Page 786
ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पौड़ी॥
ਹੁਕਮੀ ਸ੍ਰਿਸਟਿ ਸਾਜੀਅਨੁ ਬਹੁ ਭਿਤਿ ਸੰਸਾਰਾ ॥
हुकमी स्रिसटि साजीअनु बहु भिति संसारा ॥
ईश्वर ने अपने आदेश से ही सृष्टि-रचना की है और अनेक प्रकार का संसार बनाया है।
ਤੇਰਾ ਹੁਕਮੁ ਨ ਜਾਪੀ ਕੇਤੜਾ ਸਚੇ ਅਲਖ ਅਪਾਰਾ ॥
तेरा हुकमु न जापी केतड़ा सचे अलख अपारा ॥
हे सत्यस्वरूप, अलक्ष्य एवं अपार ! आपकी आज्ञा जाना नहीं जा सकती कि कितनी महान और दूरगामी है।
ਇਕਨਾ ਨੋ ਤੂ ਮੇਲਿ ਲੈਹਿ ਗੁਰ ਸਬਦਿ ਬੀਚਾਰਾ ॥
इकना नो तू मेलि लैहि गुर सबदि बीचारा ॥
आप कुछ जीवों को गुरु शब्द के चिंतन द्वारा अपने साथ मिला लेते हैं।
ਸਚਿ ਰਤੇ ਸੇ ਨਿਰਮਲੇ ਹਉਮੈ ਤਜਿ ਵਿਕਾਰਾ ॥
सचि रते से निरमले हउमै तजि विकारा ॥
जो अपने अहंकार एवं काम, क्रोध, मोह, लोभ रूपी विकारों को त्याग देते हैं, वे सत्य में ही लीन रहते हैं और वास्तव में वही निर्मल हैं।
ਜਿਸੁ ਤੂ ਮੇਲਹਿ ਸੋ ਤੁਧੁ ਮਿਲੈ ਸੋਈ ਸਚਿਆਰਾ ॥੨॥
जिसु तू मेलहि सो तुधु मिलै सोई सचिआरा ॥२॥
जिसे आप अपने साथ मिला लेते है, वही आपके साथ मिलता है और वही सत्यवादी है॥ २॥
ਸਲੋਕੁ ਮਃ ੩ ॥
सलोकु मः ३ ॥
श्लोक, तृतीय गुरु:३॥
ਸੂਹਵੀਏ ਸੂਹਾ ਸਭੁ ਸੰਸਾਰੁ ਹੈ ਜਿਨ ਦੁਰਮਤਿ ਦੂਜਾ ਭਾਉ ॥
सूहवीए सूहा सभु संसारु है जिन दुरमति दूजा भाउ ॥
हे सुहाग जोड़े वाली जीव-स्त्री ! दुर्मति के कारण जिनका माया से ही लगाव है, उनके लिए समूचा संसार ही लाल है।
ਖਿਨ ਮਹਿ ਝੂਠੁ ਸਭੁ ਬਿਨਸਿ ਜਾਇ ਜਿਉ ਟਿਕੈ ਨ ਬਿਰਖ ਕੀ ਛਾਉ ॥
खिन महि झूठु सभु बिनसि जाइ जिउ टिकै न बिरख की छाउ ॥
सारा झूठ क्षण में ऐसे नाश हो जाता है, जैसे पेड़ की छाया स्थिर नहीं रहती।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਲਾਲੋ ਲਾਲੁ ਹੈ ਜਿਉ ਰੰਗਿ ਮਜੀਠ ਸਚੜਾਉ ॥
गुरमुखि लालो लालु है जिउ रंगि मजीठ सचड़ाउ ॥
गुरुमुख बहुत ही लाल होता है, जैसे वह मजीठ के रंग में रंगा होता है।
ਉਲਟੀ ਸਕਤਿ ਸਿਵੈ ਘਰਿ ਆਈ ਮਨਿ ਵਸਿਆ ਹਰਿ ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਨਾਉ ॥
उलटी सकति सिवै घरि आई मनि वसिआ हरि अम्रित नाउ ॥
