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ਸੁਣਿ ਮੀਤਾ ਧੂਰੀ ਕਉ ਬਲਿ ਜਾਈ ॥
सुणि मीता धूरी कउ बलि जाई ॥
हे मेरे मित्र ! सुनो, मैं स्वयं को तुम्हारी विनम्र सेवा में समर्पित करता हूँ।
ਇਹੁ ਮਨੁ ਤੇਰਾ ਭਾਈ ॥ ਰਹਾਉ ॥
इहु मनु तेरा भाई ॥ रहाउ ॥
हे भाई ! यह मन तेरा ही है॥ रहाउ ॥
ਪਾਵ ਮਲੋਵਾ ਮਲਿ ਮਲਿ ਧੋਵਾ ਇਹੁ ਮਨੁ ਤੈ ਕੂ ਦੇਸਾ ॥
पाव मलोवा मलि मलि धोवा इहु मनु तै कू देसा ॥
मैं तुम्हारे चरणों को धोकर उनका स्नेहपूर्वक स्पर्श करूंगा; यह मन भी मैं पूर्णतः तुम्हें अर्पित कर दूंगा।
ਸੁਣਿ ਮੀਤਾ ਹਉ ਤੇਰੀ ਸਰਣਾਈ ਆਇਆ ਪ੍ਰਭ ਮਿਲਉ ਦੇਹੁ ਉਪਦੇਸਾ ॥੨॥
सुणि मीता हउ तेरी सरणाई आइआ प्रभ मिलउ देहु उपदेसा ॥२॥
हे मेरे मित्र ! सुनो, मैं तेरी शरण में आया हूँ, मुझे ऐसा उपदेश दो कि मेरा प्रभु से मिलाप हो जाए॥ २॥
ਮਾਨੁ ਨ ਕੀਜੈ ਸਰਣਿ ਪਰੀਜੈ ਕਰੈ ਸੁ ਭਲਾ ਮਨਾਈਐ ॥
मानु न कीजै सरणि परीजै करै सु भला मनाईऐ ॥
हमें अभिमान नहीं करना चाहिए और प्रभु-शरण में ही आना चाहिए, चूंकि वह सब कुछ अच्छा ही करता है, इसलिए उसे भला ही मानना चाहिए।
ਸੁਣਿ ਮੀਤਾ ਜੀਉ ਪਿੰਡੁ ਸਭੁ ਤਨੁ ਅਰਪੀਜੈ ਇਉ ਦਰਸਨੁ ਹਰਿ ਜੀਉ ਪਾਈਐ ॥੩॥
सुणि मीता जीउ पिंडु सभु तनु अरपीजै इउ दरसनु हरि जीउ पाईऐ ॥३॥
हे मेरे मित्र ! सुनो, अपने प्राण, शरीर तथा अपना सब कुछ अर्पण कर देना चाहिए, इस प्रकार हरि-दर्शन की प्राप्ति होती है॥ ३॥
ਭਇਓ ਅਨੁਗ੍ਰਹੁ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ਸੰਤਨ ਕੈ ਹਰਿ ਨਾਮਾ ਹੈ ਮੀਠਾ ॥
भइओ अनुग्रहु प्रसादि संतन कै हरि नामा है मीठा ॥
संतों के प्रसाद से प्रभु ने मुझ पर दया की है और हरि का नाम मुझे मीठा लगने लग गया है।
ਜਨ ਨਾਨਕ ਕਉ ਗੁਰਿ ਕਿਰਪਾ ਧਾਰੀ ਸਭੁ ਅਕੁਲ ਨਿਰੰਜਨੁ ਡੀਠਾ ॥੪॥੧॥੧੨॥
जन नानक कउ गुरि किरपा धारी सभु अकुल निरंजनु डीठा ॥४॥१॥१२॥
