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ਜਿਸ ਤੇ ਸੁਖ ਪਾਵਹਿ ਮਨ ਮੇਰੇ ਸੋ ਸਦਾ ਧਿਆਇ ਨਿਤ ਕਰ ਜੁਰਨਾ ॥
जिस ते सुख पावहि मन मेरे सो सदा धिआइ नित कर जुरना ॥
हे मेरे मन ! जिस प्रभु से सर्व सुख प्राप्त होते हैं, तू हाथ जोड़कर सदा उसका ध्यान करो।
ਜਨ ਨਾਨਕ ਕਉ ਹਰਿ ਦਾਨੁ ਇਕੁ ਦੀਜੈ ਨਿਤ ਬਸਹਿ ਰਿਦੈ ਹਰੀ ਮੋਹਿ ਚਰਨਾ ॥੪॥੩॥
जन नानक कउ हरि दानु इकु दीजै नित बसहि रिदै हरी मोहि चरना ॥४॥३॥
नानक प्रार्थना करते हैं कि हे हरि ! मैं केवल यही दान चाहता हूँ कि आपके सुन्दर चरण मेरे हृदय में बसते रहें ॥ ४॥ ३ ॥
ਗੋਂਡ ਮਹਲਾ ੪ ॥
गोंड महला ४ ॥
राग गोंड, चतुर्थ गुरु: ४ ॥
ਜਿਤਨੇ ਸਾਹ ਪਾਤਿਸਾਹ ਉਮਰਾਵ ਸਿਕਦਾਰ ਚਉਧਰੀ ਸਭਿ ਮਿਥਿਆ ਝੂਠੁ ਭਾਉ ਦੂਜਾ ਜਾਣੁ ॥
जितने साह पातिसाह उमराव सिकदार चउधरी सभि मिथिआ झूठु भाउ दूजा जाणु ॥
हे मेरे मन, जितने भी राजा, महाराजा, रईस, स्वामी और मुखिया हुए हैं, वें सभी नाशवान हैं। इस माया के मोह को मिथ्या जान।
ਹਰਿ ਅਬਿਨਾਸੀ ਸਦਾ ਥਿਰੁ ਨਿਹਚਲੁ ਤਿਸੁ ਮੇਰੇ ਮਨ ਭਜੁ ਪਰਵਾਣੁ ॥੧॥
हरि अबिनासी सदा थिरु निहचलु तिसु मेरे मन भजु परवाणु ॥१॥
हे मेरे मन ! एकमात्र अनश्वर परमात्मा ही सदैव स्थिर एवं अटल है, इसलिए प्रेमपूर्वक उसका ध्यान करो तभी तुम उसकी उपस्थिति में स्वीकार किए जाओगे। ॥ १॥
ਮੇਰੇ ਮਨ ਨਾਮੁ ਹਰੀ ਭਜੁ ਸਦਾ ਦੀਬਾਣੁ ॥
मेरे मन नामु हरी भजु सदा दीबाणु ॥
हे मन ! हरि-नाम का भजन कर, उसका आसरा अटल है।
ਜੋ ਹਰਿ ਮਹਲੁ ਪਾਵੈ ਗੁਰ ਬਚਨੀ ਤਿਸੁ ਜੇਵਡੁ ਅਵਰੁ ਨਾਹੀ ਕਿਸੈ ਦਾ ਤਾਣੁ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
जो हरि महलु पावै गुर बचनी तिसु जेवडु अवरु नाही किसै दा ताणु ॥१॥ रहाउ ॥
जो व्यक्ति गुरु के वचनों का पालन कर ईश्वर को प्राप्त करता है, उसकी आध्यात्मिक स्थिति किसी अन्य की समान नहीं होती।॥ १॥ रहाउ॥
ਜਿਤਨੇ ਧਨਵੰਤ ਕੁਲਵੰਤ ਮਿਲਖਵੰਤ ਦੀਸਹਿ ਮਨ ਮੇਰੇ ਸਭਿ ਬਿਨਸਿ ਜਾਹਿ ਜਿਉ ਰੰਗੁ ਕਸੁੰਭ ਕਚਾਣੁ ॥
