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ੴ ਸਤਿਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥
ईश्वर एक है, जिसे सतगुरु की कृपा से पाया जा सकता है।
ਮਹਲਾ ੪ ਰਾਗੁ ਆਸਾ ਘਰੁ ੬ ਕੇ ੩ ॥
राग आसा, छठी ताल में तीन शबद, चौथे गुरु: ३ ॥
ਹਥਿ ਕਰਿ ਤੰਤੁ ਵਜਾਵੈ ਜੋਗੀ ਥੋਥਰ ਵਾਜੈ ਬੇਨ ॥
हे योगी ! तुम हाथ में वीणा लेकर तार बजाते हो परन्तु तेरी वीणा व्यर्थ ही बज रही है। क्योंकि उसका मन भगवान के प्रेम में रमा नहीं है।
ਗੁਰਮਤਿ ਹਰਿ ਗੁਣ ਬੋਲਹੁ ਜੋਗੀ ਇਹੁ ਮਨੂਆ ਹਰਿ ਰੰਗਿ ਭੇਨ ॥੧॥
हे योगी ! गुरु की मति द्वारा हरि का गुणगान करो, तेरा यह मन हरि रंग में भीग जाएगा।॥ १॥
ਜੋਗੀ ਹਰਿ ਦੇਹੁ ਮਤੀ ਉਪਦੇਸੁ ॥
हे योगी ! अपनी बुद्धि को हरि का उपदेश सुना।
ਜੁਗੁ ਜੁਗੁ ਹਰਿ ਹਰਿ ਏਕੋ ਵਰਤੈ ਤਿਸੁ ਆਗੈ ਹਮ ਆਦੇਸੁ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
एक हरि-परमेश्वर समस्त युगों (सतयुग, त्रैता, द्वापर, कलियुग) में व्यापक हो रहा है, उसके समक्ष मैं नमन करता हूँ॥ १॥ रहाउ॥
ਗਾਵਹਿ ਰਾਗ ਭਾਤਿ ਬਹੁ ਬੋਲਹਿ ਇਹੁ ਮਨੂਆ ਖੇਲੈ ਖੇਲ ॥
तुम अनेक रागों में गाते एवं बहुत बोलतें हो परन्तु तेरा यह मन केवल खेल ही खेलता है।
ਜੋਵਹਿ ਕੂਪ ਸਿੰਚਨ ਕਉ ਬਸੁਧਾ ਉਠਿ ਬੈਲ ਗਏ ਚਰਿ ਬੇਲ ॥੨॥
उनकी स्थिति उस किसान जैसी है, जो कुएँ पर पानी खींचने में व्यस्त है, जबकि उसके अपने बैल खेत में खड़ी फसल को चर रहे हैं। ॥ २॥
ਕਾਇਆ ਨਗਰ ਮਹਿ ਕਰਮ ਹਰਿ ਬੋਵਹੁ ਹਰਿ ਜਾਮੈ ਹਰਿਆ ਖੇਤੁ ॥
हे योगी ! हरि की दया से काया रूपी नगर की भूमि में हरि नाम का बीज बोओ। तब हरिनाम ही अंकुरित होगा और तेरी काया रूपी फसल हरित हो जाएगी।
ਮਨੂਆ ਅਸਥਿਰੁ ਬੈਲੁ ਮਨੁ ਜੋਵਹੁ ਹਰਿ ਸਿੰਚਹੁ ਗੁਰਮਤਿ ਜੇਤੁ ॥੩॥
हे योगी ! इस चंचल मन की दुविधा पर अंकुश लगाओ, स्थिरचित रूपी बैल को जोड़ो एवं गुरु की मति से हरि-नाम रूपी जल को सींचो ॥ ३॥
ਜੋਗੀ ਜੰਗਮ ਸ੍ਰਿਸਟਿ ਸਭ ਤੁਮਰੀ ਜੋ ਦੇਹੁ ਮਤੀ ਤਿਤੁ ਚੇਲ ॥
हे प्रभु ! योगी, जंगम एवं सारी सृष्टि तेरी ही रचना है, जैसी सुमति तुम उनको प्रदान करते हो, वैसे ही वे चलते हैं।
ਜਨ ਨਾਨਕ ਕੇ ਪ੍ਰਭ ਅੰਤਰਜਾਮੀ ਹਰਿ ਲਾਵਹੁ ਮਨੂਆ ਪੇਲ ॥੪॥੯॥੬੧॥
हे नानक के अन्तर्यामी प्रभु ! मेरे मन को प्रेरित करके हरि-नाम मे सम्मिलित कर लो॥ ४॥ ६॥ ६१॥
ਆਸਾ ਮਹਲਾ ੪ ॥
राग आसा, चौथे गुरु:४ ॥
ਕਬ ਕੋ ਭਾਲੈ ਘੁੰਘਰੂ ਤਾਲਾ ਕਬ ਕੋ ਬਜਾਵੈ ਰਬਾਬੁ ॥
कब तक कोई धुंघरू और ताल को ढूंढता फिरे ? कब तक कोई रबाब इत्यादि वाद्ययन्त्र बजाता रहे?
