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ੴ ਸਤਿ ਨਾਮੁ ਕਰਤਾ ਪੁਰਖੁ ਨਿਰਭਉ ਨਿਰਵੈਰੁ ਅਕਾਲ ਮੂਰਤਿ ਅਜੂਨੀ ਸੈਭੰ ਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥
वह अद्वैत ईश्वर (ओंकारस्वरूप) केवल एक है, नाम उसका सत्य है। वह आदिपुरुष सृष्टि को रचने वाला है, सब कुछ करने में परिपूर्ण (शक्तिवान) है। उसे किसी प्रकार का कोई भय नहीं, उसका किसी से कोई वैर नहीं, सब पर समदृष्टि होने के कारण वह प्रेमस्वरूप है। वह कालातीत ब्रह्म मूर्ति सदा अमर है, अतः जन्म-मरण से रहित है, वह स्वजन्मा है, जिसकी लधि गुरु की कृपा से होती है।
ਰਾਗੁ ਸੂਹੀ ਮਹਲਾ ੧ ਚਉਪਦੇ ਘਰੁ ੧
रागु सूही महला १ चउपदे घरु
ਭਾਂਡਾ ਧੋਇ ਬੈਸਿ ਧੂਪੁ ਦੇਵਹੁ ਤਉ ਦੂਧੈ ਕਉ ਜਾਵਹੁ ॥
पहले अपने हृदय रूपी बर्तन को विकारों की मैल से शुद्ध करो। फिर बैठकर हृदय रूपी बर्तन को धूप दो अर्थात् मन को स्थिर करके हृदय रूपी मटकी में शुभ गुण बसाओ और फिर दूध लेने के लिए जाओ अर्थात् कर्म करो।
ਦੂਧੁ ਕਰਮ ਫੁਨਿ ਸੁਰਤਿ ਸਮਾਇਣੁ ਹੋਇ ਨਿਰਾਸ ਜਮਾਵਹੁ ॥੧॥
कर्म ही दूध है, जिसे मंथन करना है। फिर इस दूध को सुरति की जाग लगाओ अर्थात् कर्म करते समय अपनी वृत्ति परमात्मा में लगाकर रखो। निष्काम भावना से दूध को जमा दो अर्थात् कर्म के फल की इच्छा मत रखो ॥ १॥
ਜਪਹੁ ਤ ਏਕੋ ਨਾਮਾ ॥
केवल परमात्मा का नाम ही जपो,
ਅਵਰਿ ਨਿਰਾਫਲ ਕਾਮਾ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
अन्य सारे कर्म निष्फल हैं॥ १॥ रहाउ ॥
ਇਹੁ ਮਨੁ ਈਟੀ ਹਾਥਿ ਕਰਹੁ ਫੁਨਿ ਨੇਤ੍ਰਉ ਨੀਦ ਨ ਆਵੈ ॥
यह चंचल मन वश में करना ही हाथों में रस्सी की गोटियाँ पकड़ना है। अज्ञान रूप नींद का न आना ही रस्सी है।
ਰਸਨਾ ਨਾਮੁ ਜਪਹੁ ਤਬ ਮਥੀਐ ਇਨ ਬਿਧਿ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਪਾਵਹੁ ॥੨॥
रसना से भगवान का नाम जपते रहो, तभी कर्म रूपी दूध का मंथन होगा। इस विधि से नाम रूपी अमृत पा लो॥ २ ॥
ਮਨੁ ਸੰਪਟੁ ਜਿਤੁ ਸਤ ਸਰਿ ਨਾਵਣੁ ਭਾਵਨ ਪਾਤੀ ਤ੍ਰਿਪਤਿ ਕਰੇ ॥
