Guru Granth Sahib Translation Project

Guru Granth Sahib Hindi Page 565

Page 565

ਜਿਹਵਾ ਸਚੀ ਸਚਿ ਰਤੀ ਤਨੁ ਮਨੁ ਸਚਾ ਹੋਇ ॥ जिहवा सची सचि रती तनु मनु सचा होइ ॥ वह जिह्वा सच्ची है जो सत्य के साथ रंगी हुई है। इस तरह तन एवं मन भी सच्चे हो जाते हैं।
ਬਿਨੁ ਸਾਚੇ ਹੋਰੁ ਸਾਲਾਹਣਾ ਜਾਸਹਿ ਜਨਮੁ ਸਭੁ ਖੋਇ ॥੨॥ बिनु साचे होरु सालाहणा जासहि जनमु सभु खोइ ॥२॥ सच्चे परमेश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य का यशोगान करने से मनुष्य अपना समूचा जीवन व्यर्थ ही गंवा कर चला जाता है॥ २॥
ਸਚੁ ਖੇਤੀ ਸਚੁ ਬੀਜਣਾ ਸਾਚਾ ਵਾਪਾਰਾ ॥ सचु खेती सचु बीजणा साचा वापारा ॥ यदि सत्य की कृषि की जाए, सत्य का ही बीज बोया जाए और सच्चे परमेश्वर के नाम का ही व्यापार किया जाए तो
ਅਨਦਿਨੁ ਲਾਹਾ ਸਚੁ ਨਾਮੁ ਧਨੁ ਭਗਤਿ ਭਰੇ ਭੰਡਾਰਾ ॥੩॥ अनदिनु लाहा सचु नामु धनु भगति भरे भंडारा ॥३॥ रात-दिन सत्यनाम का ही लाभ प्राप्त होता है और प्रभु-भक्ति के नाम-धन के भण्डार भरे रहते हैं।॥ ३॥
ਸਚੁ ਖਾਣਾ ਸਚੁ ਪੈਨਣਾ ਸਚੁ ਟੇਕ ਹਰਿ ਨਾਉ ॥ सचु खाणा सचु पैनणा सचु टेक हरि नाउ ॥ सत्य का भोजन, सत्य का पहनावा एवं हरि-नाम का सच्चा सहारा
ਜਿਸ ਨੋ ਬਖਸੇ ਤਿਸੁ ਮਿਲੈ ਮਹਲੀ ਪਾਏ ਥਾਉ ॥੪॥ जिस नो बखसे तिसु मिलै महली पाए थाउ ॥४॥ उसे ही प्राप्त होता है, जिसे परमेश्वर स्वयं कृपा करके प्रदान करते हैं। ऐसे मनुष्य को परमात्मा के दरबार में स्थान प्राप्त हो जाता है॥ ४॥
ਆਵਹਿ ਸਚੇ ਜਾਵਹਿ ਸਚੇ ਫਿਰਿ ਜੂਨੀ ਮੂਲਿ ਨ ਪਾਹਿ ॥ आवहि सचे जावहि सचे फिरि जूनी मूलि न पाहि ॥ ऐसे लोग सत्य में ही आते हैं, सत्य में चले जाते हैं और पुनः योनियों के चक्र में कदापि नहीं डाले जाते।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਦਰਿ ਸਾਚੈ ਸਚਿਆਰ ਹਹਿ ਸਾਚੇ ਮਾਹਿ ਸਮਾਹਿ ॥੫॥ गुरमुखि दरि साचै सचिआर हहि साचे माहि समाहि ॥५॥ गुरुमुख परमेश्वर के सच्चे दरबार में सत्यवादी ही होते हैं और सत्य में ही समा जाते हैं।॥ ५॥
