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ਕਰਨ ਕਰਾਵਨ ਸਭੁ ਕਿਛੁ ਏਕੈ ॥
एक परमेश्वर सब कुछ करता और जीवों से करवाता है।
ਆਪੇ ਬੁਧਿ ਬੀਚਾਰਿ ਬਿਬੇਕੈ ॥
वह स्वयं ही बुद्धि, विचार एवं विवेक है।
ਦੂਰਿ ਨ ਨੇਰੈ ਸਭ ਕੈ ਸੰਗਾ ॥
वह कहीं दूर नहीं अपितु सबके निकट एवं पास ही है।
ਸਚੁ ਸਾਲਾਹਣੁ ਨਾਨਕ ਹਰਿ ਰੰਗਾ ॥੮॥੧॥
हे नानक ! सत्यस्वरूप परमेश्वर की प्रेमपूर्वकं प्रशंसा कर ॥ ८ ॥ १॥
ਗਉੜੀ ਮਹਲਾ ੫ ॥
गउड़ी महला ५ ॥
ਗੁਰ ਸੇਵਾ ਤੇ ਨਾਮੇ ਲਾਗਾ ॥
गुरु की श्रद्धापूर्वक सेवा करने से ही मनुष्य नाम के साथ लग जाता है।
ਤਿਸ ਕਉ ਮਿਲਿਆ ਜਿਸੁ ਮਸਤਕਿ ਭਾਗਾ ॥
जिसके मस्तक पर भाग्यरेखाएँ विद्यमान हों केवल वहीं व्यक्ति नाम को प्राप्त करता है।
ਤਿਸ ਕੈ ਹਿਰਦੈ ਰਵਿਆ ਸੋਇ ॥
वह प्रभु उसके हृदय में निवास करता है।
ਮਨੁ ਤਨੁ ਸੀਤਲੁ ਨਿਹਚਲੁ ਹੋਇ ॥੧॥
(प्रभु के निवास से) मनुष्य का मन एवं तन शीतल तथा स्थिर हो जाते हैं।॥ १॥
ਐਸਾ ਕੀਰਤਨੁ ਕਰਿ ਮਨ ਮੇਰੇ ॥
हे मेरे मन ! ईश्वर का ऐसा भजन गायन कर,
ਈਹਾ ਊਹਾ ਜੋ ਕਾਮਿ ਤੇਰੈ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
जो लोक तथा परलोक में तेरे काम आएगा ॥ १॥ रहाउ ॥
ਜਾਸੁ ਜਪਤ ਭਉ ਅਪਦਾ ਜਾਇ ॥
जिसकी महिमा-स्तुति करने से भय एवं विपदा दूर हो जाते हैं
ਧਾਵਤ ਮਨੂਆ ਆਵੈ ਠਾਇ ॥
और भटकता हुआ मन स्थिर हो जाता है।
ਜਾਸੁ ਜਪਤ ਫਿਰਿ ਦੂਖੁ ਨ ਲਾਗੈ ॥
जिसकी महिमा-स्तुति करने से पीड़ा दोबारा नहीं आती।
ਜਾਸੁ ਜਪਤ ਇਹ ਹਉਮੈ ਭਾਗੈ ॥੨॥
जिसकी महिमा-स्तुति करने से यह अहंकार भाग जाता है॥ २॥
ਜਾਸੁ ਜਪਤ ਵਸਿ ਆਵਹਿ ਪੰਚਾ ॥
जिसकी महिमा-स्तुति करने से पाँच विकार (काम, क्रोध, मोह, लोभ, अहंकार) वश में आ जाते हैं।
ਜਾਸੁ ਜਪਤ ਰਿਦੈ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਸੰਚਾ ॥
जिसकी महिमा-स्तुति करने से हरि-रस हृदय में संचित हो जाता है।
ਜਾਸੁ ਜਪਤ ਇਹ ਤ੍ਰਿਸਨਾ ਬੁਝੈ ॥
जिसकी महिमा-स्तुति करने से यह तृष्णा मिट जाती है।
ਜਾਸੁ ਜਪਤ ਹਰਿ ਦਰਗਹ ਸਿਝੈ ॥੩॥
जिसकी महिमा-स्तुति करने से प्रभु के दरबार में मनुष्य स्वीकार हो जाता है॥ ३॥
