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ਤਿਨ ਕੀ ਸੇਵਾ ਧਰਮ ਰਾਇ ਕਰੈ ਧੰਨੁ ਸਵਾਰਣਹਾਰੁ ॥੨॥
प्रभु-भक्तों की धर्मराज स्वयं लगन से सेवा करता है, वे प्राणी धन्य हैं और उनका सृजनहार प्रभु धन्य-धन्य है ॥२॥
ਮਨ ਕੇ ਬਿਕਾਰ ਮਨਹਿ ਤਜੈ ਮਨਿ ਚੂਕੈ ਮੋਹੁ ਅਭਿਮਾਨੁ ॥
जिन प्राणियों ने मन के विकार मन से त्याग दिए हैं, वे मोह-अभिमान इत्यादि से मुक्त होकर निर्मल हो जाते हैं।
ਆਤਮ ਰਾਮੁ ਪਛਾਣਿਆ ਸਹਜੇ ਨਾਮਿ ਸਮਾਨੁ ॥
वे प्राणी आत्मा में ही परमात्मा को पहचान लेते हैं और सहज ही हरि नाम में लीन हो जाते हैं।
ਬਿਨੁ ਸਤਿਗੁਰ ਮੁਕਤਿ ਨ ਪਾਈਐ ਮਨਮੁਖਿ ਫਿਰੈ ਦਿਵਾਨੁ ॥
किन्तु सतगुरु के बिना प्राणी को मोक्ष प्राप्त नहीं होता, वह मनमुखी प्राणी दीवानों की तरह दर-दर भटकता रहता है।
ਸਬਦੁ ਨ ਚੀਨੈ ਕਥਨੀ ਬਦਨੀ ਕਰੇ ਬਿਖਿਆ ਮਾਹਿ ਸਮਾਨੁ ॥੩॥
वह प्राणी उस प्रभु के शब्द का चिंतन नहीं करता अपितु व्यर्थ ही वाद-विवाद करता रहता है और पापों में ग्रस्त होने के कारण उस जीव की मुक्ति नहीं होती।॥३॥
ਸਭੁ ਕਿਛੁ ਆਪੇ ਆਪਿ ਹੈ ਦੂਜਾ ਅਵਰੁ ਨ ਕੋਇ ॥
पारब्रह्म स्वयं ही सर्वस्व है और इसके अलावा अन्य कोई नहीं।
ਜਿਉ ਬੋਲਾਏ ਤਿਉ ਬੋਲੀਐ ਜਾ ਆਪਿ ਬੁਲਾਏ ਸੋਇ ॥
पारब्रह्म जैसे प्राणी को स्वयं बुलाता है, प्राणी वैसे ही बोलता है और प्राणी उसके बुलाने पर ही बोलते हैं।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਬਾਣੀ ਬ੍ਰਹਮੁ ਹੈ ਸਬਦਿ ਮਿਲਾਵਾ ਹੋਇ ॥
गुरु की वाणी स्वयं ब्रह्म है और गुरु के शब्द द्वारा ही प्रभु से मिलन होता है।
ਨਾਨਕ ਨਾਮੁ ਸਮਾਲਿ ਤੂ ਜਿਤੁ ਸੇਵਿਐ ਸੁਖੁ ਹੋਇ ॥੪॥੩੦॥੬੩॥
हे नानक ! तू उस अकाल पुरुष का नाम सिमरन कर जिसकी आराधना से तुझे शांति एवं सुख उपलब्ध होगा ॥४॥३०॥६३॥
ਸਿਰੀਰਾਗੁ ਮਹਲਾ ੩ ॥
श्रीरागु महला ३ ॥
ਜਗਿ ਹਉਮੈ ਮੈਲੁ ਦੁਖੁ ਪਾਇਆ ਮਲੁ ਲਾਗੀ ਦੂਜੈ ਭਾਇ ॥
समूचा जगत् मोह-माया में लिप्त होने के कारण अहंकार की मैल से बहुत दु:खी है।
ਮਲੁ ਹਉਮੈ ਧੋਤੀ ਕਿਵੈ ਨ ਉਤਰੈ ਜੇ ਸਉ ਤੀਰਥ ਨਾਇ ॥
सांसारिक ममत्व के कारण ही अहंकार की मैल लगती है। यह अहंकार की मैल किसी भी विधि द्वारा निवृत्त नहीं होती, चाहे प्राणी सैंकड़ों तीर्थों का भी स्नान कर ले।
ਬਹੁ ਬਿਧਿ ਕਰਮ ਕਮਾਵਦੇ ਦੂਣੀ ਮਲੁ ਲਾਗੀ ਆਇ ॥
अनेकों कर्मकाण्डों द्वारा भी यह मैल दुगुणी हो जाती है और प्राणी के साथ कर्मों के फलस्वरूप लगी ही रहती है।
ਪੜਿਐ ਮੈਲੁ ਨ ਉਤਰੈ ਪੂਛਹੁ ਗਿਆਨੀਆ ਜਾਇ ॥੧॥
