Guru Granth Sahib Translation Project

Guru Granth Sahib Hindi Page 775

Page 775

ਹਰਿ ਮੰਗਲ ਰਸਿ ਰਸਨ ਰਸਾਏ ਨਾਨਕ ਨਾਮੁ ਪ੍ਰਗਾਸਾ ॥੨॥ मैंने हरि के मंगल गुण ही गाए हैं, जिव्हा से उसके गुणों का रस प्राप्त किया है। हे नानक ! अब मन में नाम का प्रकाश हो गया है॥ २॥
ਅੰਤਰਿ ਰਤਨੁ ਬੀਚਾਰੇ ॥ ਗੁਰਮੁਖਿ ਨਾਮੁ ਪਿਆਰੇ ॥ जीव अपने अंतर्मन में मौजूद नाम रूपी रत्न का ही चिंतन करता है। गुरुमुख को परमात्मा का नाम बड़ा प्यारा लगता है।
ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਪਿਆਰੇ ਸਬਦਿ ਨਿਸਤਾਰੇ ਅਗਿਆਨੁ ਅਧੇਰੁ ਗਵਾਇਆ ॥ जिसे हरिनाम प्यारा लगता है, गुरु ने शब्द द्वारा उसका उद्धार कर दिया है और उसके अन्तर में से अज्ञान रूपी अंधेरा समाप्त कर दिया है।
ਗਿਆਨੁ ਪ੍ਰਚੰਡੁ ਬਲਿਆ ਘਟਿ ਚਾਨਣੁ ਘਰ ਮੰਦਰ ਸੋਹਾਇਆ ॥ उसके हृदय में ज्ञान रूपी प्रचंड अग्नि प्रज्वलित हो गई है और प्रभु-ज्योति का आलोक हो गया है। उसके घर एवं मन्दिर सुन्दर बन गए हैं।
ਤਨੁ ਮਨੁ ਅਰਪਿ ਸੀਗਾਰ ਬਣਾਏ ਹਰਿ ਪ੍ਰਭ ਸਾਚੇ ਭਾਇਆ ॥ उसने अपना तन एवं मन अर्पण करके शुभ गुणों का श्रृंगार किया है, जो सत्यस्वरूप प्रभु को अच्छा लगा है।
ਜੋ ਪ੍ਰਭੁ ਕਹੈ ਸੋਈ ਪਰੁ ਕੀਜੈ ਨਾਨਕ ਅੰਕਿ ਸਮਾਇਆ ॥੩॥ जो प्रभु कहता है, वही वह भलीभांति करता है। हे नानक ! वह प्रभु-चरणों में लीन हो गया है॥ ३॥
ਹਰਿ ਪ੍ਰਭਿ ਕਾਜੁ ਰਚਾਇਆ ॥ हे भाई ! प्रभु ने विवाह रचाया है और
ਗੁਰਮੁਖਿ ਵੀਆਹਣਿ ਆਇਆ ॥ वह गुरु के माध्यम से विवाह करवाने आया है।
ਵੀਆਹਣਿ ਆਇਆ ਗੁਰਮੁਖਿ ਹਰਿ ਪਾਇਆ ਸਾ ਧਨ ਕੰਤ ਪਿਆਰੀ ॥ वह विवाह करवाने आया है और जीव-स्त्री ने गुरु के माध्यम से हरी को पा लिया है। वह जीव-स्त्री प्रभु को बड़ी प्यारी लगती है।
ਸੰਤ ਜਨਾ ਮਿਲਿ ਮੰਗਲ ਗਾਏ ਹਰਿ ਜੀਉ ਆਪਿ ਸਵਾਰੀ ॥ संतजनों ने मिलकर विवाह के मंगल गीत गाए हैं तथा श्री हरि ने स्वयं ही शुभ गुणों से अलंकृत किया है।
ਸੁਰਿ ਨਰ ਗਣ ਗੰਧਰਬ ਮਿਲਿ ਆਏ ਅਪੂਰਬ ਜੰਞ ਬਣਾਈ ॥ इस शुभावसर पर देवते, नर एवं गंधर्व मिल कर आए हैं और अपूर्व बारात बन गई।
