Guru Granth Sahib Translation Project

Guru Granth Sahib Hindi Page 733

Page 733

ਜੇ ਸਉ ਲੋਚੈ ਰੰਗੁ ਨ ਹੋਵੈ ਕੋਇ ॥੩॥ जे सउ लोचै रंगु न होवै कोइ ॥३॥ स्वेच्छाचारी जीव सौ बार भी अभिलाषा करे तो भी उसके मन को कोई प्रेम-रंग नहीं चढ़ता ॥ ३॥
ਨਦਰਿ ਕਰੇ ਤਾ ਸਤਿਗੁਰੁ ਪਾਵੈ ॥ ਨਾਨਕ ਹਰਿ ਰਸਿ ਹਰਿ ਰੰਗਿ ਸਮਾਵੈ ॥੪॥੨॥੬॥ नदरि करे ता सतिगुरु पावै ॥ नानक हरि रसि हरि रंगि समावै ॥४॥२॥६॥ यदि परमात्मा अपनी कृपा-दृष्टि कर दे तो वह सतगुरु को पा लेता है। हे नानक ! फिर ऐसा जीव हरि-रस एवं हरि के प्रेम-रंग में ही समा जाता है। ४ ॥ २ ॥ ६॥
ਸੂਹੀ ਮਹਲਾ ੪ ॥ सूही महला ४ ॥ राग सूही, चतुर्थ गुरु: ४ ॥
ਜਿਹਵਾ ਹਰਿ ਰਸਿ ਰਹੀ ਅਘਾਇ ॥ जिहवा हरि रसि रही अघाइ ॥ जिह्वा हरि-रस पीकर तृप्त रहती है।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਪੀਵੈ ਸਹਜਿ ਸਮਾਇ ॥੧॥ गुरमुखि पीवै सहजि समाइ ॥१॥ जो गुरमुख बनकर हरि-रस का पान करता है, वह सहज ही हरि में समा जाता है॥ १॥
ਹਰਿ ਰਸੁ ਜਨ ਚਾਖਹੁ ਜੇ ਭਾਈ ॥ हरि रसु जन चाखहु जे भाई ॥ हे भाई ! यदि तुम हरि-रस चख लोगे तो फिर
ਤਉ ਕਤ ਅਨਤ ਸਾਦਿ ਲੋਭਾਈ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ तउ कत अनत सादि लोभाई ॥१॥ रहाउ ॥ तब आप किसी भी सांसारिक स्वाद से प्रलोभित नहीं होंगे।॥ १॥ रहाउ ॥
ਗੁਰਮਤਿ ਰਸੁ ਰਾਖਹੁ ਉਰ ਧਾਰਿ ॥ गुरमति रसु राखहु उर धारि ॥ गुरु के मत द्वारा हरि-रस अपने हृदय में बसाकर रखो।
ਹਰਿ ਰਸਿ ਰਾਤੇ ਰੰਗਿ ਮੁਰਾਰਿ ॥੨॥ हरि रसि राते रंगि मुरारि ॥२॥ हरि-रस में मग्न हुए भक्तजन प्रभु के प्रेम-रंग में रंग जाते हैं। २॥
ਮਨਮੁਖਿ ਹਰਿ ਰਸੁ ਚਾਖਿਆ ਨ ਜਾਇ ॥ मनमुखि हरि रसु चाखिआ न जाइ ॥ स्वेछाचारी जीव से हरि-रस चखा नहीं जाता।
ਹਉਮੈ ਕਰੈ ਬਹੁਤੀ ਮਿਲੈ ਸਜਾਇ ॥੩॥ हउमै करै बहुती मिलै सजाइ ॥३॥ वह बड़ा अहंकार करता है, जिसके कारण इसे बहुत सजा मिलती है॥ ३॥
