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ਤਿਸ ਦੀ ਬੂਝੈ ਜਿ ਗੁਰ ਸਬਦੁ ਕਮਾਏ ॥
परन्तु जो शब्द-गुरु के अनुरूप आचरण अपनाता है, उसकी तृष्णाग्नि बुझ जाती है।
ਤਨੁ ਮਨੁ ਸੀਤਲੁ ਕ੍ਰੋਧੁ ਨਿਵਾਰੇ ਹਉਮੈ ਮਾਰਿ ਸਮਾਇਆ ॥੧੫॥
उसका तन-मन शीतल हो जाता है, वह अपने क्रोध का निवारण कर देता है, अहम् को मारकर वह सत्य में समाहित हो जाता है॥ १५॥
ਸਚਾ ਸਾਹਿਬੁ ਸਚੀ ਵਡਿਆਈ ॥
सत्यस्वरूप परमेश्वर की महिमा भी सच्ची है और
ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਵਿਰਲੈ ਪਾਈ ॥
गुरु की कृपा से किसी विरले ने ही बड़ाई प्राप्त की है।
ਨਾਨਕੁ ਏਕ ਕਹੈ ਬੇਨੰਤੀ ਨਾਮੇ ਨਾਮਿ ਸਮਾਇਆ ॥੧੬॥੧॥੨੩॥
नानक तो एक यही विनती करता है कि वह नाम द्वारा प्रभु में समाया रहे ॥१६॥१॥२३॥
ਮਾਰੂ ਮਹਲਾ ੩ ॥
मारू महला ३॥
ਨਦਰੀ ਭਗਤਾ ਲੈਹੁ ਮਿਲਾਏ ॥
हे भक्तवत्सल ! कृपा करके भक्तों को अपने साथ मिला लो,"
ਭਗਤ ਸਲਾਹਨਿ ਸਦਾ ਲਿਵ ਲਾਏ ॥
चूंकि भक्तजन लगन लगाकर सदा तेरी ही प्रशंसा करते रहते हैं।
ਤਉ ਸਰਣਾਈ ਉਬਰਹਿ ਕਰਤੇ ਆਪੇ ਮੇਲਿ ਮਿਲਾਇਆ ॥੧॥
हे सृष्टिकर्ता ! तेरी शरण में ही उनका उद्वार हुआ है और तूने स्वयं ही उन्हें मिलाया है॥ १॥
ਪੂਰੈ ਸਬਦਿ ਭਗਤਿ ਸੁਹਾਈ ॥
पूर्ण गुरु-शब्द द्वारा की हुई भक्ति ही तुझे सुन्दर लगती है,"
ਅੰਤਰਿ ਸੁਖੁ ਤੇਰੈ ਮਨਿ ਭਾਈ ॥
यही तेरे मन को भा गई है और इससे उनके मन में सच्चा सुख उत्पन्न होता है।
ਮਨੁ ਤਨੁ ਸਚੀ ਭਗਤੀ ਰਾਤਾ ਸਚੇ ਸਿਉ ਚਿਤੁ ਲਾਇਆ ॥੨॥
जिसने सच्चे परमेश्वर से चित्त लगाया है, उसका मन-तन सच्ची भक्ति में ही लीन रहता है॥ २॥
ਹਉਮੈ ਵਿਚਿ ਸਦ ਜਲੈ ਸਰੀਰਾ ॥
मनुष्य सदा अहम् की अग्नि में जलता रहता है,"
ਕਰਮੁ ਹੋਵੈ ਭੇਟੇ ਗੁਰੁ ਪੂਰਾ ॥
लेकिन यदि प्रभु-कृपा हो जाए तो पूर्ण गुरु से भेंट हो जाती है।
ਅੰਤਰਿ ਅਗਿਆਨੁ ਸਬਦਿ ਬੁਝਾਏ ਸਤਿਗੁਰ ਤੇ ਸੁਖੁ ਪਾਇਆ ॥੩॥
शब्द-गुरु मन में से अज्ञान को दूर कर देता है और सतगुरु से सुख पाता है॥ ३॥
ਮਨਮੁਖੁ ਅੰਧਾ ਅੰਧੁ ਕਮਾਏ ॥
अन्धा मनमुखी जीव अन्धे कर्म ही करता है,"
