Guru Granth Sahib Translation Project

Guru Granth Sahib Hindi Page 832

Page 832

ਬਿਲਾਵਲੁ ਮਹਲਾ ੧ ॥ बिलावलु महला १ ॥
ਮਨ ਕਾ ਕਹਿਆ ਮਨਸਾ ਕਰੈ ॥ जो मन कहता है, वही संकल्प करता है।
ਇਹੁ ਮਨੁ ਪੁੰਨੁ ਪਾਪੁ ਉਚਰੈ ॥ यह मन ही पाप-पुण्य की बात कहता है।
ਮਾਇਆ ਮਦਿ ਮਾਤੇ ਤ੍ਰਿਪਤਿ ਨ ਆਵੈ ॥ माया के नशे में मस्त होकर भी इसकी तृप्ति नहीं होती।
ਤ੍ਰਿਪਤਿ ਮੁਕਤਿ ਮਨਿ ਸਾਚਾ ਭਾਵੈ ॥੧॥ यदि मन को सत्य भा जाए तो तृप्ति एवं मुक्ति हो जाती है॥ १॥
ਤਨੁ ਧਨੁ ਕਲਤੁ ਸਭੁ ਦੇਖੁ ਅਭਿਮਾਨਾ ॥ हे जीव ! देख ले, यह तन, धन एवं सुन्दर नारी सब अभिमान ही हैं और
ਬਿਨੁ ਨਾਵੈ ਕਿਛੁ ਸੰਗਿ ਨ ਜਾਨਾ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ प्रभु नाम के बिना कुछ भी तेरे साथ नहीं जाना॥ १॥ रहाउ॥
ਕੀਚਹਿ ਰਸ ਭੋਗ ਖੁਸੀਆ ਮਨ ਕੇਰੀ ॥ मन की खुशी के लिए जीव कितने ही रसों का भोग करता है।
ਧਨੁ ਲੋਕਾਂ ਤਨੁ ਭਸਮੈ ਢੇਰੀ ॥ लेकिन मरणोपरांत जीव का धन अन्य लोगों का हो जाता है और तन जलकर भस्म की ढेरी बन जाता है।
ਖਾਕੂ ਖਾਕੁ ਰਲੈ ਸਭੁ ਫੈਲੁ ॥ मिट्टी का यह सारा प्रसार मिट्टी में ही मिल जाता है।
ਬਿਨੁ ਸਬਦੈ ਨਹੀ ਉਤਰੈ ਮੈਲੁ ॥੨॥ शब्द के बिना मन की मैल कभी नहीं उतरती ॥ २॥
ਗੀਤ ਰਾਗ ਘਨ ਤਾਲ ਸਿ ਕੂਰੇ ॥ अनेक प्रकार के गीत, राग एवं ताल इत्यादि सब झूठे हैं।
ਤ੍ਰਿਹੁ ਗੁਣ ਉਪਜੈ ਬਿਨਸੈ ਦੂਰੇ ॥ त्रिगुणात्मक जीव उत्पन्न होते हैं और नाश होते रहते हैं तथा यह प्रभु मिलाप से दूर ही रहते हैं।
ਦੂਜੀ ਦੁਰਮਤਿ ਦਰਦੁ ਨ ਜਾਇ ॥ द्वैतभाव में मनुष्य की दुर्मति एवं दर्द दूर नहीं होता।
ਛੂਟੈ ਗੁਰਮੁਖਿ ਦਾਰੂ ਗੁਣ ਗਾਇ ॥੩॥ प्रभु का गुणगान रूपी औषधि से गुरुमुख छूट जाता है॥ ३॥
ਧੋਤੀ ਊਜਲ ਤਿਲਕੁ ਗਲਿ ਮਾਲਾ ॥ जो व्यक्ति उज्जवल धोती पहनता है, माथे पर तिलक लगाता है और गले में माला पहनता है,
