Page 129
ਅਹਿਨਿਸਿ ਪ੍ਰੀਤਿ ਸਬਦਿ ਸਾਚੈ ਹਰਿ ਸਰਿ ਵਾਸਾ ਪਾਵਣਿਆ ॥੫॥
वह दिन-रात सत्य नाम के प्रेम में अनुरक्त रहते हैं और भगवान् के सत्य नाम रूपी सागर में निवास करते हैं।॥५॥
ਮਨਮੁਖੁ ਸਦਾ ਬਗੁ ਮੈਲਾ ਹਉਮੈ ਮਲੁ ਲਾਈ ॥
मनमुख पाखंडी बगुले की तरह हमेशा मैला रहता है, जिसके मन को अहंकार की मैल लगी हुई है।
ਇਸਨਾਨੁ ਕਰੈ ਪਰੁ ਮੈਲੁ ਨ ਜਾਈ ॥
वह तीर्थों पर स्नान करता है परन्तु उसके अहंकार की मैल दूर नहीं होती।
ਜੀਵਤੁ ਮਰੈ ਗੁਰ ਸਬਦੁ ਬੀਚਾਰੈ ਹਉਮੈ ਮੈਲੁ ਚੁਕਾਵਣਿਆ ॥੬॥
उसकी अहंकार की मैल तभी दूर हो सकती है, यदि वह गुरु-शब्द का चिंतन करे और नम्रतापूर्वक जीवन व्यतीत करे॥६॥
ਰਤਨੁ ਪਦਾਰਥੁ ਘਰ ਤੇ ਪਾਇਆ ॥ ਪੂਰੈ ਸਤਿਗੁਰਿ ਸਬਦੁ ਸੁਣਾਇਆ ॥
अपनी आत्मा में ही हरि नाम रूपी अमूल्य रत्न को प्राप्त कर लिया है, जब पूर्ण सतगुरु ने उसे गुरु वाणी सुनाई।
ਗੁਰ ਪਰਸਾਦਿ ਮਿਟਿਆ ਅੰਧਿਆਰਾ ਘਟਿ ਚਾਨਣੁ ਆਪੁ ਪਛਾਨਣਿਆ ॥੭॥
गुरु की दया से उसके मन में से अज्ञानता का अंधकार मिट गया और उसके हृदय में ज्योति का प्रकाश हो गया है। उसने स्वयं ही अपने स्वरूप को पहचान लिया है॥७॥
ਆਪਿ ਉਪਾਏ ਤੈ ਆਪੇ ਵੇਖੈ ॥
प्रभु स्वयं ही जीवों की रचना करते हैं और स्वयं ही अपनी सृष्टि की देख-रेख करते हैं।
ਸਤਿਗੁਰੁ ਸੇਵੈ ਸੋ ਜਨੁ ਲੇਖੈ ॥
जो मनुष्य सतगुरु की सेवा करता है, वह प्रभु के दरबार में स्वीकार हो जाता है।
ਨਾਨਕ ਨਾਮੁ ਵਸੈ ਘਟ ਅੰਤਰਿ ਗੁਰ ਕਿਰਪਾ ਤੇ ਪਾਵਣਿਆ ॥੮॥੩੧॥੩੨॥
हे नानक ! जिसके हृदय में प्रभु का नाम निवास करता है, गुरु की कृपा से वह प्रभु को प्राप्त कर लेता है। ॥८॥३१॥३२॥
ਮਾਝ ਮਹਲਾ ੩ ॥
राग माझ, तीसरे गुरु द्वारा : ३ ॥
ਮਾਇਆ ਮੋਹੁ ਜਗਤੁ ਸਬਾਇਆ ॥
सम्पूर्ण संसार मोह-माया में लिप्त है।
ਤ੍ਰੈ ਗੁਣ ਦੀਸਹਿ ਮੋਹੇ ਮਾਇਆ ॥
त्रिगुणी प्राणी माया में मोहित हुए दिखाई देते हैं।
ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਕੋ ਵਿਰਲਾ ਬੂਝੈ ਚਉਥੈ ਪਦਿ ਲਿਵ ਲਾਵਣਿਆ ॥੧॥
गुरु की कृपा से कोई विरला पुरुष ही सत्य का बोध करता है और अपनी वृत्ति सहज ही चतुर्थ अवस्था में लगाता है॥ १॥
ਹਉ ਵਾਰੀ ਜੀਉ ਵਾਰੀ ਮਾਇਆ ਮੋਹੁ ਸਬਦਿ ਜਲਾਵਣਿਆ ॥
मैं उन पर तन-मन से न्यौछावर हूँ जो गुरु की वाणी से मोह-माया की तृष्णा को जला देते हैं।
ਮਾਇਆ ਮੋਹੁ ਜਲਾਏ ਸੋ ਹਰਿ ਸਿਉ ਚਿਤੁ ਲਾਏ ਹਰਿ ਦਰਿ ਮਹਲੀ ਸੋਭਾ ਪਾਵਣਿਆ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
