Guru Granth Sahib Translation Project

Guru Granth Sahib Hindi Page 505

Page 505

ਸਤਿਗੁਰ ਵਾਕਿ ਹਿਰਦੈ ਹਰਿ ਨਿਰਮਲੁ ਨਾ ਜਮ ਕਾਣਿ ਨ ਜਮ ਕੀ ਬਾਕੀ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥II सतिगुर वाकि हिरदै हरि निरमलु ना जम काणि न जम की बाकी ॥१॥ रहाउ ॥ सतगुरु की वाणी द्वारा मैंने निर्मल हरि को अपने हृदय में बसा लिया है, अब मुझे न ही यम की अधीनता रही है और न ही यमराज का लेखा-जोखा देना है॥ १॥ रहाउ॥
ਹਰਿ ਗੁਣ ਰਸਨ ਰਵਹਿ ਪ੍ਰਭ ਸੰਗੇ ਜੋ ਤਿਸੁ ਭਾਵੈ ਸਹਜਿ ਹਰੀ ॥ हरि गुण रसन रवहि प्रभ संगे जो तिसु भावै सहजि हरी ॥ में अपनी जिह्वा से हरि का गुणगान करता रहता हूँ और प्रभु भी मेरे साथ रहता है। हरि सहज ही वही कुछ करता है जो कुछ उसे उपयुक्त लगता है।
ਬਿਨੁ ਹਰਿ ਨਾਮ ਬ੍ਰਿਥਾ ਜਗਿ ਜੀਵਨੁ ਹਰਿ ਬਿਨੁ ਨਿਹਫਲ ਮੇਕ ਘਰੀ ॥੨॥ बिनु हरि नाम ब्रिथा जगि जीवनु हरि बिनु निहफल मेक घरी ॥२॥ हरि-नाम के बिना इस जगत् में मनुष्य का जीवन व्यर्थ है और हरि-भजन के बिना एक क्षण भी व्यतीत करना निष्फल है ॥२॥
ਐ ਜੀ ਖੋਟੇ ਠਉਰ ਨਾਹੀ ਘਰਿ ਬਾਹਰਿ ਨਿੰਦਕ ਗਤਿ ਨਹੀ ਕਾਈ ॥ ऐ जी खोटे ठउर नाही घरि बाहरि निंदक गति नही काई ॥ हे मान्यवर ! असत्य बोलने वालों को न इस संसार में ठौर मिलती है, न परलोक में आश्रय। और जो निंदा करते हैं, वे विकारों में फंसे रहते हैं; उन्हें न शांति मिलती है, न परम पद की प्राप्ति।
ਰੋਸੁ ਕਰੈ ਪ੍ਰਭੁ ਬਖਸ ਨ ਮੇਟੈ ਨਿਤ ਨਿਤ ਚੜੈ ਸਵਾਈ ॥੩॥I रोसु करै प्रभु बखस न मेटै नित नित चड़ै सवाई ॥३॥ भले ही निंदक भक्तों के सौभाग्य से व्यथित होकर क्रोध करे, ईश्वर अपनी कृपा का प्रवाह नहीं रोकते - वह दिन-प्रतिदिन और भी अधिक प्रबल होता जाता है। ॥३॥
ਐ ਜੀ ਗੁਰ ਕੀ ਦਾਤਿ ਨ ਮੇਟੈ ਕੋਈ ਮੇਰੈ ਠਾਕੁਰਿ ਆਪਿ ਦਿਵਾਈ ॥ ऐ जी गुर की दाति न मेटै कोई मेरै ठाकुरि आपि दिवाई ॥ हे मान्यवर ! गुरु की दात को कोई भी मिटा नहीं सकता क्योंकि मेरे ठाकुर ने ही यह देन स्वयं दिलवाई होती है।
