Guru Granth Sahib Translation Project

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ਆਦੇਸੁ ਤਿਸੈ ਆਦੇਸੁ ॥ नमस्कार है, केवल उस सर्गुण स्वरूप निरंकार को नमस्कार है।
ਆਦਿ ਅਨੀਲੁ ਅਨਾਦਿ ਅਨਾਹਤਿ ਜੁਗੁ ਜੁਗੁ ਏਕੋ ਵੇਸੁ ॥੨੯॥ जो सभी का मूल, रंग रहित, पवित्र स्वरूप, आदि रहित, अनश्वर व अपरिवर्तनीय स्वरूप है ॥२९॥
ਏਕਾ ਮਾਈ ਜੁਗਤਿ ਵਿਆਈ ਤਿਨਿ ਚੇਲੇ ਪਰਵਾਣੁ ॥ एक ब्रह्म की किसी रहस्यमयी युक्ति द्वारा माया की प्रसूति से तीन पुत्र पैदा हुए।
ਇਕੁ ਸੰਸਾਰੀ ਇਕੁ ਭੰਡਾਰੀ ਇਕੁ ਲਾਏ ਦੀਬਾਣੁ ॥ इन में से एक ब्रह्मा सृष्टि रचयिता, एक विष्णु संसार का पोषक, और एक शिव संहारक के रूप में दरबार लगाकर बैठ गया।
ਜਿਵ ਤਿਸੁ ਭਾਵੈ ਤਿਵੈ ਚਲਾਵੈ ਜਿਵ ਹੋਵੈ ਫੁਰਮਾਣੁ ॥ जिस तरह उस अकाल पुरख को भला लगता है उसी तरह वह इन तीनों को चलाता है और जैसा उसका आदेश होता है वैसा ही कार्य ये देव करते हैं।
ਓਹੁ ਵੇਖੈ ਓਨਾ ਨਦਰਿ ਨ ਆਵੈ ਬਹੁਤਾ ਏਹੁ ਵਿਡਾਣੁ ॥ वह अकाल पुरुष तो इन तीनों को आदि व अन्त समय में देख रहा है किंतु इनको वह अदृश्य स्वरूप निरंकार नज़र नहीं आता, यह अश्चर्यजनक बात है।
ਆਦੇਸੁ ਤਿਸੈ ਆਦੇਸੁ ॥ नमस्कार है, केवल उस सर्गुण स्वरूप निरंकार को नमस्कार है।
ਆਦਿ ਅਨੀਲੁ ਅਨਾਦਿ ਅਨਾਹਤਿ ਜੁਗੁ ਜੁਗੁ ਏਕੋ ਵੇਸੁ ॥੩੦॥ जो सभी का मूल, रंग रहित, पवित्र स्वरूप, आदि रहित, अनश्वर व अपरिवर्तनीय स्वरूप है॥ ३०॥
ਆਸਣੁ ਲੋਇ ਲੋਇ ਭੰਡਾਰ ॥ उसका आसन प्रत्येक लोक में है तथा प्रत्येक लोक में उसका भण्डार है।
ਜੋ ਕਿਛੁ ਪਾਇਆ ਸੁ ਏਕਾ ਵਾਰ ॥ उस परमात्मा ने सभी भण्डारों को एक ही बार परिपूर्ण कर दिया है।
ਕਰਿ ਕਰਿ ਵੇਖੈ ਸਿਰਜਣਹਾਰੁ ॥ वह सृजनहार रचना कर करके सृष्टि को देख रहा है।
ਨਾਨਕ ਸਚੇ ਕੀ ਸਾਚੀ ਕਾਰ ॥ हे नानक ! उस सत्यस्वरूप निरंकार की सम्पूर्ण रचना भी सत्य है।
ਆਦੇਸੁ ਤਿਸੈ ਆਦੇਸੁ ॥ नमस्कार है, सिर्फ़ उस सर्गुण स्वरूप निरंकार को नमस्कार है।
