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ਸਭ ਕੈ ਮਧਿ ਸਭ ਹੂ ਤੇ ਬਾਹਰਿ ਰਾਗ ਦੋਖ ਤੇ ਨਿਆਰੋ ॥
सभ कै मधि सभ हू ते बाहरि राग दोख ते निआरो ॥
भगवान् सबके भीतर और बाहर व्याप्त है, वह राग-द्वेष से निर्लिप्त है।
ਨਾਨਕ ਦਾਸ ਗੋਬਿੰਦ ਸਰਣਾਈ ਹਰਿ ਪ੍ਰੀਤਮੁ ਮਨਹਿ ਸਧਾਰੋ ॥੩॥
नानक दास गोबिंद सरणाई हरि प्रीतमु मनहि सधारो ॥३॥
दास नानक गोविंद की शरण में है और प्रिय प्रभु ही उनके मन का एकमात्र सहारा है। ॥ ३॥
ਮੈ ਖੋਜਤ ਖੋਜਤ ਜੀ ਹਰਿ ਨਿਹਚਲੁ ਸੁ ਘਰੁ ਪਾਇਆ ॥
मै खोजत खोजत जी हरि निहचलु सु घरु पाइआ ॥
खोजते-खोजते मैंने हरि का निश्चल घर पा लिया है।
ਸਭਿ ਅਧ੍ਰੁਵ ਡਿਠੇ ਜੀਉ ਤਾ ਚਰਨ ਕਮਲ ਚਿਤੁ ਲਾਇਆ ॥
सभि अध्रुव डिठे जीउ ता चरन कमल चितु लाइआ ॥
दुनिया में मुझे जब सब नाशवान दिखाई दिए तो मैंने प्रभु के चरण-कमल से ही चित्त लगाया।
ਪ੍ਰਭੁ ਅਬਿਨਾਸੀ ਹਉ ਤਿਸ ਕੀ ਦਾਸੀ ਮਰੈ ਨ ਆਵੈ ਜਾਏ ॥
प्रभु अबिनासी हउ तिस की दासी मरै न आवै जाए ॥
मैं अविनाशी प्रभु की दासी हूँ, जो जन्म-मरण से मुक्त है।
ਧਰਮ ਅਰਥ ਕਾਮ ਸਭਿ ਪੂਰਨ ਮਨਿ ਚਿੰਦੀ ਇਛ ਪੁਜਾਏ ॥
धरम अरथ काम सभि पूरन मनि चिंदी इछ पुजाए ॥
धर्म, अर्थ एवं काम ये सारे पदार्थ उसमें भरपूर हैं और वह मनोकामनाएँ पूरी कर देता है।
ਸ੍ਰੁਤਿ ਸਿਮ੍ਰਿਤਿ ਗੁਨ ਗਾਵਹਿ ਕਰਤੇ ਸਿਧ ਸਾਧਿਕ ਮੁਨਿ ਜਨ ਧਿਆਇਆ ॥
स्रुति सिम्रिति गुन गावहि करते सिध साधिक मुनि जन धिआइआ ॥
वेद एवं स्मृतियाँ उस सृष्टिकर्ता का ही गुणगान करती हैं तथा सिद्ध, साधक एवं मुनि जनों ने उनका ही मनन किया है।
ਨਾਨਕ ਸਰਨਿ ਕ੍ਰਿਪਾ ਨਿਧਿ ਸੁਆਮੀ ਵਡਭਾਗੀ ਹਰਿ ਹਰਿ ਗਾਇਆ ॥੪॥੧॥੧੧॥
नानक सरनि क्रिपा निधि सुआमी वडभागी हरि हरि गाइआ ॥४॥१॥११॥
हे नानक ! मैं कृपानिधि स्वामी की ही शरण में हूँ और बड़ा भाग्यशाली हूँ जो परमात्मा का यशगान किया है॥ ४॥ १॥ ११॥
ੴ ਸਤਿਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
ईश्वर एक है जिसे सतगुरु की कृपा से पाया जा सकता है। ॥
ਵਾਰ ਸੂਹੀ ਕੀ ਸਲੋਕਾ ਨਾਲਿ ਮਹਲਾ ੩ ॥
वार सूही की सलोका नालि महला ३ ॥
सूही का वार, श्लोकों के साथ, तृतीय गुरु: ३ ॥
ਸਲੋਕੁ ਮਃ ੩ ॥
सलोकु मः ३ ॥
श्लोक, तृतीय गुरु: ३॥
ਸੂਹੈ ਵੇਸਿ ਦੋਹਾਗਣੀ ਪਰ ਪਿਰੁ ਰਾਵਣ ਜਾਇ ॥
सूहै वेसि दोहागणी पर पिरु रावण जाइ ॥
सांसारिक सुखों में लिप्त मनुष्य उस अभागी आत्मा-वधू के समान है, जो आकर्षक लाल वस्त्र पहनकर पराए पुरुष से मिलने जाती है।
ਪਿਰੁ ਛੋਡਿਆ ਘਰਿ ਆਪਣੈ ਮੋਹੀ ਦੂਜੈ ਭਾਇ ॥
पिरु छोडिआ घरि आपणै मोही दूजै भाइ ॥
