Guru Granth Sahib Translation Project

Guru Granth Sahib Hindi Page 221

Page 221

ਗੁਰ ਕੀ ਮਤਿ ਜੀਇ ਆਈ ਕਾਰਿ ॥੧॥ गुरु जी का उपदेश ही मेरे मन के लिए लाभदायक (सिद्धियों) हैं।॥ १॥
ਇਨ ਬਿਧਿ ਰਾਮ ਰਮਤ ਮਨੁ ਮਾਨਿਆ ॥ इस विधि से राम के नाम का जाप करने से मेरा मन संतुष्ट हो गया है।
ਗਿਆਨ ਅੰਜਨੁ ਗੁਰ ਸਬਦਿ ਪਛਾਨਿਆ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ ज्ञान के सुरमे को मैंने गुरु के शब्द द्वारा पहचान लिया है॥ १॥ रहाउ॥
ਇਕੁ ਸੁਖੁ ਮਾਨਿਆ ਸਹਜਿ ਮਿਲਾਇਆ ॥ मैं अब एक सहज सुख को भोगता हूँ और प्रभु में लीन हो गया हूँ।
ਨਿਰਮਲ ਬਾਣੀ ਭਰਮੁ ਚੁਕਾਇਆ ॥ पवित्र वाणी द्वारा मेरी शंका निवृत हो गई है।
ਲਾਲ ਭਏ ਸੂਹਾ ਰੰਗੁ ਮਾਇਆ ॥ मोहिनी के लाल रंग के स्थान पर मैंने ईश्वर के नाम का गहरा लाल रंग धारण कर लिया है।
ਨਦਰਿ ਭਈ ਬਿਖੁ ਠਾਕਿ ਰਹਾਇਆ ॥੨॥ जब प्रभु अपनी कृपा दृष्टि धारण करता है तो बुराई का विष नष्ट हो जाता है॥ २॥
ਉਲਟ ਭਈ ਜੀਵਤ ਮਰਿ ਜਾਗਿਆ ॥ मेरी वृति मोह-माया से पृथक हो गई है, सांसारिक कर्म करते हुए ही मेरा मन मर गया है और मैं आत्मिक तौर पर जागृत हो गया हूँ।
ਸਬਦਿ ਰਵੇ ਮਨੁ ਹਰਿ ਸਿਉ ਲਾਗਿਆ ॥ नाम का उच्चारण करने से मेरा मन प्रभु के साथ जुड़ गया है।
ਰਸੁ ਸੰਗ੍ਰਹਿ ਬਿਖੁ ਪਰਹਰਿ ਤਿਆਗਿਆ ॥ माया के विष को त्याग कर मैंने प्रभु के अमृतरस का संग्रह किया है।
ਭਾਇ ਬਸੇ ਜਮ ਕਾ ਭਉ ਭਾਗਿਆ ॥੩॥ प्रभु के प्रेम में वास करने से मेरा मृत्यु का भय भाग गया है॥ ३॥
ਸਾਦ ਰਹੇ ਬਾਦੰ ਅਹੰਕਾਰਾ ॥ मेरे सांसारिक रस, विवाद एवं अहंकार मिट गए हैं।
ਚਿਤੁ ਹਰਿ ਸਿਉ ਰਾਤਾ ਹੁਕਮਿ ਅਪਾਰਾ ॥ अनंत ईश्वर के हुक्म द्वारा मेरा मन ईश्वर के साथ मग्न हो गया है।
ਜਾਤਿ ਰਹੇ ਪਤਿ ਕੇ ਆਚਾਰਾ ॥ मेरे लोक व्यवहार के कार्य जाते रहे हैं।
ਦ੍ਰਿਸਟਿ ਭਈ ਸੁਖੁ ਆਤਮ ਧਾਰਾ ॥੪॥ जब ईश्वर ने मुझ पर कृपा-दृष्टि की तो मैंने अलौकिक सुख को अपने हृदय में बसा लिया॥ ४॥
ਤੁਝ ਬਿਨੁ ਕੋਇ ਨ ਦੇਖਉ ਮੀਤੁ ॥ हे नाथ ! तेरे बिना मैं अपना मित्र किसी को नहीं समझता।
ਕਿਸੁ ਸੇਵਉ ਕਿਸੁ ਦੇਵਉ ਚੀਤੁ ॥ किसी दूसरे की मैं क्यों सेवा करूँ और किस को अपनी आत्मा समर्पित करूं ?
