Guru Granth Sahib Translation Project

Guru Granth Sahib Hindi Page 425

Page 425

ਆਪਣੈ ਹਥਿ ਵਡਿਆਈਆ ਦੇ ਨਾਮੇ ਲਾਏ ॥ सब उपलब्धियाँ भगवान् के हाथ हैं, वह स्वयं ही (सम्मान) देकर अपने नाम के साथ मिला लेता है।
ਨਾਨਕ ਨਾਮੁ ਨਿਧਾਨੁ ਮਨਿ ਵਸਿਆ ਵਡਿਆਈ ਪਾਏ ॥੮॥੪॥੨੬॥ हे नानक ! जिसके मन में नाम-धन बस जाता है, वह जग में कीर्ति ही प्राप्त करता है॥ ८ ॥ ४॥ २६ ॥
ਆਸਾ ਮਹਲਾ ੩ ॥ राग आसा, तीसरे गुरु: ३ ॥
ਸੁਣਿ ਮਨ ਮੰਨਿ ਵਸਾਇ ਤੂੰ ਆਪੇ ਆਇ ਮਿਲੈ ਮੇਰੇ ਭਾਈ ॥ हे मेरे मन ! तू (गुरु से) परमात्मा का नाम सुनकर उसे अपने अन्तर में बसा। हे मेरे भाई ! ऐसा करने से स्वयं भगवान् हमारे समीप आ जाते हैं।
ਅਨਦਿਨੁ ਸਚੀ ਭਗਤਿ ਕਰਿ ਸਚੈ ਚਿਤੁ ਲਾਈ ॥੧॥ सत्य परमेश्वर में अपना चित्त लगाकर प्रतिदिन सच्ची भक्ति करो॥ १॥
ਏਕੋ ਨਾਮੁ ਧਿਆਇ ਤੂੰ ਸੁਖੁ ਪਾਵਹਿ ਮੇਰੇ ਭਾਈ ॥ हे मेरे भाई ! एक नाम का ध्यान करो, तुझे आत्मिक सुख प्राप्त होगा।
ਹਉਮੈ ਦੂਜਾ ਦੂਰਿ ਕਰਿ ਵਡੀ ਵਡਿਆਈ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ अपना अहंकार एवं द्वैतवाद को दूर कर दे, इससे तेरी मान-प्रतिष्ठा बहुत बढ़ेगी॥ १॥ रहाउ॥
ਇਸੁ ਭਗਤੀ ਨੋ ਸੁਰਿ ਨਰ ਮੁਨਿ ਜਨ ਲੋਚਦੇ ਵਿਣੁ ਸਤਿਗੁਰ ਪਾਈ ਨ ਜਾਇ ॥ हे भाई ! इस भक्ति को पाने के लिए देवता, मनुष्य एवं मुनि जन भी जिज्ञासा रखते हैं परन्तु सच्चे गुरु के बिना यह प्राप्त नहीं होती।
ਪੰਡਿਤ ਪੜਦੇ ਜੋਤਿਕੀ ਤਿਨ ਬੂਝ ਨ ਪਾਇ ॥੨॥ पण्डित एवं ज्योतिषी धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन करते रहे परन्तु उन्हें भी प्रभु-भक्ति का ज्ञान नहीं मिला।॥ २॥
ਆਪੈ ਥੈ ਸਭੁ ਰਖਿਓਨੁ ਕਿਛੁ ਕਹਣੁ ਨ ਜਾਈ ॥ भगवान् ने सब कुछ अपने वश में रखा हुआ है, अन्य कुछ कहा नहीं जा सकता
ਆਪੇ ਦੇਇ ਸੁ ਪਾਈਐ ਗੁਰਿ ਬੂਝ ਬੁਝਾਈ ॥੩॥ गुरुदेव ने मुझे यह सूझ प्रदान की है कि भगवान् जो कुछ हमें देते हैं, उसे ही हम प्राप्त करते हैं।॥ ३॥
ਜੀਅ ਜੰਤ ਸਭਿ ਤਿਸ ਦੇ ਸਭਨਾ ਕਾ ਸੋਈ ॥ सब जीव-जन्तु भगवान् के बनाए हुए हैं और वह सबके स्वामी हैं।
ਮੰਦਾ ਕਿਸ ਨੋ ਆਖੀਐ ਜੇ ਦੂਜਾ ਹੋਈ ॥੪॥ जब रचयिता एक ही है, तब हम किसी को बुरा कैसे कहें? यदि कोई दूसरा सृष्टिकर्ता होता, तभी किसी में दोष निकालना उचित होता।॥ ४॥