सतगुरु ने दास नानक पर कृपा की है और उसने अकुल एवं निरंजन प्रभु को सर्वत्र देख लिया है॥ ४॥ १॥ १२॥
ਸੋਰਠਿ ਮਹਲਾ ੫ ॥
सोरठि महला ५ ॥
राग सोरठ, पाँचवें गुरु: ५ ॥
ਕੋਟਿ ਬ੍ਰਹਮੰਡ ਕੋ ਠਾਕੁਰੁ ਸੁਆਮੀ ਸਰਬ ਜੀਆ ਕਾ ਦਾਤਾ ਰੇ ॥
कोटि ब्रहमंड को ठाकुरु सुआमी सरब जीआ का दाता रे ॥
ईश्वर तो करोड़ों ही ब्रह्माण्डों का स्वामी है और सब जीवों का दाता है।
ਪ੍ਰਤਿਪਾਲੈ ਨਿਤ ਸਾਰਿ ਸਮਾਲੈ ਇਕੁ ਗੁਨੁ ਨਹੀ ਮੂਰਖਿ ਜਾਤਾ ਰੇ ॥੧॥
प्रतिपालै नित सारि समालै इकु गुनु नही मूरखि जाता रे ॥१॥
वह हमेशा ही सबका पालन-पोषण एवं देखभाल करता है किन्तु मुझ मूर्ख ने उसके एक उपकार को भी नहीं समझा॥ १॥
ਹਰਿ ਆਰਾਧਿ ਨ ਜਾਨਾ ਰੇ ॥
हरि आराधि न जाना रे ॥
मुझे तो हरि की आराधना करने की कोई विधि नहीं आती।
ਹਰਿ ਹਰਿ ਗੁਰੁ ਗੁਰੁ ਕਰਤਾ ਰੇ ॥
हरि हरि गुरु गुरु करता रे ॥
इसलिए मैं हरि-हरि एवं गुरु-गुरु ही बोलता रहता हूँ।
ਹਰਿ ਜੀਉ ਨਾਮੁ ਪਰਿਓ ਰਾਮਦਾਸੁ ॥ ਰਹਾਉ ॥
हरि जीउ नामु परिओ रामदासु ॥ रहाउ ॥
हे हरि ! आपकी कृपा से मेरा नाम रामदास पड़ गया है॥ रहाउ॥
ਦੀਨ ਦਇਆਲ ਕ੍ਰਿਪਾਲ ਸੁਖ ਸਾਗਰ ਸਰਬ ਘਟਾ ਭਰਪੂਰੀ ਰੇ ॥
दीन दइआल क्रिपाल सुख सागर सरब घटा भरपूरी रे ॥
दीनदयाल, कृपालु एवं सुख का सागर परमात्मा सबके हृदय में समाया हुआ है।
ਪੇਖਤ ਸੁਨਤ ਸਦਾ ਹੈ ਸੰਗੇ ਮੈ ਮੂਰਖ ਜਾਨਿਆ ਦੂਰੀ ਰੇ ॥੨॥
पेखत सुनत सदा है संगे मै मूरख जानिआ दूरी रे ॥२॥
वह दीनदयाल सबको देखता, सुनता एवं सदा साथ ही रहता है किन्तु मुझ मूर्ख ने उसे दूर ही समझा हुआ है॥ २॥
ਹਰਿ ਬਿਅੰਤੁ ਹਉ ਮਿਤਿ ਕਰਿ ਵਰਨਉ ਕਿਆ ਜਾਨਾ ਹੋਇ ਕੈਸੋ ਰੇ ॥
हरि बिअंतु हउ मिति करि वरनउ किआ जाना होइ कैसो रे ॥
हरि बेअन्त है, मैं तो उसे किसी सीमा में ही वर्णन कर सकता हूँ परन्तु मुझे क्या मालूम वह कैसा है ?