ਅੰਤਰੁ ਸਚਾ ਮਨੁ ਸਚਾ ਸਚੀ ਸਿਫਤਿ ਸਨਾਇ ॥ अंतरु सचा मनु सचा सची सिफति सनाइ ॥ गुरुमुख भीतर से सच्चे हैं, उनका मन भी सच्चा है और वे परमेश्वर की सच्ची स्तुतिगान करते हैं।
ਸਚੈ ਥਾਨਿ ਸਚੁ ਸਾਲਾਹਣਾ ਸਤਿਗੁਰ ਬਲਿਹਾਰੈ ਜਾਉ ॥੬॥ सचै थानि सचु सालाहणा सतिगुर बलिहारै जाउ ॥६॥ वे सच्चे स्थान पर विराजमान होकर सत्य की ही स्तुति करते हैं, मैं अपने सतगुरु पर बलिहारी जाता हूँ॥ ६॥
ਸਚੁ ਵੇਲਾ ਮੂਰਤੁ ਸਚੁ ਜਿਤੁ ਸਚੇ ਨਾਲਿ ਪਿਆਰੁ ॥ सचु वेला मूरतु सचु जितु सचे नालि पिआरु ॥ वह समय सत्य है और वह मुहूर्त भी सत्य है, जब मनुष्य का सच्चे परमेश्वर के साथ प्रेम होता है।
ਸਚੁ ਵੇਖਣਾ ਸਚੁ ਬੋਲਣਾ ਸਚਾ ਸਭੁ ਆਕਾਰੁ ॥੭॥ सचु वेखणा सचु बोलणा सचा सभु आकारु ॥७॥ तब वह सत्य ही देखता है, सत्य ही बोलता है और सारी सृष्टि में सच्चा परमेश्वर ही उसे सर्वव्यापक अनुभव होता है॥ ७॥
ਨਾਨਕ ਸਚੈ ਮੇਲੇ ਤਾ ਮਿਲੇ ਆਪੇ ਲਏ ਮਿਲਾਇ ॥ नानक सचै मेले ता मिले आपे लए मिलाइ ॥ हे नानक ! जब परमेश्वर अपने साथ मिलाता है तो ही मनुष्य उसके साथ विलीन हो जाता है।
ਜਿਉ ਭਾਵੈ ਤਿਉ ਰਖਸੀ ਆਪੇ ਕਰੇ ਰਜਾਇ ॥੮॥੧॥ जिउ भावै तिउ रखसी आपे करे रजाइ ॥८॥१॥ जैसे प्रभु को अच्छा लगता है, वैसे ही वह जीवों को रखते हैं और वह स्वयं ही अपनी इच्छानुसार करते हैं॥ ८॥ १॥
ਵਡਹੰਸੁ ਮਹਲਾ ੩ ॥ वडहंसु महला ३ ॥ वदाहंस, तीसरे गुरु: ३ ॥
ਮਨੂਆ ਦਹ ਦਿਸ ਧਾਵਦਾ ਓਹੁ ਕੈਸੇ ਹਰਿ ਗੁਣ ਗਾਵੈ ॥ मनूआ दह दिस धावदा ओहु कैसे हरि गुण गावै ॥ मनुष्य का मन दसों दिशाओं में भटकता रहता है तो फिर भला यह कैसे भगवान् का यशोगान कर सकता है ?