धर्म ग्रंथों के अध्ययन द्वारा भी यह मलिनता दूर नहीं होती, इस बारे चाहे ब्रह्मवेताओं से पता कर लो ॥१॥
ਮਨ ਮੇਰੇ ਗੁਰ ਸਰਣਿ ਆਵੈ ਤਾ ਨਿਰਮਲੁ ਹੋਇ ॥
हे मेरे मन ! यद्यपि तू गुरु साहिब के आश्रय में आ जाओ तो इस मलिनता से निवृत्त हो सकते हो। गुरु की शरण में आने से प्राणी निर्मल हो सकता है।
ਮਨਮੁਖ ਹਰਿ ਹਰਿ ਕਰਿ ਥਕੇ ਮੈਲੁ ਨ ਸਕੀ ਧੋਇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
मनमुख प्राणी हरि के नाम का उच्चारण भले ही कितना भी करते रहे, वे इससे थक गए हैं किन्तु उनकी मलिनता निवृत नहीं हुई ॥ १॥ रहाउ ॥
ਮਨਿ ਮੈਲੈ ਭਗਤਿ ਨ ਹੋਵਈ ਨਾਮੁ ਨ ਪਾਇਆ ਜਾਇ ॥
मन अशुद्ध होने के कारण भगवान की भक्ति नहीं होती और न ही नाम (प्रभु) प्राप्त होता है।
ਮਨਮੁਖ ਮੈਲੇ ਮੈਲੇ ਮੁਏ ਜਾਸਨਿ ਪਤਿ ਗਵਾਇ ॥
मनमुख प्राणी मलिन ही जीवन व्यतीत करते हैं और फिर मलिन ही इस संसार से प्राण त्याग कर चले जाते हैं। वह अपना मान-सम्मान खो कर संसार से कूच (प्रस्थान) कर जाते हैं।
ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਮਨਿ ਵਸੈ ਮਲੁ ਹਉਮੈ ਜਾਇ ਸਮਾਇ ॥
यदि गुरु की कृपा-दृष्टि हो तो प्राणी की मलिनता नाश हो जाती है और पारब्रह्म प्राणी के हृदय में वास करता है।
ਜਿਉ ਅੰਧੇਰੈ ਦੀਪਕੁ ਬਾਲੀਐ ਤਿਉ ਗੁਰ ਗਿਆਨਿ ਅਗਿਆਨੁ ਤਜਾਇ ॥੨॥
जैसे दीपक जलाने से अंधकार में प्रकाश होता है, वैसे ही सतगुरु की कृपा-दृष्टि से अज्ञान का नाश होकर ज्ञान का आगमन होता है। सतगुरु के ज्ञान द्वारा अज्ञान रूपी अँधेरा दूर हो जाता है।॥ २॥
ਹਮ ਕੀਆ ਹਮ ਕਰਹਗੇ ਹਮ ਮੂਰਖ ਗਾਵਾਰ ॥
जो प्राणी कहते फिरते हैं कि हमने किया या हम करेंगे, वे अहंकार के कारण मूर्ख तथा गंवार हैं।
ਕਰਣੈ ਵਾਲਾ ਵਿਸਰਿਆ ਦੂਜੈ ਭਾਇ ਪਿਆਰੁ ॥
वे प्राणी कर्ता परमेश्वर को भूल गए हैं तथा ईष्या-द्वेष में लिप्त रहते हैं, जिसके कारण उन्हें दु:ख भोगने पड़ते हैं।
ਮਾਇਆ ਜੇਵਡੁ ਦੁਖੁ ਨਹੀ ਸਭਿ ਭਵਿ ਥਕੇ ਸੰਸਾਰੁ ॥
प्राणी के लिए कोई पीड़ा इतनी बड़ी नहीं जितनी माया की है, इसलिए प्राणी सारा संसार भ्रमण करके सुख संचय के प्रयास में ही लगा रहता है और धन के लोभ में भ्रष्ट होकर सारे जगत् से थक-हार कर चूर हो जाता है।
ਗੁਰਮਤੀ ਸੁਖੁ ਪਾਈਐ ਸਚੁ ਨਾਮੁ ਉਰ ਧਾਰਿ ॥੩॥
लेकिन सतगुरु के उपदेश द्वारा सत्य-नाम को हृदय में बसा कर परमात्मा मिलन का सुख प्राप्त करता है॥ ३॥
ਜਿਸ ਨੋ ਮੇਲੇ ਸੋ ਮਿਲੈ ਹਉ ਤਿਸੁ ਬਲਿਹਾਰੈ ਜਾਉ ॥