जितने धनवंत कुलवंत मिलखवंत दीसहि मन मेरे सभि बिनसि जाहि जिउ रंगु कसु्मभ कचाणु ॥
हे मेरे मन ! जितने भी धनवान्, उच्च कुलीन एवं करोड़पति नज़र आते हैं, यें कुसुम के क्षणिक रंगों की भाँति नष्ट हो जाएँगे।
ਹਰਿ ਸਤਿ ਨਿਰੰਜਨੁ ਸਦਾ ਸੇਵਿ ਮਨ ਮੇਰੇ ਜਿਤੁ ਹਰਿ ਦਰਗਹ ਪਾਵਹਿ ਤੂ ਮਾਣੁ ॥੨॥
हरि सति निरंजनु सदा सेवि मन मेरे जितु हरि दरगह पावहि तू माणु ॥२॥
हे मेरे मन ! उस निष्कलंक, सच्चे ईश्वर की सेवा करो, जिस द्वारा तू उसके दरबार में शोभा प्राप्त करेगा ॥ २॥
ਬ੍ਰਾਹਮਣੁ ਖਤ੍ਰੀ ਸੂਦ ਵੈਸ ਚਾਰਿ ਵਰਨ ਚਾਰਿ ਆਸ੍ਰਮ ਹਹਿ ਜੋ ਹਰਿ ਧਿਆਵੈ ਸੋ ਪਰਧਾਨੁ ॥
ब्राहमणु खत्री सूद वैस चारि वरन चारि आस्रम हहि जो हरि धिआवै सो परधानु ॥
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, एवं शूद्र-चार जातियाँ हैं और ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं सन्यास चार आश्रम हैं, परन्तु इन में से जो भी हरि का ध्यान करता है, वही दुनिया में प्रतिष्ठित है।
ਜਿਉ ਚੰਦਨ ਨਿਕਟਿ ਵਸੈ ਹਿਰਡੁ ਬਪੁੜਾ ਤਿਉ ਸਤਸੰਗਤਿ ਮਿਲਿ ਪਤਿਤ ਪਰਵਾਣੁ ॥੩॥
जिउ चंदन निकटि वसै हिरडु बपुड़ा तिउ सतसंगति मिलि पतित परवाणु ॥३॥
जैसे चंदन के निकट बसता अरंडी का पौधा भी सुघन्धित हो जाता है, वैसे ही सत्संगति में मिलकर पापी भी पवित्र बन जाता है और परमेश्वर की कृपा का पात्र बन जाता है। ॥ ३॥
ਓਹੁ ਸਭ ਤੇ ਊਚਾ ਸਭ ਤੇ ਸੂਚਾ ਜਾ ਕੈ ਹਿਰਦੈ ਵਸਿਆ ਭਗਵਾਨੁ ॥
ओहु सभ ते ऊचा सभ ते सूचा जा कै हिरदै वसिआ भगवानु ॥
जिसके हृदय में भगवान् का निवास हो गया है, वह सबसे श्रेष्ठ एवं सबसे पवित्र है।
ਜਨ ਨਾਨਕੁ ਤਿਸ ਕੇ ਚਰਨ ਪਖਾਲੈ ਜੋ ਹਰਿ ਜਨੁ ਨੀਚੁ ਜਾਤਿ ਸੇਵਕਾਣੁ ॥੪॥੪॥
जन नानकु तिस के चरन पखालै जो हरि जनु नीचु जाति सेवकाणु ॥४॥४॥
भक्त नानक विनम्र भाव से भगवान् के भक्त की सेवा करना चाहते हैं,चाहे वह सामाजिक दृष्टि से नीची जाति का ही क्यों न हो। ॥ ४ ॥ ४ ॥
