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ਤੂੰ ਆਪੇ ਹੀ ਘੜਿ ਭੰਨਿ ਸਵਾਰਹਿ ਨਾਨਕ ਨਾਮਿ ਸੁਹਾਵਣਿਆ ॥੮॥੫॥੬॥
हे प्रभु ! आप स्वयं ही अपनी रचना का सृजन, विनाश और नवीनीकरण करते हैं। हे नानक, आप ही अपने नाम से मनुष्यों को सुशोभित और अलंकृत करते हैं। ॥८॥५॥६॥
ਮਾਝ ਮਹਲਾ ੩ ॥
राग माझ, तीसरे गुरु द्वारा: ३ ॥
ਸਭ ਘਟ ਆਪੇ ਭੋਗਣਹਾਰਾ ॥
समस्त जीवों के हृदय में व्यापत भगवान् स्वयं ही सृष्टि के समस्त पदार्थों का आनंद लेते हैं।
ਅਲਖੁ ਵਰਤੈ ਅਗਮ ਅਪਾਰਾ ॥
अगम्य, अनन्त परमात्मा सर्वत्र अदृश्य रूप से व्यापत है।
ਗੁਰ ਕੈ ਸਬਦਿ ਮੇਰਾ ਹਰਿ ਪ੍ਰਭੁ ਧਿਆਈਐ ਸਹਜੇ ਸਚਿ ਸਮਾਵਣਿਆ ॥੧॥
गुरु के शब्द द्वारा प्रभु-परमात्मा का ध्यान करने से मनुष्य सहज ही सत्य में लीन हो जाता है॥१॥
ਹਉ ਵਾਰੀ ਜੀਉ ਵਾਰੀ ਗੁਰ ਸਬਦੁ ਮੰਨਿ ਵਸਾਵਣਿਆ ॥
मैं तन-मन से उनके प्रति समर्पित हूँ, जो गुरु की वाणी को अपने हृदय में बसाते हैं।
ਸਬਦੁ ਸੂਝੈ ਤਾ ਮਨ ਸਿਉ ਲੂਝੈ ਮਨਸਾ ਮਾਰਿ ਸਮਾਵਣਿਆ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
यदि मनुष्य को गुरु की वाणी का ज्ञान हो जाता है, तब वह अपने मन से युद्ध कर सकता है और अपनी तृष्णाओं से निवृत्त होकर परमेश्वर में समा सकता है॥१॥ रहाउ॥
ਪੰਚ ਦੂਤ ਮੁਹਹਿ ਸੰਸਾਰਾ ॥
माया के पाँच दूत (काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार) जगत् के जीवों के सद्गुणों को लूट रहे हैं।
ਮਨਮੁਖ ਅੰਧੇ ਸੁਧਿ ਨ ਸਾਰਾ ॥
ज्ञानहीन माया से अन्धे मनमुख को विकारों के विषय में कोई ज्ञान या समझ नहीं होती।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਹੋਵੈ ਸੁ ਅਪਣਾ ਘਰੁ ਰਾਖੈ ਪੰਚ ਦੂਤ ਸਬਦਿ ਪਚਾਵਣਿਆ ॥੨॥
जो गुरमुख गुरु की शिक्षाओं का पालन करता है, वह अपने हृदय रूपी घर को इन विकारों से बचा लेता है। पांचों ही कट्टर वैरी गुरु के उपदेश से नाश किए जाते हैं।॥२॥
ਇਕਿ ਗੁਰਮੁਖਿ ਸਦਾ ਸਚੈ ਰੰਗਿ ਰਾਤੇ ॥
गुरु के अनुयायी हमेशा सत्यस्वरूप ईश्वर के प्रेम में मग्न रहते हैं।
ਸਹਜੇ ਪ੍ਰਭੁ ਸੇਵਹਿ ਅਨਦਿਨੁ ਮਾਤੇ ॥
वह स्वाभाविक ही अपने ईश्वर की भक्ति करते हैं और रात-दिन उसके प्रेम में मस्त रहते है।
ਮਿਲਿ ਪ੍ਰੀਤਮ ਸਚੇ ਗੁਣ ਗਾਵਹਿ ਹਰਿ ਦਰਿ ਸੋਭਾ ਪਾਵਣਿਆ ॥੩॥
जो मनुष्य सत्य स्वरूप अपने प्रियतम प्रभु से मिलकर उसका यशोगान करते हैं, वह ईश्वर के दरबार में शोभा पाते हैं।॥३॥
ਏਕਮ ਏਕੈ ਆਪੁ ਉਪਾਇਆ ॥
सर्वप्रथम निराकार और एकाकी परमेश्वर ने स्वयं को प्रकट किया;
ਦੁਬਿਧਾ ਦੂਜਾ ਤ੍ਰਿਬਿਧਿ ਮਾਇਆ ॥
दूसरा, द्वैत-भाव की सूझ को और तीसरा, रज, तम एवं सत त्रिगुणात्मक माया उत्पन्न की। त्रिगुणात्मक माया द्वारा सृष्टि-रचना हुई। त्रिगुणात्मक माया के जीव चौरासी लाख योनियों के चक्र में पड़े रहते हैं।????????