जो प्राणी मोह-माया की तृष्णा को जला देता है और अपना मन हरि-प्रभु से लगाता है, वह जीव हरि के दरबार में बड़ी शोभा पाता है॥१॥ रहाउ॥
ਦੇਵੀ ਦੇਵਾ ਮੂਲੁ ਹੈ ਮਾਇਆ ॥
देवी-देवताओं का मूल माया है,
ਸਿੰਮ੍ਰਿਤਿ ਸਾਸਤ ਜਿੰਨਿ ਉਪਾਇਆ ॥
जिन्होंने स्मृतियों एवं शास्त्रों को उत्पन्न किया है।
ਕਾਮੁ ਕ੍ਰੋਧੁ ਪਸਰਿਆ ਸੰਸਾਰੇ ਆਇ ਜਾਇ ਦੁਖੁ ਪਾਵਣਿਆ ॥੨॥
इस संसार में काम, क्रोध प्रवृत्त है, इसलिए प्राणी आवागमन के चक्र में पड़कर जन्मता-मरता एवं कष्ट सहन करता है॥ २॥
ਤਿਸੁ ਵਿਚਿ ਗਿਆਨ ਰਤਨੁ ਇਕੁ ਪਾਇਆ ॥
भगवान् ने मानव शरीर में एक ज्ञान रूपी रत्न दिया है,
ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਮੰਨਿ ਵਸਾਇਆ ॥
जिसे गुरु की कृपा से हृदय में बसाया जाता है।
ਜਤੁ ਸਤੁ ਸੰਜਮੁ ਸਚੁ ਕਮਾਵੈ ਗੁਰਿ ਪੂਰੈ ਨਾਮੁ ਧਿਆਵਣਿਆ ॥੩॥
जो जीव पूर्ण गुरु की शिक्षाओं के माध्यम से भगवान् के नाम का स्मरण करता है, उसे ब्रह्मचर्य, सत्य जीवन और आत्मानुशासन का पुण्य प्राप्त होता है। ॥३॥
ਪੇਈਅੜੈ ਧਨ ਭਰਮਿ ਭੁਲਾਣੀ ॥
जो जीव-स्त्री अपने पीहर (मृत्युलोक) में भ्रम में पड़कर कुमार्ग में लगी हुई है।
ਦੂਜੈ ਲਾਗੀ ਫਿਰਿ ਪਛੋਤਾਣੀ ॥
द्वैतभाव में फँसी हुई उसे अंत में पश्चाताप हौता है।
ਹਲਤੁ ਪਲਤੁ ਦੋਵੈ ਗਵਾਏ ਸੁਪਨੈ ਸੁਖੁ ਨ ਪਾਵਣਿਆ ॥੪॥
वह अपना लोक तथा परलोक दोनों ही गंवा देती है और स्वप्न में भी उसको सुख नहीं मिलता॥ ४ ॥
ਪੇਈਅੜੈ ਧਨ ਕੰਤੁ ਸਮਾਲੇ ॥
जो जीव-स्त्री इहलोक में अपने पति-परमेश्वर को स्मरण करती है,
ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਵੇਖੈ ਨਾਲੇ ॥
गुरु की कृपा से वह पति-परमेश्वर के अपने समीप ही दर्शन करती है।
ਪਿਰ ਕੈ ਸਹਜਿ ਰਹੈ ਰੰਗਿ ਰਾਤੀ ਸਬਦਿ ਸਿੰਗਾਰੁ ਬਣਾਵਣਿਆ ॥੫॥
वह सहज ही अपने प्रियतम के प्रेम में मग्न रहती है और उसकी वाणी को अपना हार-श्रृंगार बनाती है॥ ५॥
ਸਫਲੁ ਜਨਮੁ ਜਿਨਾ ਸਤਿਗੁਰੁ ਪਾਇਆ ॥
उनका ही जन्म सफल है जिन्होंने सतगुरु को पाया है।
ਦੂਜਾ ਭਾਉ ਗੁਰ ਸਬਦਿ ਜਲਾਇਆ ॥
गुरु के शब्द द्वारा उन्होंने माया-मोह को जला दिया है।
ਏਕੋ ਰਵਿ ਰਹਿਆ ਘਟ ਅੰਤਰਿ ਮਿਲਿ ਸਤਸੰਗਤਿ ਹਰਿ ਗੁਣ ਗਾਵਣਿਆ ॥੬॥
सत्संग में सम्मिलित होकर वह एक ईश्वर का यशोगान करते हैं जो सबके हृदय में व्यापत है॥६॥
ਸਤਿਗੁਰੁ ਨ ਸੇਵੇ ਸੋ ਕਾਹੇ ਆਇਆ ॥
जो लोग सच्चे गुरु की शिक्षाओं का पालन नहीं करते, वे इस दुनिया में क्यों आए?