ਗੋਂਡ ਮਹਲਾ ੪ ॥
गोंड महला ४ ॥
राग गोंड, चतुर्थ गुरु: ४ ॥
ਹਰਿ ਅੰਤਰਜਾਮੀ ਸਭਤੈ ਵਰਤੈ ਜੇਹਾ ਹਰਿ ਕਰਾਏ ਤੇਹਾ ਕੋ ਕਰਈਐ ॥
हरि अंतरजामी सभतै वरतै जेहा हरि कराए तेहा को करईऐ ॥
ईश्वर अन्तर्यामी है, विश्वव्यापी है, वह अपनी इच्छानुसार जैसा कर्म कराते है, जीव वैसा ही कर्म करता है।
ਸੋ ਐਸਾ ਹਰਿ ਸੇਵਿ ਸਦਾ ਮਨ ਮੇਰੇ ਜੋ ਤੁਧਨੋ ਸਭ ਦੂ ਰਖਿ ਲਈਐ ॥੧॥
सो ऐसा हरि सेवि सदा मन मेरे जो तुधनो सभ दू रखि लईऐ ॥१॥
हे मेरे मन ! सो ऐसे प्रभु की सदैव उपासना करो, जो तुझे सब दुःखो-कष्टों से बचा लेता है॥ १॥
ਮੇਰੇ ਮਨ ਹਰਿ ਜਪਿ ਹਰਿ ਨਿਤ ਪੜਈਐ ॥
मेरे मन हरि जपि हरि नित पड़ईऐ ॥
हे मन ! हमें श्रद्धापूर्वक भगवान् का ध्यान करना चाहिए और सदैव प्रेमपूर्वक उनके नाम का स्मरण करना चाहिए।
ਹਰਿ ਬਿਨੁ ਕੋ ਮਾਰਿ ਜੀਵਾਲਿ ਨ ਸਾਕੈ ਤਾ ਮੇਰੇ ਮਨ ਕਾਇਤੁ ਕੜਈਐ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
हरि बिनु को मारि जीवालि न साकै ता मेरे मन काइतु कड़ईऐ ॥१॥ रहाउ ॥
हे मन, व्यर्थ क्यों घबराना, जब न जन्म हमारे वश में है, न मरण; सब कुछ भगवान् की इच्छा पर ही निर्भर है। ॥१॥रहाउ॥
ਹਰਿ ਪਰਪੰਚੁ ਕੀਆ ਸਭੁ ਕਰਤੈ ਵਿਚਿ ਆਪੇ ਆਪਣੀ ਜੋਤਿ ਧਰਈਐ ॥
हरि परपंचु कीआ सभु करतै विचि आपे आपणी जोति धरईऐ ॥
यह समूचा जगत् उस रचयिता हरि ने बनाया है और स्वयं ही अपनी ज्योति का विस्तार इसमें किया है।
ਹਰਿ ਏਕੋ ਬੋਲੈ ਹਰਿ ਏਕੁ ਬੁਲਾਏ ਗੁਰਿ ਪੂਰੈ ਹਰਿ ਏਕੁ ਦਿਖਈਐ ॥੨॥
हरि एको बोलै हरि एकु बुलाए गुरि पूरै हरि एकु दिखईऐ ॥२॥
मेरे पूर्ण गुरु ने बताया कि ईश्वर ही बोलते है, और वही दूसरों के माध्यम से भी अपनी वाणी प्रकट करते है। ॥ २॥
ਹਰਿ ਅੰਤਰਿ ਨਾਲੇ ਬਾਹਰਿ ਨਾਲੇ ਕਹੁ ਤਿਸੁ ਪਾਸਹੁ ਮਨ ਕਿਆ ਚੋਰਈਐ ॥
हरि अंतरि नाले बाहरि नाले कहु तिसु पासहु मन किआ चोरईऐ ॥
हे मन ! बताओ , उस परमात्मा से क्या छुपाया जा सकता है, जब हमारे हृदय एवं बाहर जगत् में वह स्वयं ही व्याप्त है।
