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ਮਾਝ ਮਹਲਾ ੩ ॥
माझ राग, तीसरे गुरु द्वारा : ३ ॥
ਮਨਮੁਖ ਪੜਹਿ ਪੰਡਿਤ ਕਹਾਵਹਿ ॥
स्वेच्छाचारी जीव द्वैतभाव में ग्रंथ पढ़ते रहते हैं और स्वयं को विद्वान कहलवाते हैं।
ਦੂਜੈ ਭਾਇ ਮਹਾ ਦੁਖੁ ਪਾਵਹਿ ॥
वे माया के मोह में फँसकर बहुत दु:खी होते हैं।
ਬਿਖਿਆ ਮਾਤੇ ਕਿਛੁ ਸੂਝੈ ਨਾਹੀ ਫਿਰਿ ਫਿਰਿ ਜੂਨੀ ਆਵਣਿਆ ॥੧॥
वह विष रूपी सांसारिक माया के मोह में मग्न रहते हैं और प्रभु के विषय में उन्हें कोई ज्ञान नहीं मिलता, जिसके कारण वह पुनः पुनः योनियों के चक्र में पड़े रहते हैं।॥१॥
ਹਉ ਵਾਰੀ ਜੀਉ ਵਾਰੀ ਹਉਮੈ ਮਾਰਿ ਮਿਲਾਵਣਿਆ ॥
मैं और मेरा जीवन उन पर न्यौछावर है जो अपने अहंकार को नष्ट करके ईश्वर में विलीन हो जाते हैं।
ਗੁਰ ਸੇਵਾ ਤੇ ਹਰਿ ਮਨਿ ਵਸਿਆ ਹਰਿ ਰਸੁ ਸਹਜਿ ਪੀਆਵਣਿਆ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
गुरु की सेवा से ईश्वर मनुष्य के हृदय में निवास करने लगते हैं और वह जीव सहज ही हरि-रस पान करता रहता है॥१॥ रहाउ॥
ਵੇਦੁ ਪੜਹਿ ਹਰਿ ਰਸੁ ਨਹੀ ਆਇਆ ॥
कुछ व्यक्ति वेद पढ़ते हैं परन्तु उन्हें हरि-रस का आनंद नहीं मिलता।
ਵਾਦੁ ਵਖਾਣਹਿ ਮੋਹੇ ਮਾਇਆ ॥
मोह-माया के कारण बुद्धिहीन हुए वह वाद-विवाद करते रहते हैं।
ਅਗਿਆਨਮਤੀ ਸਦਾ ਅੰਧਿਆਰਾ ਗੁਰਮੁਖਿ ਬੂਝਿ ਹਰਿ ਗਾਵਣਿਆ ॥੨॥
अज्ञान बुद्धि वाले हमेशा अज्ञानता के अंधकार में डूबे रहते हैं। गुरमुख ईश्वर को जान लेते हैं और हरि का यशोगान करते रहते हैं।॥२ ॥
ਅਕਥੋ ਕਥੀਐ ਸਬਦਿ ਸੁਹਾਵੈ ॥ ਗੁਰਮਤੀ ਮਨਿ ਸਚੋ ਭਾਵੈ ॥
जो व्यक्ति अकथनीय प्रभु की महिमा का कथन करता रहता है, वह नाम द्वारा सुन्दर बन जाता है। गुरु की मति द्वारा सत्य-प्रभु उसके मन को प्रिय लगता है।
ਸਚੋ ਸਚੁ ਰਵਹਿ ਦਿਨੁ ਰਾਤੀ ਇਹੁ ਮਨੁ ਸਚਿ ਰੰਗਾਵਣਿਆ ॥੩॥
वह दिन-रात सत्य-परमेश्वर का ही सिमरन करता रहता है। उसका यह मन सत्य-प्रभु के प्रेम में मग्न रहता है॥३॥
ਜੋ ਸਚਿ ਰਤੇ ਤਿਨ ਸਚੋ ਭਾਵੈ ॥
जो सत्य-प्रभु के प्रेम में मग्न रहते हैं, उन्हें सत्य-प्रभु ही प्रिय लगता है।
ਆਪੇ ਦੇਇ ਨ ਪਛੋਤਾਵੈ ॥
प्रभु उन्हें अपने प्रेम की देन स्वयं ही दे देते हैं और यह देन देकर वह शोक नहीं करते हैं।
ਗੁਰ ਕੈ ਸਬਦਿ ਸਦਾ ਸਚੁ ਜਾਤਾ ਮਿਲਿ ਸਚੇ ਸੁਖੁ ਪਾਵਣਿਆ ॥੪॥
