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ਏਹਾ ਭਗਤਿ ਜਨੁ ਜੀਵਤ ਮਰੈ ॥
सच्ची भक्ति वही है, जो व्यक्ति को सांसारिक कार्यों में लगे रहते हुए भी माया के आकर्षण से मुक्त रखती है।
ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਭਵਜਲੁ ਤਰੈ ॥
गुरु की कृपा से ऐसा दास संसार सागर से पार हो जाता है।
ਗੁਰ ਕੈ ਬਚਨਿ ਭਗਤਿ ਥਾਇ ਪਾਇ ॥
गुरु के वचन द्वारा की हुई भक्ति सफल हो जाती है।
ਹਰਿ ਜੀਉ ਆਪਿ ਵਸੈ ਮਨਿ ਆਇ ॥੪॥
पूज्य परमेश्वर स्वयं आकर हृदय में बस जाते हैं॥ ४॥
ਹਰਿ ਕ੍ਰਿਪਾ ਕਰੇ ਸਤਿਗੁਰੂ ਮਿਲਾਏ ॥
जब प्रभु कृपा करते हैं तो वह मनुष्य को सतगुरु से मिला देते हैं।
ਨਿਹਚਲ ਭਗਤਿ ਹਰਿ ਸਿਉ ਚਿਤੁ ਲਾਏ ॥
तब उसकी भक्ति अटल हो जाती है और वह ईश्वर से अपना चित्त लगा लेता है।
ਭਗਤਿ ਰਤੇ ਤਿਨ੍ਹ੍ਹ ਸਚੀ ਸੋਇ ॥
जो मनुष्य प्रभु की भक्ति में रंगे हुए हैं, उनकी शोभा भी सच्ची है।
ਨਾਨਕ ਨਾਮਿ ਰਤੇ ਸੁਖੁ ਹੋਇ ॥੫॥੧੨॥੫੧॥
हे नानक ! नाम में अनुरक्त होने से ही मनुष्य को सुख प्राप्त होता है। ॥५॥१२॥५१॥
ਆਸਾ ਘਰੁ ੮ ਕਾਫੀ ਮਹਲਾ ੩
राग आसा, काफ़ी, आठवां ताल, तीसरे गुरु: ३
ੴ ਸਤਿਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥
ईश्वर एक है, जिसे सतगुरु की कृपा से पाया जा सकता है।
ਹਰਿ ਕੈ ਭਾਣੈ ਸਤਿਗੁਰੁ ਮਿਲੈ ਸਚੁ ਸੋਝੀ ਹੋਈ ॥
हरि-इच्छा से ही सतगुरु मिलते हैं और सत्य की सूझ प्राप्त होती है।
ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਮਨਿ ਵਸੈ ਹਰਿ ਬੂਝੈ ਸੋਈ ॥੧॥
गुरु की कृपा से जिसके हृदय में नाम निवास करता है, वह प्रभु को समझ लेता है॥ १॥
ਮੈ ਸਹੁ ਦਾਤਾ ਏਕੁ ਹੈ ਅਵਰੁ ਨਾਹੀ ਕੋਈ ॥
एक पति-प्रभु ही मेरा मालिक एवं दाता है और उसके अतिरिक्त कोई नहीं।
ਗੁਰ ਕਿਰਪਾ ਤੇ ਮਨਿ ਵਸੈ ਤਾ ਸਦਾ ਸੁਖੁ ਹੋਈ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
गुरु की कृपा से जब वह मन में निवास करता है तो सदा सुख मिलता है॥ १॥ रहाउ॥
ਇਸੁ ਜੁਗ ਮਹਿ ਨਿਰਭਉ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਹੈ ਪਾਈਐ ਗੁਰ ਵੀਚਾਰਿ ॥
इस युग में निर्भय करने वाला हरि का नाम है और गुरु के विचार अर्थात् उपदेश द्वारा ही यह प्राप्त होता है।
ਬਿਨੁ ਨਾਵੈ ਜਮ ਕੈ ਵਸਿ ਹੈ ਮਨਮੁਖਿ ਅੰਧ ਗਵਾਰਿ ॥੨॥
नामविहीन मनुष्य यमदूत के वश में रहता है और ऐसे स्वेच्छाचारी मनुष्य को अन्धा एवं मूर्ख कहा जाता है।॥ २॥
ਹਰਿ ਕੈ ਭਾਣੈ ਜਨੁ ਸੇਵਾ ਕਰੈ ਬੂਝੈ ਸਚੁ ਸੋਈ ॥
जो सेवक हरि की इच्छा मान कर सेवा करता है, वह सत्य को समझ लेता है।
ਹਰਿ ਕੈ ਭਾਣੈ ਸਾਲਾਹੀਐ ਭਾਣੈ ਮੰਨਿਐ ਸੁਖੁ ਹੋਈ ॥੩॥
हरि की इच्छा में ही उसका ध्यान करना चाहिए, क्योंकि उसकी इच्छा मानने से सुख प्राप्त होता है॥ ३॥
ਹਰਿ ਕੈ ਭਾਣੈ ਜਨਮੁ ਪਦਾਰਥੁ ਪਾਇਆ ਮਤਿ ਊਤਮ ਹੋਈ ॥