ਬਹੁ ਸੰਕਟ ਜੋਨੀ ਭਰਮਾਏ ॥
फलस्वरूप योनि चक्र में भटकता हुआ अनेक कष्ट सहन करता है।
ਜਮ ਕਾ ਜੇਵੜਾ ਕਦੇ ਨ ਕਾਟੈ ਅੰਤੇ ਬਹੁ ਦੁਖੁ ਪਾਇਆ ॥੪॥
मौत का फदा वह कभी काट नहीं पाता और अन्तकाल बहुत दुख भोगता है॥४॥
ਆਵਣ ਜਾਣਾ ਸਬਦਿ ਨਿਵਾਰੇ ॥
आवागमन का निवारण शब्द-गुरु से होता है,"
ਸਚੁ ਨਾਮੁ ਰਖੈ ਉਰ ਧਾਰੇ ॥
जो सत्य-नाम को अपने हृदय में धारण करता है,"
ਗੁਰ ਕੈ ਸਬਦਿ ਮਰੈ ਮਨੁ ਮਾਰੇ ਹਉਮੈ ਜਾਇ ਸਮਾਇਆ ॥੫॥
वह गुरु के शब्द द्वारा मन को मार कर अपना अभिमान मिटाकर सत्य में विलीन हो जाता है॥ ५॥
ਆਵਣ ਜਾਣੈ ਪਰਜ ਵਿਗੋਈ ॥
जन्म-मरण के चक्र में पड़ी हुई दुनिया ख्वार होती रहती है,"
ਬਿਨੁ ਸਤਿਗੁਰ ਥਿਰੁ ਕੋਇ ਨ ਹੋਈ ॥
सतगुरु के बिना कोई भी स्थिर नहीं हो सकता।
ਅੰਤਰਿ ਜੋਤਿ ਸਬਦਿ ਸੁਖੁ ਵਸਿਆ ਜੋਤੀ ਜੋਤਿ ਮਿਲਾਇਆ ॥੬॥
जिसके अन्तर्मन में शब्द ब्रह्म ज्योति का वास हो गया है, उसे ही सुख मिला है और उसकी ज्योति परम-ज्योति में विलीन हो गई है। ६॥
ਪੰਚ ਦੂਤ ਚਿਤਵਹਿ ਵਿਕਾਰਾ ॥
काम, क्रोध, लोभ, मोह एवं अहंकार रूपी पंच दूत विकारों का ख्याल करते हैं,"
ਮਾਇਆ ਮੋਹ ਕਾ ਏਹੁ ਪਸਾਰਾ ॥
यह सब मोह-माया का ही प्रसार है।
ਸਤਿਗੁਰੁ ਸੇਵੇ ਤਾ ਮੁਕਤੁ ਹੋਵੈ ਪੰਚ ਦੂਤ ਵਸਿ ਆਇਆ ॥੭॥
यदि कोई सतगुरु की सेवा करे तो वह इन बन्धनों से मुक्त हो जाता है और पांच दूतों को वशीभूत कर लेता है॥ ७॥
ਬਾਝੁ ਗੁਰੂ ਹੈ ਮੋਹੁ ਗੁਬਾਰਾ ॥
गुरु के बिना मोह का अन्धेरा बना रहता है और
ਫਿਰਿ ਫਿਰਿ ਡੁਬੈ ਵਾਰੋ ਵਾਰਾ ॥
जीव पुनः पुनः मोह के समुद्र में डूबता रहता है।
ਸਤਿਗੁਰ ਭੇਟੇ ਸਚੁ ਦ੍ਰਿੜਾਏ ਸਚੁ ਨਾਮੁ ਮਨਿ ਭਾਇਆ ॥੮॥
यदि सतगुरु से भेंट हो जाए तो वह सत्य ही दृढ़ करवाता है और तब जीव के मन को सत्य-नाम ही प्यारा लगता है॥८॥
ਸਾਚਾ ਦਰੁ ਸਾਚਾ ਦਰਵਾਰਾ ॥
ईश्वर का द्वार एवं दरबार दोनों ही सत्य हैं।
ਸਚੇ ਸੇਵਹਿ ਸਬਦਿ ਪਿਆਰਾ ॥
शब्द से प्रेम करने वाले परमात्मा की उपासना करते हैं।
ਸਚੀ ਧੁਨਿ ਸਚੇ ਗੁਣ ਗਾਵਾ ਸਚੇ ਮਾਹਿ ਸਮਾਇਆ ॥੯॥