ਕਿਸੁ ਪੂਛਉ ਕਿਸੁ ਲਾਗਉ ਪਾਇ ॥ मैं किससे पूछू और किसके चरण स्पर्श करूँ ?
ਕਿਸੁ ਉਪਦੇਸਿ ਰਹਾ ਲਿਵ ਲਾਇ ॥੫॥ किसके उपदेश द्वारा मैं प्रभु के प्रेम में लीन रह सकता हूँ?॥ ५॥
ਗੁਰ ਸੇਵੀ ਗੁਰ ਲਾਗਉ ਪਾਇ ॥ मैं गुरु की श्रद्धापूर्वक सेवा करता हूँ और गुरु के ही चरण स्पर्श करता हूँ।
ਭਗਤਿ ਕਰੀ ਰਾਚਉ ਹਰਿ ਨਾਇ ॥ मैं प्रभु की भक्ति करता हुआ उसके नाम में समाया हुआ हूँ।
ਸਿਖਿਆ ਦੀਖਿਆ ਭੋਜਨ ਭਾਉ ॥ प्रभु की प्रीति मेरे लिए उपदेश, प्रभु दीक्षा एवं भोजन है।
ਹੁਕਮਿ ਸੰਜੋਗੀ ਨਿਜ ਘਰਿ ਜਾਉ ॥੬॥ प्रभु के हुक्म से जुड़कर मैंने अपने आत्मस्वरूप में प्रवेश कर लिया है॥ ६॥
ਗਰਬ ਗਤੰ ਸੁਖ ਆਤਮ ਧਿਆਨਾ ॥ अहंकार की निवृति द्वारा आत्मा को सुख एवं ध्यान प्राप्त हो जाते हैं।
ਜੋਤਿ ਭਈ ਜੋਤੀ ਮਾਹਿ ਸਮਾਨਾ ॥ ईश्वरीय ज्योत उदय हो गई है और मेरे प्राण परम ज्योती में लीन हो गए हैं।
ਲਿਖਤੁ ਮਿਟੈ ਨਹੀ ਸਬਦੁ ਨੀਸਾਨਾ ॥ अनन्त लिखित मिटाई नहीं जा सकती और मेने प्रभु के नाम की मोहर प्राप्त कर ली है।
ਕਰਤਾ ਕਰਣਾ ਕਰਤਾ ਜਾਨਾ ॥੭॥ मैंने सृजनहार प्रभु को ही कर्तार एवं रचयिता जाना है। ७॥
ਨਹ ਪੰਡਿਤੁ ਨਹ ਚਤੁਰੁ ਸਿਆਨਾ ॥ अपने आप मनुष्य न विद्वान, चतुर अथवा बुद्धिमान है,
ਨਹ ਭੂਲੋ ਨਹ ਭਰਮਿ ਭੁਲਾਨਾ ॥ न ही मार्ग से भटका हुआ, न ही भ्रम का गुमराह किया हुआ है।
ਕਥਉ ਨ ਕਥਨੀ ਹੁਕਮੁ ਪਛਾਨਾ ॥ मैं व्यर्थ बातें नहीं करता, परन्तु हरि के हुक्म को पहचानता हूँ।
ਨਾਨਕ ਗੁਰਮਤਿ ਸਹਜਿ ਸਮਾਨਾ ॥੮॥੧॥ हे नानक ! गुरु के उपदेश द्वारा वह प्रभु में लीन हो गया है॥ ८॥ १॥
ਗਉੜੀ ਗੁਆਰੇਰੀ ਮਹਲਾ ੧ ॥ गउड़ी गुआरेरी महला १ ॥
ਮਨੁ ਕੁੰਚਰੁ ਕਾਇਆ ਉਦਿਆਨੈ ॥ काया रूपी उद्यान में मन रूपी एक हाथी है।
ਗੁਰੁ ਅੰਕਸੁ ਸਚੁ ਸਬਦੁ ਨੀਸਾਨੈ ॥ गुरु जी अंकुश है, जब हाथी पर सत्यनाम का चिन्ह पड़ जाता है तो
ਰਾਜ ਦੁਆਰੈ ਸੋਭ ਸੁ ਮਾਨੈ ॥੧॥ यह प्रभु के दरबार में मान सन्मान प्राप्त करता है॥ १॥
ਚਤੁਰਾਈ ਨਹ ਚੀਨਿਆ ਜਾਇ ॥ किसी चतुराई से परमेश्वर का बोध नहीं हो सकता।
ਬਿਨੁ ਮਾਰੇ ਕਿਉ ਕੀਮਤਿ ਪਾਇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ मन पर विजय पाने के बिना परमेश्वर का मूल्य किस तरह पाया जा सकता है॥ १॥ रहाउ॥