गुरु के शब्द से सत्य प्रभु सदैव ही जाना जाता है। सत्यस्वरूप प्रभु को मिलने से बड़ा आनंद प्राप्त होता है ॥४॥
ਕੂੜੁ ਕੁਸਤੁ ਤਿਨਾ ਮੈਲੁ ਨ ਲਾਗੈ ॥
झूठ एवं कपट की मैल उनको नहीं लगती क्योंकि
ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਅਨਦਿਨੁ ਜਾਗੈ ॥
वे रात-दिन गुरु की कृपा से भजन में जागते हैं।
ਨਿਰਮਲ ਨਾਮੁ ਵਸੈ ਘਟ ਭੀਤਰਿ ਜੋਤੀ ਜੋਤਿ ਮਿਲਾਵਣਿਆ ॥੫॥
निर्मल नाम उनके हृदय में निवास करता है और उनकी ज्योति प्रभु की ज्योति में विलीन हो जाती है।॥५॥
ਤ੍ਰੈ ਗੁਣ ਪੜਹਿ ਹਰਿ ਤਤੁ ਨ ਜਾਣਹਿ ॥
मनमुख ऐसी पुस्तकें पढ़ते हैं, जिनका संबंध त्रिगुणात्मक माया से होता है। वह परम तत्व ईश्वर को नहीं समझ सकते।
ਮੂਲਹੁ ਭੁਲੇ ਗੁਰ ਸਬਦੁ ਨ ਪਛਾਣਹਿ ॥
ऐसे व्यक्ति जगत् के मूल प्रभु को भूले हुए हैं परन्तु गुरु की वाणी का बोध नहीं करते।
ਮੋਹ ਬਿਆਪੇ ਕਿਛੁ ਸੂਝੈ ਨਾਹੀ ਗੁਰ ਸਬਦੀ ਹਰਿ ਪਾਵਣਿਆ ॥੬॥
वे मोह-माया में मग्न हैं और उन्हें इस बात का ज्ञान नहीं होता कि भगवान् गुरु की वाणी द्वारा ही मिलते हैं। ॥६॥
ਵੇਦੁ ਪੁਕਾਰੈ ਤ੍ਰਿਬਿਧਿ ਮਾਇਆ ॥
वेदों में त्रिगुणात्मक माया का वर्णन मिलता है।
ਮਨਮੁਖ ਨ ਬੂਝਹਿ ਦੂਜੈ ਭਾਇਆ ॥
परन्तु स्वेच्छाचारी जीवों को कोई सूझ ही नहीं होती, उन्हें तो माया का मोह ही प्यारा लगता है।
ਤ੍ਰੈ ਗੁਣ ਪੜਹਿ ਹਰਿ ਏਕੁ ਨ ਜਾਣਹਿ ਬਿਨੁ ਬੂਝੇ ਦੁਖੁ ਪਾਵਣਿਆ ॥੭॥
वह त्रिगुणात्मक माया से संबंधित ग्रंथ पढ़ते रहते हैं परन्तु उस एक ईश्वर को नहीं जान सकते। वह एक ईश्वर को समझे बिना बहुत दु:खी होते हैं। ॥७ ॥
ਜਾ ਤਿਸੁ ਭਾਵੈ ਤਾ ਆਪਿ ਮਿਲਾਏ ॥
जब भगवान् को उपयुक्त लगता है तो ही वह जीव को अपने साथ मिला लेते हैं।
ਗੁਰ ਸਬਦੀ ਸਹਸਾ ਦੂਖੁ ਚੁਕਾਏ ॥
भगवान् गुरु-शब्द द्वारा जीव का भय एवं उसके दुःखों को दूर कर देते हैं।
ਨਾਨਕ ਨਾਵੈ ਕੀ ਸਚੀ ਵਡਿਆਈ ਨਾਮੋ ਮੰਨਿ ਸੁਖੁ ਪਾਵਣਿਆ ॥੮॥੩੦॥੩੧॥
हे नानक ! भगवान् जिसे अपने नाम की महानता प्रदान कर देता है, वह अपने मन में नाम को बसाकर सुख प्राप्त करता है। ॥८॥३०॥३१॥
ਮਾਝ ਮਹਲਾ ੩ ॥
राग माझ, तीसरे गुरु द्वारा : ३ ॥
ਨਿਰਗੁਣੁ ਸਰਗੁਣੁ ਆਪੇ ਸੋਈ ॥
ईश्वर स्वयं ही निर्गुण और स्वयं ही सगुण है।
ਤਤੁ ਪਛਾਣੈ ਸੋ ਪੰਡਿਤੁ ਹੋਈ ॥
जो इस ज्ञान को समझ लेता है वही पण्डित बन जाता है।
ਆਪਿ ਤਰੈ ਸਗਲੇ ਕੁਲ ਤਾਰੈ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਮੰਨਿ ਵਸਾਵਣਿਆ ॥੧॥