सच्चे परमात्मा का गुणगान करते हुए मन में सच्ची अनहद ध्वनि गूंजने लगती है और इस प्रकार जीव सत्य में विलीन हो जाता है ॥९॥
ਘਰੈ ਅੰਦਰਿ ਕੋ ਘਰੁ ਪਾਏ ॥
यदि कोई शरीर रूपी घर में दसम द्वार रूपी घर को पा लेता है तो
ਗੁਰ ਕੈ ਸਬਦੇ ਸਹਜਿ ਸੁਭਾਏ ॥
वह गुरु के शब्द द्वारा सहजवस्था में लीन हो जाता है।
ਓਥੈ ਸੋਗੁ ਵਿਜੋਗੁ ਨ ਵਿਆਪੈ ਸਹਜੇ ਸਹਜਿ ਸਮਾਇਆ ॥੧੦॥
वहाँ उसे कोई शोक अथवा वियोग प्रभावित नहीं करता और वह सहज ही सहजावस्था में लीन रहता है॥ १०॥
ਦੂਜੈ ਭਾਇ ਦੁਸਟਾ ਕਾ ਵਾਸਾ ॥
द्वैतभाव में दुष्टता का वास होता है और
ਭਉਦੇ ਫਿਰਹਿ ਬਹੁ ਮੋਹ ਪਿਆਸਾ ॥
इस तरह के व्यक्ति मोह-लालसा में भटकते रहते हैं।
ਕੁਸੰਗਤਿ ਬਹਹਿ ਸਦਾ ਦੁਖੁ ਪਾਵਹਿ ਦੁਖੋ ਦੁਖੁ ਕਮਾਇਆ ॥੧੧॥
वे कुसंगति में बैठकर सदा दुख पाते हैं और दुखों में घिरे रहते हैं॥ ११॥
ਸਤਿਗੁਰ ਬਾਝਹੁ ਸੰਗਤਿ ਨ ਹੋਈ ॥
सतिगुरु के बिना सुसंगति प्राप्त नहीं होती और
ਬਿਨੁ ਸਬਦੇ ਪਾਰੁ ਨ ਪਾਏ ਕੋਈ ॥
शब्द-गुरु के बिना कोई संसार-सागर से पार नहीं हो सकता।
ਸਹਜੇ ਗੁਣ ਰਵਹਿ ਦਿਨੁ ਰਾਤੀ ਜੋਤੀ ਜੋਤਿ ਮਿਲਾਇਆ ॥੧੨॥
जो व्यक्ति सहजावस्था में दिन-रात प्रभु के गुण गाता रहता है,उसकी ज्योति परम-ज्योति में विलीन हो जाती है।॥ १२॥
ਕਾਇਆ ਬਿਰਖੁ ਪੰਖੀ ਵਿਚਿ ਵਾਸਾ ॥
यह मानव-शरीर एक वृक्ष है, जिसमें मन रूपी पक्षी का निवास है।
ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਚੁਗਹਿ ਗੁਰ ਸਬਦਿ ਨਿਵਾਸਾ ॥
वह नामामृत का दाना चुगता है और शब्द-गुरु में लीन रहता है।
ਉਡਹਿ ਨ ਮੂਲੇ ਨ ਆਵਹਿ ਨ ਜਾਹੀ ਨਿਜ ਘਰਿ ਵਾਸਾ ਪਾਇਆ ॥੧੩॥
अब वह बिल्कुल भी इधर-उधर नहीं उड़ता और अपने सच्चे घर में वास पा लेता है॥ १३॥
ਕਾਇਆ ਸੋਧਹਿ ਸਬਦੁ ਵੀਚਾਰਹਿ ॥
जो अपने शरीर को विकारों की ओर से शुद्ध करके शब्द का चिंतन करता है,"
ਮੋਹ ਠਗਉਰੀ ਭਰਮੁ ਨਿਵਾਰਹਿ ॥
वह मोह की ठग-बूटी सेवन नहीं करता और भ्रम को निवृत्त कर देता है।
ਆਪੇ ਕ੍ਰਿਪਾ ਕਰੇ ਸੁਖਦਾਤਾ ਆਪੇ ਮੇਲਿ ਮਿਲਾਇਆ ॥੧੪॥
सुखदाता परमेश्वर स्वयं ही कृपा करके मिला लेता है ॥१४॥