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ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਹਿਰਦੈ ਪਵਿਤ੍ਰੁ ਪਾਵਨੁ ਇਹੁ ਸਰੀਰੁ ਤਉ ਸਰਣੀ ॥੭॥
हरि नामु हिरदै पवित्रु पावनु इहु सरीरु तउ सरणी ॥७॥
हे हरि ! मेरा यह शरीर आपको समर्पित है और आपका पवित्र पावन नाम मेरे हृदय में स्थापित है ॥७ ॥
ਲਬ ਲੋਭ ਲਹਰਿ ਨਿਵਾਰਣੰ ਹਰਿ ਨਾਮ ਰਾਸਿ ਮਨੰ ॥
लब लोभ लहरि निवारणं हरि नाम रासि मनं ॥
हरि-नाम की पूँजी मन में आने से लोभ-लालच की लहरें शांत हो जाती हैं।
ਮਨੁ ਮਾਰਿ ਤੁਹੀ ਨਿਰੰਜਨਾ ਕਹੁ ਨਾਨਕਾ ਸਰਨੰ ॥੮॥੧॥੫॥
मनु मारि तुही निरंजना कहु नानका सरनं ॥८॥१॥५॥
गुरु नानक का कथन है कि हे निरंजन प्रभु ! मैं आपकी शरण में आया हूँ, आप ही मेरे मन को विनम्र बनाए। ॥८॥१॥५॥
ਗੂਜਰੀ ਮਹਲਾ ੩ ਘਰੁ ੧
गूजरी महला ३ घरु १
राग गूजरी, तीसरे गुरु, प्रथम ताल:१
ੴ ਸਤਿਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
ईश्वर एक है, जिसे सतगुरु की कृपा से पाया जा सकता है।
ਨਿਰਤਿ ਕਰੀ ਇਹੁ ਮਨੁ ਨਚਾਈ ॥
निरति करी इहु मनु नचाई ॥
मैं नृत्य करता हूँ परन्तु अपने इस मन को नचाता हूँ।
ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਆਪੁ ਗਵਾਈ ॥
गुर परसादी आपु गवाई ॥
गुरु की कृपा से मैंने अपना अहंकार मिटा दिया है।
ਚਿਤੁ ਥਿਰੁ ਰਾਖੈ ਸੋ ਮੁਕਤਿ ਹੋਵੈ ਜੋ ਇਛੀ ਸੋਈ ਫਲੁ ਪਾਈ ॥੧॥
चितु थिरु राखै सो मुकति होवै जो इछी सोई फलु पाई ॥१॥
जो अपने मन को हरि-चरणों में स्थिर रखता है, उसकी मुक्ति हो जाती है तथा जैसी इच्छा करता है, वैसा ही मनोवांछित फल प्राप्त कर लेता है॥ १॥
ਨਾਚੁ ਰੇ ਮਨ ਗੁਰ ਕੈ ਆਗੈ ॥
नाचु रे मन गुर कै आगै ॥
हे मन ! अपने गुरु के समक्ष श्रद्धा से नृत्य कर।
ਗੁਰ ਕੈ ਭਾਣੈ ਨਾਚਹਿ ਤਾ ਸੁਖੁ ਪਾਵਹਿ ਅੰਤੇ ਜਮ ਭਉ ਭਾਗੈ ॥ ਰਹਾਉ ॥
गुर कै भाणै नाचहि ता सुखु पावहि अंते जम भउ भागै ॥ रहाउ ॥
यदि तुम गुरु की इच्छा अनुसार नृत्य करो तो तुझे सुख की प्राप्ति होगी और अन्तिम समय मृत्यु का भय भी तुझ से भाग जाएगा॥ रहाउ॥
ਆਪਿ ਨਚਾਏ ਸੋ ਭਗਤੁ ਕਹੀਐ ਆਪਣਾ ਪਿਆਰੁ ਆਪਿ ਲਾਏ ॥
