Guru Granth Sahib Translation Project

Guru Granth Sahib Hindi Page 1346

Page 1346

ਪ੍ਰਭਾਤੀ ਮਹਲਾ ੩ ਬਿਭਾਸ प्रभाती महला ३ बिभास ईश्वर के भय में रहना ही खाना-पीना एवं सुखमय है।
ੴ ਸਤਿਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ हरि-भक्त सत्संगत में संसार-सागर से मुक्त हो जाता है।
ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਵੇਖੁ ਤੂ ਹਰਿ ਮੰਦਰੁ ਤੇਰੈ ਨਾਲਿ ॥ गुर परसादी वेखु तू हरि मंदरु तेरै नालि ॥ वह सत्य बोलता है और प्रेम की भाषा ही बोलता रहता है।
ਹਰਿ ਮੰਦਰੁ ਸਬਦੇ ਖੋਜੀਐ ਹਰਿ ਨਾਮੋ ਲੇਹੁ ਸਮ੍ਹ੍ਹਾਲਿ ॥੧॥ हरि मंदरु सबदे खोजीऐ हरि नामो लेहु सम्हालि ॥१॥ गुरु का उपदेश ही उसके लिए उत्तम कर्म है॥ ७॥
ਮਨ ਮੇਰੇ ਸਬਦਿ ਰਪੈ ਰੰਗੁ ਹੋਇ ॥ मन मेरे सबदि रपै रंगु होइ ॥ जो व्यक्ति ईश्वर के यशोगान को अपना कर्म-धर्म, पूजा-पाठ एवं प्रतिष्ठा मानता है,
ਸਚੀ ਭਗਤਿ ਸਚਾ ਹਰਿ ਮੰਦਰੁ ਪ੍ਰਗਟੀ ਸਾਚੀ ਸੋਇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ सची भगति सचा हरि मंदरु प्रगटी साची सोइ ॥१॥ रहाउ ॥ वह काम-क्रोध को ज्ञानाग्नि में जला देता है।
ਹਰਿ ਮੰਦਰੁ ਏਹੁ ਸਰੀਰੁ ਹੈ ਗਿਆਨਿ ਰਤਨਿ ਪਰਗਟੁ ਹੋਇ ॥ हरि मंदरु एहु सरीरु है गिआनि रतनि परगटु होइ ॥ हरिनाम रस से मन आनंदित हो जाता है और
ਮਨਮੁਖ ਮੂਲੁ ਨ ਜਾਣਨੀ ਮਾਣਸਿ ਹਰਿ ਮੰਦਰੁ ਨ ਹੋਇ ॥੨॥ मनमुख मूलु न जाणनी माणसि हरि मंदरु न होइ ॥२॥ गुरु नानक का कथन है कि अन्य कोई नहीं रहता॥ ८॥ ५॥
ਹਰਿ ਮੰਦਰੁ ਹਰਿ ਜੀਉ ਸਾਜਿਆ ਰਖਿਆ ਹੁਕਮਿ ਸਵਾਰਿ ॥ हरि मंदरु हरि जीउ साजिआ रखिआ हुकमि सवारि ॥ प्रभाती महला १ ॥
ਧੁਰਿ ਲੇਖੁ ਲਿਖਿਆ ਸੁ ਕਮਾਵਣਾ ਕੋਇ ਨ ਮੇਟਣਹਾਰੁ ॥੩॥ धुरि लेखु लिखिआ सु कमावणा कोइ न मेटणहारु ॥३॥ अन्तर्मन में दत्तचित होकर ईश्वर का नाम जपना ही सच्ची पूजा है।
ਸਬਦੁ ਚੀਨ੍ਹ੍ਹਿ ਸੁਖੁ ਪਾਇਆ ਸਚੈ ਨਾਇ ਪਿਆਰ ॥ सबदु चीन्हि सुखु पाइआ सचै नाइ पिआर ॥ गुरु के उपदेश का चिंतन करके देख लो, एक ईश्वर के अतिरिक्त किसी दूसरे का ख्याल नहीं रहता॥ १॥
ਹਰਿ ਮੰਦਰੁ ਸਬਦੇ ਸੋਹਣਾ ਕੰਚਨੁ ਕੋਟੁ ਅਪਾਰ ॥੪॥ हरि मंदरु सबदे सोहणा कंचनु कोटु अपार ॥४॥ हर जगह पर एक परमेश्वर ही मौजूद है,