ਚਉਥੀ ਪਉੜੀ ਗੁਰਮੁਖਿ ਊਚੀ ਸਚੋ ਸਚੁ ਕਮਾਵਣਿਆ ॥੪॥
गुरमुख जीव आध्यात्मिक रूप से चौथी अवस्था तक पहुंच जाता हैं। जिसे तुरिया पद भी कहा जाता है। जिसमें वह माया के आवेग से अप्रभावित रहता है और सदा प्रभु का नाम-सिमरन करता हैं॥४ ॥
ਸਭੁ ਹੈ ਸਚਾ ਜੇ ਸਚੇ ਭਾਵੈ ॥
जो सत्यस्वरूप परमात्मा को अच्छा लगता है, सब सत्य है।
ਜਿਨਿ ਸਚੁ ਜਾਤਾ ਸੋ ਸਹਜਿ ਸਮਾਵੈ ॥
जिसने सत्य स्वरूप प्रभु को प्राप्त कर लिया है, वह सहज अवस्था और शांति में रहता है।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਕਰਣੀ ਸਚੇ ਸੇਵਹਿ ਸਾਚੇ ਜਾਇ ਸਮਾਵਣਿਆ ॥੫॥
गुरमुख जीव का यह कर्त्तव्य है कि वह सदा ईश्वर का स्मरण करे और अंततः उसी पारब्रह्म में लीन हो जाए। ।॥५॥
ਸਚੇ ਬਾਝਹੁ ਕੋ ਅਵਰੁ ਨ ਦੂਆ ॥
सत्य (ईश्वर) के अतिरिक्त अन्य कोई दूसरा नहीं।
ਦੂਜੈ ਲਾਗਿ ਜਗੁ ਖਪਿ ਖਪਿ ਮੂਆ ॥
माया के मोह में फंस कर मनुष्य आध्यात्मिक रूप से व्यथित हो नष्ट हो जाता है।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਹੋਵੈ ਸੁ ਏਕੋ ਜਾਣੈ ਏਕੋ ਸੇਵਿ ਸੁਖੁ ਪਾਵਣਿਆ ॥੬॥
गुरमुख जीव केवल एक ईश्वर को ही प्रेम करता है और एक ईश्वर की भक्ति करके सुख पाता है और आनंद उठाता है। ॥६॥
ਜੀਅ ਜੰਤ ਸਭਿ ਸਰਣਿ ਤੁਮਾਰੀ ॥
हे भगवान् ! समस्त जीव-जन्तु तुम्हारी शरण में हैं।
ਆਪੇ ਧਰਿ ਦੇਖਹਿ ਕਚੀ ਪਕੀ ਸਾਰੀ ॥
यह जगत् एक शतरंज की बिसात है। आपने जीवों को इस खेल की पूर्ण-अपूर्ण गोटियाँ बनाया है। आप स्वयं ही सभी जीवों की देखभाल करते हैं ।
ਅਨਦਿਨੁ ਆਪੇ ਕਾਰ ਕਰਾਏ ਆਪੇ ਮੇਲਿ ਮਿਲਾਵਣਿਆ ॥੭॥
आप स्वयं ही जीवों से अपनी इच्छानुसार कर्म करवाने वाले हैं और स्वयं ही इन्हें गुरु से मिलाकर अपने साथ मिलाने वाले हैं। ॥ ७॥
ਤੂੰ ਆਪੇ ਮੇਲਹਿ ਵੇਖਹਿ ਹਦੂਰਿ ॥
हे प्रभु ! आप सभी प्राणियों के समीप रहकर उनकी देखभाल करते हैं तथा उन्हें अपने साथ जोड़ते हैं।।
ਸਭ ਮਹਿ ਆਪਿ ਰਹਿਆ ਭਰਪੂਰਿ ॥
आप स्वयं ही समस्त जीवों में विद्यमान हैं।
ਨਾਨਕ ਆਪੇ ਆਪਿ ਵਰਤੈ ਗੁਰਮੁਖਿ ਸੋਝੀ ਪਾਵਣਿਆ ॥੮॥੬॥੭॥
हे नानक ! भगवान् स्वयं ही सर्वव्यापक है केवल इसका ज्ञान गुरमुखो को ही होता है। ॥८॥६॥७॥
ਮਾਝ ਮਹਲਾ ੩ ॥
राग माझ, तीसरे गुरु द्वारा : ३ ॥
ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਬਾਣੀ ਗੁਰ ਕੀ ਮੀਠੀ ॥
अमृत रूपी गुरु की वाणी जीवन में प्रेम और शांति लाती है।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਵਿਰਲੈ ਕਿਨੈ ਚਖਿ ਡੀਠੀ ॥