ਨਾਨਕ ਪ੍ਰਭੁ ਪਾਇਆ ਮੈ ਸਾਚਾ ਨਾ ਕਦੇ ਮਰੈ ਨ ਜਾਈ ॥੪॥੧॥੩॥ हे नानक ! मैंने सच्चा प्रभु पा लिया है, जो जन्म-मरण के चक्र से मुक्त है॥ ४॥ १॥ ३॥
ਰਾਗੁ ਸੂਹੀ ਛੰਤ ਮਹਲਾ ੪ ਘਰੁ ੩ रागु सूही छंत महला ४ घरु ३
ੴ ਸਤਿਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
ਆਵਹੋ ਸੰਤ ਜਨਹੁ ਗੁਣ ਗਾਵਹ ਗੋਵਿੰਦ ਕੇਰੇ ਰਾਮ ॥ हे संतजनो ! आओ, हम गोविंद का गुणगान करें।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਮਿਲਿ ਰਹੀਐ ਘਰਿ ਵਾਜਹਿ ਸਬਦ ਘਨੇਰੇ ਰਾਮ ॥ गुरुमुख बनकर मिलकर रहें और हमारे हृदय-घर में अनेक प्रकार के शब्द बजते रहते हैं।
ਸਬਦ ਘਨੇਰੇ ਹਰਿ ਪ੍ਰਭ ਤੇਰੇ ਤੂ ਕਰਤਾ ਸਭ ਥਾਈ ॥ हे प्रभु ! यह अनेक प्रकार के अनहद शब्द तेरे ही बजाए बजते हैं, तू जगत् का रचयिता है और सर्वव्यापक है।
ਅਹਿਨਿਸਿ ਜਪੀ ਸਦਾ ਸਾਲਾਹੀ ਸਾਚ ਸਬਦਿ ਲਿਵ ਲਾਈ ॥ ऐसी कृपा करो कि मैं रात-दिन तेरा नाम जपता रहूँ, सदैव तेरी स्तुति करता रहूँ और सच्चे शब्द में अपनी वृत्ति लगाकर रखूं।
ਅਨਦਿਨੁ ਸਹਜਿ ਰਹੈ ਰੰਗਿ ਰਾਤਾ ਰਾਮ ਨਾਮੁ ਰਿਦ ਪੂਜਾ ॥ मैं रात-दिन सहज स्वभाव तेरे रंग में लीन रहूँ और अपने हृदय में राम नाम की पूजा-अर्चना करता रहूँ।
ਨਾਨਕ ਗੁਰਮੁਖਿ ਏਕੁ ਪਛਾਣੈ ਅਵਰੁ ਨ ਜਾਣੈ ਦੂਜਾ ॥੧॥ हे नानक ! गुरु के माध्यम से मैं एक परमात्मा को ही पहचानता हूँ और किसी अन्य को नहीं जानता॥ १॥
ਸਭ ਮਹਿ ਰਵਿ ਰਹਿਆ ਸੋ ਪ੍ਰਭੁ ਅੰਤਰਜਾਮੀ ਰਾਮ ॥ वह प्रभु अन्तर्यामी है और सब जीवों में समाया हुआ है।
ਗੁਰ ਸਬਦਿ ਰਵੈ ਰਵਿ ਰਹਿਆ ਸੋ ਪ੍ਰਭੁ ਮੇਰਾ ਸੁਆਮੀ ਰਾਮ ॥ जो जीव शब्द-गुरु द्वारा उसका मनन करता है, मेरा स्वामी प्रभु उसे सब में बसा हुआ नजर आता है।
ਪ੍ਰਭੁ ਮੇਰਾ ਸੁਆਮੀ ਅੰਤਰਜਾਮੀ ਘਟਿ ਘਟਿ ਰਵਿਆ ਸੋਈ ॥ मेरा स्वामी अन्तर्यामी प्रभु सबके हृदय में मौजूद है।
ਗੁਰਮਤਿ ਸਚੁ ਪਾਈਐ ਸਹਜਿ ਸਮਾਈਐ ਤਿਸੁ ਬਿਨੁ ਅਵਰੁ ਨ ਕੋਈ ॥ गुरु की शिक्षा द्वारा ही सत्य की प्राप्ति होती है और जीव सहज ही उसमें समा जाता है, उसके अतिरिक्त अन्य कोई समर्थ नहीं है।