ਹਰਿ ਮੰਦਰੁ ਏਹੁ ਜਗਤੁ ਹੈ ਗੁਰ ਬਿਨੁ ਘੋਰੰਧਾਰ ॥ हरि मंदरु एहु जगतु है गुर बिनु घोरंधार ॥ अन्य कोई दृष्टिगत नहीं होता, फिर उसके अलावा किसकी पूजा-अर्चना की जाए॥ १॥रहाउ॥
ਦੂਜਾ ਭਾਉ ਕਰਿ ਪੂਜਦੇ ਮਨਮੁਖ ਅੰਧ ਗਵਾਰ ॥੫॥ दूजा भाउ करि पूजदे मनमुख अंध गवार ॥५॥ हे परमपिता! मन, तन, प्राण सब तुझे अर्पण है,
ਜਿਥੈ ਲੇਖਾ ਮੰਗੀਐ ਤਿਥੈ ਦੇਹ ਜਾਤਿ ਨ ਜਾਇ ॥ जिथै लेखा मंगीऐ तिथै देह जाति न जाइ ॥ मेरी प्रार्थना है कि जैसे तुम्हें ठीक लगता है, वैसे ही हमें रखो॥ २॥
ਸਾਚਿ ਰਤੇ ਸੇ ਉਬਰੇ ਦੁਖੀਏ ਦੂਜੈ ਭਾਇ ॥੬॥ साचि रते से उबरे दुखीए दूजै भाइ ॥६॥ यह जिव्हा हरिनाम रस में लीन होकर रसमय हो गई है।
ਹਰਿ ਮੰਦਰ ਮਹਿ ਨਾਮੁ ਨਿਧਾਨੁ ਹੈ ਨਾ ਬੂਝਹਿ ਮੁਗਧ ਗਵਾਰ ॥ हरि मंदर महि नामु निधानु है ना बूझहि मुगध गवार ॥ गुरु की शिक्षा एवं प्रभु की शरण में आने से ही मुक्ति होती है॥ ३॥
ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਚੀਨ੍ਹ੍ਹਿਆ ਹਰਿ ਰਾਖਿਆ ਉਰਿ ਧਾਰਿ ॥੭॥ गुर परसादी चीन्हिआ हरि राखिआ उरि धारि ॥७॥ मेरे प्रभु ने कर्म धर्म बनाए हैं लेकिन
ਗੁਰ ਕੀ ਬਾਣੀ ਗੁਰ ਤੇ ਜਾਤੀ ਜਿ ਸਬਦਿ ਰਤੇ ਰੰਗੁ ਲਾਇ ॥ गुर की बाणी गुर ते जाती जि सबदि रते रंगु लाइ ॥ हरिनाम की बड़ाई को सर्वोत्तम कर्म बनाया है॥ ४॥
ਪਵਿਤੁ ਪਾਵਨ ਸੇ ਜਨ ਨਿਰਮਲ ਹਰਿ ਕੈ ਨਾਮਿ ਸਮਾਇ ॥੮॥ पवितु पावन से जन निरमल हरि कै नामि समाइ ॥८॥ काम, अर्थ, धर्म एवं मोक्ष सतिगुरु के वश में हैं,
ਹਰਿ ਮੰਦਰੁ ਹਰਿ ਕਾ ਹਾਟੁ ਹੈ ਰਖਿਆ ਸਬਦਿ ਸਵਾਰਿ ॥ हरि मंदरु हरि का हाटु है रखिआ सबदि सवारि ॥ तीन तो यही समा जाते हैं और चौथा (मोक्ष) कृतार्थ कर देता है॥ ५॥
ਤਿਸੁ ਵਿਚਿ ਸਉਦਾ ਏਕੁ ਨਾਮੁ ਗੁਰਮੁਖਿ ਲੈਨਿ ਸਵਾਰਿ ॥੯॥ तिसु विचि सउदा एकु नामु गुरमुखि लैनि सवारि ॥९॥ सतिगुरु जीव को मुक्ति प्रदान करता है और परमात्मा के ध्यान में लगाता है।
ਹਰਿ ਮੰਦਰ ਮਹਿ ਮਨੁ ਲੋਹਟੁ ਹੈ ਮੋਹਿਆ ਦੂਜੈ ਭਾਇ ॥ हरि मंदर महि मनु लोहटु है मोहिआ दूजै भाइ ॥ इस प्रकार हरिपद को जानकर जीव प्रतिष्ठा प्राप्त करते हैं।॥ ६॥
ਪਾਰਸਿ ਭੇਟਿਐ ਕੰਚਨੁ ਭਇਆ ਕੀਮਤਿ ਕਹੀ ਨ ਜਾਇ ॥੧੦॥ पारसि भेटिऐ कंचनु भइआ कीमति कही न जाइ ॥१०॥ गुरु के समझाने से मन तन शीतल हो जाता है।