ਆਦਿ ਅਨੀਲੁ ਅਨਾਦਿ ਅਨਾਹਤਿ ਜੁਗੁ ਜੁਗੁ ਏਕੋ ਵੇਸੁ ॥੩੧॥ जो सभी का मूल, रंग रहित, पवित्र स्वरूप, आदि रहित, अनश्वर व अपरिवर्तनीय स्वरूप है॥ ३१॥
ਇਕ ਦੂ ਜੀਭੌ ਲਖ ਹੋਹਿ ਲਖ ਹੋਵਹਿ ਲਖ ਵੀਸ ॥ एक जिह्वा से लाख जिह्वा हो जाएँ, फिर लाख से बीस लाख हो जाएँ।
ਲਖੁ ਲਖੁ ਗੇੜਾ ਆਖੀਅਹਿ ਏਕੁ ਨਾਮੁ ਜਗਦੀਸ ॥ फिर एक-एक जिह्वा से लाख-लाख बार उस जगदीश्वर का एक नाम उच्चारण करें अर्थात् निशदिन उस प्रभु का नाम सिमरन किया जाए।
ਏਤੁ ਰਾਹਿ ਪਤਿ ਪਵੜੀਆ ਚੜੀਐ ਹੋਇ ਇਕੀਸ ॥ इस मार्ग से पति-परमेश्वर को मिलने हेतु बनी नाम रूपी सीढ़ियों पर चढ़ कर ही उस अद्वितीय प्रभु से मिलन हो सकता है।
ਸੁਣਿ ਗਲਾ ਆਕਾਸ ਕੀ ਕੀਟਾ ਆਈ ਰੀਸ ॥ वैसे तो ब्रह्म-ज्ञानियों की बड़ी-बड़ी बातें सुनकर निकृष्ट जीव भी देहाभिमान में अनुकरण करने की इच्छा रखते हैं।
ਨਾਨਕ ਨਦਰੀ ਪਾਈਐ ਕੂੜੀ ਕੂੜੈ ਠੀਸ ॥੩੨॥ परंतु गुरु नानक जी कहते हैं कि उस परमात्मा की प्राप्ति तो उसकी कृपा से ही होती है, वरन् ये तो मिथ्या लोगों की मिथ्या ही बातें है ॥ ३२ ॥
ਆਖਣਿ ਜੋਰੁ ਚੁਪੈ ਨਹ ਜੋਰੁ ॥ अकाल पुरुष की कृपा-दृष्टि के बिना इस जीव में कुछ भी कहने व चुप रहने की शक्ति नहीं है अर्थात् रसना को चला पाना जीव के वश में नहीं है।
ਜੋਰੁ ਨ ਮੰਗਣਿ ਦੇਣਿ ਨ ਜੋਰੁ ॥ माँगने की भी इसमें ताकत नहीं है और न ही कुछ देने की समर्थता है।
ਜੋਰੁ ਨ ਜੀਵਣਿ ਮਰਣਿ ਨਹ ਜੋਰੁ ॥ यदि जीव चाहे कि मैं जीवित रहूँ तो भी इसमें बल नहीं है, क्योंकि कई बार मनुष्य उपचाराधीन ही मृत्यु को प्राप्त हो जाता है, मरना भी उसके वश में नहीं है।
ਜੋਰੁ ਨ ਰਾਜਿ ਮਾਲਿ ਮਨਿ ਸੋਰੁ ॥ जिस धन, सम्पत्ति व वैभव को प्राप्त करके मन में अभिमान आता है, उसे प्राप्त करने में जीव का कोई बल नहीं है।
ਜੋਰੁ ਨ ਸੁਰਤੀ ਗਿਆਨਿ ਵੀਚਾਰਿ ॥ श्रुति वेदों के ज्ञान का विचार करने का भी इसमें बल नहीं है।
ਜੋਰੁ ਨ ਜੁਗਤੀ ਛੁਟੈ ਸੰਸਾਰੁ ॥ संसार से मुक्त होने की षट्-शास्त्रों में दी गई युक्तियाँ धारण कर लेने की शक्ति भी इसमें नहीं है।
