Guru Granth Sahib Translation Project

Guru Granth Sahib Hindi Page 309

Page 309

ਓਇ ਅਗੈ ਕੁਸਟੀ ਗੁਰ ਕੇ ਫਿਟਕੇ ਜਿ ਓਸੁ ਮਿਲੈ ਤਿਸੁ ਕੁਸਟੁ ਉਠਾਹੀ ॥ गुरु के श्राप से वे समाज में कोढ़ी के समान तिरस्कृत हो जाते हैं, और जो उनके संपर्क में आते हैं, वे भी उसी अधोगति को प्राप्त होते हैं।
ਹਰਿ ਤਿਨ ਕਾ ਦਰਸਨੁ ਨਾ ਕਰਹੁ ਜੋ ਦੂਜੈ ਭਾਇ ਚਿਤੁ ਲਾਹੀ ॥ हे जिज्ञासुओ ! भगवान् के लिए उनके दर्शन भी मत करो, जो सतगुरु को त्याग कर माया के मोह में लगते हैं।
ਧੁਰਿ ਕਰਤੈ ਆਪਿ ਲਿਖਿ ਪਾਇਆ ਤਿਸੁ ਨਾਲਿ ਕਿਹੁ ਚਾਰਾ ਨਾਹੀ ॥ उनके साथ उन्हें कोई उपाय सफल नहीं होता। चूंकेि परमात्मा ने आदिकाल से ही उनके द्वारा किए कर्मो के अनुसार ऐसे द्वैतभाव के संस्कार ही लिख दिए हैं।
ਜਨ ਨਾਨਕ ਨਾਮੁ ਅਰਾਧਿ ਤੂ ਤਿਸੁ ਅਪੜਿ ਕੋ ਨ ਸਕਾਹੀ ॥ हे नानक ! तुम नाम की आराधना करो, चूंकि नाम की आराधना वाले की समानता कोई नहीं कर सकता,
ਨਾਵੈ ਕੀ ਵਡਿਆਈ ਵਡੀ ਹੈ ਨਿਤ ਸਵਾਈ ਚੜੈ ਚੜਾਹੀ ॥੨॥ नाम की महिमा महान हैं जो दिन-प्रतिदिन बढ़ती जाती है। २॥
ਮਃ ੪ ॥ श्लोक, चौथे गुरु द्वारा रचित ४॥
ਜਿ ਹੋਂਦੈ ਗੁਰੂ ਬਹਿ ਟਿਕਿਆ ਤਿਸੁ ਜਨ ਕੀ ਵਡਿਆਈ ਵਡੀ ਹੋਈ ॥ जिन्हें स्वयं गुरु अंगद देव जी ने गुरु की गद्दी पर प्रतिष्ठित किया, वे गुरु अमरदास जी महान महिमा के अधिकारी बने।
ਤਿਸੁ ਕਉ ਜਗਤੁ ਨਿਵਿਆ ਸਭੁ ਪੈਰੀ ਪਇਆ ਜਸੁ ਵਰਤਿਆ ਲੋਈ ॥ उसके समक्ष सारी दुनिया झुकती है और उसके चरण स्पर्श करती है। उसकी शोभा सारे विश्व में व्याप्त है।
ਤਿਸ ਕਉ ਖੰਡ ਬ੍ਰਹਮੰਡ ਨਮਸਕਾਰੁ ਕਰਹਿ ਜਿਸ ਕੈ ਮਸਤਕਿ ਹਥੁ ਧਰਿਆ ਗੁਰਿ ਪੂਰੈ ਸੋ ਪੂਰਾ ਹੋਈ ॥ जिस मस्तक पर पूर्ण गुरु ने हाथ रखा हो, वह समस्त गुणों में पूर्ण हो गया और समस्त खण्डों - ब्रह्माण्डों के जीव उसे प्रणाम करते हैं।
ਗੁਰ ਕੀ ਵਡਿਆਈ ਨਿਤ ਚੜੈ ਸਵਾਈ ਅਪੜਿ ਕੋ ਨ ਸਕੋਈ ॥ गुरु की महिमा दिनों-दिन बढ़ती है, कोई मनुष्य उसकी समानता नहीं कर सकता,
ਜਨੁ ਨਾਨਕੁ ਹਰਿ ਕਰਤੈ ਆਪਿ ਬਹਿ ਟਿਕਿਆ ਆਪੇ ਪੈਜ ਰਖੈ ਪ੍ਰਭੁ ਸੋਈ ॥੩॥ क्योंकि अपने सेवक नानक को सृजनहार प्रभु ने स्वयं मान दिया है इसलिए ईश्वर स्वयं ही उसकी लाज रखता है॥ ३ ॥
