Guru Granth Sahib Translation Project

Guru Granth Sahib Hindi Page 411

Page 411

ਸਭ ਕਉ ਤਜਿ ਗਏ ਹਾਂ ॥ सभी इस संसार से माया को त्याग कर ही गए हैं।
ਸੁਪਨਾ ਜਿਉ ਭਏ ਹਾਂ ॥ वे स्वप्न के समान इस जगत से लुप्त हो गए।
ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਜਿਨ੍ਹ੍ਹਿ ਲਏ ॥੧॥ जो हरि का नाम-सिमरन करता है। १॥
ਹਰਿ ਤਜਿ ਅਨ ਲਗੇ ਹਾਂ ॥ हरि को छोड़कर जो विकारों में फँसे हुए हैं,
ਜਨਮਹਿ ਮਰਿ ਭਗੇ ਹਾਂ ॥ वे सतत् जन्म-मृत्यु के चक्र में भटकते रहते हैं।
ਹਰਿ ਹਰਿ ਜਨਿ ਲਹੇ ਹਾਂ ॥ जो भक्तजन परमात्मा को प्राप्त होते हैं,
ਜੀਵਤ ਸੇ ਰਹੇ ਹਾਂ ॥ वे आत्मिक रूप से जीवित रहते हैं
ਜਿਸਹਿ ਕ੍ਰਿਪਾਲੁ ਹੋਇ ਹਾਂ ॥ ਨਾਨਕ ਭਗਤੁ ਸੋਇ ॥੨॥੭॥੧੬੩॥੨੩੨॥ हे नानक ! जिस पर भगवान् कृपालु हो जाते हैं, वही उसका भक्त है॥२॥७॥१६३॥२३२॥
ੴ ਸਤਿਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥ ईश्वर एक है, जिसे सतगुरु की कृपा से पाया जा सकता है।
ਰਾਗੁ ਆਸਾ ਮਹਲਾ ੯ ॥ राग आसा, नौवें गुरु: ९ ॥
ਬਿਰਥਾ ਕਹਉ ਕਉਨ ਸਿਉ ਮਨ ਕੀ ॥ (हे भाई !) मैं मन की हालत किसे वर्णन करूँ ?
ਲੋਭਿ ਗ੍ਰਸਿਓ ਦਸ ਹੂ ਦਿਸ ਧਾਵਤ ਆਸਾ ਲਾਗਿਓ ਧਨ ਕੀ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ यह लोभ में ग्रस्त है और धन की आशा करके यह दसों दिशाओं की ओर भागता फिरता है॥ १॥ रहाउ ॥
ਸੁਖ ਕੈ ਹੇਤਿ ਬਹੁਤੁ ਦੁਖੁ ਪਾਵਤ ਸੇਵ ਕਰਤ ਜਨ ਜਨ ਕੀ ॥ सुख प्राप्ति हेतु वह बहुत दुःख सहन करता है और जन-जन की सेवा चापलुसी करता रहता है।
ਦੁਆਰਹਿ ਦੁਆਰਿ ਸੁਆਨ ਜਿਉ ਡੋਲਤ ਨਹ ਸੁਧ ਰਾਮ ਭਜਨ ਕੀ ॥੧॥ वह कुत्ते की भाँति द्वार-द्वार पर भटकता रहता है और राम के भजन की सूझ ही नहीं होती ॥ १॥
ਮਾਨਸ ਜਨਮ ਅਕਾਰਥ ਖੋਵਤ ਲਾਜ ਨ ਲੋਕ ਹਸਨ ਕੀ ॥ वह अपना मूल्यवान मनुष्य-जन्म निरर्थक ही गंवा देता है और लोगों की तरफ से हो रहे हंसी-मजाक की उसे लज्जा नहीं
ਨਾਨਕ ਹਰਿ ਜਸੁ ਕਿਉ ਨਹੀ ਗਾਵਤ ਕੁਮਤਿ ਬਿਨਾਸੈ ਤਨ ਕੀ ॥੨॥੧॥੨੩੩॥ नानक कहते हैं कि (हे जीव !) तुम हरि का यश क्यों नहीं गाते, इससे तेरे तन की दुुर्बुद्धि दूर हो जाएगी॥ २॥ १॥ २३३॥