आपि नचाए सो भगतु कहीऐ आपणा पिआरु आपि लाए ॥
जिसे प्रभु स्वयं नचाते हैं, वही भक्त कहलवाता है। अपने प्रेम से प्रभु उसे स्वयं ही अपने चरणों में शरण देता है।
ਆਪੇ ਗਾਵੈ ਆਪਿ ਸੁਣਾਵੈ ਇਸੁ ਮਨ ਅੰਧੇ ਕਉ ਮਾਰਗਿ ਪਾਏ ॥੨॥
आपे गावै आपि सुणावै इसु मन अंधे कउ मारगि पाए ॥२॥
ईश्वर स्वयं ही गाता है और स्वयं ही सुनाता है तथा अन्धे ज्ञानहीन मन को सन्मार्ग पर लगाता है॥ २॥
ਅਨਦਿਨੁ ਨਾਚੈ ਸਕਤਿ ਨਿਵਾਰੈ ਸਿਵ ਘਰਿ ਨੀਦ ਨ ਹੋਈ ॥
अनदिनु नाचै सकति निवारै सिव घरि नीद न होई ॥
जो दिन-रात नृत्य करता है और माया शक्ति पर अंकुश लगा देता है, वह प्रभु के मन्दिर में प्रविष्ट हो जाता है, जहाँ मोह-माया की निद्रा नहीं होती।
ਸਕਤੀ ਘਰਿ ਜਗਤੁ ਸੂਤਾ ਨਾਚੈ ਟਾਪੈ ਅਵਰੋ ਗਾਵੈ ਮਨਮੁਖਿ ਭਗਤਿ ਨ ਹੋਈ ॥੩॥
सकती घरि जगतु सूता नाचै टापै अवरो गावै मनमुखि भगति न होई ॥३॥
माया के घर में सोया हुआ जगत नाचता-कूदता एवं द्वैतवाद को गाता है। स्वेच्छाचारी पुरुष प्रभु-भक्ति नहीं कर सकता ॥३॥
ਸੁਰਿ ਨਰ ਵਿਰਤਿ ਪਖਿ ਕਰਮੀ ਨਾਚੇ ਮੁਨਿ ਜਨ ਗਿਆਨ ਬੀਚਾਰੀ ॥
सुरि नर विरति पखि करमी नाचे मुनि जन गिआन बीचारी ॥
ऋषि, आत्मज्ञानी महापुरुष और दिव्यस्वरूप देवदूत, यद्यपि सांसारिक कर्मों में संलग्न रहते हैं, तथापि वे भगवान् की इच्छा के अनुसार ही जीवन यापन करते हैं।
ਸਿਧ ਸਾਧਿਕ ਲਿਵ ਲਾਗੀ ਨਾਚੇ ਜਿਨ ਗੁਰਮੁਖਿ ਬੁਧਿ ਵੀਚਾਰੀ ॥੪॥
सिध साधिक लिव लागी नाचे जिन गुरमुखि बुधि वीचारी ॥४॥
सिद्ध, साधक पुरुष गुरु की शरणागत उत्तम बुद्धि प्राप्त करके विचारवान बन जाते हैं तथा प्रभु में सुरति लगाकर प्रभु की इच्छा के अनुरूप ही जीवन यापन करते हैं। ॥४॥
ਖੰਡ ਬ੍ਰਹਮੰਡ ਤ੍ਰੈ ਗੁਣ ਨਾਚੇ ਜਿਨ ਲਾਗੀ ਹਰਿ ਲਿਵ ਤੁਮਾਰੀ ॥
खंड ब्रहमंड त्रै गुण नाचे जिन लागी हरि लिव तुमारी ॥
हे प्रभु ! खण्ड, ब्रह्माण्ड में रहने वाले त्रिगुणात्मक जीव जिन्होंने आपके साथ ध्यान लगाया हुआ है, वे भी आपकी इच्छा के अनुरूप ही जीवन यापन करते हैं।
ਜੀਅ ਜੰਤ ਸਭੇ ਹੀ ਨਾਚੇ ਨਾਚਹਿ ਖਾਣੀ ਚਾਰੀ ॥੫॥
जीअ जंत सभे ही नाचे नाचहि खाणी चारी ॥५॥