ਪਉੜੀ ॥ पौड़ी ॥
ਕਾਇਆ ਕੋਟੁ ਅਪਾਰੁ ਹੈ ਅੰਦਰਿ ਹਟਨਾਲੇ ॥ मानव शरीर एक मजबूत किले की तरह है, जिसमें इंद्रियाँ दुकानों की तरह हैं -जो विषय-वासनाओं की ओर आकर्षित करती हैं।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਸਉਦਾ ਜੋ ਕਰੇ ਹਰਿ ਵਸਤੁ ਸਮਾਲੇ ॥ जो गुरमुख इन्द्रियों रूपी बाजार में से नाम रूपी सौदा खरीदते हैं, वे भगवान् की नाम रूपी वस्तु संभाल लेते हैं।
ਨਾਮੁ ਨਿਧਾਨੁ ਹਰਿ ਵਣਜੀਐ ਹੀਰੇ ਪਰਵਾਲੇ ॥ इस संसार में आकर हमें परमात्मा के नाम का वह खजाना अर्जित करना चाहिए, जो रत्नों, माणिकों और हीरों से भी अधिक मूल्यवान है।
ਵਿਣੁ ਕਾਇਆ ਜਿ ਹੋਰ ਥੈ ਧਨੁ ਖੋਜਦੇ ਸੇ ਮੂੜ ਬੇਤਾਲੇ ॥ जो व्यक्ति इस सौदे को काया के बिना किसी दूसरे स्थान पर खोजते हैं, वे मूर्ख हैं और मनुष्य काया में आए हुए भूत-प्रेत हैं।
ਸੇ ਉਝੜਿ ਭਰਮਿ ਭਵਾਈਅਹਿ ਜਿਉ ਝਾੜ ਮਿਰਗੁ ਭਾਲੇ ॥੧੫॥ जैसे मृग कस्तूरी की सुगन्धि हेतु झाड़ियों को खोजता फिरता है, वैसे ही ऐसे मनुष्य भ्रम में फँसे हुए वनों में भटकते रहते हैं।॥ १५॥
ਸਲੋਕ ਮਃ ੪ ॥ श्लोक, चौथे गुरु द्वारा रचित४ ॥
ਜੋ ਨਿੰਦਾ ਕਰੇ ਸਤਿਗੁਰ ਪੂਰੇ ਕੀ ਸੁ ਅਉਖਾ ਜਗ ਮਹਿ ਹੋਇਆ ॥ जो व्यक्ति पूर्ण सतगुरु की निन्दा करता है, वह दुनिया में हमेशा दुःखी रहता है।
ਨਰਕ ਘੋਰੁ ਦੁਖ ਖੂਹੁ ਹੈ ਓਥੈ ਪਕੜਿ ਓਹੁ ਢੋਇਆ ॥ दुःखों का कुएँ के रूप में जो घोर नरक है, उस निंदक को पकड़कर उसमें डाला जाता है,
ਕੂਕ ਪੁਕਾਰ ਕੋ ਨ ਸੁਣੇ ਓਹੁ ਅਉਖਾ ਹੋਇ ਹੋਇ ਰੋਇਆ ॥ जहाँ उसकी विनती कोई नहीं सुनता और वह दुःखी होकर रोता है।
ਓਨਿ ਹਲਤੁ ਪਲਤੁ ਸਭੁ ਗਵਾਇਆ ਲਾਹਾ ਮੂਲੁ ਸਭੁ ਖੋਇਆ ॥ ऐसा व्यक्ति लोक-परलोक, नाम-रूपी लाभ एवं मानव जन्म रूपी मूल सब कुछ गंवा देता है।
ਓਹੁ ਤੇਲੀ ਸੰਦਾ ਬਲਦੁ ਕਰਿ ਨਿਤ ਭਲਕੇ ਉਠਿ ਪ੍ਰਭਿ ਜੋਇਆ ॥ अंत में ऐसा व्यक्ति तेली का बैल बनकर प्रतिदिन नए सूर्य की भाँति ईश्वर के आदेश में लगाया जाता है।