जिसके मन में हरि का अमृत नाम स्थित हो गया है और उसकी अभिलाषा माया से उल्ट कर प्रभु के घर में आ गई है।
ਨਾਨਕ ਬਲਿਹਾਰੀ ਗੁਰ ਆਪਣੇ ਜਿਤੁ ਮਿਲਿਐ ਹਰਿ ਗੁਣ ਗਾਉ ॥੧॥
नानक बलिहारी गुर आपणे जितु मिलिऐ हरि गुण गाउ ॥१॥
हे नानक ! मैं अपने गुरु पर बलिहारी जाता हूँ जिसे मिलकर परमात्मा का गुणगान किया जाता है॥ १॥
ਮਃ ੩ ॥
मः ३ ॥
तृतीय गुरु: ३॥
ਸੂਹਾ ਰੰਗੁ ਵਿਕਾਰੁ ਹੈ ਕੰਤੁ ਨ ਪਾਇਆ ਜਾਇ ॥
सूहा रंगु विकारु है कंतु न पाइआ जाइ ॥
माया का लाल रंग, सांसारिक धन और शक्ति, व्यर्थ और बेकार है; जिससे परमात्मा को नहीं पाया जा सकता।
ਇਸੁ ਲਹਦੇ ਬਿਲਮ ਨ ਹੋਵਈ ਰੰਡ ਬੈਠੀ ਦੂਜੈ ਭਾਇ ॥
इसु लहदे बिलम न होवई रंड बैठी दूजै भाइ ॥
इस रंग को उतरते कोई देरी नहीं होती और द्वैतभाव में फँसकर जीव-स्त्री विधवा हो बैठती है।
ਮੁੰਧ ਇਆਣੀ ਦੁੰਮਣੀ ਸੂਹੈ ਵੇਸਿ ਲੋੁਭਾਇ ॥
मुंध इआणी दुमणी सूहै वेसि लोभाइ ॥
द्वैतभाव में फँसी हुई मूर्ख एवं नादान जीव-स्त्री लाल वेष में लोभायमान रहती है।
ਸਬਦਿ ਸਚੈ ਰੰਗੁ ਲਾਲੁ ਕਰਿ ਭੈ ਭਾਇ ਸੀਗਾਰੁ ਬਣਾਇ ॥
सबदि सचै रंगु लालु करि भै भाइ सीगारु बणाइ ॥
यदि सच्चे शब्द द्वारा लाल रंग बना कर प्रभु भय एवं प्रेम को अपना श्रृंगार बना ले तो
ਨਾਨਕ ਸਦਾ ਸੋਹਾਗਣੀ ਜਿ ਚਲਨਿ ਸਤਿਗੁਰ ਭਾਇ ॥੨॥
नानक सदा सोहागणी जि चलनि सतिगुर भाइ ॥२॥
हे नानक ! वह सदा सुहागिन बनी रहती है, जो सतगुरु की इच्छानुसार चलती है॥ २॥
ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पौड़ी॥
ਆਪੇ ਆਪਿ ਉਪਾਇਅਨੁ ਆਪਿ ਕੀਮਤਿ ਪਾਈ ॥
आपे आपि उपाइअनु आपि कीमति पाई ॥
स्वयंभू ईश्वर ने अपने गुणों का मूल्य स्वयं ही पाया है।
ਤਿਸ ਦਾ ਅੰਤੁ ਨ ਜਾਪਈ ਗੁਰ ਸਬਦਿ ਬੁਝਾਈ ॥
तिस दा अंतु न जापई गुर सबदि बुझाई ॥
उसका रहस्य जाना नहीं जा सकता परन्तु गुरु-शब्द द्वारा ही उसकी सूझ होती है।
ਮਾਇਆ ਮੋਹੁ ਗੁਬਾਰੁ ਹੈ ਦੂਜੈ ਭਰਮਾਈ ॥
माइआ मोहु गुबारु है दूजै भरमाई ॥
माया का मोह घोर अन्धकार है, जो द्वैतभाव में भटकाता रहता है।
ਮਨਮੁਖ ਠਉਰ ਨ ਪਾਇਨ੍ਹ੍ਹੀ ਫਿਰਿ ਆਵੈ ਜਾਈ ॥
मनमुख ठउर न पाइन्ही फिरि आवै जाई ॥