ਜਾਸੁ ਜਪਤ ਕੋਟਿ ਮਿਟਹਿ ਅਪਰਾਧ ॥
जिसकी महिमा-स्तुति करने से करोड़ों पाप नष्ट हो जाते हैं।
ਜਾਸੁ ਜਪਤ ਹਰਿ ਹੋਵਹਿ ਸਾਧ ॥
जिसकी महिमा-स्तुति करने से मनुष्य हरि का संत बन जाता है।
ਜਾਸੁ ਜਪਤ ਮਨੁ ਸੀਤਲੁ ਹੋਵੈ ॥
जिसकी महिमा-स्तुति करने से मन शीतल हो जाता है।
ਜਾਸੁ ਜਪਤ ਮਲੁ ਸਗਲੀ ਖੋਵੈ ॥੪॥
जिसकी महिमा-स्तुति करने से तमाम (मोह-माया की) मैल साफ हो जाती है॥ ४ ॥
ਜਾਸੁ ਜਪਤ ਰਤਨੁ ਹਰਿ ਮਿਲੈ ॥
जिसकी महिमा-स्तुति करने से हरि रत्न प्राप्त हो जाता है।
ਬਹੁਰਿ ਨ ਛੋਡੈ ਹਰਿ ਸੰਗਿ ਹਿਲੈ ॥
मनुष्य दोबारा प्रभु को नहीं छोड़ता और उसके साथ घुलमिल जाता है।
ਜਾਸੁ ਜਪਤ ਕਈ ਬੈਕੁੰਠ ਵਾਸੁ ॥
जिसकी महिमा-स्तुति करने से अधिकतर स्वर्ग में निवास पा लेते हैं।
ਜਾਸੁ ਜਪਤ ਸੁਖ ਸਹਜਿ ਨਿਵਾਸੁ ॥੫॥
जिसका भजन करने से मनुष्य सहज ही आत्मिक सुख में निवास करता है। ५॥
ਜਾਸੁ ਜਪਤ ਇਹ ਅਗਨਿ ਨ ਪੋਹਤ ॥
जिसकी महिमा-स्तुति करने से यह अग्नि प्रभावित नहीं करती।
ਜਾਸੁ ਜਪਤ ਇਹੁ ਕਾਲੁ ਨ ਜੋਹਤ ॥
जिसका भजन करने से यह मृत्यु दृष्टि नहीं करती।
ਜਾਸੁ ਜਪਤ ਤੇਰਾ ਨਿਰਮਲ ਮਾਥਾ ॥
जिसकी महिमा-स्तुति करने से तेरा मस्तक निर्मल हो जाएगा।
ਜਾਸੁ ਜਪਤ ਸਗਲਾ ਦੁਖੁ ਲਾਥਾ ॥੬॥
जिसकी महिमा-स्तुति करने से तमाम दुःख- क्लेश दूर हो जाता है॥ ६॥
ਜਾਸੁ ਜਪਤ ਮੁਸਕਲੁ ਕਛੂ ਨ ਬਨੈ ॥
जिसकी महिमा-स्तुति करने से मनुष्य पर कोई विपदा पेश नहीं आती।
ਜਾਸੁ ਜਪਤ ਸੁਣਿ ਅਨਹਤ ਧੁਨੈ ॥
जिसकी महिमा-स्तुति करने से मनुष्य अनहद ध्वनि श्रवण करता है।
ਜਾਸੁ ਜਪਤ ਇਹ ਨਿਰਮਲ ਸੋਇ ॥
जिसकी महिमा-स्तुति करने से प्राणी का जीवन पवित्र हो जाता है।
ਜਾਸੁ ਜਪਤ ਕਮਲੁ ਸੀਧਾ ਹੋਇ ॥੭॥
जिसकी महिमा-स्तुति करने से हृदय कमल सीधा (सरल) हो जाता है॥ ७ ॥
ਗੁਰਿ ਸੁਭ ਦ੍ਰਿਸਟਿ ਸਭ ਊਪਰਿ ਕਰੀ ॥
गुरु जी ने अपनी शुभ दृष्टि उन सब पर की है,"
ਜਿਸ ਕੈ ਹਿਰਦੈ ਮੰਤ੍ਰੁ ਦੇ ਹਰੀ ॥
जिनके हृदय में ईश्वर ने अपना नाम (मंत्र) प्रदान किया है।
ਅਖੰਡ ਕੀਰਤਨੁ ਤਿਨਿ ਭੋਜਨੁ ਚੂਰਾ ॥
वह प्रभु के अखंड कीर्तन को अपना आहार व सुन्दर भोजन मानते हैं
ਕਹੁ ਨਾਨਕ ਜਿਸੁ ਸਤਿਗੁਰੁ ਪੂਰਾ ॥੮॥੨॥
