर्तन का आनंद नहीं आता और न ही उसे गुरु के वचन सुनने अच्छे लगते हैं, इस प्रकार उसने गहन-गंभीर सत्य को गंवा दिया है।
ਗੁਰਿ ਸਚੁ ਕਹਿਆ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਲਹਿਆ ਮਨਿ ਤਨਿ ਸਾਚੁ ਸੁਖਾਇਆ ॥
जिसे गुरु ने सत्य का उपदेश सुनाया है, उसने नामामृत पा लिया है और उसके मन-तन को सत्य ही सुखद लगता है।
ਆਪੇ ਗੁਰਮੁਖਿ ਆਪੇ ਦੇਵੈ ਆਪੇ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਪੀਆਇਆ ॥੪॥
परमात्मा ही गुरु है, वह स्वयं ही नाम की देन देता है और उसने स्वयं ही नामामृत का पान करवाया है॥ ४ ॥
ਏਕੋ ਏਕੁ ਕਹੈ ਸਭੁ ਕੋਈ ਹਉਮੈ ਗਰਬੁ ਵਿਆਪੈ ॥
हर कोई कहता है कि परमात्मा एक है, किन्तु जीव अभिमान एवं घमण्ड में लीन रहता है।
ਅੰਤਰਿ ਬਾਹਰਿ ਏਕੁ ਪਛਾਣੈ ਇਉ ਘਰੁ ਮਹਲੁ ਸਿਞਾਪੈ ॥
जो व्यक्ति अंतर्मन व बाहर एक ईश्वर को पहचान लेता है, इस तरह वह सच्चे घर को जान लेता है।
ਪ੍ਰਭੁ ਨੇੜੈ ਹਰਿ ਦੂਰਿ ਨ ਜਾਣਹੁ ਏਕੋ ਸ੍ਰਿਸਟਿ ਸਬਾਈ ॥
परमात्मा हमारे निकट ही है, उसे कहीं दूर मत समझो, सारी सृष्टि में एक ईश्वर का ही निवास है।
ਏਕੰਕਾਰੁ ਅਵਰੁ ਨਹੀ ਦੂਜਾ ਨਾਨਕ ਏਕੁ ਸਮਾਈ ॥੫॥
समूचे विश्व में ओंकार का ही प्रसार है, अन्य कोई नहीं है। हे नानक ! एक ईश्वर ही सब में समाया हुआ है॥ ५ ॥
ਇਸੁ ਕਰਤੇ ਕਉ ਕਿਉ ਗਹਿ ਰਾਖਉ ਅਫਰਿਓ ਤੁਲਿਓ ਨ ਜਾਈ ॥
ईश्वर को किस प्रकार मन में बसाकर रखूं, क्योंकि यह मन तो अभिमानी बना हुआ है और उसकी महिमा को तौला नहीं जा सकता।
ਮਾਇਆ ਕੇ ਦੇਵਾਨੇ ਪ੍ਰਾਣੀ ਝੂਠਿ ਠਗਉਰੀ ਪਾਈ ॥
हे माया के मतवाले प्राणी ! माया ने तेरे मुँह में झूठ रूपी ठगौरी डाली हुई है।
ਲਬਿ ਲੋਭਿ ਮੁਹਤਾਜਿ ਵਿਗੂਤੇ ਇਬ ਤਬ ਫਿਰਿ ਪਛੁਤਾਈ ॥
लालच एवं लोभ में फँसकर जीव आवश्यकताओं पर मोहताज होकर ख्वार होता है और फिर पछताता रहता है।
ਏਕੁ ਸਰੇਵੈ ਤਾ ਗਤਿ ਮਿਤਿ ਪਾਵੈ ਆਵਣੁ ਜਾਣੁ ਰਹਾਈ ॥੬॥
यदि एक परमेश्वर की स्तुति-वंदना की जाए तो उसकी गति का अनुमान लगाया जा सकता है और आवागमन से मुक्ति हो जाती है॥ ६॥