ਧ੍ਰਿਗੁ ਜੀਵਣੁ ਬਿਰਥਾ ਜਨਮੁ ਗਵਾਇਆ ॥
उसके जीवन को धिक्कार है। उसने अपना अनमोल मनुष्य जीवन व्यर्थ ही गंवाया है।
ਮਨਮੁਖਿ ਨਾਮੁ ਚਿਤਿ ਨ ਆਵੈ ਬਿਨੁ ਨਾਵੈ ਬਹੁ ਦੁਖੁ ਪਾਵਣਿਆ ॥੭॥
मनमुख नाम का सिमरन नहीं करता। हरि नाम के बिना वह बहुत कष्ट सहन करता है॥ ७॥
ਜਿਨਿ ਸਿਸਟਿ ਸਾਜੀ ਸੋਈ ਜਾਣੈ ॥
जिस प्रभु ने इस सृष्टि की रचना की है, वह इस विषय में सब कुछ जानते हैं।
ਆਪੇ ਮੇਲੈ ਸਬਦਿ ਪਛਾਣੈ ॥
प्रभु उनको अपने साथ मिला लेता है जो गुरु-शब्द को सदैव अपने नेत्रों में रखता है।
ਨਾਨਕ ਨਾਮੁ ਮਿਲਿਆ ਤਿਨ ਜਨ ਕਉ ਜਿਨ ਧੁਰਿ ਮਸਤਕਿ ਲੇਖੁ ਲਿਖਾਵਣਿਆ ॥੮॥੧॥੩੨॥੩੩॥
हे नानक ! नाम उन्हें ही मिलता है, जिनके भाग्य में यह पूर्व निर्धारित हैं। ॥८॥१॥३२॥३३॥
ਮਾਝ ਮਹਲਾ ੪ ॥
माझ महला ४ ॥
ਆਦਿ ਪੁਰਖੁ ਅਪਰੰਪਰੁ ਆਪੇ ॥
हे ईश्वर ! तुम ही आदिपुरुष, अपरम्पार एवं सर्वज्ञ हो।
ਆਪੇ ਥਾਪੇ ਥਾਪਿ ਉਥਾਪੇ ॥
वह स्वयं ही सृष्टि की रचना करता है और स्वयं ही प्रलय करके सृष्टि का विनाश भी करता है।
ਸਭ ਮਹਿ ਵਰਤੈ ਏਕੋ ਸੋਈ ਗੁਰਮੁਖਿ ਸੋਭਾ ਪਾਵਣਿਆ ॥੧॥
सबके भीतर एक ही ईश्वर व्यापत है। ऐसा अनुभव कर गुरमुख जीव प्रभु के दरबार में बड़ी शोभा पाते हैं।॥ १ ॥
ਹਉ ਵਾਰੀ ਜੀਉ ਵਾਰੀ ਨਿਰੰਕਾਰੀ ਨਾਮੁ ਧਿਆਵਣਿਆ ॥
मैं तन-मन से उन पर बलिहारी हूँ, जो निरंकार परमात्मा के नाम का ध्यान करते हैं।