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ਅਨਦਿਨੁ ਸਦਾ ਰਹੈ ਭੈ ਅੰਦਰਿ ਭੈ ਮਾਰਿ ਭਰਮੁ ਚੁਕਾਵਣਿਆ ॥੫॥
वह दिन-रात प्रभु के भय में रहता है और अहंकार को मिटाकर अपने मन को बुराइयों के पीछे भागने से रोकता है। ॥५ ॥
ਭਰਮੁ ਚੁਕਾਇਆ ਸਦਾ ਸੁਖੁ ਪਾਇਆ ॥
जो व्यक्ति अपने मन को विकारों के पीछे भागने से रोक लिया है, वह सदा ही स्थायी शांति का अनुभव करता है।
ਗੁਰ ਪਰਸਾਦਿ ਪਰਮ ਪਦੁ ਪਾਇਆ ॥
गुरु की कृपा से वह परमपद (मोक्ष) प्राप्त कर लेता है।
ਅੰਤਰੁ ਨਿਰਮਲੁ ਨਿਰਮਲ ਬਾਣੀ ਹਰਿ ਗੁਣ ਸਹਜੇ ਗਾਵਣਿਆ ॥੬॥
निर्मल वाणी से उसका अन्तर्मन भी निर्मल हो जाता है और वह सहज ही भगवान की महिमा-स्तुति करता रहता है॥६॥
ਸਿਮ੍ਰਿਤਿ ਸਾਸਤ ਬੇਦ ਵਖਾਣੈ ॥
पण्डित जो केवल स्मृतियों, शास्त्रों एवं वेदों पर लोगों को व्याख्यान देता है
ਭਰਮੇ ਭੂਲਾ ਤਤੁ ਨ ਜਾਣੈ ॥
परन्तु वह स्वयं ही भ्रम में पड़कर भटकता रहता है और परम तत्व ब्रह्म को नहीं जानता।
ਬਿਨੁ ਸਤਿਗੁਰ ਸੇਵੇ ਸੁਖੁ ਨ ਪਾਏ ਦੁਖੋ ਦੁਖੁ ਕਮਾਵਣਿਆ ॥੭॥
सतगुरु की सेवा किए बिना उसको सुख नहीं मिलता और वह दुःख ही दु:ख अर्जित करता है॥७॥
ਆਪਿ ਕਰੇ ਕਿਸੁ ਆਖੈ ਕੋਈ ॥
परमात्मा स्वयं ही सब कुछ करता है। फिर कोई शिकायत किसको कर सकता है?
ਆਖਣਿ ਜਾਈਐ ਜੇ ਭੂਲਾ ਹੋਈ ॥
किसी को समझाने की तभी आवश्यकता है यदि वह भूल करता हो।
ਨਾਨਕ ਆਪੇ ਕਰੇ ਕਰਾਏ ਨਾਮੇ ਨਾਮਿ ਸਮਾਵਣਿਆ ॥੮॥੭॥੮॥
हे नानक ! परमात्मा स्वयं ही सब कुछ करता और जीवों से करवाता है। केवल नाम सिमरन करके जीव नाम में ही लीन हो जाता है ॥८॥७ ॥८॥
ਮਾਝ ਮਹਲਾ ੩ ॥
राग माझ, तीसरे गुरु द्वारा : ३ ॥
ਆਪੇ ਰੰਗੇ ਸਹਜਿ ਸੁਭਾਏ ॥
भगवान् स्वयं ही जीव को सहज स्वभाव द्वारा अपने प्रेम में रंग देते हैं।
ਗੁਰ ਕੈ ਸਬਦਿ ਹਰਿ ਰੰਗੁ ਚੜਾਏ ॥
और गुरु के शब्द द्वारा अपने प्रेम का रंग चढ़ा देता है।
ਮਨੁ ਤਨੁ ਰਤਾ ਰਸਨਾ ਰੰਗਿ ਚਲੂਲੀ ਭੈ ਭਾਇ ਰੰਗੁ ਚੜਾਵਣਿਆ ॥੧॥
उसका मन एवं तन परमेश्वर के प्रेम में रंग जाता है और उसकी जिह्वा पोस्त के पुष्प की भाँति लाल वर्ण धारण कर लेती है। भगवान् उसे यह नाम रंग उसके मन में अपना भय एवं प्रेम उत्पन्न करके चढ़ाता है॥१ ॥
ਹਉ ਵਾਰੀ ਜੀਉ ਵਾਰੀ ਨਿਰਭਉ ਮੰਨਿ ਵਸਾਵਣਿਆ ॥
मेरा जीवन उनके प्रति समर्पित है, जो निडर परमात्मा को अपने हृदय में बसाते हैं।