ਨਿੰਦਕ ਨਰ ਕਾਲੇ ਮੁਖ ਨਿੰਦਾ ਜਿਨ੍ਹ੍ਹ ਗੁਰ ਕੀ ਦਾਤਿ ਨ ਭਾਈ ॥੪॥ निंदक नर काले मुख निंदा जिन्ह गुर की दाति न भाई ॥४॥ जिन्हें गुरु की देन अच्छी नहीं लगती, उन निन्दकों का मुख कलंकित ही रहता है॥ ४॥
ਐ ਜੀ ਸਰਣਿ ਪਰੇ ਪ੍ਰਭੁ ਬਖਸਿ ਮਿਲਾਵੈ ਬਿਲਮ ਨ ਅਧੂਆ ਰਾਈ ॥ ऐ जी सरणि परे प्रभु बखसि मिलावै बिलम न अधूआ राई ॥ हे जिज्ञासु ! यदि कोई निंदक भी पश्चातापपूर्वक प्रभु की शरण ग्रहण कर ले, तो भगवान् क्षण मात्र में ही उसे क्षमा कर अपने हृदय से लगा लेते हैं।
ਆਨਦ ਮੂਲੁ ਨਾਥੁ ਸਿਰਿ ਨਾਥਾ ਸਤਿਗੁਰੁ ਮੇਲਿ ਮਿਲਾਈ ॥੫॥I आनद मूलु नाथु सिरि नाथा सतिगुरु मेलि मिलाई ॥५॥ वह नाथों के नाथ प्रभु आनंद का स्रोत है, जो सच्चे गुरु के संपर्क में आने से मिल जाते हैं ॥५॥
ਐ ਜੀ ਸਦਾ ਦਇਆਲੁ ਦਇਆ ਕਰਿ ਰਵਿਆ ਗੁਰਮਤਿ ਭ੍ਰਮਨਿ ਚੁਕਾਈ ॥ ऐ जी सदा दइआलु दइआ करि रविआ गुरमति भ्रमनि चुकाई ॥ हे जिज्ञासु ! प्रभु सदा दयालु है और सर्वदा ही अपने भक्तों पर दया करते रहते हैं। गुरु उपदेश द्वारा सभी भ्रम मिट जाते हैं।
ਪਾਰਸੁ ਭੇਟਿ ਕੰਚਨੁ ਧਾਤੁ ਹੋਈ ਸਤਸੰਗਤਿ ਕੀ ਵਡਿਆਈ ॥੬॥ पारसु भेटि कंचनु धातु होई सतसंगति की वडिआई ॥६॥ पवित्र मण्डली में आकर सामान्य मनुष्य भी निर्मल, पुण्यशील और दिव्य स्वभाव का हो जाता है। ॥६॥
ਹਰਿ ਜਲੁ ਨਿਰਮਲੁ ਮਨੁ ਇਸਨਾਨੀ ਮਜਨੁ ਸਤਿਗੁਰੁ ਭਾਈ॥ हरि जलु निरमलु मनु इसनानी मजनु सतिगुरु भाई ॥ भगवान् निर्मल जल से भरे सरोवर के समान हैं, और मन उस सरोवर में स्नान करने वाला जिज्ञासु है; जिसे सच्चे गुरु की शिक्षा रुचिकर लगती है, वही उस दिव्य कुंड में श्रद्धा से डुबकी लगाता है।
ਪੁਨਰਪਿ ਜਨਮੁ ਨਾਹੀ ਜਨ ਸੰਗਤਿ ਜੋਤੀ ਜੋਤਿ ਮਿਲਾਈ ॥੭॥ पुनरपि जनमु नाही जन संगति जोती जोति मिलाई ॥७॥ हरि के दास की संगति करने से मनुष्य दोबारा जन्म नहीं लेता और उसकी ज्योति परम-ज्योति में विलीन हो जाती है।॥७॥
ਤੂੰ ਵਡ ਪੁਰਖੁ ਅਗੰਮ ਤਰੋਵਰੁ ਹਮ ਪੰਖੀ ਤੁਝ ਮਾਹੀ ॥ तूं वड पुरखु अगम तरोवरु हम पंखी तुझ माही ॥ हे सर्वेश्वर ! आप अगम्य वृक्ष है और हम पक्षी आपके संरक्षण में हैं।