ਨਦਰਿ ਕਰੇ ਤਾ ਹਰਿ ਰਸੁ ਪਾਵੈ ॥ नदरि करे ता हरि रसु पावै ॥ यदि परमात्मा की थोड़ी-सी कृपा-दृष्टि हो जाए तो वह हरि-रस पा लेता है।
ਨਾਨਕ ਹਰਿ ਰਸਿ ਹਰਿ ਗੁਣ ਗਾਵੈ ॥੪॥੩॥੭॥ नानक हरि रसि हरि गुण गावै ॥४॥३॥७॥ हे नानक ! फिर ऐसा जीव हरि-रस पीकर हरि का गुणगान करता रहता है। ४॥ ३॥ ७ ॥
ਸੂਹੀ ਮਹਲਾ ੪ ਘਰੁ ੬ सूही महला ४ घरु ६ राग सूही, चतुर्थ गुरु, छठी ताल
ੴ ਸਤਿਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ ईश्वर एक है जिसे सतगुरु की कृपा से पाया जा सकता है।
ਨੀਚ ਜਾਤਿ ਹਰਿ ਜਪਤਿਆ ਉਤਮ ਪਦਵੀ ਪਾਇ ॥ नीच जाति हरि जपतिआ उतम पदवी पाइ ॥ निम्न जाति का आदमी भी हरि का नाम जपने से उत्तम पदवी पा लेता है।
ਪੂਛਹੁ ਬਿਦਰ ਦਾਸੀ ਸੁਤੈ ਕਿਸਨੁ ਉਤਰਿਆ ਘਰਿ ਜਿਸੁ ਜਾਇ ॥੧॥ पूछहु बिदर दासी सुतै किसनु उतरिआ घरि जिसु जाइ ॥१॥ यदि तुम्हें अविश्वास हो तो चाहे किसी से दासी पुत्र विदुर के विषय में पूछ लो, जिसके घर में श्रीकृष्ण ने दुर्योधन का घर त्याग कर आतिथ्य स्वीकार किया था ॥ १॥
ਹਰਿ ਕੀ ਅਕਥ ਕਥਾ ਸੁਨਹੁ ਜਨ ਭਾਈ ਜਿਤੁ ਸਹਸਾ ਦੂਖ ਭੂਖ ਸਭ ਲਹਿ ਜਾਇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ हरि की अकथ कथा सुनहु जन भाई जितु सहसा दूख भूख सभ लहि जाइ ॥१॥ रहाउ ॥ हे भाई ! हरि की अकथनीय कथा सुनो, जिससे चिंता, दुःख एवं भूख सब दूर हो जाते हैं।॥ १॥ रहाउ ॥
ਰਵਿਦਾਸੁ ਚਮਾਰੁ ਉਸਤਤਿ ਕਰੇ ਹਰਿ ਕੀਰਤਿ ਨਿਮਖ ਇਕ ਗਾਇ ॥ रविदासु चमारु उसतति करे हरि कीरति निमख इक गाइ ॥ चमार जाति के भक्त रविदास ईश्वर की उस्तति करते थे और हर क्षण प्रभु की कीर्ति गाते रहते थे।
ਪਤਿਤ ਜਾਤਿ ਉਤਮੁ ਭਇਆ ਚਾਰਿ ਵਰਨ ਪਏ ਪਗਿ ਆਇ ॥੨॥ पतित जाति उतमु भइआ चारि वरन पए पगि आइ ॥२॥ हालांकि उनकी सामाजिक स्थिति निम्न थी, फिर भी वे आध्यात्मिक दृष्टि से अत्यंत उन्नत थे, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र-इन चारों वर्णों के लोग उनके चरणों में झुककर उनका सम्मान करते थे। ॥ २ ॥