ਰਾਗੁ ਆਸਾ ਮਹਲਾ ੧ ਅਸਟਪਦੀਆ ਘਰੁ ੨ राग आसा, द्वितीय ताल, अष्टपदी, प्रथम गुरु:
ੴ ਸਤਿਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥ ईश्वर एक है, जिसे सतगुरु की कृपा से पाया जा सकता है।
ਉਤਰਿ ਅਵਘਟਿ ਸਰਵਰਿ ਨ੍ਹ੍ਹਾਵੈ ॥ मनुष्य को पाप की दुष्कर घाटी से उतर कर सत्संग रूपी गुणों के सरोवर में स्नान करना चाहिए।
ਬਕੈ ਨ ਬੋਲੈ ਹਰਿ ਗੁਣ ਗਾਵੈ ॥ उसे व्यर्थ नहीं बोलना चाहिए और भगवान् के गुण गाते रहना चाहिए।
ਜਲੁ ਆਕਾਸੀ ਸੁੰਨਿ ਸਮਾਵੈ ॥ वायुमण्डल में जल की भाँति उसे प्रभु में लीन रहना चाहिए
ਰਸੁ ਸਤੁ ਝੋਲਿ ਮਹਾ ਰਸੁ ਪਾਵੈ ॥੧॥ सत्य की प्रसन्नता का मंथन करके उसे महा रस अमृत का पान करना चाहिए॥ १
ਐਸਾ ਗਿਆਨੁ ਸੁਨਹੁ ਅਭ ਮੋਰੇ ॥ हे मेरे मन ! ऐसा ज्ञान सुनो।
ਭਰਿਪੁਰਿ ਧਾਰਿ ਰਹਿਆ ਸਭ ਠਉਰੇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ प्रभु सर्वत्र व्यापक है और सबको सहारा दे रहे हैं। १॥ रहाउ॥
ਸਚੁ ਬ੍ਰਤੁ ਨੇਮੁ ਨ ਕਾਲੁ ਸੰਤਾਵੈ ॥ जो मनुष्य सत्य को अपना व्रत एवं नियम बनाता है, काल उसे दुःखी नहीं करता और
ਸਤਿਗੁਰ ਸਬਦਿ ਕਰੋਧੁ ਜਲਾਵੈ ॥ सच्चे गुरु के शब्द से वह अपने क्रोध को जला देता है।
ਗਗਨਿ ਨਿਵਾਸਿ ਸਮਾਧਿ ਲਗਾਵੈ ॥ वह दसम द्वार(उच्घमण्डल) में निवास करता है और समाधि की अवस्था धारण कर लेता है।
ਪਾਰਸੁ ਪਰਸਿ ਪਰਮ ਪਦੁ ਪਾਵੈ ॥੨॥ वह गुरु रूपी पारस को स्पर्श करके परम पद प्राप्त कर लेता है॥ २ ॥
ਸਚੁ ਮਨ ਕਾਰਣਿ ਤਤੁ ਬਿਲੋਵੈ ॥ प्राणी को अपने मन के लिए सत्य के तत्व का मंथन करना चाहिए और
ਸੁਭਰ ਸਰਵਰਿ ਮੈਲੁ ਨ ਧੋਵੈ ॥ अपनी मलिनता को धोने के लिए नामामृत के सरोवर में स्नान करना चाहिए।
ਜੈ ਸਿਉ ਰਾਤਾ ਤੈਸੋ ਹੋਵੈ ॥ जिसके साथ वह रंग जाता है, मनुष्य उस जैसा हो जाता है।
ਆਪੇ ਕਰਤਾ ਕਰੇ ਸੁ ਹੋਵੈ ॥੩॥ जो कुछ कर्ता प्रभु स्वयं करता है, वही होता है॥ ३॥