जो मनुष्य हरिनाम अपने हृदय में बसा लेता है, वह स्वयं भवसागर से पार हो जाता है और अपने समूचे वंश को भी भवसागर से पार करवा देता है॥१॥
ਹਉ ਵਾਰੀ ਜੀਉ ਵਾਰੀ ਹਰਿ ਰਸੁ ਚਖਿ ਸਾਦੁ ਪਾਵਣਿਆ ॥
मैं और मेरा जीवन भी उन पर न्यौछावर है जो हरि रस का पान करते हैं और इसके स्वाद को प्राप्त करते हैं।
ਹਰਿ ਰਸੁ ਚਾਖਹਿ ਸੇ ਜਨ ਨਿਰਮਲ ਨਿਰਮਲ ਨਾਮੁ ਧਿਆਵਣਿਆ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
जो हरि रस का पान करते हैं, वह पवित्र पुरुष हैं और वह निर्मल नाम का सिमरन करते हैं।॥१॥ रहाउ॥
ਸੋ ਨਿਹਕਰਮੀ ਜੋ ਸਬਦੁ ਬੀਚਾਰੇ ॥
जो व्यक्ति गुरु के पवित्र वचन का ध्यान करता है, वह बिना किसी स्वार्थ के कर्म करता है।
ਅੰਤਰਿ ਤਤੁ ਗਿਆਨਿ ਹਉਮੈ ਮਾਰੇ ॥
उसके हृदय में परम तत्व प्रभु का ज्ञान प्रगट हो जाता है और वह अपने अहंकार को नष्ट कर देता है।
ਨਾਮੁ ਪਦਾਰਥੁ ਨਉ ਨਿਧਿ ਪਾਏ ਤ੍ਰੈ ਗੁਣ ਮੇਟਿ ਸਮਾਵਣਿਆ ॥੨॥
वह नाम-पदार्थ से नवनिधि पा लेता है और माया के विकारों को मिटाकर भगवान् में लीन हो जाता है ॥२॥
ਹਉਮੈ ਕਰੈ ਨਿਹਕਰਮੀ ਨ ਹੋਵੈ ॥
जो व्यक्ति अहंकार करता है, वह कर्मों के बंधनों से मुक्त नहीं होता।
ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਹਉਮੈ ਖੋਵੈ ॥
लेकिन गुरु की कृपा से मनुष्य अपना अहंकार नष्ट कर देता है।
ਅੰਤਰਿ ਬਿਬੇਕੁ ਸਦਾ ਆਪੁ ਵੀਚਾਰੇ ਗੁਰ ਸਬਦੀ ਗੁਣ ਗਾਵਣਿਆ ॥੩॥
उसमें अच्छे-बुरे में अंतर करने की भावना विकसित हो जाती है। वह हमेशा आत्मचिंतन करता है और गुरु की शिक्षाओं के माध्यम से हरि-प्रभु का यशोगान करता है। ॥३ ॥
ਹਰਿ ਸਰੁ ਸਾਗਰੁ ਨਿਰਮਲੁ ਸੋਈ ॥
निर्मल भगवान् स्वयं ही सरोवर है और स्वयं ही सागर है।
ਸੰਤ ਚੁਗਹਿ ਨਿਤ ਗੁਰਮੁਖਿ ਹੋਈ ॥
गुरु की शिक्षाओं का पालन करते हुए, पवित्र लोग इन गुणों को प्राप्त करते रहते हैं।
ਇਸਨਾਨੁ ਕਰਹਿ ਸਦਾ ਦਿਨੁ ਰਾਤੀ ਹਉਮੈ ਮੈਲੁ ਚੁਕਾਵਣਿਆ ॥੪॥
वह भगवान् रूपी सरोवर में दिन-रात स्नान करते रहते हैं और अपने अहंकार की मैल स्वच्छ करते रहते हैं ॥४॥
ਨਿਰਮਲ ਹੰਸਾ ਪ੍ਰੇਮ ਪਿਆਰਿ ॥
जो जीव सदैव भगवान् के प्रेम और भक्ति में लीन रहता है, वह शुद्ध हंस के समान है।
ਹਰਿ ਸਰਿ ਵਸੈ ਹਉਮੈ ਮਾਰਿ ॥
जो अपने अहंकार को मार कर निर्मल नाम रूपी सरोवर में निवास करते हैं।