ਨਾਨਕ ਨਾਮੁ ਨਿਰੰਜਨ ਦੀਜੈ ਜੁਗਿ ਜੁਗਿ ਸਬਦਿ ਸਲਾਹੀ ॥੮॥੪॥ नानक नामु निरंजन दीजै जुगि जुगि सबदि सलाही ॥८॥४॥ हे प्रभु ! नानक को अपना निरंजन नाम प्रदान कीजिए ताकि वह सभी युगों में शब्द द्वारा आपका स्तुतिगान करता रहे ॥८॥४॥
ਗੂਜਰੀ ਮਹਲਾ ੧ ਘਰੁ ੪॥ गूजरी महला १ घरु ४ राग गूजरी, प्रथम गुरु, चतुर्थ ताल: ४
ੴ ਸਤਿਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ ईश्वर एक है, जिसे सतगुरु की कृपा से पाया जा सकता है।
ਭਗਤਿ ਪ੍ਰੇਮ ਆਰਾਧਿਤੰ ਸਚੁ ਪਿਆਸ ਪਰਮ ਹਿਤੰ ॥ भगति प्रेम आराधितं सचु पिआस परम हितं ॥ जो व्यक्ति प्रेम-भक्ति द्वारा सच्चे परमात्मा की आराधना करते हैं, उन्हें नाम-सिमरन की ही प्यास लगी रहती है और वे बड़े प्रेम से नाम जपते रहते हैं।
ਬਿਲਲਾਪ ਬਿਲਲ ਬਿਨੰਤੀਆ ਸੁਖ ਭਾਇ ਚਿਤ ਹਿਤੰ ॥੧॥ बिललाप बिलल बिनंतीआ सुख भाइ चित हितं ॥१॥ वे भक्त अश्रुपूरित नेत्रों से प्रभु से करुण पुकार करते हैं, उनका हृदय ईश्वर-प्रेम में पूर्णतया लीन रहता है, और वे भीतर से दिव्य शांति एवं आनंद का अनुभव करते हैं।॥१॥
ਜਪਿ ਮਨ ਨਾਮੁ ਹਰਿ ਸਰਣੀ ॥ जपि मन नामु हरि सरणी ॥ हे मन ! भगवान् का नाम जपो तथा उसकी शरण लो।
ਸੰਸਾਰ ਸਾਗਰ ਤਾਰਿ ਤਾਰਣ ਰਮ ਨਾਮ ਕਰਿ ਕਰਣੀ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ संसार सागर तारि तारण रम नाम करि करणी ॥१॥ रहाउ ॥ राम का नाम संसार सागर से पार होने के लिए एक जहाज है, इसलिए ऐसा जीवन-आचरण धारण करो।॥१॥ रहाउ ॥
ਏ ਮਨ ਮਿਰਤ ਸੁਭ ਚਿੰਤੰ ਗੁਰ ਸਬਦਿ ਹਰਿ ਰਮਣੰ ॥ ए मन मिरत सुभ चिंतं गुर सबदि हरि रमणं ॥ हे मन ! यदि हम गुरु के शब्द द्वारा प्रभु का भजन करें तो मृत्यु भी शुभचिंतक बन जाती है।
ਮਤਿ ਤਤੁ ਗਿਆਨੰ ਕਲਿਆਣ ਨਿਧਾਨੰ ਹਰਿ ਨਾਮ ਮਨਿ ਰਮਣੰ ॥੨॥ मति ततु गिआनं कलिआण निधानं हरि नाम मनि रमणं ॥२॥ मन से प्रभु नाम का सिमरन करने से मनुष्य के हृदय को ज्ञान एवं कल्याण का खजाना प्राप्त हो जाता है।॥२॥
ਚਲ ਚਿਤ ਵਿਤ ਭ੍ਰਮਾ ਭ੍ਰਮੰ ਜਗੁ ਮੋਹ ਮਗਨ ਹਿਤੰ ॥ चल चित वित भ्रमा भ्रमं जगु मोह मगन हितं ॥ चंचल मन धन-दौलत के पीछे भटकता एवं दौड़ता रहता है और जगत के मोह एवं प्रेम में मग्न है।