ਇਕੋ ਹੁਕਮੁ ਵਰਤਦਾ ਏਕਾ ਸਿਰਿ ਕਾਰਾ ॥ भगवान् का आदेश ही इस सृष्टि में चल रहा है, प्रत्येक जीव को यही कार्य करना है जो उसकी ओर से उसके भाग्य में लिखा गया है।
ਆਪਿ ਭਵਾਲੀ ਦਿਤੀਅਨੁ ਅੰਤਰਿ ਲੋਭੁ ਵਿਕਾਰਾ ॥੫॥ उसने स्वयं ही जीवों को कुमार्गगामी किया हुआ है, इसलिए उनके अन्तर्मन में लोभ एवं विकार निवास करते हैं॥ ५॥
ਇਕ ਆਪੇ ਗੁਰਮੁਖਿ ਕੀਤਿਅਨੁ ਬੂਝਨਿ ਵੀਚਾਰਾ ॥ भगवान् ने कुछ मनुष्यों को गुरुमुख बना दिया है और वे ज्ञान समझते और विचार करते हैं।
ਭਗਤਿ ਭੀ ਓਨਾ ਨੋ ਬਖਸੀਅਨੁ ਅੰਤਰਿ ਭੰਡਾਰਾ ॥੬॥ वह अपनी भक्ति भी उन्हें प्रदान करता है, जिनके अन्तर्मन में नाम धन के भण्डार भरे हुए हैं।॥ ६॥
ਗਿਆਨੀਆ ਨੋ ਸਭੁ ਸਚੁ ਹੈ ਸਚੁ ਸੋਝੀ ਹੋਈ ॥ ज्ञानी पुरुष भी सत्य को ही समझते हैं और उन्हें सत्य का बोध प्राप्त होता है।
ਓਇ ਭੁਲਾਏ ਕਿਸੈ ਦੇ ਨ ਭੁਲਨ੍ਹ੍ਹੀ ਸਚੁ ਜਾਣਨਿ ਸੋਈ ॥੭॥ वे केवल सत्यस्वरूप परमात्मा को ही जानते हैं और यदि कोई उन्हें कुमार्गगामी करना चाहे तो वे पथ-भ्रष्ट नहीं होते॥ ७॥
ਘਰ ਮਹਿ ਪੰਚ ਵਰਤਦੇ ਪੰਚੇ ਵੀਚਾਰੀ ॥ उन ज्ञानी पुरुषों के अन्तर्मन में कामादिक पाँचों निवास करते हैं लेकिन पाँचों ही नियंत्रण में रहते हैं।
ਨਾਨਕ ਬਿਨੁ ਸਤਿਗੁਰ ਵਸਿ ਨ ਆਵਨ੍ਹ੍ਹੀ ਨਾਮਿ ਹਉਮੈ ਮਾਰੀ ॥੮॥੫॥੨੭॥ हे नानक ! सच्चे गुरु के बिना कामादिक पाँचों नियंत्रण में नहीं आते। नाम के माध्यम से अहंकार दूर हो जाता हैं ॥८॥५॥२७॥
ਆਸਾ ਮਹਲਾ ੩ ॥ राग आसा, तीसरे गुरु: ३ ॥
ਘਰੈ ਅੰਦਰਿ ਸਭੁ ਵਥੁ ਹੈ ਬਾਹਰਿ ਕਿਛੁ ਨਾਹੀ ॥ हे भाई ! तेरे हृदय-घर में ही समस्त पदार्थ हैं, बाहर कुछ भी नहीं मिलता।
ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਪਾਈਐ ਅੰਤਰਿ ਕਪਟ ਖੁਲਾਹੀ ॥੧॥ गुरु की कृपा से प्रत्येक वस्तु प्राप्त हो जाती है और मन के किवाड़ खुल जाते हैं।॥ १॥
ਸਤਿਗੁਰ ਤੇ ਹਰਿ ਪਾਈਐ ਭਾਈ ॥ हे भाई ! सतगुरु द्वारा ही भगवान् प्राप्त होते हैं।
ਅੰਤਰਿ ਨਾਮੁ ਨਿਧਾਨੁ ਹੈ ਪੂਰੈ ਸਤਿਗੁਰਿ ਦੀਆ ਦਿਖਾਈ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ मनुष्य के अन्तर्मन में नाम का भण्डार भरा हुआ है, पूर्ण सतगुरु ने मुझे यह दिखा दिया है॥ १॥ रहाउ ॥
ਹਰਿ ਕਾ ਗਾਹਕੁ ਹੋਵੈ ਸੋ ਲਏ ਪਾਏ ਰਤਨੁ ਵੀਚਾਰਾ ॥ जो मनुष्य हरि के नाम का ग्राहक है, वह इसे प्राप्त कर लेता है। लेकिन यह अमूल्य नाम रत्न मनुष्य सिमरन द्वारा प्राप्त करता है।
