Guru Granth Sahib Translation Project

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Page 83

ੴ ਸਤਿਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥ ईश्वर एक है, जिसे सतगुरु की कृपा से पाया जा सकता है।
ਸਿਰੀਰਾਗ ਕੀ ਵਾਰ ਮਹਲਾ ੪ ਸਲੋਕਾ ਨਾਲਿ ॥ सिरीराग की वार महला ४ श्लोकों साथ ॥
ਸਲੋਕ ਮਃ ੩ ॥ श्लोक महला ३ ॥
ਰਾਗਾ ਵਿਚਿ ਸ੍ਰੀਰਾਗੁ ਹੈ ਜੇ ਸਚਿ ਧਰੇ ਪਿਆਰੁ ॥ रागों में श्री राग तभी सर्वोत्तम राग है, जब इसके द्वारा प्राणी को सत्य-परमेश्वर के प्रति प्रेम विकसित किया जाए।
ਸਦਾ ਹਰਿ ਸਚੁ ਮਨਿ ਵਸੈ ਨਿਹਚਲ ਮਤਿ ਅਪਾਰੁ ॥ मन में हमेशा ही सत्य प्रभु निवास करते हैं और प्राणी की बुद्धि अपार प्रभु में स्थिर होती है।
ਰਤਨੁ ਅਮੋਲਕੁ ਪਾਇਆ ਗੁਰ ਕਾ ਸਬਦੁ ਬੀਚਾਰੁ ॥ जिसके परिणाम स्वरूप गुरु के शब्द का चिंतन करने से प्राणी नाम रूपी अमूल्य रत्न को प्राप्त कर लेता है।
ਜਿਹਵਾ ਸਚੀ ਮਨੁ ਸਚਾ ਸਚਾ ਸਰੀਰ ਅਕਾਰੁ ॥ नाम-सिमरन करने से मनुष्य की जिह्वा, मन और शरीर शुद्ध (विकारों से मुक्त) हो जाते हैं और मानव जीवन सार्थक हो जाता है।
ਨਾਨਕ ਸਚੈ ਸਤਿਗੁਰਿ ਸੇਵਿਐ ਸਦਾ ਸਚੁ ਵਾਪਾਰੁ ॥੧॥ हे नानक ! हे नानक, उन लोगों का जीवन हमेशा सच्चा रहता है जो सतगुरु एवं शाश्वत ईश्वर के अवतार की शिक्षाओं का पालन करते हैं।॥१॥
ਮਃ ੩ ॥ महला ३ ॥
ਹੋਰੁ ਬਿਰਹਾ ਸਭ ਧਾਤੁ ਹੈ ਜਬ ਲਗੁ ਸਾਹਿਬ ਪ੍ਰੀਤਿ ਨ ਹੋਇ ॥ जब तक प्रभु से सच्चा प्यार नहीं होता, तब तक मनुष्य की प्रीति माया के प्रति ही रहती है।
ਇਹੁ ਮਨੁ ਮਾਇਆ ਮੋਹਿਆ ਵੇਖਣੁ ਸੁਨਣੁ ਨ ਹੋਇ ॥ और माया से मोहित होकर यह मन उस प्रभु को देख-सुन नहीं सकता।
ਸਹ ਦੇਖੇ ਬਿਨੁ ਪ੍ਰੀਤਿ ਨ ਊਪਜੈ ਅੰਧਾ ਕਿਆ ਕਰੇਇ ॥ पति-परमेश्वर की अनुभूति (दर्शन) के बिना प्रेम उत्पन्न नहीं होता। अतः आध्यात्मिकअंधा अर्थात् ज्ञानहीन मनुष्य क्या कर सकता है?