ਨਾਮਦੇਅ ਪ੍ਰੀਤਿ ਲਗੀ ਹਰਿ ਸੇਤੀ ਲੋਕੁ ਛੀਪਾ ਕਹੈ ਬੁਲਾਇ ॥ नामदेअ प्रीति लगी हरि सेती लोकु छीपा कहै बुलाइ ॥ भक्त नामदेव की प्रीति हरि से लग गई। लोग उन्हें छीपा कहकर बुलाते थे।
ਖਤ੍ਰੀ ਬ੍ਰਾਹਮਣ ਪਿਠਿ ਦੇ ਛੋਡੇ ਹਰਿ ਨਾਮਦੇਉ ਲੀਆ ਮੁਖਿ ਲਾਇ ॥੩॥ खत्री ब्राहमण पिठि दे छोडे हरि नामदेउ लीआ मुखि लाइ ॥३॥ भगवान् ने क्षत्रियों और ब्राह्मणों की उच्च सामाजिक स्थिति की उपेक्षा करते हुए, नामदेव को अपनी दिव्य दृष्टि से आशीर्वाद दिया। ॥ ३॥
ਜਿਤਨੇ ਭਗਤ ਹਰਿ ਸੇਵਕਾ ਮੁਖਿ ਅਠਸਠਿ ਤੀਰਥ ਤਿਨ ਤਿਲਕੁ ਕਢਾਇ ॥ जितने भगत हरि सेवका मुखि अठसठि तीरथ तिन तिलकु कढाइ ॥ ईश्वर के जितने भी भक्त एवं सेवक हैं, अड़सठ तीर्थ उनके माथे का तिलक लगाते हैं।
ਜਨੁ ਨਾਨਕੁ ਤਿਨ ਕਉ ਅਨਦਿਨੁ ਪਰਸੇ ਜੇ ਕ੍ਰਿਪਾ ਕਰੇ ਹਰਿ ਰਾਇ ॥੪॥੧॥੮॥ जनु नानकु तिन कउ अनदिनु परसे जे क्रिपा करे हरि राइ ॥४॥१॥८॥ यदि जगत् का बादशाह हरि अपनी कृपा करें तो नानक नित्य ही उनके चरण स्पर्श करते रहेंगे। ४ ॥ १॥ ८ !!
ਸੂਹੀ ਮਹਲਾ ੪ ॥ सूही महला ४ ॥ राग सूही, चतुर्थ गुरु ४ ॥
ਤਿਨ੍ਹ੍ਹੀ ਅੰਤਰਿ ਹਰਿ ਆਰਾਧਿਆ ਜਿਨ ਕਉ ਧੁਰਿ ਲਿਖਿਆ ਲਿਖਤੁ ਲਿਲਾਰਾ ॥ तिन्ही अंतरि हरि आराधिआ जिन कउ धुरि लिखिआ लिखतु लिलारा ॥ उन्होंने ही अपने मन में हरि की आराधना की हैं, जिनके माथे पर ऐसा भाग्य लिखा हुआ है।
ਤਿਨ ਕੀ ਬਖੀਲੀ ਕੋਈ ਕਿਆ ਕਰੇ ਜਿਨ ਕਾ ਅੰਗੁ ਕਰੇ ਮੇਰਾ ਹਰਿ ਕਰਤਾਰਾ ॥੧॥ तिन की बखीली कोई किआ करे जिन का अंगु करे मेरा हरि करतारा ॥१॥ उनकी निंदा कोई क्या कर सकता है, जिनके पक्ष में रचयिता हरि है॥ १॥
ਹਰਿ ਹਰਿ ਧਿਆਇ ਮਨ ਮੇਰੇ ਮਨ ਧਿਆਇ ਹਰਿ ਜਨਮ ਜਨਮ ਕੇ ਸਭਿ ਦੂਖ ਨਿਵਾਰਣਹਾਰਾ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ हरि हरि धिआइ मन मेरे मन धिआइ हरि जनम जनम के सभि दूख निवारणहारा ॥१॥ रहाउ ॥ हे मेरे मन ! सर्वदा हरि का ध्यान करो; यह जन्म-जन्मांतर के सब दुःख दूर करने वाला है॥ १॥ रहाउ॥