ਨਿਹਕਪਟ ਸੇਵਾ ਕੀਜੈ ਹਰਿ ਕੇਰੀ ਤਾਂ ਮੇਰੇ ਮਨ ਸਰਬ ਸੁਖ ਪਈਐ ॥੩॥
निहकपट सेवा कीजै हरि केरी तां मेरे मन सरब सुख पईऐ ॥३॥
हे मन ! यदि निस्वार्थ होकर परमात्मा की सेवा की जाए तो जीवन को सर्व सुख प्राप्त हो जाते हैं।॥ ३॥
ਜਿਸ ਦੈ ਵਸਿ ਸਭੁ ਕਿਛੁ ਸੋ ਸਭ ਦੂ ਵਡਾ ਸੋ ਮੇਰੇ ਮਨ ਸਦਾ ਧਿਅਈਐ ॥
जिस दै वसि सभु किछु सो सभ दू वडा सो मेरे मन सदा धिअईऐ ॥
हे मेरे मन ! सदैव उसका ध्यान करना चाहिए, जिसके वश में सबकुछ है और जो सबसे महान् है।
ਜਨ ਨਾਨਕ ਸੋ ਹਰਿ ਨਾਲਿ ਹੈ ਤੇਰੈ ਹਰਿ ਸਦਾ ਧਿਆਇ ਤੂ ਤੁਧੁ ਲਏ ਛਡਈਐ ॥੪॥੫॥
जन नानक सो हरि नालि है तेरै हरि सदा धिआइ तू तुधु लए छडईऐ ॥४॥५॥
हे भक्त नानक ! कहो, वह हरि तेरे साथ ही रहता है, तू सदा ही उसका मनन किया कर, वह तुझे समस्त विकारों से मुक्त कर देंगे॥ ४॥ ५ ॥
ਗੋਂਡ ਮਹਲਾ ੪ ॥
गोंड महला ४ ॥
राग गोंड, चतुर्थ गुरु: ४ ॥
ਹਰਿ ਦਰਸਨ ਕਉ ਮੇਰਾ ਮਨੁ ਬਹੁ ਤਪਤੈ ਜਿਉ ਤ੍ਰਿਖਾਵੰਤੁ ਬਿਨੁ ਨੀਰ ॥੧॥
हरि दरसन कउ मेरा मनु बहु तपतै जिउ त्रिखावंतु बिनु नीर ॥१॥
हरि-दर्शनों के लिए मेरा मन ऐसा तड़प रहा है, जैसे कोई प्यासा मनुष्य पानी के लिए तड़पता रहता है।॥ १॥
ਮੇਰੈ ਮਨਿ ਪ੍ਰੇਮੁ ਲਗੋ ਹਰਿ ਤੀਰ ॥
मेरै मनि प्रेमु लगो हरि तीर ॥
मेरे मन में हरि के प्रेम का तीर लग चुका है,
ਹਮਰੀ ਬੇਦਨ ਹਰਿ ਪ੍ਰਭੁ ਜਾਨੈ ਮੇਰੇ ਮਨ ਅੰਤਰ ਕੀ ਪੀਰ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
हमरी बेदन हरि प्रभु जानै मेरे मन अंतर की पीर ॥१॥ रहाउ ॥
भगवान् के प्रेम-बाण से उत्पन्न इस विरह की वेदना को केवल भगवान् ही समझ सकते हैं।॥ १॥ रहाउ॥
ਮੇਰੇ ਹਰਿ ਪ੍ਰੀਤਮ ਕੀ ਕੋਈ ਬਾਤ ਸੁਨਾਵੈ ਸੋ ਭਾਈ ਸੋ ਮੇਰਾ ਬੀਰ ॥੨॥
मेरे हरि प्रीतम की कोई बात सुनावै सो भाई सो मेरा बीर ॥२॥
वास्तव में वही मेरा भाई एवं हितैषी है, जो मुझे मेरे हरि प्रियतम की कोई बात सुनाता है॥ २॥