ਗੁਰ ਕਿਰਪਾ ਤੇ ਹਰਿ ਨਿਰਭਉ ਧਿਆਇਆ ਬਿਖੁ ਭਉਜਲੁ ਸਬਦਿ ਤਰਾਵਣਿਆ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
गुरु की दया से वे निर्भय परमेश्वर को स्मरण करते हैं और प्रभु गुरु की वाणी द्वारा उन्हें विकारों के विषैले संसार सागर को पार कर जाते हैं।॥१॥ रहाउ ॥
ਮਨਮੁਖ ਮੁਗਧ ਕਰਹਿ ਚਤੁਰਾਈ ॥
मनमुख मूर्ख व्यक्ति चतुरता करता है।
ਨਾਤਾ ਧੋਤਾ ਥਾਇ ਨ ਪਾਈ ॥
ऐसा चतुर मनुष्य तीर्थस्थानों पर स्नान आदि पुण्य कर्म करने के बाद भी ईश्वर के दरबार में स्वीकृत नहीं होता।
ਜੇਹਾ ਆਇਆ ਤੇਹਾ ਜਾਸੀ ਕਰਿ ਅਵਗਣ ਪਛੋਤਾਵਣਿਆ ॥੨॥
जिस तरह वह जगत् में खाली हाथ आया था, वैसे ही पापों पर पश्चाताप करता हुआ चला जाता है।॥२॥
ਮਨਮੁਖ ਅੰਧੇ ਕਿਛੂ ਨ ਸੂਝੈ ॥
ज्ञानहीन, अहंकारी जीव आध्यात्मिकता के विषय में कुछ नहीं सोच सकता
ਮਰਣੁ ਲਿਖਾਇ ਆਏ ਨਹੀ ਬੂਝੈ ॥
क्योंकि वह प्रारम्भ से ही अपने पूर्व निर्धारित कर्मों के अनुसार आध्यात्मिक पतन के साथ जगत् में आते हैं और यहाँ भी वह अपने जीवन-मनोरथ को नहीं समझते।
ਮਨਮੁਖ ਕਰਮ ਕਰੇ ਨਹੀ ਪਾਏ ਬਿਨੁ ਨਾਵੈ ਜਨਮੁ ਗਵਾਵਣਿਆ ॥੩॥
मननुख कर्म करते रहते हैं परन्तु उन्हें सही जीवन-पद्धति प्राप्त नहीं होती। नामविहीन होकर वह अपना जीवन व्यर्थ ही गंवा देते हैं॥३ ॥
ਸਚੁ ਕਰਣੀ ਸਬਦੁ ਹੈ ਸਾਰੁ ॥
सत्यनाम की साधना (ईश्वर का स्मरण) ही गुरु के वचन का सार है।
ਪੂਰੈ ਗੁਰਿ ਪਾਈਐ ਮੋਖ ਦੁਆਰੁ ॥
पूर्णगुरु के द्वारा मोक्ष द्वार मिलता है।
ਅਨਦਿਨੁ ਬਾਣੀ ਸਬਦਿ ਸੁਣਾਏ ਸਚਿ ਰਾਤੇ ਰੰਗਿ ਰੰਗਾਵਣਿਆ ॥੪॥
गुरु जी प्रतिदिन अपनी वाणी द्वारा भक्तों को दिव्य शब्द सुनाते रहते हैं और इस तरह वह उन्हें शब्द द्वारा सत्य प्रभु के प्रेम से भर देते हैं।॥४॥
ਰਸਨਾ ਹਰਿ ਰਸਿ ਰਾਤੀ ਰੰਗੁ ਲਾਏ ॥
जिसकी वाणी ईश्वर के प्रेम से ओतप्रोत है,
ਮਨੁ ਤਨੁ ਮੋਹਿਆ ਸਹਜਿ ਸੁਭਾਏ ॥
सहज ज्ञान से उसका मन एवं तन प्रभु प्रेम से मुग्ध हो जाता है।
ਸਹਜੇ ਪ੍ਰੀਤਮੁ ਪਿਆਰਾ ਪਾਇਆ ਸਹਜੇ ਸਹਜਿ ਮਿਲਾਵਣਿਆ ॥੫॥
वह व्यक्ति सहजता ही अदृश्य रूप से अपने प्रियतम ईश्वर के साथ एकाकार हो जाता है; और वह सहज रूप से ही दिव्य शांति में लीन रहता है। ॥५॥
ਜਿਸੁ ਅੰਦਰਿ ਰੰਗੁ ਸੋਈ ਗੁਣ ਗਾਵੈ ॥
केवल वही मनुष्य ईश्वर का यशोगान करता है जिसे ईश्वर का प्रेम प्राप्त हुआ है।