ਹਰਿ ਵੇਖੈ ਸੁਣੈ ਨਿਤ ਸਭੁ ਕਿਛੁ ਤਿਦੂ ਕਿਛੁ ਗੁਝਾ ਨ ਹੋਇਆ ॥ प्रभु सदैव (यह) सब कुछ देखता एवं सुनता है, उससे कोई बात छिपी नहीं रह सकती।
ਜੈਸਾ ਬੀਜੇ ਸੋ ਲੁਣੈ ਜੇਹਾ ਪੁਰਬਿ ਕਿਨੈ ਬੋਇਆ ॥ जैसा बीज किसी जीव ने आदि से बोया है और जैसा वर्तमान में बो रहा है, वैसा ही फल खाता है।
ਜਿਸੁ ਕ੍ਰਿਪਾ ਕਰੇ ਪ੍ਰਭੁ ਆਪਣੀ ਤਿਸੁ ਸਤਿਗੁਰ ਕੇ ਚਰਣ ਧੋਇਆ ॥ जिस प्राणी पर ईश्वर अपनी कृपा-दृष्टि करते हैं, वह सतगुरु के चरण धोता है।
ਗੁਰ ਸਤਿਗੁਰ ਪਿਛੈ ਤਰਿ ਗਇਆ ਜਿਉ ਲੋਹਾ ਕਾਠ ਸੰਗੋਇਆ ॥ जैसे लोहा काठ के साथ तैरता है, उसी प्रकार सतगुरु के दिशा-निर्देश पर चलकर भवसागर से पार हो जाता है।
ਜਨ ਨਾਨਕ ਨਾਮੁ ਧਿਆਇ ਤੂ ਜਪਿ ਹਰਿ ਹਰਿ ਨਾਮਿ ਸੁਖੁ ਹੋਇਆ ॥੧॥ हे नानक ! तुम नाम की आराधना करो चूंकेि हरि-परमेश्वर के नाम का जाप करने से ही सुख उपलब्ध होता है॥ १॥
ਮਃ ੪ ॥ श्लोक, चौथे गुरु द्वारा रचित ४॥
ਵਡਭਾਗੀਆ ਸੋਹਾਗਣੀ ਜਿਨਾ ਗੁਰਮੁਖਿ ਮਿਲਿਆ ਹਰਿ ਰਾਇ ॥ वें जीव-स्त्रियों बड़ी भाग्यवान एवं सुहागिन हैं, जिन्हें गुरु के माध्यम से हरि-प्रभु मिल गया है।
ਅੰਤਰ ਜੋਤਿ ਪ੍ਰਗਾਸੀਆ ਨਾਨਕ ਨਾਮਿ ਸਮਾਇ ॥੨॥ हे नानक ! ईश्वर की ज्योति ने उनका हृदय रोशन कर दिया है और वे उसके नाम में लीन हो गई हैं। २ ॥
ਪਉੜੀ ॥ पौड़ी ॥
ਇਹੁ ਸਰੀਰੁ ਸਭੁ ਧਰਮੁ ਹੈ ਜਿਸੁ ਅੰਦਰਿ ਸਚੇ ਕੀ ਵਿਚਿ ਜੋਤਿ ॥ यह सारा शरीर धर्म है, इसमें सत्य (प्रभु) की ज्योति विद्यमान है।
ਗੁਹਜ ਰਤਨ ਵਿਚਿ ਲੁਕਿ ਰਹੇ ਕੋਈ ਗੁਰਮੁਖਿ ਸੇਵਕੁ ਕਢੈ ਖੋਤਿ ॥ इस (शरीर) में दिव्य रत्न छिपे हैं। कोई विरला गुरमुख सेवक ही इन्हें खोजकर निकालता है।
ਸਭੁ ਆਤਮ ਰਾਮੁ ਪਛਾਣਿਆ ਤਾਂ ਇਕੁ ਰਵਿਆ ਇਕੋ ਓਤਿ ਪੋਤਿ ॥ जब प्राणी राम को अनुभव करता है तो वह एक ईश्वर को सर्वव्यापक विद्यमान हुआ ऐसे देखता है जैसे ताने-बाने में एक धागा होता है।
ਇਕੁ ਦੇਖਿਆ ਇਕੁ ਮੰਨਿਆ ਇਕੋ ਸੁਣਿਆ ਸ੍ਰਵਣ ਸਰੋਤਿ ॥ वह एक ईश्वर को ही देखता है, उस पर ही आस्था रखता है और अपने कानों से उसकी बातें सुनता है।


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