ਇੰਦ੍ਰੀ ਵਿਆਪਿ ਰਹੀ ਅਧਿਕਾਈ ਕਾਮੁ ਕ੍ਰੋਧੁ ਨਿਤ ਸੰਤਾਵੈ ॥੧॥ इंद्री विआपि रही अधिकाई कामु क्रोधु नित संतावै ॥१॥ शरीर की इन्द्रियाँ अधिकतर दुष्कर्मों में लीन होती हैं और काम-क्रोध नित्य ही दु:खी करते हैं।॥ १॥
ਵਾਹੁ ਵਾਹੁ ਸਹਜੇ ਗੁਣ ਰਵੀਜੈ ॥ वाहु वाहु सहजे गुण रवीजै ॥ उस परमात्मा की वाह-वाह करते हुए उसका ही सहज रूप में गुणगान करते रहना चाहिए।
ਰਾਮ ਨਾਮੁ ਇਸੁ ਜੁਗ ਮਹਿ ਦੁਲਭੁ ਹੈ ਗੁਰਮਤਿ ਹਰਿ ਰਸੁ ਪੀਜੈ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ राम नामु इसु जुग महि दुलभु है गुरमति हरि रसु पीजै ॥१॥ रहाउ ॥ इस दुनिया में राम का नाम बड़ा दुर्लभ है और गुरु-उपदेश द्वारा ही हरि रस का पान करना चाहिए॥ १॥ रहाउ ॥
ਸਬਦੁ ਚੀਨਿ ਮਨੁ ਨਿਰਮਲੁ ਹੋਵੈ ਤਾ ਹਰਿ ਕੇ ਗੁਣ ਗਾਵੈ ॥ सबदु चीनि मनु निरमलु होवै ता हरि के गुण गावै ॥ जब शब्द की पहचान करके मन निर्मल होता है तो वह भगवान् का ही गुणगान करता है।
ਗੁਰਮਤੀ ਆਪੈ ਆਪੁ ਪਛਾਣੈ ਤਾ ਨਿਜ ਘਰਿ ਵਾਸਾ ਪਾਵੈ ॥੨॥ गुरमती आपै आपु पछाणै ता निज घरि वासा पावै ॥२॥ जब गुरु के उपदेश द्वारा मनुष्य अपने आत्म स्वरूप को पहचान लेता है तो उसका प्रभु-चरणों में निवास हो जाता है॥ २॥
ਏ ਮਨ ਮੇਰੇ ਸਦਾ ਰੰਗਿ ਰਾਤੇ ਸਦਾ ਹਰਿ ਕੇ ਗੁਣ ਗਾਉ ॥ ए मन मेरे सदा रंगि राते सदा हरि के गुण गाउ ॥ हे मेरे मन ! तू सर्वदा प्रेम-रंग में लीन रह और सदैव ही भगवान् का गुणगान कर।
ਹਰਿ ਨਿਰਮਲੁ ਸਦਾ ਸੁਖਦਾਤਾ ਮਨਿ ਚਿੰਦਿਆ ਫਲੁ ਪਾਉ ॥੩॥ हरि निरमलु सदा सुखदाता मनि चिंदिआ फलु पाउ ॥३॥ निर्मल हरि सदैव ही सुख देने वाला है, उससे मनोवांछित फल पा लो॥ ३ ॥
ਹਮ ਨੀਚ ਸੇ ਊਤਮ ਭਏ ਹਰਿ ਕੀ ਸਰਣਾਈ ॥ हम नीच से ऊतम भए हरि की सरणाई ॥ हरि की शरण में आकर हम नीच से उत्तम बन गए हैं।
ਪਾਥਰੁ ਡੁਬਦਾ ਕਾਢਿ ਲੀਆ ਸਾਚੀ ਵਡਿਆਈ ॥੪॥ पाथरु डुबदा काढि लीआ साची वडिआई ॥४॥ उस सच्चे परमात्माका बड़ा बड़प्पन है, जिसने हम जैसे डूबते हुए पत्थरों को भी भवसागर से बचा लिया है॥ ४॥
ਬਿਖੁ ਸੇ ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਭਏ ਗੁਰਮਤਿ ਬੁਧਿ ਪਾਈ ॥ बिखु से अम्रित भए गुरमति बुधि पाई ॥ गुरु-उपदेश द्वारा निर्मल बुद्धि प्राप्त करके हम विष से अमृत बन गए हैं।