आदमी को चाहिए कि वह अपने मन को संपुट अर्थात् परमात्मा का निवास बनाए। वह सत्य रूपी सरोवर में अपने मन को स्नान कराए और भगवान को अपनी श्रद्धा रूपी फूलों की पत्तियां भेंट करके उसे तृप्त करे।
ਪੂਜਾ ਪ੍ਰਾਣ ਸੇਵਕੁ ਜੇ ਸੇਵੇ ਇਨ੍ਹ੍ਹ ਬਿਧਿ ਸਾਹਿਬੁ ਰਵਤੁ ਰਹੈ ॥੩॥
यदि वह सेवक बनकर अपने प्राणों की पूजा अर्पित करके उसकी सेवा करे तो इस विधि द्वारा उसका मन मालिक-प्रभु में लीन रहेगा।॥ ३॥
ਕਹਦੇ ਕਹਹਿ ਕਹੇ ਕਹਿ ਜਾਵਹਿ ਤੁਮ ਸਰਿ ਅਵਰੁ ਨ ਕੋਈ ॥
हे ईश्वर ! कहने वाले तेरे बारे सिर्फ बातें ही करते रहते हैं और वे बातें कर-करके दुनिया से जा रहे हैं लेकिन तुम्हारे जैसा अन्य कोई नहीं।
ਭਗਤਿ ਹੀਣੁ ਨਾਨਕੁ ਜਨੁ ਜੰਪੈ ਹਉ ਸਾਲਾਹੀ ਸਚਾ ਸੋਈ ॥੪॥
भक्तिहीन नानक विनती करता है कि मैं उस सच्चे मालिक की हमेशा ही स्तुति करता रहता हूँ॥ ४॥ १॥
ਸੂਹੀ ਮਹਲਾ ੧ ਘਰੁ ੨
सूही महला १ घरु २
ੴ ਸਤਿਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
ਅੰਤਰਿ ਵਸੈ ਨ ਬਾਹਰਿ ਜਾਇ ॥
हे जीव ! परमात्मा तो तेरे हृदय में ही बसता है, तू उसे ढूंढने के लिए बाहर मत जा।
ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਛੋਡਿ ਕਾਹੇ ਬਿਖੁ ਖਾਇ ॥੧॥
तू नाम रूपी अमृत को छोड़कर माया रूपी विष क्यों खा रहा है।॥ १॥
ਐਸਾ ਗਿਆਨੁ ਜਪਹੁ ਮਨ ਮੇਰੇ ॥
हे मेरे मन ! ऐसा ज्ञान जपो कि
ਹੋਵਹੁ ਚਾਕਰ ਸਾਚੇ ਕੇਰੇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
उस सच्चे मालिक के चाकर बन जाओ॥ १॥ रहाउ॥
ਗਿਆਨੁ ਧਿਆਨੁ ਸਭੁ ਕੋਈ ਰਵੈ ॥
हर कोई ज्ञान-ध्यान की सिर्फ बातें ही करता है और
ਬਾਂਧਨਿ ਬਾਂਧਿਆ ਸਭੁ ਜਗੁ ਭਵੈ ॥੨॥
सारा जगत् ही माया के बन्धनों में बँधा हुआ भटक रहा है। २॥
ਸੇਵਾ ਕਰੇ ਸੁ ਚਾਕਰੁ ਹੋਇ ॥
जो परमात्मा की सेवा करता है, वह उसका चाकर बन जाता है।
ਜਲਿ ਥਲਿ ਮਹੀਅਲਿ ਰਵਿ ਰਹਿਆ ਸੋਇ ॥੩॥
समुद्र, पृथ्वी एवं गगन में वही बसा हुआ है।॥ ३॥
ਹਮ ਨਹੀ ਚੰਗੇ ਬੁਰਾ ਨਹੀ ਕੋਇ ॥
सच तो यह है कि न हम अच्छे हैं और न ही कोई बुरा है।
ਪ੍ਰਣਵਤਿ ਨਾਨਕੁ ਤਾਰੇ ਸੋਇ ॥੪॥੧॥੨॥
नानक प्रार्थना करता है कि एक परमात्मा ही जीवों को संसार के बन्धनों से मुक्त करवाता है॥ ४॥ १॥ २॥