ਹਰਿ ਮੰਦਰ ਮਹਿ ਹਰਿ ਵਸੈ ਸਰਬ ਨਿਰੰਤਰਿ ਸੋਇ ॥ हरि मंदर महि हरि वसै सरब निरंतरि सोइ ॥ जिन्हें प्रभु शोभा प्रदान करता है, उनकी महता कौन प्राप्त कर सकता है॥ ७॥
ਨਾਨਕ ਗੁਰਮੁਖਿ ਵਣਜੀਐ ਸਚਾ ਸਉਦਾ ਹੋਇ ॥੧੧॥੧॥ नानक गुरमुखि वणजीऐ सचा सउदा होइ ॥११॥१॥ गुरु नानक फुरमाते हैं कि गुरु ने उपदेश देते हुए यही समझाया है कि
ਪ੍ਰਭਾਤੀ ਮਹਲਾ ੩ ॥ प्रभाती महला ३ ॥ हरिनाम के बिना किसी ने मुक्ति प्राप्त नहीं की।॥ ८॥ ६॥
ਭੈ ਭਾਇ ਜਾਗੇ ਸੇ ਜਨ ਜਾਗ੍ਰਣ ਕਰਹਿ ਹਉਮੈ ਮੈਲੁ ਉਤਾਰਿ ॥ भै भाइ जागे से जन जाग्रण करहि हउमै मैलु उतारि ॥ प्रभाती महला १ ॥
ਸਦਾ ਜਾਗਹਿ ਘਰੁ ਅਪਣਾ ਰਾਖਹਿ ਪੰਚ ਤਸਕਰ ਕਾਢਹਿ ਮਾਰਿ ॥੧॥ सदा जागहि घरु अपणा राखहि पंच तसकर काढहि मारि ॥१॥ पूर्णगुरु ने ऐसी रीति बनाई है कि कुछ लोगों को प्रारम्भ से ही कृपा करके बचा लिया है।
ਮਨ ਮੇਰੇ ਗੁਰਮੁਖਿ ਨਾਮੁ ਧਿਆਇ ॥ मन मेरे गुरमुखि नामु धिआइ ॥ वे सदैव ईश्वर की भक्ति में लीन रहते हैं, उनके दुख-दर्द समाप्त हो जाते हैं और वे इज्जत प्राप्त करते हैं।॥ १॥
ਜਿਤੁ ਮਾਰਗਿ ਹਰਿ ਪਾਈਐ ਮਨ ਸੇਈ ਕਰਮ ਕਮਾਇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ जितु मारगि हरि पाईऐ मन सेई करम कमाइ ॥१॥ रहाउ ॥ दुर्मति की चतुराई झूठी है,
ਗੁਰਮੁਖਿ ਸਹਜ ਧੁਨਿ ਊਪਜੈ ਦੁਖੁ ਹਉਮੈ ਵਿਚਹੁ ਜਾਇ ॥ गुरमुखि सहज धुनि ऊपजै दुखु हउमै विचहु जाइ ॥ जिसे नाश होते कोई समय नहीं लगता॥ १॥रहाउ॥
ਹਰਿ ਨਾਮਾ ਹਰਿ ਮਨਿ ਵਸੈ ਸਹਜੇ ਹਰਿ ਗੁਣ ਗਾਇ ॥੨॥ हरि नामा हरि मनि वसै सहजे हरि गुण गाइ ॥२॥ स्वेच्छाचारी को दुख दर्द सताते रहते हैं, उसके दुखों का अन्त नहीं होता।
ਗੁਰਮਤੀ ਮੁਖ ਸੋਹਣੇ ਹਰਿ ਰਾਖਿਆ ਉਰਿ ਧਾਰਿ ॥ गुरमती मुख सोहणे हरि राखिआ उरि धारि ॥ जीव जब गुरु द्वारा सुख दुख देने वाले मालिक को जान लेता है तो वह शरण में लेकर उसे मिला लेता है॥ २॥
ਐਥੈ ਓਥੈ ਸੁਖੁ ਘਣਾ ਜਪਿ ਹਰਿ ਹਰਿ ਉਤਰੇ ਪਾਰਿ ॥੩॥ ऐथै ओथै सुखु घणा जपि हरि हरि उतरे पारि ॥३॥ स्वेच्छाचारी से भगवान की भक्ति नहीं हो पाती, वह अहंकार में लीन रहकर बावला बना रहता है।


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