ਆਵਤ ਜਾਤ ਬਾਰ ਖਿਨੁ ਲਾਗੈ ਹਉ ਤਬ ਲਗੁ ਸਮਾਰਉ ਨਾਮੁ ॥੧॥
इन उपकरणों को ढूँढने और लाने में समय गंवाने के बजाय, मैं भगवान् के नाम का ध्यान करना अधिक मूल्यवान मानता हूँ। ॥ १ ॥
ਮੇਰੈ ਮਨਿ ਐਸੀ ਭਗਤਿ ਬਨਿ ਆਈ ॥
मेरे मन में प्रभु की ऐसी भक्ति बन गई है कि
ਹਉ ਹਰਿ ਬਿਨੁ ਖਿਨੁ ਪਲੁ ਰਹਿ ਨ ਸਕਉ ਜੈਸੇ ਜਲ ਬਿਨੁ ਮੀਨੁ ਮਰਿ ਜਾਈ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
उसके बिना मैं एक क्षण एवं पल भर के लिए भी नहीं रह सकता जैसे जल के बिना मछली के प्राण उड़ जाते हैं, वैसे ही मैं हरि के बिना नहीं रह सकता ॥ १॥ रहाउ॥
ਕਬ ਕੋਊ ਮੇਲੈ ਪੰਚ ਸਤ ਗਾਇਣ ਕਬ ਕੋ ਰਾਗ ਧੁਨਿ ਉਠਾਵੈ ॥
कब तक कोई गाने के लिंए पाँच तारें एवं सात सुर कहाँ तक मिलाता रहे ? कब तक कोई राग का स्वर उठाए ?
ਮੇਲਤ ਚੁਨਤ ਖਿਨੁ ਪਲੁ ਚਸਾ ਲਾਗੈ ਤਬ ਲਗੁ ਮੇਰਾ ਮਨੁ ਰਾਮ ਗੁਨ ਗਾਵੈ ॥੨॥
तार, सुर मिलाते हुए एवं स्वर उठाने में कुछ न कुछ देरी अवश्य लग जाती है। मेरा मन तो उतना समय भी राम के गुणगान में लगा रहेगा ॥ २॥
ਕਬ ਕੋ ਨਾਚੈ ਪਾਵ ਪਸਾਰੈ ਕਬ ਕੋ ਹਾਥ ਪਸਾਰੈ ॥
कब तक कोई नृत्य करेगा और अपने पैर चलाएगा ? कब तक कोई अपने हाथ घुमाए ?