हे नानक ! जिनके पूर्ण सतिगुरु जी मार्गदर्शक हैं। ॥८॥२॥
ਗਉੜੀ ਮਹਲਾ ੫ ॥
गउड़ी महला ५ ॥
ਗੁਰ ਕਾ ਸਬਦੁ ਰਿਦ ਅੰਤਰਿ ਧਾਰੈ ॥
जो व्यक्ति गुरु के शब्द को अपने हृदय में धारण कर लेता है,
ਪੰਚ ਜਨਾ ਸਿਉ ਸੰਗੁ ਨਿਵਾਰੈ ॥
वह पाँच विकारों-काम, क्रोध, लोभ, मोह एवं अहंकार से अपना संबंध तोड़ लेता है
ਦਸ ਇੰਦ੍ਰੀ ਕਰਿ ਰਾਖੈ ਵਾਸਿ ॥
और दसों इन्द्रियों (पाँच ज्ञान व पाँच कर्म) को अपने वश में कर लेता है।
ਤਾ ਕੈ ਆਤਮੈ ਹੋਇ ਪਰਗਾਸੁ ॥੧॥
उसके हृदय में ज्ञान का प्रकाश हो जाता है ॥१॥
ਐਸੀ ਦ੍ਰਿੜਤਾ ਤਾ ਕੈ ਹੋਇ ॥
केवल उसे ही ऐसा आत्मबल प्राप्त होता है,
ਜਾ ਕਉ ਦਇਆ ਮਇਆ ਪ੍ਰਭ ਸੋਇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
जिस इन्सान पर प्रभु की दया एवं कृपा होती है॥ १॥ रहाउ ॥
ਸਾਜਨੁ ਦੁਸਟੁ ਜਾ ਕੈ ਏਕ ਸਮਾਨੈ ॥
ऐसे इन्सान के लिए मित्र एवं शत्रु एक समान हैं।
ਜੇਤਾ ਬੋਲਣੁ ਤੇਤਾ ਗਿਆਨੈ ॥
जो कुछ वह बोलता है, वह ज्ञान ही कहता है।
ਜੇਤਾ ਸੁਨਣਾ ਤੇਤਾ ਨਾਮੁ ॥
जो कुछ वह सुनता है, वह प्रभु का नाम ही सुनता रहता है।
ਜੇਤਾ ਪੇਖਨੁ ਤੇਤਾ ਧਿਆਨੁ ॥੨॥
जो कुछ वह दृष्टिगोचर करता है, उस सब में ईश्वर की अनुभूति है॥ २॥
ਸਹਜੇ ਜਾਗਣੁ ਸਹਜੇ ਸੋਇ ॥
वह सुख में जागता है और सुख में ही सोता है।
ਸਹਜੇ ਹੋਤਾ ਜਾਇ ਸੁ ਹੋਇ ॥
जो कुछ प्राकृतिक होना है, वह उसके होने पर प्रसन्न रहता है।
ਸਹਜਿ ਬੈਰਾਗੁ ਸਹਜੇ ਹੀ ਹਸਨਾ ॥
सहज ही वह वैराग्यवान होता है और सहज ही मुस्कराता है।
ਸਹਜੇ ਚੂਪ ਸਹਜੇ ਹੀ ਜਪਨਾ ॥੩॥
सुख में ही वह खामोश रहता है और सुख में ही प्रभु के नाम का जाप करता है॥ ३॥
ਸਹਜੇ ਭੋਜਨੁ ਸਹਜੇ ਭਾਉ ॥
सहज ही वह भोजन करता है और सहज ही वह प्रभु से प्रेम करता है।
ਸਹਜੇ ਮਿਟਿਓ ਸਗਲ ਦੁਰਾਉ ॥
उसका अज्ञानता का पर्दा सहज ही सब निवृत्त हो जाता है।
ਸਹਜੇ ਹੋਆ ਸਾਧੂ ਸੰਗੁ ॥
वह सहज ही संतों की संगति में मिल जाता है।
ਸਹਜਿ ਮਿਲਿਓ ਪਾਰਬ੍ਰਹਮੁ ਨਿਸੰਗੁ ॥੪॥
सहज ही उसे पारब्रह्म प्रभु प्रत्यक्ष रूप से मिल जाता है। ४ ॥
ਸਹਜੇ ਗ੍ਰਿਹ ਮਹਿ ਸਹਜਿ ਉਦਾਸੀ ॥
आत्मिक स्थिरता में वह घर में रहता है और आत्मिक स्थिरता में ही वह निर्लिप्त रहता है।