ਘਰ ਮਹਿ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਤਸਕਰੁ ਲੇਈ ॥ नाम अमृत मनुष्य के हृदय घर में ही विद्यमान है, जिसे चोर लिए जा रहे हैं।
ਨੰਨਾਕਾਰੁ ਨ ਕੋਇ ਕਰੇਈ ॥ कोई भी उनको मना नहीं करता।
ਰਾਖੈ ਆਪਿ ਵਡਿਆਈ ਦੇਈ ॥੨॥ यदि मनुष्य अमृत की रक्षा करे तो ईश्वर स्वयं उसको सम्मान प्रदान करता है॥ २॥
ਨੀਲ ਅਨੀਲ ਅਗਨਿ ਇਕ ਠਾਈ ॥ हजारों, अरबों एवं असंख्य इच्छाओं की अग्नियां हृदय में विद्यमान हैं,
ਜਲਿ ਨਿਵਰੀ ਗੁਰਿ ਬੂਝ ਬੁਝਾਈ ॥ गुरु जी के विदित किए हुए ज्ञान रूपी जल से वह बुझ जाती हैं।
ਮਨੁ ਦੇ ਲੀਆ ਰਹਸਿ ਗੁਣ ਗਾਈ ॥੩॥ अपनी आत्मा अर्पित करके मैंने ज्ञान प्राप्त किया है और अब मैं प्रसन्नतापूर्वक ईश्वर का यश गायन करता हूँ॥ ३॥
ਜੈਸਾ ਘਰਿ ਬਾਹਰਿ ਸੋ ਤੈਸਾ ॥ जैसे प्रभु हृदय-घर में है, वैसे ही वह बाहर है।
ਬੈਸਿ ਗੁਫਾ ਮਹਿ ਆਖਉ ਕੈਸਾ ॥ गुफा में बैठकर मैं उसको किस तरह वर्णन कर सकता हूँ।
ਸਾਗਰਿ ਡੂਗਰਿ ਨਿਰਭਉ ਐਸਾ ॥੪॥ निडर प्रभु सागरों एवं पहाड़ों में वैसा ही हैil ४॥
ਮੂਏ ਕਉ ਕਹੁ ਮਾਰੇ ਕਉਨੁ ॥ बताइए, उसको कौन मार सकता है, जो आगे ही मृत है?
ਨਿਡਰੇ ਕਉ ਕੈਸਾ ਡਰੁ ਕਵਨੁ ॥ कौन-सा भय, एवं कौन-सा पुरुष निडर को डरा सकता है।
ਸਬਦਿ ਪਛਾਨੈ ਤੀਨੇ ਭਉਨ ॥੫॥ वह तीनों ही लोकों में प्रभु को पहचानता है॥ ५ ॥
ਜਿਨਿ ਕਹਿਆ ਤਿਨਿ ਕਹਨੁ ਵਖਾਨਿਆ ॥ जो केवल कहता ही है, वह केवल एक प्रसंग ही वर्णन करता है।
ਜਿਨਿ ਬੂਝਿਆ ਤਿਨਿ ਸਹਜਿ ਪਛਾਨਿਆ ॥ जो वास्तविक समझता है, वह प्रभु को अनुभव कर लेता है।
ਦੇਖਿ ਬੀਚਾਰਿ ਮੇਰਾ ਮਨੁ ਮਾਨਿਆ ॥੬॥ वास्तविकता को देखने एवं सोच-विचार करने से मेरा मन प्रभु के साथ मिल गया है॥ ६॥
ਕੀਰਤਿ ਸੂਰਤਿ ਮੁਕਤਿ ਇਕ ਨਾਈ ॥ शोभा, सौन्दर्य एवं मुक्ति एक नाम में है।
ਤਹੀ ਨਿਰੰਜਨੁ ਰਹਿਆ ਸਮਾਈ ॥ उस नाम में ही निरंजन परमात्मा लीन रहता है।
ਨਿਜ ਘਰਿ ਬਿਆਪਿ ਰਹਿਆ ਨਿਜ ਠਾਈ ॥੭॥ प्रभु अपने आत्म-स्वरूप एवं अपने स्थान नाम में निवास करता है॥ ७ ॥
ਉਸਤਤਿ ਕਰਹਿ ਕੇਤੇ ਮੁਨਿ ਪ੍ਰੀਤਿ ॥ अनेक मुनिजन प्रेमपूर्वक उसकी प्रशंसा करते हैं।


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