Guru Granth Sahib Translation Project

Guru Granth Sahib Hindi Page 752

Page 752

ਲਾਲਿ ਰਤਾ ਮਨੁ ਮਾਨਿਆ ਗੁਰੁ ਪੂਰਾ ਪਾਇਆ ॥੨॥ लालि रता मनु मानिआ गुरु पूरा पाइआ ॥२॥ पूर्ण गुरु के दर्शन से व्यक्ति ईश्वर-प्रेम से पूर्णतः भर जाता है, और उसका मन शांति एवं आश्वासन प्राप्त करता है। ॥ २ ॥
ਹਉ ਜੀਵਾ ਗੁਣ ਸਾਰਿ ਅੰਤਰਿ ਤੂ ਵਸੈ ॥ हउ जीवा गुण सारि अंतरि तू वसै ॥ हे ईश्वर ! जब आप मेरे मन में बसते है तो मैं आपके गुणों को स्मरण करके ही जीता हूँ।
ਤੂੰ ਵਸਹਿ ਮਨ ਮਾਹਿ ਸਹਜੇ ਰਸਿ ਰਸੈ ॥੩॥ तूं वसहि मन माहि सहजे रसि रसै ॥३॥ एक आप ही मेरे मन में बसते है और मेरा मन सहज ही हरि-रस का स्वाद प्राप्त करता रहता है॥ ३॥
ਮੂਰਖ ਮਨ ਸਮਝਾਇ ਆਖਉ ਕੇਤੜਾ ॥ मूरख मन समझाइ आखउ केतड़ा ॥ हे मूर्ख मन ! तुझे समझाने के लिए मुझे कितनी बार तुझसे कहना पड़ेगा,
ਗੁਰਮੁਖਿ ਹਰਿ ਗੁਣ ਗਾਇ ਰੰਗਿ ਰੰਗੇਤੜਾ ॥੪॥ गुरमुखि हरि गुण गाइ रंगि रंगेतड़ा ॥४॥ गुरु के माध्यम से हरि का गुणगान करके उसके रंग में रंग जा॥ ४॥
ਨਿਤ ਨਿਤ ਰਿਦੈ ਸਮਾਲਿ ਪ੍ਰੀਤਮੁ ਆਪਣਾ ॥ नित नित रिदै समालि प्रीतमु आपणा ॥ प्रियतम प्रभु को नित्य ही अपने हृदय में याद कर।
ਜੇ ਚਲਹਿ ਗੁਣ ਨਾਲਿ ਨਾਹੀ ਦੁਖੁ ਸੰਤਾਪਣਾ ॥੫॥ जे चलहि गुण नालि नाही दुखु संतापणा ॥५॥ यदि तू शुभ-गुण अपने साथ लेकर जाए तो तुझे कोई दुःख-संताप प्रभावित नहीं करेगा ॥५॥
ਮਨਮੁਖ ਭਰਮਿ ਭੁਲਾਣਾ ਨਾ ਤਿਸੁ ਰੰਗੁ ਹੈ ॥ मनमुख भरमि भुलाणा ना तिसु रंगु है ॥ मन की इच्छानुसार चलने वाला आदमी भ्रम में फँसा हुआ है और उसे परमात्मा से कोई प्रिति नहीं है।
ਮਰਸੀ ਹੋਇ ਵਿਡਾਣਾ ਮਨਿ ਤਨਿ ਭੰਗੁ ਹੈ ॥੬॥ मरसी होइ विडाणा मनि तनि भंगु है ॥६॥ वह तड़प-तड़प कर मर जाएगा, क्योंकि ऐसे व्यक्ति का शरीर और मन सदैव अशांति में रहते हैं। ॥ ६॥
ਗੁਰ ਕੀ ਕਾਰ ਕਮਾਇ ਲਾਹਾ ਘਰਿ ਆਣਿਆ ॥ गुर की कार कमाइ लाहा घरि आणिआ ॥ जिस इन्सान ने गुरु की शिक्षानुसार आचरण करके भक्ति रूपी लाभ हृदय-घर में बसाया है,
ਗੁਰਬਾਣੀ ਨਿਰਬਾਣੁ ਸਬਦਿ ਪਛਾਣਿਆ ॥੭॥ गुरबाणी निरबाणु सबदि पछाणिआ ॥७॥ उसने गुरुवाणी द्वारा पावन ब्रह्म-शब्द को पहचान लिया है॥ ७ ॥
