Guru Granth Sahib Translation Project

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Page 38

ਮੁੰਧੇ ਕੂੜਿ ਮੁਠੀ ਕੂੜਿਆਰਿ ॥ जीव रूपी मुग्ध स्त्री! तू झूठ द्वारा ठगी हुई झूठी बन रही है।
ਪਿਰੁ ਪ੍ਰਭੁ ਸਾਚਾ ਸੋਹਣਾ ਪਾਈਐ ਗੁਰ ਬੀਚਾਰਿ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ सत्य व सुन्दर पति-परमात्मा गुरु के उपदेश द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है ॥ १॥ रहाउ॥
ਮਨਮੁਖਿ ਕੰਤੁ ਨ ਪਛਾਣਈ ਤਿਨ ਕਿਉ ਰੈਣਿ ਵਿਹਾਇ ॥ स्वेच्छाचारी जीव रूपी स्त्रियाँ पति-परमेश्वर को नहीं पहचानती, इसलिए उनकी जीवन रूपी रात कैसे व्यतीत हो ?
ਗਰਬਿ ਅਟੀਆ ਤ੍ਰਿਸਨਾ ਜਲਹਿ ਦੁਖੁ ਪਾਵਹਿ ਦੂਜੈ ਭਾਇ ॥ अहंकार में पूर्ण रूप से भरी हुई वह स्त्री, तृष्णाग्नि में जलती है तथा द्वैत-भाव में दु:ख पाती है।
ਸਬਦਿ ਰਤੀਆ ਸੋਹਾਗਣੀ ਤਿਨ ਵਿਚਹੁ ਹਉਮੈ ਜਾਇ ॥ जो सुहागवती स्त्रियाँ गुरु-उपदेश में रत हैं, उनके हृदय में से अहंत्व नष्ट हो जाता है।
ਸਦਾ ਪਿਰੁ ਰਾਵਹਿ ਆਪਣਾ ਤਿਨਾ ਸੁਖੇ ਸੁਖਿ ਵਿਹਾਇ ॥੨॥ वह अपने पति-परमेश्वर के आनंद को सदैव भोगती हैं, इसलिए उनका जीवन पूर्ण सुख में व्यतीत होता है ॥२॥
ਗਿਆਨ ਵਿਹੂਣੀ ਪਿਰ ਮੁਤੀਆ ਪਿਰਮੁ ਨ ਪਾਇਆ ਜਾਇ ॥ भाव उन्हें परमेश्वर द्वारा त्याग दिया जाता है और वे उसके प्रेम को प्राप्त नहीं कर पाती हैं।
ਅਗਿਆਨ ਮਤੀ ਅੰਧੇਰੁ ਹੈ ਬਿਨੁ ਪਿਰ ਦੇਖੇ ਭੁਖ ਨ ਜਾਇ ॥ उनकी बुद्धि में अज्ञानता का अंधकार है, परमात्मा को देखे बिना भौतिक पदार्थों की भूख नहीं जाती।
ਆਵਹੁ ਮਿਲਹੁ ਸਹੇਲੀਹੋ ਮੈ ਪਿਰੁ ਦੇਹੁ ਮਿਲਾਇ ॥ हे सत्संगिनों ! सत्संग में आओ और मिल कर विनती करो कि मुझे भी परमात्मा से मिला दो।
ਪੂਰੈ ਭਾਗਿ ਸਤਿਗੁਰੁ ਮਿਲੈ ਪਿਰੁ ਪਾਇਆ ਸਚਿ ਸਮਾਇ ॥੩॥ जिस जीव रूपी स्त्री को सौभाग्य से सतिगुरु की प्राप्ति होती है, उसने ही पति-परमात्मा को प्राप्त किंया है और वह सत्य स्वरूप में समा जाती है ॥ २॥
ਸੇ ਸਹੀਆ ਸੋਹਾਗਣੀ ਜਿਨ ਕਉ ਨਦਰਿ ਕਰੇਇ ॥ वे सखियाँ सुहागिन होती हैं, जिन पर परमात्मा कृपा-दृष्टि करता है।
ਖਸਮੁ ਪਛਾਣਹਿ ਆਪਣਾ ਤਨੁ ਮਨੁ ਆਗੈ ਦੇਇ ॥ वह अपना तन-मन अर्पण करके अपने पति-परमात्मा को पहचानती हैं।
ਘਰਿ ਵਰੁ ਪਾਇਆ ਆਪਣਾ ਹਉਮੈ ਦੂਰਿ ਕਰੇਇ ॥ गुरु कृपा द्वारा अहंकार दूर करके अपने हृदय रूपी घर में पति-परमात्मा पा लेती हैं।
ਨਾਨਕ ਸੋਭਾਵੰਤੀਆ ਸੋਹਾਗਣੀ ਅਨਦਿਨੁ ਭਗਤਿ ਕਰੇਇ ॥੪॥੨੮॥੬੧॥ गुरु जी कथन करते हैं कि वह यशस्वी सुहागिनें होती हैं जो प्रतिदिन पति-परमात्मा का चिन्तन करती है ॥४॥२८॥६१॥
ਸਿਰੀਰਾਗੁ ਮਹਲਾ ੩ ॥ श्रीरागु महला ३ ॥
ਇਕਿ ਪਿਰੁ ਰਾਵਹਿ ਆਪਣਾ ਹਉ ਕੈ ਦਰਿ ਪੂਛਉ ਜਾਇ ॥ कई जीव रूपी स्त्रियाँ अपने पति-परमेश्वर के साथ सुख मान रही हैं परन्तु मैं किसके द्वार पर जाकर प्रभु-मिलन की युक्ति पूछू ?