ਨਾਨਕ ਜਿਨਿ ਅਖੀ ਲੀਤੀਆ ਸੋਈ ਸਚਾ ਦੇਇ ॥੨॥ हे नानक ! जिस प्रभु ने (पिछले कर्मों के आधार पर भौतिकवाद में फंसाकर) मनुष्य को नेत्रहीन (आध्यात्मिक ज्ञान की आंखें छीन ली हैं) किया है, वही उसे ज्ञान रूपी नेत्र दे भी सकता है ॥२॥
ਪਉੜੀ ॥ पउड़ी ॥
ਹਰਿ ਇਕੋ ਕਰਤਾ ਇਕੁ ਇਕੋ ਦੀਬਾਣੁ ਹਰਿ ॥ एक ईश्वर ही समस्त जीवों का रचयिता और अधिष्ठाता है।
ਹਰਿ ਇਕਸੈ ਦਾ ਹੈ ਅਮਰੁ ਇਕੋ ਹਰਿ ਚਿਤਿ ਧਰਿ ॥ सर्वत्र ईश्वर का ही आदेश चल रहा है अतः उस ईश्वर को अपने हृदय में धारण करो।
ਹਰਿ ਤਿਸੁ ਬਿਨੁ ਕੋਈ ਨਾਹਿ ਡਰੁ ਭ੍ਰਮੁ ਭਉ ਦੂਰਿ ਕਰਿ ॥ उस स्वामी के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं जिसका आदेश चलता हो अतः किसी अन्य का डर, संदेह तथा भय तुम अपने मन से निवृत कर दो।
ਹਰਿ ਤਿਸੈ ਨੋ ਸਾਲਾਹਿ ਜਿ ਤੁਧੁ ਰਖੈ ਬਾਹਰਿ ਘਰਿ ॥ उस हरि की ही स्तुति करो, जो तेरे घर के भीतर व बाहर तुम्हारी रक्षा करता है।
ਹਰਿ ਜਿਸ ਨੋ ਹੋਇ ਦਇਆਲੁ ਸੋ ਹਰਿ ਜਪਿ ਭਉ ਬਿਖਮੁ ਤਰਿ ॥੧॥ ईश्वर जिस पर दयालु होता है, वह प्रभु का भजन करके भयानक एवं विकराल संसार-सागर से पार हो जाता है ॥ १ ॥
ਸਲੋਕ ਮਃ ੧ ॥ श्लोक महला १॥
ਦਾਤੀ ਸਾਹਿਬ ਸੰਦੀਆ ਕਿਆ ਚਲੈ ਤਿਸੁ ਨਾਲਿ ॥ समस्त नियामतें उस भगवान् की दी हुई हैं, उसके साथ कोई बल नहीं चल सकता है?
ਇਕ ਜਾਗੰਦੇ ਨਾ ਲਹੰਨਿ ਇਕਨਾ ਸੁਤਿਆ ਦੇਇ ਉਠਾਲਿ ॥੧॥ कुछ प्राणी जागते हुए भी प्रभु द्वारा दिए गए अलभ्य पदार्थों से वंचित रह जाते हैं और कई प्राणियों को वह नींद से जगाकर दुर्लभ पदार्थ प्रदान करता है॥१॥
ਮਃ ੧ ॥ महला १॥
ਸਿਦਕੁ ਸਬੂਰੀ ਸਾਦਿਕਾ ਸਬਰੁ ਤੋਸਾ ਮਲਾਇਕਾਂ ॥ आस्था, संतोष और सहनशीलता ही सद्गुणी व्यक्तियों की जीवन यात्रा के प्रावधान हैं।
ਦੀਦਾਰੁ ਪੂਰੇ ਪਾਇਸਾ ਥਾਉ ਨਾਹੀ ਖਾਇਕਾ ॥੨॥ ऐसे गुणी व्यक्ति ईश्वर की कल्पना करते हैं, परन्तु दोषियों को कहीं भी स्थान नहीं मिलता ॥२॥
ਪਉੜੀ ॥ पउड़ी ॥
ਸਭ ਆਪੇ ਤੁਧੁ ਉਪਾਇ ਕੈ ਆਪਿ ਕਾਰੈ ਲਾਈ ॥ हे प्रभु ! इस दुनिया की रचना आपने की है और स्वयं ही तुमने दुनिया को अलग-अलग कार्यों में लगाया है।
ਤੂੰ ਆਪੇ ਵੇਖਿ ਵਿਗਸਦਾ ਆਪਣੀ ਵਡਿਆਈ ॥ आप अपनी महानता को देखकर स्वयं प्रसन्नता अनुभव करते हो।
ਹਰਿ ਤੁਧਹੁ ਬਾਹਰਿ ਕਿਛੁ ਨਾਹੀ ਤੂੰ ਸਚਾ ਸਾਈ ॥ हे प्रभु ! आप सत्य-शाश्वत स्वामी हो,आपके अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं।