ਇਕ ਨਾਨਕ ਕੀ ਅਰਦਾਸਿ ਜੇ ਤੁਧੁ ਭਾਵਸੀ ॥ इक नानक की अरदासि जे तुधु भावसी ॥ हे प्रभु ! नानक की आपसे एक यही प्रार्थना है, यदि आपको उपयुक्त लगे तो
ਮੈ ਦੀਜੈ ਨਾਮ ਨਿਵਾਸੁ ਹਰਿ ਗੁਣ ਗਾਵਸੀ ॥੮॥੧॥੩॥ मै दीजै नाम निवासु हरि गुण गावसी ॥८॥१॥३॥ मुझे नाम प्रदान करो चूंकि मैं आपका गुणगान करता रहूँ ॥८॥१॥३॥
ਸੂਹੀ ਮਹਲਾ ੧ ॥ सूही महला १ ॥ राग सूही, प्रथम गुरु: १ ॥
ਜਿਉ ਆਰਣਿ ਲੋਹਾ ਪਾਇ ਭੰਨਿ ਘੜਾਈਐ ॥ जिउ आरणि लोहा पाइ भंनि घड़ाईऐ ॥ हे भाई ! जैसे भट्टी में डालकर लोहे को गला कर पुनः बनाया जाता है,
ਤਿਉ ਸਾਕਤੁ ਜੋਨੀ ਪਾਇ ਭਵੈ ਭਵਾਈਐ ॥੧॥ तिउ साकतु जोनी पाइ भवै भवाईऐ ॥१॥ वैसे ही शाक्त जीव योनियों में पड़कर जीवन-मृत्यु के बन्धन में भटकता रहता है। १॥
ਬਿਨੁ ਬੂਝੇ ਸਭੁ ਦੁਖੁ ਦੁਖੁ ਕਮਾਵਣਾ ॥ बिनु बूझे सभु दुखु दुखु कमावणा ॥ सत्य को समझे बिना उसे हर तरफ दुःख ही मिलता है और वह केवल दुःख ही भोगता है।
ਹਉਮੈ ਆਵੈ ਜਾਇ ਭਰਮਿ ਭੁਲਾਵਣਾ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ हउमै आवै जाइ भरमि भुलावणा ॥१॥ रहाउ ॥ अभिमान के कारण वह जन्मता-मरता रहता हैं और भ्रम में ही भूला रहता है॥ १॥ रहाउ॥
ਤੂੰ ਗੁਰਮੁਖਿ ਰਖਣਹਾਰੁ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਧਿਆਈਐ ॥ तूं गुरमुखि रखणहारु हरि नामु धिआईऐ ॥ हे परमेश्वर ! आप गुरुमुख की योनियों के चक्र से रक्षा करने वाले है, इसलिए प्रभु नाम का मनन करना चाहिए
ਮੇਲਹਿ ਤੁਝਹਿ ਰਜਾਇ ਸਬਦੁ ਕਮਾਈਐ ॥੨॥ मेलहि तुझहि रजाइ सबदु कमाईऐ ॥२॥ आप जीव को अपनी इच्छा से ही गुरु से मिलाते है और फिर वह शब्द की साधना करता है॥ २॥
ਤੂੰ ਕਰਿ ਕਰਿ ਵੇਖਹਿ ਆਪਿ ਦੇਹਿ ਸੁ ਪਾਈਐ ॥ तूं करि करि वेखहि आपि देहि सु पाईऐ ॥ हे मालिक ! जीवों को पैदा कर-करके आप स्वयं ही उनकी देखभाल करते है। जो कुछ आप जो देते है, उन्हें वही प्राप्त होता है।
ਤੂ ਦੇਖਹਿ ਥਾਪਿ ਉਥਾਪਿ ਦਰਿ ਬੀਨਾਈਐ ॥੩॥ तू देखहि थापि उथापि दरि बीनाईऐ ॥३॥ आप अपनी निगरानी में सभी को उत्पन्न करते हैं, नष्ट करते हैं और बनाए रखते हैं।॥ ३॥
