Guru Granth Sahib Translation Project

Guru Granth Sahib Hindi Page 426

Page 426

ਆਸਾ ਮਹਲਾ ੩ ॥ राग आसा, तीसरे गुरु: ३ ॥
ਆਪੈ ਆਪੁ ਪਛਾਣਿਆ ਸਾਦੁ ਮੀਠਾ ਭਾਈ ॥ हे भाई ! जो मनुष्य अपने आप को पहचान लेता है, उसे मीठा हरि रस अच्छा लगता है।
ਹਰਿ ਰਸਿ ਚਾਖਿਐ ਮੁਕਤੁ ਭਏ ਜਿਨ੍ਹ੍ਹਾ ਸਾਚੋ ਭਾਈ ॥੧॥ जो मनुष्य सत्य से प्रेम करते हैं, वे हरि रस को चख कर मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं।॥ १॥
ਹਰਿ ਜੀਉ ਨਿਰਮਲ ਨਿਰਮਲਾ ਨਿਰਮਲ ਮਨਿ ਵਾਸਾ ॥ पूज्य परमेश्वर अत्यंत निर्मल है, वह निर्मल परमात्मा निर्मल मन में बसता है।
ਗੁਰਮਤੀ ਸਾਲਾਹੀਐ ਬਿਖਿਆ ਮਾਹਿ ਉਦਾਸਾ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ गुरु की शिक्षा पर चलकर परमात्मा का यशोगान करके मनुष्य माया से निर्लिप्त रहता है॥ १॥ रहाउ॥
ਬਿਨੁ ਸਬਦੈ ਆਪੁ ਨ ਜਾਪਈ ਸਭ ਅੰਧੀ ਭਾਈ ॥ हे भाई ! गुरु शब्द के बिना मनुष्य अपने आप को नहीं समझ सकता, इसके बिना सारी दुनिया ज्ञानहीन है।
ਗੁਰਮਤੀ ਘਟਿ ਚਾਨਣਾ ਨਾਮੁ ਅੰਤਿ ਸਖਾਈ ॥੨॥ गुरु की शिक्षा से ही मन में प्रकाश होता है और अन्तिम समय प्रभु-नाम ही मनुष्य का सहायक होता है॥ २॥
ਨਾਮੇ ਹੀ ਨਾਮਿ ਵਰਤਦੇ ਨਾਮੇ ਵਰਤਾਰਾ ॥ गुरुमुख मनुष्य सदा हरि नाम ही जपते रहते हैं और केवल नाम का ही व्यापार करते हैं।
ਅੰਤਰਿ ਨਾਮੁ ਮੁਖਿ ਨਾਮੁ ਹੈ ਨਾਮੇ ਸਬਦਿ ਵੀਚਾਰਾ ॥੩॥ उनके अन्तर्मन में नाम ही बसा होता है, उनके मुँह में भी प्रभु का नाम ही होता है और शब्द-गुरु द्वारा वे नाम का ही चिन्तन करते हैं।॥ ३॥
ਨਾਮੁ ਸੁਣੀਐ ਨਾਮੁ ਮੰਨੀਐ ਨਾਮੇ ਵਡਿਆਈ ॥ वह नाम सुनते हैं और नाम पर ही आस्था रखते हैं और नाम द्वारा उन्हें यश प्राप्त होता है।
ਨਾਮੁ ਸਲਾਹੇ ਸਦਾ ਸਦਾ ਨਾਮੇ ਮਹਲੁ ਪਾਈ ॥੪॥ वह सदा नाम की सराहना करते हैं और नाम के माध्यम से प्रभु को अपने हृदय के मन्दिर में सदा के लिए प्राप्त कर लेते हैं।॥ ४॥
ਨਾਮੇ ਹੀ ਘਟਿ ਚਾਨਣਾ ਨਾਮੇ ਸੋਭਾ ਪਾਈ ॥ नाम के द्वारा उनके मन में प्रभु-ज्योति का प्रकाश हो जाता है और नाम द्वारा ही उन्हें लोक-परलोक में शोभा प्राप्त होती है।
ਨਾਮੇ ਹੀ ਸੁਖੁ ਊਪਜੈ ਨਾਮੇ ਸਰਣਾਈ ॥੫॥ नाम के द्वारा ही उन्हें सुख प्राप्त होता है, नाम द्वारा ही उन्होंने प्रभु की शरण ली है॥ ५॥