ਸਹਜੇ ਗੁਣ ਗਾਵਾ ਜੇ ਪ੍ਰਭ ਭਾਵਾ ਆਪੇ ਲਏ ਮਿਲਾਏ ॥ यदि प्रभु को उपयुक्त लगे तो मैं सहज ही उसका गुणानुवाद करूँ और वह स्वयं ही मुझे अपने चरणों से मिला ले।
ਨਾਨਕ ਸੋ ਪ੍ਰਭੁ ਸਬਦੇ ਜਾਪੈ ਅਹਿਨਿਸਿ ਨਾਮੁ ਧਿਆਏ ॥੨॥ हे नानक ! शब्द-गुरु द्वारा उस प्रभु की सूझ होती है और रात-दिन उसके नाम का भजन होता है॥ २॥
ਇਹੁ ਜਗੋ ਦੁਤਰੁ ਮਨਮੁਖੁ ਪਾਰਿ ਨ ਪਾਈ ਰਾਮ ॥ यह जगत् ऐसा सागर है, जिसमें से पार होना बहुत कठिन है और मन की मर्जी अनुसार चलने वाला जीव तो इससे पार ही नहीं हो सकता।
ਅੰਤਰੇ ਹਉਮੈ ਮਮਤਾ ਕਾਮੁ ਕ੍ਰੋਧੁ ਚਤੁਰਾਈ ਰਾਮ ॥ ऐसे जीव के अन्तर्मन में अभिमान, ममत्व, काम, क्रोध एवं चतुराई ही भरे होते हैं।
ਅੰਤਰਿ ਚਤੁਰਾਈ ਥਾਇ ਨ ਪਾਈ ਬਿਰਥਾ ਜਨਮੁ ਗਵਾਇਆ ॥ अन्तर्मन में चतुराई होने के कारण उसका जीवन सफल नहीं होता और अपना जीवन व्यर्थ ही गंवा देता है।
ਜਮ ਮਗਿ ਦੁਖੁ ਪਾਵੈ ਚੋਟਾ ਖਾਵੈ ਅੰਤਿ ਗਇਆ ਪਛੁਤਾਇਆ ॥ वह मृत्यु के मार्ग में बहुत दुख प्राप्त करता है, मृत्यु से चोटें खाता है तथा अन्तिम समय जगत् को छोड़ता हुआ पछताता है।
ਬਿਨੁ ਨਾਵੈ ਕੋ ਬੇਲੀ ਨਾਹੀ ਪੁਤੁ ਕੁਟੰਬੁ ਸੁਤੁ ਭਾਈ ॥ परमात्मा के नाम के अतिरिक्त पुत्र, परिवार, सुपुत्र एवं भाई इत्यादि कोई उसका साथी नहीं बना।
ਨਾਨਕ ਮਾਇਆ ਮੋਹੁ ਪਸਾਰਾ ਆਗੈ ਸਾਥਿ ਨ ਜਾਈ ॥੩॥ हे नानक ! यह मोह-माया का प्रसार आगे परलोक में जीव के साथ नहीं जाता॥ ३॥
ਹਉ ਪੂਛਉ ਅਪਨਾ ਸਤਿਗੁਰੁ ਦਾਤਾ ਕਿਨ ਬਿਧਿ ਦੁਤਰੁ ਤਰੀਐ ਰਾਮ ॥ मेरा सतिगुरु नाम का दाता है, मैं उससे पूछता हूँ कि इस दुस्तर संसार-सागर से कैसे पार हुआ जा सकता है ?
ਸਤਿਗੁਰ ਭਾਇ ਚਲਹੁ ਜੀਵਤਿਆ ਇਵ ਮਰੀਐ ਰਾਮ ॥ सतिगुरु की रजानुसार चलो, फिर जीते-जी मरा जाता है अर्थात् अहंत्व समाप्त हो जाता है।
ਜੀਵਤਿਆ ਮਰੀਐ ਭਉਜਲੁ ਤਰੀਐ ਗੁਰਮੁਖਿ ਨਾਮਿ ਸਮਾਵੈ ॥ यदि मनुष्य जीते-जी मर जाए अर्थात् अपना अहम् समाप्त कर दे तो इस संसार-सागर से पार हुआ जा सकता है और वह गुरु के माध्यम से नाम में ही विलीन हो जाता है।


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