ਦੇਹੀ ਹੋਵਗਿ ਖਾਕੁ ਪਵਣੁ ਉਡਾਈਐ ॥ देही होवगि खाकु पवणु उडाईऐ ॥ जब प्राण शरीर से निकल जाते हैं तो यह शरीर मिट्टी बन जाता है।
ਇਹੁ ਕਿਥੈ ਘਰੁ ਅਉਤਾਕੁ ਮਹਲੁ ਨ ਪਾਈਐ ॥੪॥ इहु किथै घरु अउताकु महलु न पाईऐ ॥४॥ तब हमें यह ज्ञात नहीं होता कि हमारा घर या विश्राम स्थल कहाँ है, और हम अपनी हवेली कभी भी वापस नहीं पा सकते। ॥ ४॥
ਦਿਹੁ ਦੀਵੀ ਅੰਧ ਘੋਰੁ ਘਬੁ ਮੁਹਾਈਐ ॥ दिहु दीवी अंध घोरु घबु मुहाईऐ ॥ दिन के उजाले में भी हम आध्यात्मिक अज्ञान के घोर अंधकार में जी रहे हैं, और अपने हृदय रूपी घर से जीवन की बहुमूल्य संपत्ति को चोरी होने दे रहे हैं।
ਗਰਬਿ ਮੁਸੈ ਘਰੁ ਚੋਰੁ ਕਿਸੁ ਰੂਆਈਐ ॥੫॥ गरबि मुसै घरु चोरु किसु रूआईऐ ॥५॥ अहंकार रुपी चोर उसका हृदय-घर लूटता जाता है लेकिन अब वह किसके पास जाकर शिकायत करे? ॥ ५ ॥
ਗੁਰਮੁਖਿ ਚੋਰੁ ਨ ਲਾਗਿ ਹਰਿ ਨਾਮਿ ਜਗਾਈਐ ॥ गुरमुखि चोरु न लागि हरि नामि जगाईऐ ॥ हरि का नाम गुरुमुख को जगाकर अर्थात् सचेत रखता है और गुरुमुख के नाम-धन को चोर नहीं चुराता।
ਸਬਦਿ ਨਿਵਾਰੀ ਆਗਿ ਜੋਤਿ ਦੀਪਾਈਐ ॥੬॥ सबदि निवारी आगि जोति दीपाईऐ ॥६॥ शब्द ने उसकी तृष्णा रूपी अग्नि बुझा दी है और मन में ज्ञान-ज्योति प्रज्वलित कर दी है॥ ६॥
ਲਾਲੁ ਰਤਨੁ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਗੁਰਿ ਸੁਰਤਿ ਬੁਝਾਈਐ ॥ लालु रतनु हरि नामु गुरि सुरति बुझाईऐ ॥ गुरु ने यह सूझ बता दी है कि परमात्मा का नाम अमूल्य लाल एवं रत्न है।
ਸਦਾ ਰਹੈ ਨਿਹਕਾਮੁ ਜੇ ਗੁਰਮਤਿ ਪਾਈਐ ॥੭॥ सदा रहै निहकामु जे गुरमति पाईऐ ॥७॥ यदि मनुष्य गुरु उपदेश प्राप्त कर ले तो वह सदैव ही कामना से रहित बना रहता है॥ ७॥
ਰਾਤਿ ਦਿਹੈ ਹਰਿ ਨਾਉ ਮੰਨਿ ਵਸਾਈਐ ॥ राति दिहै हरि नाउ मंनि वसाईऐ ॥ रात-दिन परमात्मा का नाम मन में बसाकर रखना चाहिए।
ਨਾਨਕ ਮੇਲਿ ਮਿਲਾਇ ਜੇ ਤੁਧੁ ਭਾਈਐ ॥੮॥੨॥੪॥ नानक मेलि मिलाइ जे तुधु भाईऐ ॥८॥२॥४॥ नानक प्रार्थना करते है कि हे हरि ! यदि आपको उपयुक्त लगे तो जीव को अपने साथ मिला लेते है॥ ८ ॥ २ ॥ ४ ॥
ਸੂਹੀ ਮਹਲਾ ੧ ॥ सूही महला १ ॥ राग सूही, प्रथम गुरु: १ ॥
ਮਨਹੁ ਨ ਨਾਮੁ ਵਿਸਾਰਿ ਅਹਿਨਿਸਿ ਧਿਆਈਐ ॥ मनहु न नामु विसारि अहिनिसि धिआईऐ ॥ हे जीव ! अपने मन से प्रभु-नाम को मत भुला, अपितु दिन-रात नाम का ध्यान करो।
