Guru Granth Sahib Translation Project

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ਸਿਰੀਰਾਗੁ ਮਹਲਾ ੪ ॥ हे नानक ! वे व्यक्ति धन्य-धन्य एवं भाग्यवान हैं जिनको सतगुरु जी अपने साथ मिला कर परमात्मा से मिलन करवाते हैं॥ ४ ॥ ३॥ ६७ ॥
ਹਉ ਪੰਥੁ ਦਸਾਈ ਨਿਤ ਖੜੀ ਕੋਈ ਪ੍ਰਭੁ ਦਸੇ ਤਿਨਿ ਜਾਉ ॥ जीव रूपी नारी नित्य खड़ी होकर कहती है कि मैं प्रतिदिन अपने प्रियतम प्रभु का मार्ग देखती रहती हूँ कि यदि कोई मुझे मार्गदर्शन करे तो उस प्रियतम-पति के पास जाकर मिल सकूं।
ਜਿਨੀ ਮੇਰਾ ਪਿਆਰਾ ਰਾਵਿਆ ਤਿਨ ਪੀਛੈ ਲਾਗਿ ਫਿਰਾਉ ॥ मैं उन महापुरुषों के आगे-पीछे लगी रहती हूँ अर्थात् सेवा-भावना करती हूँ, जिन्होंने परमेश्वर को माना है।
ਕਰਿ ਮਿੰਨਤਿ ਕਰਿ ਜੋਦੜੀ ਮੈ ਪ੍ਰਭੁ ਮਿਲਣੈ ਕਾ ਚਾਉ ॥੧॥ मैं उनका अनुकरण करती हूँ क्योंकि मुझे प्रभु-पति के मिलन की चाह है कृपा करके मुझे परमात्मा से मिला दो॥ १॥
ਮੇਰੇ ਭਾਈ ਜਨਾ ਕੋਈ ਮੋ ਕਉ ਹਰਿ ਪ੍ਰਭੁ ਮੇਲਿ ਮਿਲਾਇ ॥ हे मेरे भाई ! कोई तो मेरे हरि-प्रभु से मेरा मिलन करवा दे।
ਹਉ ਸਤਿਗੁਰ ਵਿਟਹੁ ਵਾਰਿਆ ਜਿਨਿ ਹਰਿ ਪ੍ਰਭੁ ਦੀਆ ਦਿਖਾਇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ मैं सतगुरु पर तन-मन से न्यौछावर हूँ जिन्होंने हरि-प्रभु के दर्शन करवा दिए हैं। सतगुरु ने मेरी मनोकामना पूर्ण की है॥ १॥ रहाउ॥
ਹੋਇ ਨਿਮਾਣੀ ਢਹਿ ਪਵਾ ਪੂਰੇ ਸਤਿਗੁਰ ਪਾਸਿ ॥ मैं अत्यंत विनम्र होकर अपने सतगुरु पर के चरणों में नतमस्तक होती हूँ।
ਨਿਮਾਣਿਆ ਗੁਰੁ ਮਾਣੁ ਹੈ ਗੁਰੁ ਸਤਿਗੁਰੁ ਕਰੇ ਸਾਬਾਸਿ ॥ सतगुरु जी बेसहारा प्राणियों का एकमात्र सहारा हैं। मेरे सतगुरु ने परमात्मा से मिलन करवा दिया है, इसलिए मैं उनका गुणगान करते तृप्त नहीं होती।
ਹਉ ਗੁਰੁ ਸਾਲਾਹਿ ਨ ਰਜਊ ਮੈ ਮੇਲੇ ਹਰਿ ਪ੍ਰਭੁ ਪਾਸਿ ॥੨॥ जीवात्मा कहती है कि मेरे भीतर सतगुरु की स्तुति की भूख लगी रहती है॥ २॥
ਸਤਿਗੁਰ ਨੋ ਸਭ ਕੋ ਲੋਚਦਾ ਜੇਤਾ ਜਗਤੁ ਸਭੁ ਕੋਇ ॥ सतगुरु से समस्त प्राणी उतना ही स्नेह रखते हैं, जितना सारा जगत् एवं सृष्टिकर्ता प्रभु प्रेम करते हैं।
ਬਿਨੁ ਭਾਗਾ ਦਰਸਨੁ ਨਾ ਥੀਐ ਭਾਗਹੀਣ ਬਹਿ ਰੋਇ ॥ भाग्यहीन प्राणी दर्शन न होने के कारण अश्रु बहाते रहते हैं
ਜੋ ਹਰਿ ਪ੍ਰਭ ਭਾਣਾ ਸੋ ਥੀਆ ਧੁਰਿ ਲਿਖਿਆ ਨ ਮੇਟੈ ਕੋਇ ॥੩॥ क्योंकि जो विधाता को स्वीकार होता है तैसा ही होता है। उस परब्रह्म की आज्ञा से जो लिखा होता है, उसे कोई मिटा नहीं सकता॥ ३॥