ਅਕਹੁ ਪਰਮਲ ਭਏ ਅੰਤਰਿ ਵਾਸਨਾ ਵਸਾਈ ॥੫॥ अकहु परमल भए अंतरि वासना वसाई ॥५॥ आक के वृक्ष से हम चंदन बन गए हैं और हमारे भीतर सुगंध का निवास हो गया है॥ ५॥
ਮਾਣਸ ਜਨਮੁ ਦੁਲੰਭੁ ਹੈ ਜਗ ਮਹਿ ਖਟਿਆ ਆਇ ॥ माणस जनमु दुल्मभु है जग महि खटिआ आइ ॥ यह मानव-जन्म बड़ा दुर्लभ है और इस जगत् में आकर मैंने लाभ प्राप्त किया है।
ਪੂਰੈ ਭਾਗਿ ਸਤਿਗੁਰੁ ਮਿਲੈ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਧਿਆਇ ॥੬॥ पूरै भागि सतिगुरु मिलै हरि नामु धिआइ ॥६॥ जिसे पूर्ण भाग्य से सतगुरु मिलता है, वह हरि-नाम का सिमरन करता रहता है।॥ ६॥
ਮਨਮੁਖ ਭੂਲੇ ਬਿਖੁ ਲਗੇ ਅਹਿਲਾ ਜਨਮੁ ਗਵਾਇਆ ॥ मनमुख भूले बिखु लगे अहिला जनमु गवाइआ ॥ मनमुख मनुष्य कुमार्गगामी होकर माया के विष में ही लीन रहता है तथा उसने अपना अमूल्य जन्म बेकार ही गंवा दिया है।
ਹਰਿ ਕਾ ਨਾਮੁ ਸਦਾ ਸੁਖ ਸਾਗਰੁ ਸਾਚਾ ਸਬਦੁ ਨ ਭਾਇਆ ॥੭॥ हरि का नामु सदा सुख सागरु साचा सबदु न भाइआ ॥७॥ हरि का नाम सर्वदा ही सुखों का सागर है किन्तु मनमुख मनुष्य सच्चे नाम से प्रेम नहीं करता ॥ ७॥
ਮੁਖਹੁ ਹਰਿ ਹਰਿ ਸਭੁ ਕੋ ਕਰੈ ਵਿਰਲੈ ਹਿਰਦੈ ਵਸਾਇਆ ॥ मुखहु हरि हरि सभु को करै विरलै हिरदै वसाइआ ॥ अपने मुँह से सभी परमेश्वर का ही नाम उच्चारित करते हैं किन्तु विरले ही इसे अपने हृदय में बसाते हैं।
ਨਾਨਕ ਜਿਨ ਕੈ ਹਿਰਦੈ ਵਸਿਆ ਮੋਖ ਮੁਕਤਿ ਤਿਨ੍ਹ੍ਹ ਪਾਇਆ ॥੮॥੨॥ नानक जिन कै हिरदै वसिआ मोख मुकति तिन्ह पाइआ ॥८॥२॥ हे नानक ! जिनके हृदय में हरि-नाम का निवास हुआ है, उन्हें मोक्ष एवं बन्धनों से मुक्ति
ਵਡਹੰਸੁ ਮਹਲਾ ੧ ਛੰਤ वडहंसु महला १ छंत
ੴ ਸਤਿਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥ ईश्वर एक है, जिसे सतगुरु की कृपा से पाया जा सकता है।
ਕਾਇਆ ਕੂੜਿ ਵਿਗਾੜਿ ਕਾਹੇ ਨਾਈਐ ॥ झूठ से दूषित किए हुए शरीर को स्नान करवाने का क्या अभिप्राय है ?
ਨਾਤਾ ਸੋ ਪਰਵਾਣੁ ਸਚੁ ਕਮਾਈਐ ॥ क्योंकि उस व्यक्ति का ही स्नान स्वीकार होता है जो सत्य की साधना करता है।
ਜਬ ਸਾਚ ਅੰਦਰਿ ਹੋਇ ਸਾਚਾ ਤਾਮਿ ਸਾਚਾ ਪਾਈਐ ॥ जब हृदय में सत्य आ बसता है तो ही मनुष्य सच्चा हो जाता है और सच्चे परमेश्वर को प्राप्त कर लेता है।


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