स्वेच्छाचारी को कहीं भी ठिकाना नहीं मिलता और वह बार-बार जन्मता-मरता रहता है।
ਜੋ ਤਿਸੁ ਭਾਵੈ ਸੋ ਥੀਐ ਸਭ ਚਲੈ ਰਜਾਈ ॥੩॥
जो तिसु भावै सो थीऐ सभ चलै रजाई ॥३॥
जो परमात्मा को उपयुक्त लगता है, वही होता है। सब जीव उसकी इच्छानुसार ही चलते हैं।॥ ३॥
ਸਲੋਕੁ ਮਃ ੩ ॥
सलोकु मः ३ ॥
श्लोक, तृतीय गुरु: ३॥
ਸੂਹੈ ਵੇਸਿ ਕਾਮਣਿ ਕੁਲਖਣੀ ਜੋ ਪ੍ਰਭ ਛੋਡਿ ਪਰ ਪੁਰਖ ਧਰੇ ਪਿਆਰੁ ॥
सूहै वेसि कामणि कुलखणी जो प्रभ छोडि पर पुरख धरे पिआरु ॥
जो आत्मवधू आकर्षक सांसारिक धन-संपत्ति और शक्ति में डूबी रहती है, वह उस पतिता स्त्री के समान है जो अपने पति को त्यागकर परपुरुष से प्रेम करती है।
ਓਸੁ ਸੀਲੁ ਨ ਸੰਜਮੁ ਸਦਾ ਝੂਠੁ ਬੋਲੈ ਮਨਮੁਖਿ ਕਰਮ ਖੁਆਰੁ ॥
ओसु सीलु न संजमु सदा झूठु बोलै मनमुखि करम खुआरु ॥
उसका न तो चरित्र शुद्ध है, न ही आत्म-अनुशासन; वह सदा झूठ बोलती है और अपने मन की बात मानकर कर्म करती हुई अंततः विनाश को प्राप्त होती है।
ਜਿਸੁ ਪੂਰਬਿ ਹੋਵੈ ਲਿਖਿਆ ਤਿਸੁ ਸਤਿਗੁਰੁ ਮਿਲੈ ਭਤਾਰੁ ॥
जिसु पूरबि होवै लिखिआ तिसु सतिगुरु मिलै भतारु ॥
जिसके भाग्य में पूर्व ही शुभ लेख लिखा हुआ है, उसे पति-परमेश्वर मिल जाता है।
ਸੂਹਾ ਵੇਸੁ ਸਭੁ ਉਤਾਰਿ ਧਰੇ ਗਲਿ ਪਹਿਰੈ ਖਿਮਾ ਸੀਗਾਰੁ ॥
सूहा वेसु सभु उतारि धरे गलि पहिरै खिमा सीगारु ॥
वह अपना लाल वेष उतार कर गले में क्षमा रूपी श्रृंगार पहन लेती है।
ਪੇਈਐ ਸਾਹੁਰੈ ਬਹੁ ਸੋਭਾ ਪਾਏ ਤਿਸੁ ਪੂਜ ਕਰੇ ਸਭੁ ਸੈਸਾਰੁ ॥
पेईऐ साहुरै बहु सोभा पाए तिसु पूज करे सभु सैसारु ॥
फिर वह लोक-परलोक में बहुत शोभा प्राप्त करती है और सारा संसार उसकी पूजा करता है।
ਓਹ ਰਲਾਈ ਕਿਸੈ ਦੀ ਨਾ ਰਲੈ ਜਿਸੁ ਰਾਵੇ ਸਿਰਜਨਹਾਰੁ ॥
ओह रलाई किसै दी ना रलै जिसु रावे सिरजनहारु ॥
वह जीव-स्त्री सृष्टिकर्ता-ईश्वर में एकाकार हो जाती है, वह संसार से भिन्न प्रतीत होती है और सामान्य लोगों की संगति में नहीं रमती।
ਨਾਨਕ ਗੁਰਮੁਖਿ ਸਦਾ ਸੁਹਾਗਣੀ ਜਿਸੁ ਅਵਿਨਾਸੀ ਪੁਰਖੁ ਭਰਤਾਰੁ ॥੧॥
नानक गुरमुखि सदा सुहागणी जिसु अविनासी पुरखु भरतारु ॥१॥