ਅੰਦਰੁ ਖੋਲੈ ਦਿਬ ਦਿਸਟਿ ਦੇਖੈ ਮੁਕਤਿ ਭੰਡਾਰਾ ॥੨॥ वह अपने अन्तर्मन को खोलता है और दिव्य-दृष्टि से मुक्ति के भण्डार को देखता है॥ २॥
ਅੰਦਰਿ ਮਹਲ ਅਨੇਕ ਹਹਿ ਜੀਉ ਕਰੇ ਵਸੇਰਾ ॥ शरीर के भीतर अनेक महल हैं और आत्मा उनके भीतर बसेरा करती है।
ਮਨ ਚਿੰਦਿਆ ਫਲੁ ਪਾਇਸੀ ਫਿਰਿ ਹੋਇ ਨ ਫੇਰਾ ॥੩॥ गुरु की कृपा से जब कोई यह समझ जाता है, तो वह अपना मनोवांछित फल प्राप्त कर लेता है और दोबारा जन्म-मरण के बन्धन में नहीं पड़ता॥ ३॥
ਪਾਰਖੀਆ ਵਥੁ ਸਮਾਲਿ ਲਈ ਗੁਰ ਸੋਝੀ ਹੋਈ ॥ जिन अध्यात्म-पथिकों ने गुरु की वाणी से सत्य को जाना, उन्होंने नाम के अमूल्य रत्न को अपने हृदय-कोष में सुरक्षित कर लिया।
ਨਾਮੁ ਪਦਾਰਥੁ ਅਮੁਲੁ ਸਾ ਗੁਰਮੁਖਿ ਪਾਵੈ ਕੋਈ ॥੪॥ नाम-पदार्थ बड़ा अनमोल है, गुरु के माध्यम से कोई विरला पुरुष ही इसे पाता है॥ ४॥
ਬਾਹਰੁ ਭਾਲੇ ਸੁ ਕਿਆ ਲਹੈ ਵਥੁ ਘਰੈ ਅੰਦਰਿ ਭਾਈ ॥ हे मेरे भाई ! जो बाहर ढूंढता है, उसे क्या मिल सकता है? क्योंकि नाम-भण्डार मनुष्य के हृदय-घर में ही है।
ਭਰਮੇ ਭੂਲਾ ਸਭੁ ਜਗੁ ਫਿਰੈ ਮਨਮੁਖਿ ਪਤਿ ਗਵਾਈ ॥੫॥ सारा जगत भ्रम में कुमार्गगामी हुआ भटकता है। स्वेच्छाचारी मनुष्य अपना मान-सम्मान गंवा लेते हैं।॥ ५॥
ਘਰੁ ਦਰੁ ਛੋਡੇ ਆਪਣਾ ਪਰ ਘਰਿ ਝੂਠਾ ਜਾਈ ॥ झूठा मनुष्य अपना घर-द्वार छोड़कर पराए घर में जाता है।
ਚੋਰੈ ਵਾਂਗੂ ਪਕੜੀਐ ਬਿਨੁ ਨਾਵੈ ਚੋਟਾ ਖਾਈ ॥੬॥ जहाँ वह चोर की भाँति पकड़ लिया जाता है और प्रभु-नाम के बिना वह चोटें खाता है॥ ६॥
ਜਿਨ੍ਹ੍ਹੀ ਘਰੁ ਜਾਤਾ ਆਪਣਾ ਸੇ ਸੁਖੀਏ ਭਾਈ ॥ हे मेरे भाई ! जो मनुष्य अपने हृदय घर को समझता है, वह सुखी जीवन व्यतीत करता है।
ਅੰਤਰਿ ਬ੍ਰਹਮੁ ਪਛਾਣਿਆ ਗੁਰ ਕੀ ਵਡਿਆਈ ॥੭॥ गुरु की महानता से वह अपने अन्तर्मन में ब्रह्म को पहचान लेता है॥ ७ ॥
ਆਪੇ ਦਾਨੁ ਕਰੇ ਕਿਸੁ ਆਖੀਐ ਆਪੇ ਦੇਇ ਬੁਝਾਈ ॥ भगवान् स्वयं ही व्यक्ति को नाम का उपहार देते हैं और स्वयं ही नाम की समझ प्रदान करते हैं।
ਨਾਨਕ ਨਾਮੁ ਧਿਆਇ ਤੂੰ ਦਰਿ ਸਚੈ ਸੋਭਾ ਪਾਈ ॥੮॥੬॥੨੮॥ हे नानक ! तू नाम का ध्यान कर, इस तरह तुझे सत्य के दरबार में शोभा प्राप्त होगी॥ ८॥ ६॥ २८ ॥


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