ਧੁਰਿ ਭਗਤ ਜਨਾ ਕਉ ਬਖਸਿਆ ਹਰਿ ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਭਗਤਿ ਭੰਡਾਰਾ ॥ धुरि भगत जना कउ बखसिआ हरि अम्रित भगति भंडारा ॥ हरि ने शुरु से ही भक्तजनों को अपनी भक्ति का अमृतमयी भण्डार दिया हुआ है।
ਮੂਰਖੁ ਹੋਵੈ ਸੁ ਉਨ ਕੀ ਰੀਸ ਕਰੇ ਤਿਸੁ ਹਲਤਿ ਪਲਤਿ ਮੁਹੁ ਕਾਰਾ ॥੨॥ मूरखु होवै सु उन की रीस करे तिसु हलति पलति मुहु कारा ॥२॥ जो उनकी बराबरी करने की कोशिश करते हैं, वे मूर्ख होते हैं और उनका लोक-परलोक दोनों में मुँह काला (अर्थात् तिरस्कार) होता है॥ २॥
ਸੇ ਭਗਤ ਸੇ ਸੇਵਕਾ ਜਿਨਾ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਪਿਆਰਾ ॥ से भगत से सेवका जिना हरि नामु पिआरा ॥ जिन्हें हरि का नाम प्यारा लगता है, वही उसके भक्त एवं सेवक हैं।
ਤਿਨ ਕੀ ਸੇਵਾ ਤੇ ਹਰਿ ਪਾਈਐ ਸਿਰਿ ਨਿੰਦਕ ਕੈ ਪਵੈ ਛਾਰਾ ॥੩॥ तिन की सेवा ते हरि पाईऐ सिरि निंदक कै पवै छारा ॥३॥ उनकी सेवा करने से ही हरि पाया जाता है और निंदक के सिर पर राख पड़ती है अर्थात् ये तिरस्कृत होते हैं।॥ ३॥
ਜਿਸੁ ਘਰਿ ਵਿਰਤੀ ਸੋਈ ਜਾਣੈ ਜਗਤ ਗੁਰ ਨਾਨਕ ਪੂਛਿ ਕਰਹੁ ਬੀਚਾਰਾ ॥ जिसु घरि विरती सोई जाणै जगत गुर नानक पूछि करहु बीचारा ॥ केवल वही इस बात को जानता है, जिसके घर में यह दशा घटित हुई है। जगत् के गुरु, गुरु नानक के संबंध में इस बात की विचार कर ली।
ਚਹੁ ਪੀੜੀ ਆਦਿ ਜੁਗਾਦਿ ਬਖੀਲੀ ਕਿਨੈ ਨ ਪਾਇਓ ਹਰਿ ਸੇਵਕ ਭਾਇ ਨਿਸਤਾਰਾ ॥੪॥੨॥੯॥ चहु पीड़ी आदि जुगादि बखीली किनै न पाइओ हरि सेवक भाइ निसतारा ॥४॥२॥९॥ सृष्टि के आदि, युगों के आदि एवं गुरु साहिबान के चारों वंशों में से निंदा करने से किसी ने भी हरि को नहीं पाया अपितु सेवा भावना से ही उद्धार होता है ॥४॥२॥९॥
ਸੂਹੀ ਮਹਲਾ ੪ ॥ सूही महला ४ ॥ राग सूही, चतुर्थ गुरु ४ ॥
ਜਿਥੈ ਹਰਿ ਆਰਾਧੀਐ ਤਿਥੈ ਹਰਿ ਮਿਤੁ ਸਹਾਈ ॥ जिथै हरि आराधीऐ तिथै हरि मितु सहाई ॥ जहाँ भी ईश्वर की आराधना की जाती है, वहाँ ही वह मित्र एवं सहायक बन जाते है।


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