हे नानक ! वह गुरुमुख जीव-स्त्री सदा सुहागिन है, जिसके पति शाश्वत प्रभु हैं। ॥ १॥
ਮਃ ੧ ॥
मः १ ॥
प्रथम गुरु: १ ॥
ਸੂਹਾ ਰੰਗੁ ਸੁਪਨੈ ਨਿਸੀ ਬਿਨੁ ਤਾਗੇ ਗਲਿ ਹਾਰੁ ॥
सूहा रंगु सुपनै निसी बिनु तागे गलि हारु ॥
माया का लाल रंग रात के सपने की तरह है और डोर के बिना गले में पहने हार के बराबर है।
ਸਚਾ ਰੰਗੁ ਮਜੀਠ ਕਾ ਗੁਰਮੁਖਿ ਬ੍ਰਹਮ ਬੀਚਾਰੁ ॥
सचा रंगु मजीठ का गुरमुखि ब्रहम बीचारु ॥
जबकि गुरु से प्राप्त किया ब्रह्म-चिंतन वैसे है जैसे मजीठ का सच्चा रंग होता है।
ਨਾਨਕ ਪ੍ਰੇਮ ਮਹਾ ਰਸੀ ਸਭਿ ਬੁਰਿਆਈਆ ਛਾਰੁ ॥੨॥
नानक प्रेम महा रसी सभि बुरिआईआ छारु ॥२॥
हे नानक ! जो जीव-स्त्री परमात्मा के प्रेम रूपी महारस में भीगी रहती है, उसकी सब बुराईयों जल कर राख हो जाती हैं॥ २ ॥
ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पौड़ी॥
ਇਹੁ ਜਗੁ ਆਪਿ ਉਪਾਇਓਨੁ ਕਰਿ ਚੋਜ ਵਿਡਾਨੁ ॥
इहु जगु आपि उपाइओनु करि चोज विडानु ॥
अद्भुत लीला करके परमेश्वर ने स्वयं यह जगत् उत्पन्न किया है।
ਪੰਚ ਧਾਤੁ ਵਿਚਿ ਪਾਈਅਨੁ ਮੋਹੁ ਝੂਠੁ ਗੁਮਾਨੁ ॥
पंच धातु विचि पाईअनु मोहु झूठु गुमानु ॥
उसने इसमें पाँच तत्व-वायु, आकाश, अग्नि, जल एवं पृथ्वी डाले हैं और मोह, झूठ एवं घमण्ड भी डाले हैं।
ਆਵੈ ਜਾਇ ਭਵਾਈਐ ਮਨਮੁਖੁ ਅਗਿਆਨੁ ॥
आवै जाइ भवाईऐ मनमुखु अगिआनु ॥
ज्ञानहीन मनमुख जीव जन्म-मरण के चक्र में ही भटकता रहता है।
ਇਕਨਾ ਆਪਿ ਬੁਝਾਇਓਨੁ ਗੁਰਮੁਖਿ ਹਰਿ ਗਿਆਨੁ ॥
इकना आपि बुझाइओनु गुरमुखि हरि गिआनु ॥
कुछ जीवों को भगवान् स्वयं ही गुरु के माध्यम से ब्रह्म-ज्ञान प्रदान करता है।
ਭਗਤਿ ਖਜਾਨਾ ਬਖਸਿਓਨੁ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਨਿਧਾਨੁ ॥੪॥
भगति खजाना बखसिओनु हरि नामु निधानु ॥४॥
जिसने हरि-नाम रूपी धन पा लिया है, उन्हें ही उसने भक्ति का खजाना प्रदान किया है।॥ ४॥
ਸਲੋਕੁ ਮਃ ੩ ॥
सलोकु मः ३ ॥
श्लोक, तृतीय गुरु: ३॥
ਸੂਹਵੀਏ ਸੂਹਾ ਵੇਸੁ ਛਡਿ ਤੂ ਤਾ ਪਿਰ ਲਗੀ ਪਿਆਰੁ ॥
सूहवीए सूहा वेसु छडि तू ता पिर लगी पिआरु ॥
हे सुहाग जोड़े वाली ! तू अपना लाल वेष छोड़ दे तो ही तेरा प्यार अपने पति-प्रभु से लगेगा।