ਕਰਉ ਬੇਨਤੀ ਸਤਿਗੁਰ ਅਪੁਨੇ ਮੈ ਮੂਰਖ ਦੇਹੁ ਉਪਦੇਸੋ ਰੇ ॥੩॥
करउ बेनती सतिगुर अपुने मै मूरख देहु उपदेसो रे ॥३॥
मैं अपने सतगुरु से विनम्र प्रार्थना करता हूँ कि मुझ मूर्ख को भी उपदेश दीजिए॥ ३॥
ਮੈ ਮੂਰਖ ਕੀ ਕੇਤਕ ਬਾਤ ਹੈ ਕੋਟਿ ਪਰਾਧੀ ਤਰਿਆ ਰੇ ॥
मै मूरख की केतक बात है कोटि पराधी तरिआ रे ॥
मुझ मूर्ख की क्या बात है, गुरु के उपदेश से तो करोड़ों ही अपराधी भवसागर से पार हो गए हैं।
ਗੁਰੁ ਨਾਨਕੁ ਜਿਨ ਸੁਣਿਆ ਪੇਖਿਆ ਸੇ ਫਿਰਿ ਗਰਭਾਸਿ ਨ ਪਰਿਆ ਰੇ ॥੪॥੨॥੧੩॥
गुरु नानकु जिन सुणिआ पेखिआ से फिरि गरभासि न परिआ रे ॥४॥२॥१३॥
जिन्होंने गुरु नानक देव जी के बारे में सुना एवं उनके दर्शन प्राप्त किए हैं, वे दोबारा गर्भ-योनि में नहीं पड़े॥ ४॥ २॥ १३॥
ਸੋਰਠਿ ਮਹਲਾ ੫ ॥
सोरठि महला ५ ॥
राग सोरठ, पाँचवें गुरु: ५ ॥
ਜਿਨਾ ਬਾਤ ਕੋ ਬਹੁਤੁ ਅੰਦੇਸਰੋ ਤੇ ਮਿਟੇ ਸਭਿ ਗਇਆ ॥
जिना बात को बहुतु अंदेसरो ते मिटे सभि गइआ ॥
जिन बातों की मुझे बहुत चिंता सताती रहती थी, वह सब अब मिट गई हैं।
ਸਹਜ ਸੈਨ ਅਰੁ ਸੁਖਮਨ ਨਾਰੀ ਊਧ ਕਮਲ ਬਿਗਸਇਆ ॥੧॥
सहज सैन अरु सुखमन नारी ऊध कमल बिगसइआ ॥१॥
अब मैं संतुलन की गहन स्थिति में स्थित हूं, मेरी समस्त इंद्रियां शांत हैं और हृदय में ऐसा आनंद उमड़ रहा है, मानो भीतर का उलटा कमल पूर्णतः खिल उठा हो। ॥ १॥
ਦੇਖਹੁ ਅਚਰਜੁ ਭਇਆ ॥
देखहु अचरजु भइआ ॥
देखो ! एक अद्भुत बात हो गई है।
ਜਿਹ ਠਾਕੁਰ ਕਉ ਸੁਨਤ ਅਗਾਧਿ ਬੋਧਿ ਸੋ ਰਿਦੈ ਗੁਰਿ ਦਇਆ ॥ ਰਹਾਉ ॥
जिह ठाकुर कउ सुनत अगाधि बोधि सो रिदै गुरि दइआ ॥ रहाउ ॥
जिस ईश्वर को हम केवल अज्ञेय और अकथ जानकर सुनते थे, उस परम सत्ता का अनुभव मुझे गुरु की कृपा से प्राप्त हुआ है। ॥ रहाउ॥
ਜੋਇ ਦੂਤ ਮੋਹਿ ਬਹੁਤੁ ਸੰਤਾਵਤ ਤੇ ਭਇਆਨਕ ਭਇਆ ॥
जोइ दूत मोहि बहुतु संतावत ते भइआनक भइआ ॥
जो माया के दूत कामादिक विकार मुझे बहुत सताते रहते थे, वे स्वयं ही भयभीत हो गए हैं।
ਕਰਹਿ ਬੇਨਤੀ ਰਾਖੁ ਠਾਕੁਰ ਤੇ ਹਮ ਤੇਰੀ ਸਰਨਇਆ ॥੨॥
करहि बेनती राखु ठाकुर ते हम तेरी सरनइआ ॥२॥
वे प्रार्थना करते हैं कि हमें अपने भगवान् से बचा लो, हम तेरी शरण में आए हैं॥ २॥