ਗੁਰ ਹਿਵ ਸੀਤਲੁ ਅਗਨਿ ਬੁਝਾਵੈ ॥ बर्फ जैसे शीतल हृदय वाले गुरु से मिलकर मनुष्य अपनी तृष्णाग्नि को बुझाए।
ਸੇਵਾ ਸੁਰਤਿ ਬਿਭੂਤ ਚੜਾਵੈ ॥ वह मन से पूर्ण समर्पित होकर, गुरु की शिक्षा-रूपी भस्म से स्वयं को अभिषिक्त करता है।
ਦਰਸਨੁ ਆਪਿ ਸਹਜ ਘਰਿ ਆਵੈ ॥ शांति और स्थिरता उनका जीवन-सिद्धांत बन जाता है।
ਨਿਰਮਲ ਬਾਣੀ ਨਾਦੁ ਵਜਾਵੈ ॥੪॥ ऐसा व्यक्ति ईश्वर का गुणगान करता है मानो वह गुरु-वाणी की पवित्र बांसुरी बजा रहा हो।॥ ४॥
ਅੰਤਰਿ ਗਿਆਨੁ ਮਹਾ ਰਸੁ ਸਾਰਾ ॥ जिसके भीतर दिव्य ज्ञान रचा-बसा है और जो निरंतर नाम का स्मरण करता है, वह मानो परम अमृत का पान कर रहा है।
ਤੀਰਥ ਮਜਨੁ ਗੁਰ ਵੀਚਾਰਾ ॥ उसके लिए गुरु-वाणी का विचार तीर्थ-स्थल का स्नान है।
ਅੰਤਰਿ ਪੂਜਾ ਥਾਨੁ ਮੁਰਾਰਾ ॥ अन्तर्मन में प्रभु का निवास ही पूजा है।
ਜੋਤੀ ਜੋਤਿ ਮਿਲਾਵਣਹਾਰਾ ॥੫॥ यह मनुष्य ज्योति को ईश्वरीय ज्योत से मिलाने वाला है॥ ५॥
ਰਸਿ ਰਸਿਆ ਮਤਿ ਏਕੈ ਭਾਇ ॥ जिस का मन नाम-रस में भीगा रहता है, जिसकी मति एक प्रभु के प्रेम में लगी रहती है।
ਤਖਤ ਨਿਵਾਸੀ ਪੰਚ ਸਮਾਇ ॥ ऐसा व्यक्ति राजसिंहासन पर विराजमान होने वाले प्रभु में समा जाता है।
ਕਾਰ ਕਮਾਈ ਖਸਮ ਰਜਾਇ ॥ परमात्मा की इच्छानुसार चलना ही उसकी प्रतिदिन की दिनचर्या एवं दैनिक कमाई हो जाती है।
ਅਵਿਗਤ ਨਾਥੁ ਨ ਲਖਿਆ ਜਾਇ ॥੬॥ प्रभु अमूर्त हैं और जिनका वर्णन नहीं किया जा सकता ॥ ६॥
ਜਲ ਮਹਿ ਉਪਜੈ ਜਲ ਤੇ ਦੂਰਿ ॥ जैसे कमल जल में से उत्पन्न होता है और जल से दूर रहता है,
ਜਲ ਮਹਿ ਜੋਤਿ ਰਹਿਆ ਭਰਪੂਰਿ ॥ इसी तरह प्रभु की ज्योति समस्त जीवों में सर्वव्यापक है।
ਕਿਸੁ ਨੇੜੈ ਕਿਸੁ ਆਖਾ ਦੂਰਿ ॥ मैं किसे प्रभु के निकट एवं किसे दूर कहूँ?
ਨਿਧਿ ਗੁਣ ਗਾਵਾ ਦੇਖਿ ਹਦੂਰਿ ॥੭॥ उस परमात्मा को सर्वव्यापक देखकर मैं गुणों के भण्डार का यशोगान करता हूँ॥ ७॥
ਅੰਤਰਿ ਬਾਹਰਿ ਅਵਰੁ ਨ ਕੋਇ ॥ भीतर एवं बाहर प्रभु के अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं।


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