ਆਪੇ ਸਤਿਗੁਰੁ ਆਪਿ ਹਰਿ ਆਪੇ ਮੇਲਿ ਮਿਲਾਇ ॥ हरि-परमेश्वर स्वयं ही सतगुरु है, वह स्वयं ही जिज्ञासु रूप है और स्वयं ही सत्संग द्वारा मिलन करवाता है।
ਆਪਿ ਦਇਆ ਕਰਿ ਮੇਲਸੀ ਗੁਰ ਸਤਿਗੁਰ ਪੀਛੈ ਪਾਇ ॥ हरि-परमेश्वर प्राणी पर दया करके उसे सतगुरु की शरण प्रदान करता है।
ਸਭੁ ਜਗਜੀਵਨੁ ਜਗਿ ਆਪਿ ਹੈ ਨਾਨਕ ਜਲੁ ਜਲਹਿ ਸਮਾਇ ॥੪॥੪॥੬੮॥ गुरु जी कथन करते हैं कि प्रभु-परमेश्वर ही सम्पूर्ण सृष्टि का जीवनाधार है और प्राणी को स्वयं में विलीन कर लेता है। हे नानक ! जैसे जल में जल अभेद हो जाता है वैसे ही परमात्मा का भक्त परमात्मा के भीतर ही लीन हो जाता है ॥ ४॥ ४॥ ६८ ॥
ਸਿਰੀਰਾਗੁ ਮਹਲਾ ੪ ॥ श्रीरागु महला ੪ ॥
ਰਸੁ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਨਾਮੁ ਰਸੁ ਅਤਿ ਭਲਾ ਕਿਤੁ ਬਿਧਿ ਮਿਲੈ ਰਸੁ ਖਾਇ ॥ नाम-रस अमृत समान मधुर तथा सर्वश्रेष्ठ है। इस प्रभु रूपी रस का पान करने के लिए इसे किस तरह प्राप्त किया जाए ?
ਜਾਇ ਪੁਛਹੁ ਸੋਹਾਗਣੀ ਤੁਸਾ ਕਿਉ ਕਰਿ ਮਿਲਿਆ ਪ੍ਰਭੁ ਆਇ ॥ इस जगत् की सुहागिनों से जाकर पता करूँगी कि उन्होंने प्रभु-पति की संगति क्या कर प्राप्त की है।
ਓਇ ਵੇਪਰਵਾਹ ਨ ਬੋਲਨੀ ਹਉ ਮਲਿ ਮਲਿ ਧੋਵਾ ਤਿਨ ਪਾਇ ॥੧॥ ऐसा न हो कि वे बेपरवाही से मेरी उपेक्षा करें, किन्तु मैं तो पुनः पुनः उनके चरण धोऊंगी, शायद वह प्रभु मिलन का रहस्य बता दें ॥ १॥
ਭਾਈ ਰੇ ਮਿਲਿ ਸਜਣ ਹਰਿ ਗੁਣ ਸਾਰਿ ॥ हे भाई ! मित्र गुरु से मिल तथा परमात्मा की प्रशंसा करते हुए गुणगान कर।
ਸਜਣੁ ਸਤਿਗੁਰੁ ਪੁਰਖੁ ਹੈ ਦੁਖੁ ਕਢੈ ਹਉਮੈ ਮਾਰਿ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ सतगुरु जी महापुरुष हैं, जो दु:ख, दरिद्र, कलह एवं अभिमान निवृत्त दूर करते हैं॥ १॥ रहाउ॥
ਗੁਰਮੁਖੀਆ ਸੋਹਾਗਣੀ ਤਿਨ ਦਇਆ ਪਈ ਮਨਿ ਆਇ ॥ गुरमुख आत्माएँ विवाहित जीवन का सुख एवं प्रसन्नता प्राप्त करती हैं अर्थात् प्रभु-पति को प्राप्त करके वे करुणावती हो जाती हैं। उनके हृदय में दया निवास करती है।
ਸਤਿਗੁਰ ਵਚਨੁ ਰਤੰਨੁ ਹੈ ਜੋ ਮੰਨੇ ਸੁ ਹਰਿ ਰਸੁ ਖਾਇ ॥ सच्चे गुरु की वाणी अनमोल रत्न है, जो कोई प्राणी उसे स्वीकृत करता है, वह हरि रूपी अमृत का पान करता है।
ਸੇ ਵਡਭਾਗੀ ਵਡ ਜਾਣੀਅਹਿ ਜਿਨ ਹਰਿ ਰਸੁ ਖਾਧਾ ਗੁਰ ਭਾਇ ॥੨॥ वे प्राणी बड़े भाग्यशाली हैं, जिन्होंने गुरु के कथनानुसार हरि-रस का पान किया है॥ २॥