कोई विरला गुरमुख ही इसको चख कर देखता है और परिवर्तन का अनुभव करता है।
ਅੰਤਰਿ ਪਰਗਾਸੁ ਮਹਾ ਰਸੁ ਪੀਵੈ ਦਰਿ ਸਚੈ ਸਬਦੁ ਵਜਾਵਣਿਆ ॥੧॥
इस अमृत रूपी महारस का पान करने से जीव के हृदय में ज्ञान का प्रकाश हो जाता है और सत्य प्रभु के दरबार में अनहद शब्द बजने लगता है।॥१॥
ਹਉ ਵਾਰੀ ਜੀਉ ਵਾਰੀ ਗੁਰ ਚਰਣੀ ਚਿਤੁ ਲਾਵਣਿਆ ॥
मैं उन पर तन-मन से न्यौछावर हूँ, जो गुरु के चरणों में मन को लगाते हैं।
ਸਤਿਗੁਰੁ ਹੈ ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਸਰੁ ਸਾਚਾ ਮਨੁ ਨਾਵੈ ਮੈਲੁ ਚੁਕਾਵਣਿਆ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
सतगुरु अमृत का सत्य सरोवर है। जब मन इसमें सच्ची श्रद्धा के साथ स्नान करता है भाव श्रद्धापूर्वक गुरु उपदेशों का पालन करता है तो वह अपने विकारों की मैल को दूर कर लेता है॥१॥ रहाउ॥
ਤੇਰਾ ਸਚੇ ਕਿਨੈ ਅੰਤੁ ਨ ਪਾਇਆ ॥
हे सत्यस्वरूप ईश्वर ! तेरा अन्त कोई भी नहीं जानता।
ਗੁਰ ਪਰਸਾਦਿ ਕਿਨੈ ਵਿਰਲੈ ਚਿਤੁ ਲਾਇਆ ॥
गुरु की दया से कोई विरला पुरुष ही तेरे चरणों में अपना मन लगाता है।
ਤੁਧੁ ਸਾਲਾਹਿ ਨ ਰਜਾ ਕਬਹੂੰ ਸਚੇ ਨਾਵੈ ਕੀ ਭੁਖ ਲਾਵਣਿਆ ॥੨॥
मुझे अपने सत्यनाम की ऐसी क्षुधा लगा दे कि आपकी उपमा करने से मुझे कदाचित तृप्ति नहीं हो ॥ २॥
ਏਕੋ ਵੇਖਾ ਅਵਰੁ ਨ ਬੀਆ ॥
अब ईश्वर के अतिरिक्त मैं किसी अन्य को नहीं देखता हूँ ।
ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਪੀਆ ॥
गुरु की दया से मैंने नाम रूपी अमृत पान कर लिया है।
ਗੁਰ ਕੈ ਸਬਦਿ ਤਿਖਾ ਨਿਵਾਰੀ ਸਹਜੇ ਸੂਖਿ ਸਮਾਵਣਿਆ ॥੩॥
गुरु के शब्द से मेरी तृष्णा बुझ गई है और मैं स्वाभाविक ही शान्ति एवं सुख में लीन हो गया हूँ। ॥३॥
ਰਤਨੁ ਪਦਾਰਥੁ ਪਲਰਿ ਤਿਆਗੈ ॥ ਮਨਮੁਖੁ ਅੰਧਾ ਦੂਜੈ ਭਾਇ ਲਾਗੈ ॥
द्वैत में आसक्त, अहंकारी अन्धा मूर्ख जीव रत्न जैसे अमूल्य नाम को व्यर्थ ही माया के लिए त्याग देता है।
ਜੋ ਬੀਜੈ ਸੋਈ ਫਲੁ ਪਾਏ ਸੁਪਨੈ ਸੁਖੁ ਨ ਪਾਵਣਿਆ ॥੪॥
वह जैसा बीज बोता है, वह वैसा ही फल पाता है। जिसके कारण स्वप्न में भी उसे सुख प्राप्त नहीं होता ॥४॥
ਅਪਨੀ ਕਿਰਪਾ ਕਰੇ ਸੋਈ ਜਨੁ ਪਾਏ ॥
जिस मनुष्य पर परमात्मा अपनी दया करता है, वही अमूल्य नाम को प्राप्त करता है।
ਗੁਰ ਕਾ ਸਬਦੁ ਮੰਨਿ ਵਸਾਏ ॥
क्योंकि ऐसा व्यक्ति गुरु के शब्द को अपने हृदय में बसाता है।