जीव-जन्तु एवं जीवन के चारों स्रोत प्रभु-इच्छा में नृत्य कर रहे हैं।॥ ५॥
ਜੋ ਤੁਧੁ ਭਾਵਹਿ ਸੇਈ ਨਾਚਹਿ ਜਿਨ ਗੁਰਮੁਖਿ ਸਬਦਿ ਲਿਵ ਲਾਏ ॥
जो तुधु भावहि सेई नाचहि जिन गुरमुखि सबदि लिव लाए ॥
हे प्रभु ! केवल वे ही आत्माएं नृत्य करती हैं अर्थात् आपकी इच्छा के अनुसार जीवन जीती हैं जो आपको प्रिय होती हैं; और गुरु की दिव्य शिक्षाओं के माध्यम से वे उस शब्द-तत्त्व से परिचित हो जाती हैं, जो ब्रह्म का स्वरूप है।
ਸੇ ਭਗਤ ਸੇ ਤਤੁ ਗਿਆਨੀ ਜਿਨ ਕਉ ਹੁਕਮੁ ਮਨਾਏ ॥੬॥
से भगत से ततु गिआनी जिन कउ हुकमु मनाए ॥६॥
जिन से प्रभु अपने आादेश की पालना करवाते हैं वही भक्त एवं तत्व ज्ञानी है॥ ६॥
ਏਹਾ ਭਗਤਿ ਸਚੇ ਸਿਉ ਲਿਵ ਲਾਗੈ ਬਿਨੁ ਸੇਵਾ ਭਗਤਿ ਨ ਹੋਈ ॥
एहा भगति सचे सिउ लिव लागै बिनु सेवा भगति न होई ॥
सच्ची पूजा वही है, जिसके द्वारा मन ईश्वर में एकाग्र होता है; और ऐसी सच्ची भक्ति, गुरु की शिक्षाओं का अनुसरण किए बिना संभव नहीं होती।
ਜੀਵਤੁ ਮਰੈ ਤਾ ਸਬਦੁ ਬੀਚਾਰੈ ਤਾ ਸਚੁ ਪਾਵੈ ਕੋਈ ॥੭॥
जीवतु मरै ता सबदु बीचारै ता सचु पावै कोई ॥७॥
जब मनुष्य संसार में रहते हुए भी भीतर से संसार से विरक्त हो जाता है, तभी वह गुरु की शिक्षाओं पर गंभीरता से मनन करता है, और उसी मार्ग से उसे ईश्वर की प्राप्ति होती है।॥ ७॥
ਮਾਇਆ ਕੈ ਅਰਥਿ ਬਹੁਤੁ ਲੋਕ ਨਾਚੇ ਕੋ ਵਿਰਲਾ ਤਤੁ ਬੀਚਾਰੀ ॥
माइआ कै अरथि बहुतु लोक नाचे को विरला ततु बीचारी ॥
धन-दौलत की प्राप्ति हेतु बहुत सारे लोग नाचते हैं। लेकिन कोई विरला पुरुष ही तत्व ज्ञान का बोध करता है।
ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਸੋਈ ਜਨੁ ਪਾਏ ਜਿਨ ਕਉ ਕ੍ਰਿਪਾ ਤੁਮਾਰੀ ॥੮॥
गुर परसादी सोई जनु पाए जिन कउ क्रिपा तुमारी ॥८॥
हे स्वामी ! जिस मनुष्य पर आप कृपा-दृष्टि करते हो, वह गुरु की दया से आपको पा लेता है॥ ८॥
ਇਕੁ ਦਮੁ ਸਾਚਾ ਵੀਸਰੈ ਸਾ ਵੇਲਾ ਬਿਰਥਾ ਜਾਇ ॥
इकु दमु साचा वीसरै सा वेला बिरथा जाइ ॥
यदि मैं एक क्षण भर भी सत्य (परमात्मा) को विस्मृत करूँ तो वह समय व्यर्थ बीत जाता है।
ਸਾਹਿ ਸਾਹਿ ਸਦਾ ਸਮਾਲੀਐ ਆਪੇ ਬਖਸੇ ਕਰੇ ਰਜਾਇ ॥੯॥