ਤੂੰ ਆਪੇ ਆਪਿ ਵਰਤਦਾ ਸਭਨੀ ਹੀ ਥਾਈ ॥ हे प्रभु ! आप स्वयं ही सर्वत्र व्यापक हो।
ਹਰਿ ਤਿਸੈ ਧਿਆਵਹੁ ਸੰਤ ਜਨਹੁ ਜੋ ਲਏ ਛਡਾਈ ॥੨॥ हे संतजनो ! आप उस परमेश्वर की उपासना करो, जो आपको बुराईयों से बचाता है। ॥२॥
ਸਲੋਕ ਮਃ ੧ ॥ श्लोक महला १॥
ਫਕੜ ਜਾਤੀ ਫਕੜੁ ਨਾਉ ॥ सामाजिक प्रतिष्ठा एवं व्यक्तिगत नाम का अभिमान व्यर्थ है,
ਸਭਨਾ ਜੀਆ ਇਕਾ ਛਾਉ ॥ समस्त जीव एक ही ईश्वर के संरक्षण में हैं।
ਆਪਹੁ ਜੇ ਕੋ ਭਲਾ ਕਹਾਏ ॥ हे नानक ! यदि कोई व्यक्ति स्वयं को महान कहता है तो वह महान नहीं बनता
ਨਾਨਕ ਤਾ ਪਰੁ ਜਾਪੈ ਜਾ ਪਤਿ ਲੇਖੈ ਪਾਏ ॥੧॥ तों उसे तभी अच्छा जाना जाएगा, यदि उसका सम्मान प्रभु के दरबार में स्वीकृत होगा ॥१॥
ਮਃ ੨ ॥ महला २॥
ਜਿਸੁ ਪਿਆਰੇ ਸਿਉ ਨੇਹੁ ਤਿਸੁ ਆਗੈ ਮਰਿ ਚਲੀਐ ॥ मनुष्य को अपना सर्वस्व अहंकार त्यागकर उस प्रियतम के साथ रहना चाहिए जिसके साथ वह प्रेमपूर्वक जुड़ा हुआ है।
ਧ੍ਰਿਗੁ ਜੀਵਣੁ ਸੰਸਾਰਿ ਤਾ ਕੈ ਪਾਛੈ ਜੀਵਣਾ ॥੨॥ उस प्रियतम के बिना संसार में जीवित रहना शापित है ॥२ ॥
ਪਉੜੀ ॥ पउड़ी ॥
ਤੁਧੁ ਆਪੇ ਧਰਤੀ ਸਾਜੀਐ ਚੰਦੁ ਸੂਰਜੁ ਦੁਇ ਦੀਵੇ ॥ हे प्रभु ! आपने स्वयं इस धरती की रचना की हैऔर चाँद एवं सूर्य ये दो दीपक बनाए हैं। |
ਦਸ ਚਾਰਿ ਹਟ ਤੁਧੁ ਸਾਜਿਆ ਵਾਪਾਰੁ ਕਰੀਵੇ ॥ आपने इस ब्रह्माण्ड में चौदह संसारों की रचना की है, जहाँ पर प्राणियों के कर्मों का व्यापार होता है।
ਇਕਨਾ ਨੋ ਹਰਿ ਲਾਭੁ ਦੇਇ ਜੋ ਗੁਰਮੁਖਿ ਥੀਵੇ ॥ जो प्राणी गुरमुख हो जाते हैं एवं सद्कर्म करते हैं, ईश्वर उन्हें मोक्ष-रूपी आर्शीवाद प्रदान करते हैं।
ਤਿਨ ਜਮਕਾਲੁ ਨ ਵਿਆਪਈ ਜਿਨ ਸਚੁ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਪੀਵੇ ॥ जो सत्य नाम रूपी अमृत का पान करते हैं, उन्हें यमदूतों का भय नहीं सताता।
ਓਇ ਆਪਿ ਛੁਟੇ ਪਰਵਾਰ ਸਿਉ ਤਿਨ ਪਿਛੈ ਸਭੁ ਜਗਤੁ ਛੁਟੀਵੇ ॥੩॥ ईश्वर से स्नेह करने वाले प्राणी स्वयं भी मुक्त होते हैं और उनका परिवार भी बच जाता है तथा जो उनके पीछे चलता है, वह भी बच जाता है ॥३॥
ਸਲੋਕ ਮਃ ੧ ॥ श्लोक महला १॥
ਕੁਦਰਤਿ ਕਰਿ ਕੈ ਵਸਿਆ ਸੋਇ ॥ ब्रह्माण्ड की रचना करने के पश्चात्, सृष्टिकर्ता-प्रभु स्वयं इसमें निवास करते हैं।
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