ਹਾਥ ਪਾਵ ਪਸਾਰਤ ਬਿਲਮੁ ਤਿਲੁ ਲਾਗੈ ਤਬ ਲਗੁ ਮੇਰਾ ਮਨੁ ਰਾਮ ਸਮ੍ਹ੍ਹਾਰੈ ॥੩॥
अपने हाथ-पैर घुमाने में थोड़ा-सा समय अवश्य लगता है, तब तक मेरा मन राम नाम का सिमरन करता है॥ ३॥
ਕਬ ਕੋਊ ਲੋਗਨ ਕਉ ਪਤੀਆਵੈ ਲੋਕਿ ਪਤੀਣੈ ਨਾ ਪਤਿ ਹੋਇ ॥
कब तक कोई लोगों को प्रसन्न करेगा ? यदि लोग प्रसन्न हो भी जाएँ तो भी (प्रभु-द्वार पर) मान-सम्मान नहीं मिलेगा।
ਜਨ ਨਾਨਕ ਹਰਿ ਹਿਰਦੈ ਸਦ ਧਿਆਵਹੁ ਤਾ ਜੈ ਜੈ ਕਰੇ ਸਭੁ ਕੋਇ ॥੪॥੧੦॥੬੨॥
हे नानक ! अपने हृदय में सदैव ही प्रभु का सिमरन करते रहो, तभी हर कोई जय-जयकार करेगा॥ ४॥ १०॥ ६२॥
ਆਸਾ ਮਹਲਾ ੪ ॥
राग आसा, चौथे गुरु: ४ ॥
ਸਤਸੰਗਤਿ ਮਿਲੀਐ ਹਰਿ ਸਾਧੂ ਮਿਲਿ ਸੰਗਤਿ ਹਰਿ ਗੁਣ ਗਾਇ ॥
ईश्वर के संतों की पवित्र संगति में रहो और उनके साथ मिलकर भगवान की महिमा का गुणगान करो।
ਗਿਆਨ ਰਤਨੁ ਬਲਿਆ ਘਟਿ ਚਾਨਣੁ ਅਗਿਆਨੁ ਅੰਧੇਰਾ ਜਾਇ ॥੧॥
(सत्संगति में) ज्ञान रूपी रत्न के आलोक से अज्ञानता का अन्धेरा मन से नष्ट हो जाता है॥ १॥
ਹਰਿ ਜਨ ਨਾਚਹੁ ਹਰਿ ਹਰਿ ਧਿਆਇ ॥
हे हरि के भक्तो ! हरि-प्रभु का ध्यान करते हुए नृत्य करो।
ਐਸੇ ਸੰਤ ਮਿਲਹਿ ਮੇਰੇ ਭਾਈ ਹਮ ਜਨ ਕੇ ਧੋਵਹ ਪਾਇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
हे मेरे भाई ! यदि मुझे ऐसे संतजन मिल जाएँ तो मैं उन प्रभु-भक्तों के चरण धोऊँ॥ १॥ रहाउ ॥
ਹਰਿ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਜਪਹੁ ਮਨ ਮੇਰੇ ਅਨਦਿਨੁ ਹਰਿ ਲਿਵ ਲਾਇ ॥
हे मेरे मन ! रात दिन ध्यान लगाकर हरि-परमेश्वर का नाम-सिमरन किया करो।
ਜੋ ਇਛਹੁ ਸੋਈ ਫਲੁ ਪਾਵਹੁ ਫਿਰਿ ਭੂਖ ਨ ਲਾਗੈ ਆਇ ॥੨॥
जिस फल की इच्छा होगी वही फल तुझे मिलेगा और तुझे दोबारा कभी भूख नहीं लगेगी॥ २॥
ਆਪੇ ਹਰਿ ਅਪਰੰਪਰੁ ਕਰਤਾ ਹਰਿ ਆਪੇ ਬੋਲਿ ਬੁਲਾਇ ॥
अपरंपार हरि स्वयं ही जगत का रचयिता है। हरि स्वयं ही बोलते एवं बुलवाते है।
ਸੇਈ ਸੰਤ ਭਲੇ ਤੁਧੁ ਭਾਵਹਿ ਜਿਨ੍ਹ੍ਹ ਕੀ ਪਤਿ ਪਾਵਹਿ ਥਾਇ ॥੩॥
वही संत भले हैं, जो आपको अच्छे लगते हैं और जिनकी प्रतिष्ठा को आप स्वीकार करते हो ॥ ३॥
ਨਾਨਕੁ ਆਖਿ ਨ ਰਾਜੈ ਹਰਿ ਗੁਣ ਜਿਉ ਆਖੈ ਤਿਉ ਸੁਖੁ ਪਾਇ ॥
नानक, हरि की गुणस्तुति करते हुए तृप्त नहीं होते हैं, जितनी अधिक वह उसकी महिमा करते हैं, उतना अधिक वह सुख प्राप्त करते हैं।
ਭਗਤਿ ਭੰਡਾਰ ਦੀਏ ਹਰਿ ਅਪੁਨੇ ਗੁਣ ਗਾਹਕੁ ਵਣਜਿ ਲੈ ਜਾਇ ॥੪॥੧੧॥੬੩॥
हरि ने अपनी भक्ति के भण्डार (उपासक को) दिए हुए हैं और गुणों के व्यापारी उनको खरीद कर अपने घर (परलोक) में ले जाते हैं॥ ४ ॥ ११ ॥ ६३ ॥