हरि की इच्छा में ही मानव-जन्म रूपी उत्तम पदार्थ मिलता है और बुद्धि भी श्रेष्ठ हो जाती है।
ਨਾਨਕ ਨਾਮੁ ਸਲਾਹਿ ਤੂੰ ਗੁਰਮੁਖਿ ਗਤਿ ਹੋਈ ॥੪॥੩੯॥੧੩॥੫੨॥
हे नानक ! तू प्रभु-नाम की स्तुति कर क्योंकि गुरुमुख बनकर ही गति प्राप्त होगी॥ ४॥ ३६ ॥ १३॥ ५२ ॥
ਆਸਾ ਮਹਲਾ ੪ ਘਰੁ ੨
राग आसा, दूसरा ताल, चौथे गुरु:
ੴ ਸਤਿਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥
ईश्वर एक है, जिसे सतगुरु की कृपा से पाया जा सकता है।
ਤੂੰ ਕਰਤਾ ਸਚਿਆਰੁ ਮੈਡਾ ਸਾਂਈ ॥
हे मालिक ! आप जगत के रचयिता हैं, आप सदैव सत्य है और
ਜੋ ਤਉ ਭਾਵੈ ਸੋਈ ਥੀਸੀ ਜੋ ਤੂੰ ਦੇਹਿ ਸੋਈ ਹਉ ਪਾਈ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
जो आपको अच्छा लगता है, केवल वही होता है। जो कुछ आप मुझे देते हो, मैं वही प्राप्त करता हूँ॥ १॥ रहाउ॥
ਸਭ ਤੇਰੀ ਤੂੰ ਸਭਨੀ ਧਿਆਇਆ ॥
यह सारी दुनिया आपकी पैदा की हुई है और सब जीव आपको ही याद करते हैं।
ਜਿਸ ਨੋ ਕ੍ਰਿਪਾ ਕਰਹਿ ਤਿਨਿ ਨਾਮ ਰਤਨੁ ਪਾਇਆ ॥
जिस पर आप दया करते हो, वह आपके नाम-रत्न को पा लेता है।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਲਾਧਾ ਮਨਮੁਖਿ ਗਵਾਇਆ ॥
गुरुमुख व्यक्ति नाम प्राप्त कर लेते हैं और स्वेच्छाचारी व्यक्ति इसे गंवा देते हैं।
ਤੁਧੁ ਆਪਿ ਵਿਛੋੜਿਆ ਆਪਿ ਮਿਲਾਇਆ ॥੧॥
सच तो यही है कि आपने स्वयं ही जीवों को अपने से अलग किया है और स्वयं ही भक्तगणों को अपने साथ मिलाया है॥ १॥
ਤੂੰ ਦਰੀਆਉ ਸਭ ਤੁਝ ਹੀ ਮਾਹਿ ॥
हे प्रभु ! आप दरिया है और सभी आप में समाए हुए हैं।
ਤੁਝ ਬਿਨੁ ਦੂਜਾ ਕੋਈ ਨਾਹਿ ॥
आपके अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं।
ਜੀਅ ਜੰਤ ਸਭਿ ਤੇਰਾ ਖੇਲੁ ॥
सृष्टि के समस्त जीव-जन्तु आपकी ही लीला है।
ਵਿਜੋਗਿ ਮਿਲਿ ਵਿਛੁੜਿਆ ਸੰਜੋਗੀ ਮੇਲੁ ॥੨॥
वियोग कर्मों के कारण मिला हुआ प्राणी बिछुड़ जाता है और संयोगवश पुन: प्रभु से मिलन प्राप्त कर लेता है॥ २॥
ਜਿਸ ਨੋ ਤੂ ਜਾਣਾਇਹਿ ਸੋਈ ਜਨੁ ਜਾਣੈ ॥
हे प्रभु ! जिस मनुष्य को आप गुरु द्वारा सुमति प्रदान करते हो वही मनुष्य आपको समझता है और
ਹਰਿ ਗੁਣ ਸਦ ਹੀ ਆਖਿ ਵਖਾਣੈ ॥
सदैव ही आपकी गुणस्तुति का वर्णन करता है।
ਜਿਨਿ ਹਰਿ ਸੇਵਿਆ ਤਿਨਿ ਸੁਖੁ ਪਾਇਆ ॥
जिस मनुष्य ने भी हरि की सेवाभक्ति की है, उसे सुख प्राप्त हुआ है।
ਸਹਜੇ ਹੀ ਹਰਿ ਨਾਮਿ ਸਮਾਇਆ ॥੩॥
वह सहज ही हरिनाम में समा गया है॥ ३॥
ਤੂ ਆਪੇ ਕਰਤਾ ਤੇਰਾ ਕੀਆ ਸਭੁ ਹੋਇ ॥
हे प्रभु ! आप स्वयं ही रचयिता हो और संसार में सबकुछ आपका किया ही होता है।
ਤੁਧੁ ਬਿਨੁ ਦੂਜਾ ਅਵਰੁ ਨ ਕੋਇ ॥
आपके अतिरिक्त दूसरा कोई बड़ा नहीं।
ਤੂ ਕਰਿ ਕਰਿ ਵੇਖਹਿ ਜਾਣਹਿ ਸੋਇ ॥
हे प्रभु ! आप ही सृष्टि की उत्पत्ति करके देखते एवं समझते हो।
ਜਨ ਨਾਨਕ ਗੁਰਮੁਖਿ ਪਰਗਟੁ ਹੋਇ ॥੪॥੧॥੫੩॥
हे नानक ! यह भेद गुरुमुख के अन्दर ही प्रकाशमान होता है॥ ४ ॥ १॥ ५३