ਇਹੁ ਹਰਿ ਰਸੁ ਵਣਿ ਤਿਣਿ ਸਭਤੁ ਹੈ ਭਾਗਹੀਣ ਨਹੀ ਖਾਇ ॥ यह हरि-रस वन-तृण सर्वत्र उपस्थित है अर्थात् सृष्टि के कण-कण में विद्यमान है। लेकिन वे प्राणी भाग्यहीन हैं जो इससे वंचित रहते हैं।
ਬਿਨੁ ਸਤਿਗੁਰ ਪਲੈ ਨਾ ਪਵੈ ਮਨਮੁਖ ਰਹੇ ਬਿਲਲਾਇ ॥ सतगुरु की दया के बिना इसकी सही पहचान असंभव है, इसलिए मनमुखी प्राणी अश्रु बहाते रहते हैं।
ਓਇ ਸਤਿਗੁਰ ਆਗੈ ਨਾ ਨਿਵਹਿ ਓਨਾ ਅੰਤਰਿ ਕ੍ਰੋਧੁ ਬਲਾਇ ॥੩॥ वे प्राणी सतगुरु के समक्ष अपना तन-मन समर्पित नहीं करते, अपितु उनके भीतर काम, क्रोध इत्यादि विकार विद्यमान रहते हैं।॥ ३॥
ਹਰਿ ਹਰਿ ਹਰਿ ਰਸੁ ਆਪਿ ਹੈ ਆਪੇ ਹਰਿ ਰਸੁ ਹੋਇ ॥ वह हरि-प्रभु ही स्वयं नाम का स्वाद है एवं स्वयं ही ईश्वरीय अमृत है।
ਆਪਿ ਦਇਆ ਕਰਿ ਦੇਵਸੀ ਗੁਰਮੁਖਿ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਚੋਇ ॥ दया करके हरि स्वयं ही गुरु के माध्यम से यह नामामृत दुहकर प्राणी को प्रदान करता है।
ਸਭੁ ਤਨੁ ਮਨੁ ਹਰਿਆ ਹੋਇਆ ਨਾਨਕ ਹਰਿ ਵਸਿਆ ਮਨਿ ਸੋਇ ॥੪॥੫॥੬੯॥ हे नानक ! प्राणी की देह एवं आत्मा मन में हरिनाम के बस जाने से हर्षित हो जाती है एवं परमात्मा उसके चित्त के भीतर समा जाता है ॥ ४ ॥ ५॥ ६९ ॥
ਸਿਰੀਰਾਗੁ ਮਹਲਾ ੪ ॥ श्रीरागु महला ੪ ॥
ਦਿਨਸੁ ਚੜੈ ਫਿਰਿ ਆਥਵੈ ਰੈਣਿ ਸਬਾਈ ਜਾਇ ॥ दिन उदय होता है एवं पुनः सूर्यास्त हो जाता है और सारी रात्रि बीत जाती है।
ਆਵ ਘਟੈ ਨਰੁ ਨਾ ਬੁਝੈ ਨਿਤਿ ਮੂਸਾ ਲਾਜੁ ਟੁਕਾਇ ॥ इस तरह उम्र कम हो रही है लेकिन मनुष्य समझता नहीं, काल रूपी मूषक प्रतिदिन जीवन की रस्सी को कुतर रहा है।
ਗੁੜੁ ਮਿਠਾ ਮਾਇਆ ਪਸਰਿਆ ਮਨਮੁਖੁ ਲਗਿ ਮਾਖੀ ਪਚੈ ਪਚਾਇ ॥੧॥ उसके आसपास माया रूपी मीठा गुड़ बिखरा पड़ा है और मक्खी की भाँति उससे चिपक कर मनमुख मानव अपना अनमोल जीवन व्यर्थ ही गंवा रहा है॥ १॥
ਭਾਈ ਰੇ ਮੈ ਮੀਤੁ ਸਖਾ ਪ੍ਰਭੁ ਸੋਇ ॥ हे भाई ! वह प्रभु ही मेरा मित्र एवं सखा है।
ਪੁਤੁ ਕਲਤੁ ਮੋਹੁ ਬਿਖੁ ਹੈ ਅੰਤਿ ਬੇਲੀ ਕੋਇ ਨ ਹੋਇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ सुपुत्रों एवं माया की ममता विष समान है। अंतकाल में प्राणी का कोई भी सहायक नहीं होता ॥ १॥ रहाउ ॥
ਗੁਰਮਤਿ ਹਰਿ ਲਿਵ ਉਬਰੇ ਅਲਿਪਤੁ ਰਹੇ ਸਰਣਾਇ ॥ जो प्राणी गुरु उपदेशानुसार पारब्रह्म से वृति लगा कर रखता है वह इस संसार से मोक्ष प्राप्त करता है और परब्रह्म के आश्रय में रहकर इस संसार से अप्रभावित रहते हैं।
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