ਏਕੁ ਅਚਾਰੁ ਰੰਗੁ ਇਕੁ ਰੂਪੁ ॥
एक परमेश्वर ही आचार, रंग रूप में कार्यशील है और
ਪਉਣ ਪਾਣੀ ਅਗਨੀ ਅਸਰੂਪੁ ॥
पवन, पानी एवं अग्नि में भी वही स्थित है।
ਏਕੋ ਭਵਰੁ ਭਵੈ ਤਿਹੁ ਲੋਇ ॥
तीनों लोकों में भी एक प्रभु जीव रूपी भंवरा बनकर भटकता रहता है और
ਏਕੋ ਬੂਝੈ ਸੂਝੈ ਪਤਿ ਹੋਇ ॥
उसे समझने-बूझने वाला ही शोभा का पात्र बनता है।
ਗਿਆਨੁ ਧਿਆਨੁ ਲੇ ਸਮਸਰਿ ਰਹੈ ॥
ज्ञान-ध्यान को हासिल करने वाला दुख-सुख में एक समान रहता है,
ਗੁਰਮੁਖਿ ਏਕੁ ਵਿਰਲਾ ਕੋ ਲਹੈ ॥
कोई विरला ही गुरुमुख बनकर नाम प्राप्त करता है।
ਜਿਸ ਨੋ ਦੇਇ ਕਿਰਪਾ ਤੇ ਸੁਖੁ ਪਾਏ ॥
जिस पर वह कृपा करता है, उसे ही नाम देता है और वह सुख प्राप्त करता है।
ਗੁਰੂ ਦੁਆਰੈ ਆਖਿ ਸੁਣਾਏ ॥੭॥
वह गुरु के द्वारा उसे अपना नाम कहकर सुनाता है॥ ७॥
ਊਰਮ ਧੂਰਮ ਜੋਤਿ ਉਜਾਲਾ ॥
धरती एवं आकाश में उसकी ही ज्योतेि का उजाला है और
ਤੀਨਿ ਭਵਣ ਮਹਿ ਗੁਰ ਗੋਪਾਲਾ ॥
तीनों लोकों में जगद्गुरु परमेश्वर ही मौजूद है।
ਊਗਵਿਆ ਅਸਰੂਪੁ ਦਿਖਾਵੈ ॥ ਕਰਿ ਕਿਰਪਾ ਅਪੁਨੈ ਘਰਿ ਆਵੈ ॥
वह स्वयं ही प्रगट होकर भक्तों को अपने स्वरूप के दर्शन करवाता है और कृपा करके वह स्वयं ही हृदय घर में आता है।
ਊਨਵਿ ਬਰਸੈ ਨੀਝਰ ਧਾਰਾ ॥ ਊਤਮ ਸਬਦਿ ਸਵਾਰਣਹਾਰਾ ॥
उसकी अनुकंपा से अमृत रस की धारा जीभ पर पड़ती रहती है। उसका उत्तम शब्द मानव-जीवन को सुन्दर बनाने वाला है।
ਇਸੁ ਏਕੇ ਕਾ ਜਾਣੈ ਭੇਉ ॥
जो व्यक्ति परमात्मा के भेद को जान लेता है,
ਆਪੇ ਕਰਤਾ ਆਪੇ ਦੇਉ ॥੮॥
उसे ज्ञान हो जाता है कि ईश्वर स्वयं ही कर्ता है और स्वयं ही देव है॥ ८॥
ਉਗਵੈ ਸੂਰੁ ਅਸੁਰ ਸੰਘਾਰੈ ॥
जब नाम रूपी सूर्योदय होता है तो विकार रूपी असुरों का संहार हो जाता है।
ਊਚਉ ਦੇਖਿ ਸਬਦਿ ਬੀਚਾਰੈ ॥
जो ऊँची दृष्टि करके शब्द का चिंतन करता है,
ਊਪਰਿ ਆਦਿ ਅੰਤਿ ਤਿਹੁ ਲੋਇ ॥
उसे तीनों लोकों एवं सृष्टि के आदि-अंत तक परमात्मा ही रक्षक नजर आता है।
ਆਪੇ ਕਰੈ ਕਥੈ ਸੁਣੈ ਸੋਇ ॥
वह स्वयं ही सबकुछ करता है, स्वयं ही अपनी लीला की कथा करता है और स्वयं ही सुनता है।