ਸਤਿਗੁਰੁ ਸੇਵੀ ਭਾਉ ਕਰਿ ਮੈ ਪਿਰੁ ਦੇਹੁ ਮਿਲਾਇ ॥ गुरु जी कथन करते हैं कि हे प्राणी ! तू श्रद्धापूर्वक सच्चे हृदय से अपने सतगुरु की सेवा कर और सतगुरु तुझ पर अपार कृपा करके तेरा परमेश्वर-पति से मिलन करवा देगा।
ਸਭੁ ਉਪਾਏ ਆਪੇ ਵੇਖੈ ਕਿਸੁ ਨੇੜੈ ਕਿਸੁ ਦੂਰਿ ॥ अकाल पुरुष समस्त जीवों का रक्षक है और उसके लिए कोई निकट एवं दूर नहीं।
ਜਿਨਿ ਪਿਰੁ ਸੰਗੇ ਜਾਣਿਆ ਪਿਰੁ ਰਾਵੇ ਸਦਾ ਹਦੂਰਿ ॥੧॥ जिस प्राणी ने अपने पति-परमेश्वर को पा लिया है, वह उसकी संगति का सदैव आनंद प्राप्त करता है ॥१॥
ਮੁੰਧੇ ਤੂ ਚਲੁ ਗੁਰ ਕੈ ਭਾਇ ॥ हे ज्ञानहीन प्राणी ! तू अपने गुरु की आज्ञानुसार कर्म करता रह, गुरु के उपदेशानुसार चलने से हे प्राणी !
ਅਨਦਿਨੁ ਰਾਵਹਿ ਪਿਰੁ ਆਪਣਾ ਸਹਜੇ ਸਚਿ ਸਮਾਇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ तुझे परमात्मा का रात-दिन सुख अनुभव होगा और तू प्रभु के हृदय में समा जाएगा ॥१॥रहाउ॥
ਸਬਦਿ ਰਤੀਆ ਸੋਹਾਗਣੀ ਸਚੈ ਸਬਦਿ ਸੀਗਾਰਿ ॥ जो जीवात्माएँ गुरु-शब्दों में लीन हैं, वही सुहागिनें हैं। वे सत्यनाम से श्रृंगार करती हैं।
ਹਰਿ ਵਰੁ ਪਾਇਨਿ ਘਰਿ ਆਪਣੈ ਗੁਰ ਕੈ ਹੇਤਿ ਪਿਆਰਿ ॥ वे गुरु के साथ प्रेम में रहने से अपने अन्तर में हरि-रूपी वर प्राप्त कर लेती हैं।
ਸੇਜ ਸੁਹਾਵੀ ਹਰਿ ਰੰਗਿ ਰਵੈ ਭਗਤਿ ਭਰੇ ਭੰਡਾਰ ॥ उनकी सेज अति सुन्दर है, जिस पर परमात्मा रूपी पति से उनका मिलन होता है और उनके पास भक्ति के अमूल्य भण्डार विद्यमान होते हैं।
ਸੋ ਪ੍ਰਭੁ ਪ੍ਰੀਤਮੁ ਮਨਿ ਵਸੈ ਜਿ ਸਭਸੈ ਦੇਇ ਅਧਾਰੁ ॥੨॥ वह प्रीतम प्रभु जो संसार के समस्त जीवों का आश्रय है, वह उनके हृदय में निवास करता है॥ २॥
ਪਿਰੁ ਸਾਲਾਹਨਿ ਆਪਣਾ ਤਿਨ ਕੈ ਹਉ ਸਦ ਬਲਿਹਾਰੈ ਜਾਉ ॥ गुरु जी कथन करते हैं कि मैं उन जीवात्माओं (प्रभु-भक्तों) पर बलिहारी जाता हूँ, जो अपने स्वामी की प्रशंसा करती हैं।
ਮਨੁ ਤਨੁ ਅਰਪੀ ਸਿਰੁ ਦੇਈ ਤਿਨ ਕੈ ਲਾਗਾ ਪਾਇ ॥ मैं उन प्रभु-भक्तों पर अपना तन-मन समर्पित करता हूँ और अपना शीश निवाता (झुकता) हूँ।