ਬਿਨੁ ਨਾਵੈ ਕੋਇ ਨ ਮੰਨੀਐ ਮਨਮੁਖਿ ਪਤਿ ਗਵਾਈ ॥ नाम के बिना कोई भी मनुष्य प्रभु-दरबार में स्वीकृत नहीं होता। स्वेच्छाचारी मनुष्य अपना मान-सम्मान गंवा लेते हैं।
ਜਮ ਪੁਰਿ ਬਾਧੇ ਮਾਰੀਅਹਿ ਬਿਰਥਾ ਜਨਮੁ ਗਵਾਈ ॥੬॥ जो स्वेच्छाचारी हैं, वे अपने दुर्लभ मानव जीवन को निरर्थक कृत्यों में नष्ट कर देते हैं और परलोक में मृत्यु के नगर में कठोर दंड भोगते हैं।
ਨਾਮੈ ਕੀ ਸਭ ਸੇਵਾ ਕਰੈ ਗੁਰਮੁਖਿ ਨਾਮੁ ਬੁਝਾਈ ॥ सारा संसार प्रभु-नाम की सेवा करता है और नाम-सिमरन की सूझ गुरु से प्राप्त होती है।
ਨਾਮਹੁ ਹੀ ਨਾਮੁ ਮੰਨੀਐ ਨਾਮੇ ਵਡਿਆਈ ॥੭॥ हे भाई ! केवल प्रभु-नाम की ही आराधना करो, क्योंकि नाम से ही लोक-परलोक में मान-प्रतिष्ठा मिलती है॥ ७॥
ਜਿਸ ਨੋ ਦੇਵੈ ਤਿਸੁ ਮਿਲੈ ਗੁਰਮਤੀ ਨਾਮੁ ਬੁਝਾਈ ॥ लेकिन नाम उसे ही मिलता है, जिसे परमात्मा देते हैं। गुरु की शिक्षा से ही नाम की सूझ होती है।
ਨਾਨਕ ਸਭ ਕਿਛੁ ਨਾਵੈ ਕੈ ਵਸਿ ਹੈ ਪੂਰੈ ਭਾਗਿ ਕੋ ਪਾਈ ॥੮॥੭॥੨੯॥ हे नानक ! सब कुछ प्रभु-नाम के वश में है। कोई विरला मनुष्य ही पूर्ण भाग्य से प्रभु नाम को प्राप्त करता है॥ ८ ॥ ७ ॥२९॥
ਆਸਾ ਮਹਲਾ ੩ ॥ राग आसा, तीसरे गुरु: ३ ॥
ਦੋਹਾਗਣੀ ਮਹਲੁ ਨ ਪਾਇਨ੍ਹ੍ਹੀ ਨ ਜਾਣਨਿ ਪਿਰ ਕਾ ਸੁਆਉ ॥ अभाग्यवश, आत्मवधुएँ अपने हृदय में प्रभु की उपस्थिति का अनुभव नहीं कर पातीं, अतः वे उस पति-परमेश्वर से एकत्व में प्राप्त दिव्य मिलनानंद से वंचित रह जाती हैं।
ਫਿਕਾ ਬੋਲਹਿ ਨਾ ਨਿਵਹਿ ਦੂਜਾ ਭਾਉ ਸੁਆਉ ॥੧॥ वह कटु वचन व्यक्त करती है और नम्रता नहीं जानती एवं द्वैतभाव का ही स्वाद लेती रहती है॥ १॥
ਇਹੁ ਮਨੂਆ ਕਿਉ ਕਰਿ ਵਸਿ ਆਵੈ ॥ यह मन कैसे वश में आ सकता है ?
ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਠਾਕੀਐ ਗਿਆਨ ਮਤੀ ਘਰਿ ਆਵੈ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ गुरु की कृपा से ही इस पर अंकुश लगाया जा सकता है और गुरु के उपदेश रूपी प्रकाश से जाग्रत होकर, वह स्वयं के भीतर ईश्वर का दर्शन करने लगता है।॥ १॥ रहाउ ॥
ਸੋਹਾਗਣੀ ਆਪਿ ਸਵਾਰੀਓਨੁ ਲਾਇ ਪ੍ਰੇਮ ਪਿਆਰੁ ॥ भगवान् ने स्वयं अपने प्रेम और स्नेह से भर कर सौभाग्यशाली आत्मवधुओं को अलंकृत किया है।
ਸਤਿਗੁਰ ਕੈ ਭਾਣੈ ਚਲਦੀਆ ਨਾਮੇ ਸਹਜਿ ਸੀਗਾਰੁ ॥੨॥ वह सच्चे गुरु की इच्छानुसार चलती है और उसने सहज ही प्रभु नाम का श्रृंगार किया हुआ है॥ २॥