ਅੰਤਰਿ ਕ੍ਰੋਧੁ ਪੜਹਿ ਨਾਟ ਸਾਲਾ ॥ यदि उसके मन में क्रोध है तो समझो, वह नाट्यशाला में संवाद पढ़ रहा है।
ਨਾਮੁ ਵਿਸਾਰਿ ਮਾਇਆ ਮਦੁ ਪੀਆ ॥ जिस ने नाम को भुलाकर माया रूपी मदिरा का पान किया है,
ਬਿਨੁ ਗੁਰ ਭਗਤਿ ਨਾਹੀ ਸੁਖੁ ਥੀਆ ॥੪॥ उसे गुरु-भक्ति के बिना सुख उपलब्ध नहीं हुआ ॥ ४॥
ਸੂਕਰ ਸੁਆਨ ਗਰਧਭ ਮੰਜਾਰਾ ॥ वे सूअर, कुत्ते, गधे, बिल्ली,
ਪਸੂ ਮਲੇਛ ਨੀਚ ਚੰਡਾਲਾ ॥ पशु, म्लेच्छ एवं नीच चाण्डालों की योनियों में भटकते रहते हैं
ਗੁਰ ਤੇ ਮੁਹੁ ਫੇਰੇ ਤਿਨ੍ਹ੍ਹ ਜੋਨਿ ਭਵਾਈਐ ॥ जो व्यक्ति गुरु से मुँह फेर लेते हैं,
ਬੰਧਨਿ ਬਾਧਿਆ ਆਈਐ ਜਾਈਐ ॥੫॥ और बन्धनों में फँसकर जन्मते मरते रहते हैं।॥ ५॥
ਗੁਰ ਸੇਵਾ ਤੇ ਲਹੈ ਪਦਾਰਥੁ ॥ गुरु की सेवा करने से ही जीव को नाम-पदार्थ मिलता है और
ਹਿਰਦੈ ਨਾਮੁ ਸਦਾ ਕਿਰਤਾਰਥੁ ॥ हृदय में नाम स्थित होने से वह सदा के लिए कृतार्थ हो जाता है।
ਸਾਚੀ ਦਰਗਹ ਪੂਛ ਨ ਹੋਇ ॥ इस तरह सत्य के दरबार में उसके कर्मो की पूछताछ नहीं होती।
ਮਾਨੇ ਹੁਕਮੁ ਸੀਝੈ ਦਰਿ ਸੋਇ ॥੬॥ जो व्यक्ति भगवान के हुक्म को मानता है, वही उसके दरबार में मंजूर हो जाता है।॥ ६॥
ਸਤਿਗੁਰੁ ਮਿਲੈ ਤ ਤਿਸ ਕਉ ਜਾਣੈ ॥ यदि मनुष्य को सतगुरु मिल जाए तो वह प्रभु को जान लेता है।
ਰਹੈ ਰਜਾਈ ਹੁਕਮੁ ਪਛਾਣੈ ॥ जो उसकी रज़ा में रहता है, वही उसके हुक्म को पहचान लेता है,
ਹੁਕਮੁ ਪਛਾਣਿ ਸਚੈ ਦਰਿ ਵਾਸੁ ॥ वह उसके हुक्म को पहचान कर सत्य के द्वार में निवास पा लेता है,
ਕਾਲ ਬਿਕਾਲ ਸਬਦਿ ਭਏ ਨਾਸੁ ॥੭॥ शब्द द्वारा जन्म-मरण का नाश हो जाता है॥ ७ ॥
ਰਹੈ ਅਤੀਤੁ ਜਾਣੈ ਸਭੁ ਤਿਸ ਕਾ ॥ जो जगत् से निर्लिप्त रहता है, वह सबकुछ प्रभु का ही समझता है।
ਤਨੁ ਮਨੁ ਅਰਪੈ ਹੈ ਇਹੁ ਜਿਸ ਕਾ ॥ वह अपना तन-मन उसे अर्पण कर देता है, जिसने उसे बनाया है
ਨਾ ਓਹੁ ਆਵੈ ਨਾ ਓਹੁ ਜਾਇ ॥ हे नानक ! ऐसा व्यक्ति जन्म-मरण के चक्र से छूटकर