ਜਿਉ ਰਾਖਹਿ ਕਿਰਪਾ ਧਾਰਿ ਤਿਵੈ ਸੁਖੁ ਪਾਈਐ ॥੧॥ जिउ राखहि किरपा धारि तिवै सुखु पाईऐ ॥१॥ वह कृपानिधान प्रभु जैसे रखते है, वैसे ही सुख प्राप्त होता है॥ १॥
ਮੈ ਅੰਧੁਲੇ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਲਕੁਟੀ ਟੋਹਣੀ ॥ मै अंधुले हरि नामु लकुटी टोहणी ॥ प्रभु का नाम मुझ जैसे अंधे की लकड़ी एवं सहारा है।
ਰਹਉ ਸਾਹਿਬ ਕੀ ਟੇਕ ਨ ਮੋਹੈ ਮੋਹਣੀ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ रहउ साहिब की टेक न मोहै मोहणी ॥१॥ रहाउ ॥ मैं अपने प्रभु की शरण में रहता हूँ और मन को मुग्ध करने वाली माया मुझे प्रभावित नहीं करती ॥ १॥ रहाउ॥
ਜਹ ਦੇਖਉ ਤਹ ਨਾਲਿ ਗੁਰਿ ਦੇਖਾਲਿਆ ॥ जह देखउ तह नालि गुरि देखालिआ ॥ मैं जिधर भी देखता हूँ, उधर ही गुरु ने प्रभु मेरे साथ दिखा दिए हैं।
ਅੰਤਰਿ ਬਾਹਰਿ ਭਾਲਿ ਸਬਦਿ ਨਿਹਾਲਿਆ ॥੨॥ अंतरि बाहरि भालि सबदि निहालिआ ॥२॥ उसे भीतर और बाहर खोजने के प्रयास के बाद, अंततः मैंने गुरु के वचन के माध्यम से उसे अपने भीतर अनुभव किया है। ॥ २॥
ਸੇਵੀ ਸਤਿਗੁਰ ਭਾਇ ਨਾਮੁ ਨਿਰੰਜਨਾ ॥ सेवी सतिगुर भाइ नामु निरंजना ॥ मैं श्रद्धा-पूर्वक सतगुरु की सेवा करता हुआ आपके पावन नाम का स्मरण करता रहता हूँ।
ਤੁਧੁ ਭਾਵੈ ਤਿਵੈ ਰਜਾਇ ਭਰਮੁ ਭਉ ਭੰਜਨਾ ॥੩॥ तुधु भावै तिवै रजाइ भरमु भउ भंजना ॥३॥ हे संदेह और भयनाशक प्रभु! जो कुछ भी आपको प्रसन्न करता है, मुझे विश्वास है कि वही आपकी इच्छा होगी।॥३॥
ਜਨਮਤ ਹੀ ਦੁਖੁ ਲਾਗੈ ਮਰਣਾ ਆਇ ਕੈ ॥ जनमत ही दुखु लागै मरणा आइ कै ॥ जगत् में जन्म लेते ही जीव को मृत्यु का दुःख आकर लग जाता है।
ਜਨਮੁ ਮਰਣੁ ਪਰਵਾਣੁ ਹਰਿ ਗੁਣ ਗਾਇ ਕੈ ॥੪॥ जनमु मरणु परवाणु हरि गुण गाइ कै ॥४॥ लेकिन निरंकार प्रभु का गुणगान करने से जन्म-मरण दोनों ही स्वीकार हो जाते हैं।॥ ४॥
ਹਉ ਨਾਹੀ ਤੂ ਹੋਵਹਿ ਤੁਧ ਹੀ ਸਾਜਿਆ ॥ हउ नाही तू होवहि तुध ही साजिआ ॥ हे परमेश्वर ! जिसके हृदय में आप बसते है, वहाँ अभिमान नहीं रहता।


© 2025 SGGS ONLINE
error: Content is protected !!
Scroll to Top