ਸਦਾ ਰਾਵਹਿ ਪਿਰੁ ਆਪਣਾ ਸਚੀ ਸੇਜ ਸੁਭਾਇ ॥ वे सौभाग्यशाली आत्मवधुएँ सदा अपने हृदय में प्रभु की मधुर उपस्थिति का रस लेती हैं, जो उनके निष्कलंक प्रेम में मग्न रहते हैं।
ਪਿਰ ਕੈ ਪ੍ਰੇਮਿ ਮੋਹੀਆ ਮਿਲਿ ਪ੍ਰੀਤਮ ਸੁਖੁ ਪਾਇ ॥੩॥ अपने प्रियतम से मिलकर वह आत्मिक सुख प्राप्त करती है॥ ३॥
ਗਿਆਨ ਅਪਾਰੁ ਸੀਗਾਰੁ ਹੈ ਸੋਭਾਵੰਤੀ ਨਾਰਿ ॥ अपार ज्ञान शोभावान नारी का श्रृंगार है। ऐसी आत्मवधु सम्माननीय है।
ਸਾ ਸਭਰਾਈ ਸੁੰਦਰੀ ਪਿਰ ਕੈ ਹੇਤਿ ਪਿਆਰਿ ॥੪॥ अपने पति-परमेश्वर के स्नेह एवं प्रेम द्वारा वह सुन्दरी एवं पटरानी है॥ ४॥
ਸੋਹਾਗਣੀ ਵਿਚਿ ਰੰਗੁ ਰਖਿਓਨੁ ਸਚੈ ਅਲਖਿ ਅਪਾਰਿ ॥ सुहागिन के भीतर सत्यस्वरूप, अलक्ष्य एवं अपार प्रभु ने अपना प्रेम भरा है।
ਸਤਿਗੁਰੁ ਸੇਵਨਿ ਆਪਣਾ ਸਚੈ ਭਾਇ ਪਿਆਰਿ ॥੫॥ वह सच्चे प्रेम से अपने सतगुरु की सेवा करती है॥ ५॥
ਸੋਹਾਗਣੀ ਸੀਗਾਰੁ ਬਣਾਇਆ ਗੁਣ ਕਾ ਗਲਿ ਹਾਰੁ ॥ सुहागिन जीव-स्त्री ने गुणों की माला अपने गले में पहनकर अपना श्रृंगार किया हुआ है।
ਪ੍ਰੇਮ ਪਿਰਮਲੁ ਤਨਿ ਲਾਵਣਾ ਅੰਤਰਿ ਰਤਨੁ ਵੀਚਾਰੁ ॥੬॥ वह प्राणनाथ के प्रेम की सुगन्धि अपने तन पर लगाती है और उसके अन्तर्मन में नाम-चिन्तन रूपी रत्न होता है॥ ६॥
ਭਗਤਿ ਰਤੇ ਸੇ ਊਤਮਾ ਜਤਿ ਪਤਿ ਸਬਦੇ ਹੋਇ ॥ जो मनुष्य प्रभु-भक्ति से रंगे हुए हैं, वे सर्वोत्तम हैं। गुरु के वचनों पर चिंतन करने से उच्च आध्यात्मिक स्थिति और सम्मान प्राप्त होता है।
ਬਿਨੁ ਨਾਵੈ ਸਭ ਨੀਚ ਜਾਤਿ ਹੈ ਬਿਸਟਾ ਕਾ ਕੀੜਾ ਹੋਇ ॥੭॥ नाम के बिना प्रत्येक मनुष्य नीच जाति का है और विष्टा का कीड़ा होता है॥ ७॥
ਹਉ ਹਉ ਕਰਦੀ ਸਭ ਫਿਰੈ ਬਿਨੁ ਸਬਦੈ ਹਉ ਨ ਜਾਇ ॥ सारी दुनिया ‘मैं-मेरी' का अहंकार करती फिरती रहती है परन्तु गुरु-शब्द के बिना अभिमान दूर नहीं होता।
ਨਾਨਕ ਨਾਮਿ ਰਤੇ ਤਿਨ ਹਉਮੈ ਗਈ ਸਚੈ ਰਹੇ ਸਮਾਇ ॥੮॥੮॥੩੦॥ हे नानक ! जो मनुष्य प्रभु-नाम से रंगे हुए हैं, उनका अभिमान दूर हो गया है और वे सत्य में समाए रहते हैं॥ ८ ॥ ८ ॥ ३० ॥
ਆਸਾ ਮਹਲਾ ੩ ॥ राग आसा, तीसरे गुरु: ३ ॥
ਸਚੇ ਰਤੇ ਸੇ ਨਿਰਮਲੇ ਸਦਾ ਸਚੀ ਸੋਇ ॥ जो मनुष्य सत्य में लीन हैं, वे पवित्र पावन हैं और दुनिया में सदैव ही उनकी सच्ची कीर्ति होती है।
ਐਥੈ ਘਰਿ ਘਰਿ ਜਾਪਦੇ ਆਗੈ ਜੁਗਿ ਜੁਗਿ ਪਰਗਟੁ ਹੋਇ ॥੧॥ इस लोक में वह घर-घर में जाने जाते हैं और आगे भी वह सभी युगों-युगांतरों में लोकप्रिय होते हैं॥ १॥


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