साहि साहि सदा समालीऐ आपे बखसे करे रजाइ ॥९॥
हे भाई ! प्रत्येक श्वास से तू सदा प्रभु को हृदय में धारण कर, वह अपनी इच्छानुसार तुझे स्वयं ही क्षमा कर देगा ॥९॥
ਸੇਈ ਨਾਚਹਿ ਜੋ ਤੁਧੁ ਭਾਵਹਿ ਜਿ ਗੁਰਮੁਖਿ ਸਬਦੁ ਵੀਚਾਰੀ ॥
सेई नाचहि जो तुधु भावहि जि गुरमुखि सबदु वीचारी ॥
हे प्रभु ! केवल वे ही व्यक्ति आपकी इच्छा के अनुसार जीवन जीते हैं, जो आपको प्रसन्न करते हैं और जो गुरु की शिक्षाओं के माध्यम से दिव्य शब्द का मनन करते हैं।
ਕਹੁ ਨਾਨਕ ਸੇ ਸਹਜ ਸੁਖੁ ਪਾਵਹਿ ਜਿਨ ਕਉ ਨਦਰਿ ਤੁਮਾਰੀ ॥੧੦॥੧॥੬॥
कहु नानक से सहज सुखु पावहि जिन कउ नदरि तुमारी ॥१०॥१॥६॥
नानक कहते हैं कि हे प्रभु ! जिन पर आपकी दया-दृष्टि है, वास्तव में वही सहजता से आत्मिक सुख की अनुभूति करते हैं।॥ १०॥ १॥ ६॥
ਗੂਜਰੀ ਮਹਲਾ ੪ ਘਰੁ ੨॥
गूजरी महला ४ घरु २
राग गूजरी, चतुर्थ गुरु, द्वितीय ताल: २
ੴ ਸਤਿਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
ईश्वर एक है, जिसे सतगुरु की कृपा से पाया जा सकता है।
ਹਰਿ ਬਿਨੁ ਜੀਅਰਾ ਰਹਿ ਨ ਸਕੈ ਜਿਉ ਬਾਲਕੁ ਖੀਰ ਅਧਾਰੀ ॥
हरि बिनु जीअरा रहि न सकै जिउ बालकु खीर अधारी ॥
भगवान् के बिना मेरा यह मन (जीवित) रह नहीं सकता, जैसे दूध के आधार पर रहने वाला बालक दूध के बिना नहीं रह सकता।
ਅਗਮ ਅਗੋਚਰ ਪ੍ਰਭੁ ਗੁਰਮੁਖਿ ਪਾਈਐ ਅਪੁਨੇ ਸਤਿਗੁਰ ਕੈ ਬਲਿਹਾਰੀ ॥੧॥
अगम अगोचर प्रभु गुरमुखि पाईऐ अपुने सतिगुर कै बलिहारी ॥१॥
अगम्य, अगोचर प्रभु गुरु के माध्यम से ही पाया जा सकता है। इसलिए मैं अपने सतगुरु पर बलिहारी जाता हूँ॥ १॥
ਮਨ ਰੇ ਹਰਿ ਕੀਰਤਿ ਤਰੁ ਤਾਰੀ ॥
मन रे हरि कीरति तरु तारी ॥
हे मन ! हरि की यश-कीर्ति संसार-सागर से पार होने के लिए एक जहाज है।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਨਾਮੁ ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਜਲੁ ਪਾਈਐ ਜਿਨ ਕਉ ਕ੍ਰਿਪਾ ਤੁਮਾਰੀ ॥ ਰਹਾਉ ॥
गुरमुखि नामु अम्रित जलु पाईऐ जिन कउ क्रिपा तुमारी ॥ रहाउ ॥
हे प्रभु ! जिन पर आपकी कृपा-दृष्टि होती है, वह गुरु की शरण में नाम रूपी अमृत-जल को प्राप्त कर लेते हैं। रहाउ॥