वह अपना घर व पति-प्रभु को छोड़ कर द्वैतभाव में लीन बनी हुई है।
ਮਿਠਾ ਕਰਿ ਕੈ ਖਾਇਆ ਬਹੁ ਸਾਦਹੁ ਵਧਿਆ ਰੋਗੁ ॥
मिठा करि कै खाइआ बहु सादहु वधिआ रोगु ॥
जिस पदार्थ को उसने मीठा मान कर खाया है, उसके अधिक स्वाद से उसके शरीर में रोग और भी बढ़ गया है।
ਸੁਧੁ ਭਤਾਰੁ ਹਰਿ ਛੋਡਿਆ ਫਿਰਿ ਲਗਾ ਜਾਇ ਵਿਜੋਗੁ ॥
सुधु भतारु हरि छोडिआ फिरि लगा जाइ विजोगु ॥
उसने अपने शुद्ध पति हरि को छोड़ दिया है और उसका फिर वियोग हो गया है।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਹੋਵੈ ਸੁ ਪਲਟਿਆ ਹਰਿ ਰਾਤੀ ਸਾਜਿ ਸੀਗਾਰਿ ॥
गुरमुखि होवै सु पलटिआ हरि राती साजि सीगारि ॥
जो जीव-स्त्री गुरुमुख बन गई है, वह द्वैतभाव से पलट गई है और अपना हार-शृंगार बनाकर हरि के रंग में लीन रहती है।
ਸਹਜਿ ਸਚੁ ਪਿਰੁ ਰਾਵਿਆ ਹਰਿ ਨਾਮਾ ਉਰ ਧਾਰਿ ॥
सहजि सचु पिरु राविआ हरि नामा उर धारि ॥
उसने हरि-नाम को अपने हृदय में बसाकर सहज ही सच्चे प्रभु को अपने मन के भीतर अनुभव किया है।
ਆਗਿਆਕਾਰੀ ਸਦਾ ਸੋੁਹਾਗਣਿ ਆਪਿ ਮੇਲੀ ਕਰਤਾਰਿ ॥
आगिआकारी सदा सोहागणि आपि मेली करतारि ॥
प्रभु की आज्ञाकारिणी जीव-स्त्री सदा सुहागिन है और उसे परमात्मा ने स्वयं अपने साथ मिला लिया है।
ਨਾਨਕ ਪਿਰੁ ਪਾਇਆ ਹਰਿ ਸਾਚਾ ਸਦਾ ਸੋੁਹਾਗਣਿ ਨਾਰਿ ॥੧॥
नानक पिरु पाइआ हरि साचा सदा सोहागणि नारि ॥१॥
हे नानक ! उसने अपना सच्चा पति हरि पा लिया है और वह सदा सुहागिन नारी बनी रहती हैं।॥ १॥
ਮਃ ੩ ॥
मः ३ ॥
तृतीय गुरु: ३॥
ਸੂਹਵੀਏ ਨਿਮਾਣੀਏ ਸੋ ਸਹੁ ਸਦਾ ਸਮ੍ਹ੍ਹਾਲਿ ॥
सूहवीए निमाणीए सो सहु सदा सम्हालि ॥
हे सांसारिक आकर्षणों में डूबी असहाय आत्मवधू, प्रेमपूर्वक भक्तिपूर्वक अपने पति-परमेश्वर को सदैव स्मरण करो।
ਨਾਨਕ ਜਨਮੁ ਸਵਾਰਹਿ ਆਪਣਾ ਕੁਲੁ ਭੀ ਛੁਟੀ ਨਾਲਿ ॥੨॥
नानक जनमु सवारहि आपणा कुलु भी छुटी नालि ॥२॥
हे नानक ! इस तरह वह अपना जन्म संवार लेती है और साथ ही उसका वंश भी छूट जाता है॥ २॥
ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पौड़ी ॥
ਆਪੇ ਤਖਤੁ ਰਚਾਇਓਨੁ ਆਕਾਸ ਪਤਾਲਾ ॥
आपे तखतु रचाइओनु आकास पताला ॥
ईश्वर ने स्वयं ही आकाश एवं पाताल रूपी अपने सिंहासन की रचना की है।
ਹੁਕਮੇ ਧਰਤੀ ਸਾਜੀਅਨੁ ਸਚੀ ਧਰਮ ਸਾਲਾ ॥
हुकमे धरती साजीअनु सची धरम साला ॥
उसके आदेश से ही धरती का निर्माण हुआ है, जो जीवों के लिए धर्म कमाने की सच्ची धर्मशाला है।
ਆਪਿ ਉਪਾਇ ਖਪਾਇਦਾ ਸਚੇ ਦੀਨ ਦਇਆਲਾ ॥
आपि उपाइ खपाइदा सचे दीन दइआला ॥