ਗੁਰ ਕੈ ਸਬਦਿ ਸਹਜੇ ਸੁਖਿ ਸਮਾਵੈ ॥
और गुरु के शब्द द्वारा अलक्षित रूप से शांति में रहता है।
ਹਉ ਬਲਿਹਾਰੀ ਸਦਾ ਤਿਨ ਵਿਟਹੁ ਗੁਰ ਸੇਵਾ ਚਿਤੁ ਲਾਵਣਿਆ ॥੬॥
मैं सदैव ही उनके प्रति समर्पित हूँ, जो अपने मन को गुरु उपदेश के अनुरूप चलते हैं और ईश्वर में अपना ध्यान लगाते हैं।॥६॥
ਸਚਾ ਸਚੋ ਸਚਿ ਪਤੀਜੈ ॥
उनका मन भगवान् के नाम का ध्यान करने से ही शांत हो जाता है।
ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਅੰਦਰੁ ਭੀਜੈ ॥
गुरु-कृपा से उसका हृदय नाम-रस से अंदर तक भीग जाता है।
ਬੈਸਿ ਸੁਥਾਨਿ ਹਰਿ ਗੁਣ ਗਾਵਹਿ ਆਪੇ ਕਰਿ ਸਤਿ ਮਨਾਵਣਿਆ ॥੭॥
वे अपने हृदय-स्थल में भगवान् की स्तुति गाते रहते हैं। इस प्रकार भगवान् स्वयं उनसे इस सत्य को स्वीकार करवाते हैं। ॥७॥
ਜਿਸ ਨੋ ਨਦਰਿ ਕਰੇ ਸੋ ਪਾਏ ॥
जिन पर प्रभु अपनी दया-दृष्टि करता है, वें उसके नाम के महत्त्व को समझते हैं।
ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਹਉਮੈ ਜਾਏ ॥
गुरु की दया से वह अहंकार से निवृत्त हो जाता है।
ਨਾਨਕ ਨਾਮੁ ਵਸੈ ਮਨ ਅੰਤਰਿ ਦਰਿ ਸਚੈ ਸੋਭਾ ਪਾਵਣਿਆ ॥੮॥੮॥੯॥
हे नानक ! जिसके मन में ईश्वर का नाम निवास करता है, वह सत्य दरबार में बड़ी शोभा पाता है। ॥८॥८॥९ ॥
ਮਾਝ ਮਹਲਾ ੩ ॥
तीसरे गुरु द्वारा राग माझ : ३ ॥
ਸਤਿਗੁਰੁ ਸੇਵਿਐ ਵਡੀ ਵਡਿਆਈ ॥
सतगुरु की सेवा करने से बड़ी शोभा प्राप्त होती है
ਹਰਿ ਜੀ ਅਚਿੰਤੁ ਵਸੈ ਮਨਿ ਆਈ ॥
हमारी जानकारी के बिना ही पूज्य परमेश्वर अकस्मात ही हृदय में आकर निवास करता है।
ਹਰਿ ਜੀਉ ਸਫਲਿਓ ਬਿਰਖੁ ਹੈ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਜਿਨਿ ਪੀਤਾ ਤਿਸੁ ਤਿਖਾ ਲਹਾਵਣਿਆ ॥੧॥
हरि-परमेश्वर एक फलदायक पौधा है जो इसके नाम रूपी अमृत का पान करता है, उसकी तृष्णा रूपी प्यास बुझ जाती है॥१॥
ਹਉ ਵਾਰੀ ਜੀਉ ਵਾਰੀ ਸਚੁ ਸੰਗਤਿ ਮੇਲਿ ਮਿਲਾਵਣਿਆ ॥
मेरा तन, मन एवं प्राण उस प्रभु पर न्यौछावर हैं जो जीवों को सत्संग में मिलाकर अपने साथ मिला लेता है।
ਹਰਿ ਸਤਸੰਗਤਿ ਆਪੇ ਮੇਲੈ ਗੁਰ ਸਬਦੀ ਹਰਿ ਗੁਣ ਗਾਵਣਿਆ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
भगवान् स्वयं व्यक्ति को पवित्र संगति से जोड़ते हैं, जहां गुरु के वचन के माध्यम से जीव भगवान् का यशोगान गाने में सक्षम होता है।॥१॥ रहाउ ॥