जिस पुण्यात्मा को परमात्मा प्राप्त हो जाता है, वही परमेश्वर से मिलन करवाता है, मैं उस पर बलिहारी हूँ।
ਏ ਮਨ ਭਗਤੀ ਰਤਿਆ ਸਚੁ ਬਾਣੀ ਨਿਜ ਥਾਉ ॥
इस मन के ईश्वर-भक्ति में लीन होने से सत्यवाणी द्वारा जीव निजस्वरूप में स्थिर रहता है।
ਮਨਿ ਰਤੇ ਜਿਹਵਾ ਰਤੀ ਹਰਿ ਗੁਣ ਸਚੇ ਗਾਉ ॥
मन के लीन होने से जिह्वा भी सत्यस्वरूप परमात्मा की महिमा गायन करती है।
ਨਾਨਕ ਨਾਮੁ ਨ ਵੀਸਰੈ ਸਚੇ ਮਾਹਿ ਸਮਾਉ ॥੪॥੩੧॥੬੪॥
हे नानक ! जिन्हें भगवान का नाम विस्मृत नहीं होता, वहीं सत्य में लीन होते हैं।॥ ४॥ ३१॥ ६४॥
ਸਿਰੀਰਾਗੁ ਮਹਲਾ ੪ ਘਰੁ ੧ ॥
श्रीरागु महला ੪ घरु १॥
ਮੈ ਮਨਿ ਤਨਿ ਬਿਰਹੁ ਅਤਿ ਅਗਲਾ ਕਿਉ ਪ੍ਰੀਤਮੁ ਮਿਲੈ ਘਰਿ ਆਇ ॥
मेरी आत्मा व देह विरह की दु:ख अग्नि में अत्यंत जल रही है। अब मेरा प्रियतम प्रभु किस तरह मेरे हृदय रूपी गृह में आकर मिलेगा।
ਜਾ ਦੇਖਾ ਪ੍ਰਭੁ ਆਪਣਾ ਪ੍ਰਭਿ ਦੇਖਿਐ ਦੁਖੁ ਜਾਇ ॥
जब मुझे प्रियतम (प्रभु) के दर्शन प्राप्त होते हैं, तो उसके दर्शन-मात्र से ही समस्त दुख निवृत हो जाते हैं।
ਜਾਇ ਪੁਛਾ ਤਿਨ ਸਜਣਾ ਪ੍ਰਭੁ ਕਿਤੁ ਬਿਧਿ ਮਿਲੈ ਮਿਲਾਇ ॥੧॥
जीवात्मा को अपने स्वामी (प्रभु) के दर्शनों की आकांक्षा है और वह कहती है कि मैं साधु-संतों के पास जाकर निवेदन करती हूँ कि किस विधि से मुझे प्रियतम प्रभु के दर्शन प्राप्त हो सकते हैं।॥ १॥
ਮੇਰੇ ਸਤਿਗੁਰਾ ਮੈ ਤੁਝ ਬਿਨੁ ਅਵਰੁ ਨ ਕੋਇ ॥
हे मेरे सतगुरु ! आपके बिना मेरा अन्य कोई नहीं।
ਹਮ ਮੂਰਖ ਮੁਗਧ ਸਰਣਾਗਤੀ ਕਰਿ ਕਿਰਪਾ ਮੇਲੇ ਹਰਿ ਸੋਇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
मैं मूर्ख एवं नासमझ हूँ, इसलिए आपकी शरण में आई हूँ, मुझ पर कृपा करके उस प्रीतम-प्रभु से मिलन करवा दीजिए॥ १॥ रहाउ॥
ਸਤਿਗੁਰੁ ਦਾਤਾ ਹਰਿ ਨਾਮ ਕਾ ਪ੍ਰਭੁ ਆਪਿ ਮਿਲਾਵੈ ਸੋਇ ॥
सतगुरु ही प्रभु के नाम का दाता है। सतगुरु ही आत्मा का परमात्मा से सुमेल (मिलन) करवाता है, इसलिए सतगुरु महान् है।
ਸਤਿਗੁਰਿ ਹਰਿ ਪ੍ਰਭੁ ਬੁਝਿਆ ਗੁਰ ਜੇਵਡੁ ਅਵਰੁ ਨ ਕੋਇ ॥
सतगुरु ने ही अकाल पुरुष को जान लिया है, गुरु के बिना जगत् में अन्य कोई बड़ा नहीं।
ਹਉ ਗੁਰ ਸਰਣਾਈ ਢਹਿ ਪਵਾ ਕਰਿ ਦਇਆ ਮੇਲੇ ਪ੍ਰਭੁ ਸੋਇ ॥੨॥
जीवात्मा कहती है कि मैं गुरु की शरण में नतमस्तक हूँ। अतः गुरु जी की कृपा-दृष्टि द्वारा मेरा मिलन उस परमात्मा से अवश्य होगा ॥ २॥
ਮਨਹਠਿ ਕਿਨੈ ਨ ਪਾਇਆ ਕਰਿ ਉਪਾਵ ਥਕੇ ਸਭੁ ਕੋਇ ॥
मन के हठ के कारण गुरु विहीन जीव को अकाल पुरुष कदापि प्राप्त नहीं होगा। समस्त लोग प्रत्येक उपाय करके हार गए हैं।