ਨਾਨਕ ਸਾਚੇ ਸਾਚਿ ਸਮਾਇ ॥੮॥੨॥ परम सत्य में ही समा जाता है॥ ८ ॥ २॥
ਬਿਲਾਵਲੁ ਮਹਲਾ ੩ ਅਸਟਪਦੀ ਘਰੁ ੧੦ बिलावलु महला ३ असटपदी घरु १०
ੴ ਸਤਿਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
ਜਗੁ ਕਊਆ ਮੁਖਿ ਚੁੰਚ ਗਿਆਨੁ ॥ यह जगत् कौआ है, जो मुंह रूपी चोंच से थोड़ी ज्ञान की बात तो करता है।
ਅੰਤਰਿ ਲੋਭੁ ਝੂਠੁ ਅਭਿਮਾਨੁ ॥ किन्तु इसके अन्तर्मन में लोभ, झूठ एवं अभिमान ही भरा हुआ है।
ਬਿਨੁ ਨਾਵੈ ਪਾਜੁ ਲਹਗੁ ਨਿਦਾਨਿ ॥੧॥ नाम के बिना इसका अंत में पाखण्ड प्रगट हो जाएगा।॥ १॥
ਸਤਿਗੁਰ ਸੇਵਿ ਨਾਮੁ ਵਸੈ ਮਨਿ ਚੀਤਿ ॥ सतगुरु की सेवा करने से परमात्मा का नाम मन एवं चित्त में आ बसता है।
ਗੁਰੁ ਭੇਟੇ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਚੇਤਾਵੈ ਬਿਨੁ ਨਾਵੈ ਹੋਰ ਝੂਠੁ ਪਰੀਤਿ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ जिसे गुरु मिल जाता है, वह उसे हरि नाम ही याद करवाता है। नाम के बिना अन्य सब प्रेम झूठे हैं।॥ १॥ रहाउ॥
ਗੁਰਿ ਕਹਿਆ ਸਾ ਕਾਰ ਕਮਾਵਹੁ ॥ गुरु के निर्देशानुसार ही कार्य करो।
ਸਬਦੁ ਚੀਨ੍ਹ੍ਹਿ ਸਹਜ ਘਰਿ ਆਵਹੁ ॥ शब्द को पहचान कर सहजावस्था में आ जाओ और
ਸਾਚੈ ਨਾਇ ਵਡਾਈ ਪਾਵਹੁ ॥੨॥ सत्य नाम द्वारा बड़ाई प्राप्त करो ॥ २ ॥
ਆਪਿ ਨ ਬੂਝੈ ਲੋਕ ਬੁਝਾਵੈ ॥ जो व्यक्ति स्वयं तो कुछ समझता नहीं किन्तु लोगों को समझाता रहता है,
ਮਨ ਕਾ ਅੰਧਾ ਅੰਧੁ ਕਮਾਵੈ ॥ वह मन का अन्धा है और अन्धे काम ही करता है।
ਦਰੁ ਘਰੁ ਮਹਲੁ ਠਉਰੁ ਕੈਸੇ ਪਾਵੈ ॥੩॥ फिर ऐसा व्यक्ति प्रभु के दरबार में कैसे स्थान प्राप्त कर सकता है॥ ३॥
ਹਰਿ ਜੀਉ ਸੇਵੀਐ ਅੰਤਰਜਾਮੀ ॥ अन्तर्यामी परमात्मा की उपासना करनी चाहिए,
ਘਟ ਘਟ ਅੰਤਰਿ ਜਿਸ ਕੀ ਜੋਤਿ ਸਮਾਨੀ ॥ जिसकी ज्योति घट-घट में समा रही है।
ਤਿਸੁ ਨਾਲਿ ਕਿਆ ਚਲੈ ਪਹਨਾਮੀ ॥੪॥ उससे कुछ भी छिपाया नहीं जा सकता ॥ ४॥


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