हे सच्चे दीनदयाल ! आप स्वयं ही दुनिया को बनाकर नष्ट कर देते है।
ਸਭਨਾ ਰਿਜਕੁ ਸੰਬਾਹਿਦਾ ਤੇਰਾ ਹੁਕਮੁ ਨਿਰਾਲਾ ॥
सभना रिजकु स्मबाहिदा तेरा हुकमु निराला ॥
आपवसब जीवों को भोजन देते हैं और आपकी आज्ञा अद्वितीय है।
ਆਪੇ ਆਪਿ ਵਰਤਦਾ ਆਪੇ ਪ੍ਰਤਿਪਾਲਾ ॥੧॥
आपे आपि वरतदा आपे प्रतिपाला ॥१॥
वह सब जीवों में क्रियान्वित है और स्वयं ही उनका पोषण करता है।॥ १॥
ਸਲੋਕੁ ਮਃ ੩ ॥
सलोकु मः ३ ॥
श्लोक, तृतीय गुरु: ३॥
ਸੂਹਬ ਤਾ ਸੋਹਾਗਣੀ ਜਾ ਮੰਨਿ ਲੈਹਿ ਸਚੁ ਨਾਉ ॥
सूहब ता सोहागणी जा मंनि लैहि सचु नाउ ॥
हे सुहाग के परिधान वाली जीव-स्त्री ! तू सुहागिन तभी बन सकती है, यदि तू सत्य-नाम को मन में बसा ले।
ਸਤਿਗੁਰੁ ਅਪਣਾ ਮਨਾਇ ਲੈ ਰੂਪੁ ਚੜੀ ਤਾ ਅਗਲਾ ਦੂਜਾ ਨਾਹੀ ਥਾਉ ॥
सतिगुरु अपणा मनाइ लै रूपु चड़ी ता अगला दूजा नाही थाउ ॥
यदि तू अपने सतगुरु को प्रसन्न कर ले तो तेरा रूप हजार गुणा बढ़ जाएगा। नाम प्राप्त करने के लिए गुरु के अतिरिक्त अन्य कोई स्थान नहीं।
ਐਸਾ ਸੀਗਾਰੁ ਬਣਾਇ ਤੂ ਮੈਲਾ ਕਦੇ ਨ ਹੋਵਈ ਅਹਿਨਿਸਿ ਲਾਗੈ ਭਾਉ ॥
ऐसा सीगारु बणाइ तू मैला कदे न होवई अहिनिसि लागै भाउ ॥
तू अपना ऐसा श्रृंगार बना, जो कभी भी मैला न हो और रात-दिन तेरा प्रेम प्रभु से बना रहे
ਨਾਨਕ ਸੋਹਾਗਣਿ ਕਾ ਕਿਆ ਚਿਹਨੁ ਹੈ ਅੰਦਰਿ ਸਚੁ ਮੁਖੁ ਉਜਲਾ ਖਸਮੈ ਮਾਹਿ ਸਮਾਇ ॥੧॥
नानक सोहागणि का किआ चिहनु है अंदरि सचु मुखु उजला खसमै माहि समाइ ॥१॥
हे नानक ! सुहागिन की वास्तव में यही निशानी है कि उसके मन में सत्य स्थित हो, उसका मुख उज्ज्वल हो और यह प्रभु में ही विलीन रहे॥ १॥
ਮਃ ੩ ॥
मः ३ ॥
तृतीय गुरु: ३॥
ਲੋਕਾ ਵੇ ਹਉ ਸੂਹਵੀ ਸੂਹਾ ਵੇਸੁ ਕਰੀ ॥
लोका वे हउ सूहवी सूहा वेसु करी ॥
हे लोगो! मैं सुहाग के लाल वस्त्रों में हूँ और मैंने नववधु जैसा वेष किया हुआ है।
ਵੇਸੀ ਸਹੁ ਨ ਪਾਈਐ ਕਰਿ ਕਰਿ ਵੇਸ ਰਹੀ ॥
वेसी सहु न पाईऐ करि करि वेस रही ॥
परंतु बाहरी दिखावे से पति-परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती; मैं विविध प्रकार के आडंबर, कर्मकांड और पाखंड आज़माकर थक चुका हूँ।
ਨਾਨਕ ਤਿਨੀ ਸਹੁ ਪਾਇਆ ਜਿਨੀ ਗੁਰ ਕੀ ਸਿਖ ਸੁਣੀ ॥
नानक तिनी सहु पाइआ जिनी गुर की सिख सुणी ॥
हे नानक ! प्रभु उन्हें ही प्राप्त हुआ है, जिन्होंने गुरु की शिक्षा सुनी है।
ਜੋ ਤਿਸੁ ਭਾਵੈ ਸੋ ਥੀਐ ਇਨ ਬਿਧਿ ਕੰਤ ਮਿਲੀ ॥੨॥
जो तिसु भावै सो थीऐ इन बिधि कंत मिली ॥२॥
इस विधि द्वारा ही पति-प्रभु मिलते है जो वेष उसे उपयुक्त लगता है, जीव-स्त्री उसी वेष वाली बन जाए॥ २॥