ਜਿਨੀ ਇਕੁ ਪਛਾਣਿਆ ਦੂਜਾ ਭਾਉ ਚੁਕਾਇ ॥ जिन्होंने विषय-विकार एवं द्वैत भावना त्यागकर एक पारब्रह्म को पहचान कर अपना लिया है, वह द्वैतवाद के प्रेम को अस्वीकृत कर देते हैं।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਨਾਮੁ ਪਛਾਣੀਐ ਨਾਨਕ ਸਚਿ ਸਮਾਇ ॥੩॥੨੯॥੬੨॥ गुरु जी वचन करते हैं कि हे नानक ! गुरु-उपदेश से ही पारब्रह्म का ज्ञान प्राप्त होता है और गुरु की कृपा से वह ईश्वर में लीन हो जाता है।॥३॥२९॥६२॥
ਸਿਰੀਰਾਗੁ ਮਹਲਾ ੩ ॥ श्रीरागु महला ३ ॥
ਹਰਿ ਜੀ ਸਚਾ ਸਚੁ ਤੂ ਸਭੁ ਕਿਛੁ ਤੇਰੈ ਚੀਰੈ ॥ हे पूज्य-परमेश्वर ! तू ही सत्य है और सब कुछ तेरे ही वश में है।
ਲਖ ਚਉਰਾਸੀਹ ਤਰਸਦੇ ਫਿਰੇ ਬਿਨੁ ਗੁਰ ਭੇਟੇ ਪੀਰੈ ॥ चौरासी लाख योनियों में प्राणी गुरु-मिलन के बिना सर्वत्र भटकता रहता है और प्रभु प्राप्ति के लिए डगमगाता फिरता है।
ਹਰਿ ਜੀਉ ਬਖਸੇ ਬਖਸਿ ਲਏ ਸੂਖ ਸਦਾ ਸਰੀਰੈ ॥ परमात्मा की कृपा-दृष्टि हो तो क्षमा करने पर मनुष्य देह दु:खों से निवृत्त होकर सदा सुख सागर में रहती है।
ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਸੇਵ ਕਰੀ ਸਚੁ ਗਹਿਰ ਗੰਭੀਰੈ ॥੧॥ गुरु की दया-दृष्टि से ही प्राणी सच्चे, गहर, गंभीर परम सत्य को प्राप्त करता है॥ १॥
ਮਨ ਮੇਰੇ ਨਾਮਿ ਰਤੇ ਸੁਖੁ ਹੋਇ ॥ इसलिए हे मेरे मन ! भगवान के नाम में मग्न होने से सुख की उपलब्धि होती है।
ਗੁਰਮਤੀ ਨਾਮੁ ਸਲਾਹੀਐ ਦੂਜਾ ਅਵਰੁ ਨ ਕੋਇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ गुरु उपदेशानुसार परमात्मा के नाम का यश गान करता जा, क्योकि इसके अतिरिक्त और कोई अन्य उपाय नहीं ॥ १॥ रहाउ॥
ਧਰਮ ਰਾਇ ਨੋ ਹੁਕਮੁ ਹੈ ਬਹਿ ਸਚਾ ਧਰਮੁ ਬੀਚਾਰਿ ॥ धर्मराज को सच्चे न्याय का उपदेश उसी परमात्मा ने प्रदान किया था केि सबके साथ बैठ कर एक सच्चा-न्याय कर।
ਦੂਜੈ ਭਾਇ ਦੁਸਟੁ ਆਤਮਾ ਓਹੁ ਤੇਰੀ ਸਰਕਾਰ ॥ उस महान् परमात्मा ने धर्मराज को अधिकार प्रदान किया था कि दुष्ट आत्माएँ जो लोभ, मोह, अहंकार इत्यादि विकारों में ग्रस्त हैं, वे आपके अधीन हैं भाव आप उन्हें उनके कर्मों की सजा दे सकते हैं।
ਅਧਿਆਤਮੀ ਹਰਿ ਗੁਣ ਤਾਸੁ ਮਨਿ ਜਪਹਿ ਏਕੁ ਮੁਰਾਰਿ ॥ किन्तु आध्यात्मिक रूप से इच्छुक आत्माएं उस एक परम पिता परमेश्वर का चिंतन करती हैं जो कि गुणों का खजाना है।
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