ਥਿਰੁ ਨਾਮੁ ਭਗਤਿ ਦਿੜੰ ਮਤੀ ਗੁਰ ਵਾਕਿ ਸਬਦ ਰਤੰ ॥੩॥ थिरु नामु भगति दिड़ं मती गुर वाकि सबद रतं ॥३॥ गुरु की वाणी एवं उपदेश में लीन होकर प्रभु का नाम एवं उसकी भक्ति मनुष्य के मन में दृढ़ता से स्थापित हो जाते हैं।॥ ३॥
ਭਰਮਾਤਿ ਭਰਮੁ ਨ ਚੂਕਈ ਜਗੁ ਜਨਮਿ ਬਿਆਧਿ ਖਪੰ ॥ भरमाति भरमु न चूकई जगु जनमि बिआधि खपं ॥ तीर्थों पर पर्यटन करने से भ्रम दूर नहीं होता और संसार जन्म-मरण के रोग से नष्ट हो रहा है।
ਅਸਥਾਨੁ ਹਰਿ ਨਿਹਕੇਵਲੰ ਸਤਿ ਮਤੀ ਨਾਮ ਤਪੰ ॥੪॥ असथानु हरि निहकेवलं सति मती नाम तपं ॥४॥ हे मन! माया से रहित प्रभु की शरण ही एकमात्र निर्भय स्थल है; और उनका पवित्र नाम स्मरण ही परम तप और सच्चा ज्ञान है।॥ ४॥
ਇਹੁ ਜਗੁ ਮੋਹ ਹੇਤ ਬਿਆਪਿਤੰ ਦੁਖੁ ਅਧਿਕ ਜਨਮ ਮਰਣੰ ॥ इहु जगु मोह हेत बिआपितं दुखु अधिक जनम मरणं ॥ यह जगत माया-मोह के पाश में फँसा हुआ है और जन्म-मरण का भारी दुःख सहता है।
ਭਜੁ ਸਰਣਿ ਸਤਿਗੁਰ ਊਬਰਹਿ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਰਿਦ ਰਮਣੰ ॥੫॥ भजु सरणि सतिगुर ऊबरहि हरि नामु रिद रमणं ॥५॥ इसलिए प्रभु-भजन करो तथा सच्चे गुरु की शरण में आओ, हरि का नाम हृदय में बसने से मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है ॥५॥
ਗੁਰਮਤਿ ਨਿਹਚਲ ਮਨਿ ਮਨੁ ਮਨੰ ਸਹਜ ਬੀਚਾਰੰ ॥ गुरमति निहचल मनि मनु मनं सहज बीचारं ॥ गुरु-मतानुसार प्रभु का चिन्तन करने से मनुष्य का मन निश्चल हो जाता है।
ਸੋ ਮਨੁ ਨਿਰਮਲੁ ਜਿਤੁ ਸਾਚੁ ਅੰਤਰਿ ਗਿਆਨ ਰਤਨੁ ਸਾਰੰ ॥੬॥ सो मनु निरमलु जितु साचु अंतरि गिआन रतनु सारं ॥६॥ जिस अन्तर्मन में सत्य एवं ज्ञान-रत्न विद्यमान है, वह मन निर्मल है ॥६॥
ਭੈ ਭਾਇ ਭਗਤਿ ਤਰੁ ਭਵਜਲੁ ਮਨਾ ਚਿਤੁ ਲਾਇ ਹਰਿ ਚਰਣੀ ॥ भै भाइ भगति तरु भवजलु मना चितु लाइ हरि चरणी ॥ हे मन ! प्रभु के भय तथा भक्ति भाव से इस भवसागर को पार कर लो तथा हरि के सुन्दर चरणों में अपना चित्त लगाओ।


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