ਜਹ ਭੰਡਾਰੁ ਗੋਬਿੰਦ ਕਾ ਖੁਲਿਆ ਜਿਹ ਪ੍ਰਾਪਤਿ ਤਿਹ ਲਇਆ ॥
जह भंडारु गोबिंद का खुलिआ जिह प्रापति तिह लइआ ॥
गोविन्द की भक्ति का भण्डार तो खुला हुआ है, जिसके भाग्य में इसकी लब्धि लिखी हुई है, उसे भक्ति का भण्डार मिल गया है।
ਏਕੁ ਰਤਨੁ ਮੋ ਕਉ ਗੁਰਿ ਦੀਨਾ ਮੇਰਾ ਮਨੁ ਤਨੁ ਸੀਤਲੁ ਥਿਆ ॥੩॥
एकु रतनु मो कउ गुरि दीना मेरा मनु तनु सीतलु थिआ ॥३॥
गुरु ने मुझे एक नाम रत्न दिया है, जिसके फलस्वरूप मेरा मन एवं तन शीतल हो गए हैं।॥३॥
ਏਕ ਬੂੰਦ ਗੁਰਿ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਦੀਨੋ ਤਾ ਅਟਲੁ ਅਮਰੁ ਨ ਮੁਆ ॥
एक बूंद गुरि अम्रितु दीनो ता अटलु अमरु न मुआ ॥
गुरु ने मुझे एक अमृत की बूंद प्रदान की है, जिसके फलस्वरूप मैं अटल एवं आत्मिक तौर पर अमर हो गया हूँ और अब मेरे समीप काल नहीं आता।
ਭਗਤਿ ਭੰਡਾਰ ਗੁਰਿ ਨਾਨਕ ਕਉ ਸਉਪੇ ਫਿਰਿ ਲੇਖਾ ਮੂਲਿ ਨ ਲਇਆ ॥੪॥੩॥੧੪॥
भगति भंडार गुरि नानक कउ सउपे फिरि लेखा मूलि न लइआ ॥४॥३॥१४॥
वाहेगुरु ने अपनी भक्ति के भण्डार (गुरु) नानक को सौंप दिए हैं और फिर कभी उनसे कर्मों का लेखा नहीं पूछा ॥ ४॥ ३ ॥ १४ ॥
ਸੋਰਠਿ ਮਹਲਾ ੫ ॥
सोरठि महला ५ ॥
राग सोरठ, पाँचवें गुरु: ५ ॥
ਚਰਨ ਕਮਲ ਸਿਉ ਜਾ ਕਾ ਮਨੁ ਲੀਨਾ ਸੇ ਜਨ ਤ੍ਰਿਪਤਿ ਅਘਾਈ ॥
चरन कमल सिउ जा का मनु लीना से जन त्रिपति अघाई ॥
जिनका मन भगवान् के चरण-कमलों में समाया हुआ है, वे लोग तृप्त एवं संतुष्ट रहते हैं।
ਗੁਣ ਅਮੋਲ ਜਿਸੁ ਰਿਦੈ ਨ ਵਸਿਆ ਤੇ ਨਰ ਤ੍ਰਿਸਨ ਤ੍ਰਿਖਾਈ ॥੧॥
गुण अमोल जिसु रिदै न वसिआ ते नर त्रिसन त्रिखाई ॥१॥
जिनके हृदय में अमूल्य गुण निवास नहीं करते, वे पुरुष तृष्णा के ही प्यासे रहते हैं।॥ १॥
ਹਰਿ ਆਰਾਧੇ ਅਰੋਗ ਅਨਦਾਈ ॥
हरि आराधे अरोग अनदाई ॥
भगवान् की आराधना करने से मनुष्य आरोग्य एवं आनंदित हो जाता है।
ਜਿਸ ਨੋ ਵਿਸਰੈ ਮੇਰਾ ਰਾਮ ਸਨੇਹੀ ਤਿਸੁ ਲਾਖ ਬੇਦਨ ਜਣੁ ਆਈ ॥ ਰਹਾਉ ॥
जिस नो विसरै मेरा राम सनेही तिसु लाख बेदन जणु आई ॥ रहाउ ॥
जिसे भी मेरा प्यारा राम विस्मृत हो जाता है, उसे समझो लाखों ही संकट आकर घेर लेते हैं।॥ रहाउ॥