ਜਿਸੁ ਹਥਿ ਜੋਰੁ ਕਰਿ ਵੇਖੈ ਸੋਇ ॥ जिस अकाल पुरख के हाथ में ताकत है वही रचना करके देख रहा है।
ਨਾਨਕ ਉਤਮੁ ਨੀਚੁ ਨ ਕੋਇ ॥੩੩॥ गुरु नानक जी कहते हैं कि फिर तो यही जानना चाहिए कि इस संसार में न कोई स्वेच्छा से नीच है, न उत्तम है, वह प्रभु जिस को कर्मानुसार जैसा रखता है वैसा ही वह रहता है॥ ३३॥
ਰਾਤੀ ਰੁਤੀ ਥਿਤੀ ਵਾਰ ॥ रात्रियों, ऋतुओं, तिथियों, सप्ताह के वारों,
ਪਵਣ ਪਾਣੀ ਅਗਨੀ ਪਾਤਾਲ ॥ वायु, जल, अग्नि व पाताल आदि सब प्रपंच है।
ਤਿਸੁ ਵਿਚਿ ਧਰਤੀ ਥਾਪਿ ਰਖੀ ਧਰਮ ਸਾਲ ॥ स्रष्टा प्रभु ने उस में पृथ्वी रूपी धर्मशाला स्थापित करके रखी हुई है, इसी को कर्म-भूमि कहते हैं।
ਤਿਸੁ ਵਿਚਿ ਜੀਅ ਜੁਗਤਿ ਕੇ ਰੰਗ ॥ उस धर्मशाला में नाना प्रकार के जीव हैं, जिनकी अनेक भांति की धर्म-कर्म की उपासना की युक्ति है और उनके श्वेत-श्यामादि अनेक प्रकार के वर्ण हैं।
ਤਿਨ ਕੇ ਨਾਮ ਅਨੇਕ ਅਨੰਤ ॥ उनके अनेक प्रकार के अनंत नाम हैं।
ਕਰਮੀ ਕਰਮੀ ਹੋਇ ਵੀਚਾਰੁ ॥ संसार में विचरण कर रहे उन अनेकानेक जीवों को अपने शुभाशुभ कर्मों के अनुसार ही उन पर विचार किया जाता है।
ਸਚਾ ਆਪਿ ਸਚਾ ਦਰਬਾਰੁ ॥ विचार करने वाला वह निरंकार स्वयं भी सत्य है और उसका दरबार भी सत्य है।
ਤਿਥੈ ਸੋਹਨਿ ਪੰਚ ਪਰਵਾਣੁ ॥ वही उसके दरबार में शोभायमान होते हैं जो प्रामाणिक संत हैं,
ਨਦਰੀ ਕਰਮਿ ਪਵੈ ਨੀਸਾਣੁ ॥ जिनके माथे पर कृपालु परमात्मा की कृपा का चिन्ह अंकित होता है।
ਕਚ ਪਕਾਈ ਓਥੈ ਪਾਇ ॥ प्रभु के दरबार में कच्चे-पक्के होने का परीक्षण होता है।
ਨਾਨਕ ਗਇਆ ਜਾਪੈ ਜਾਇ ॥੩੪॥ हे नानक ! इस तथ्य का निर्णय वहाँ जाकर ही होता है ॥ ३४ ॥
ਧਰਮ ਖੰਡ ਕਾ ਏਹੋ ਧਰਮੁ ॥ (कर्मकाण्ड में) धर्मखण्ड का यही नियम है; जो पूर्व पंक्तियों में कथन किया गया है l
ਗਿਆਨ ਖੰਡ ਕਾ ਆਖਹੁ ਕਰਮੁ ॥ (गुरु नानक जी) अब ज्ञान खण्ड का व्यवहार वर्णन करते हैं।
ਕੇਤੇ ਪਵਣ ਪਾਣੀ ਵੈਸੰਤਰ ਕੇਤੇ ਕਾਨ ਮਹੇਸ ॥ (इस संसार में) कितने प्रकार के पवन, जल, अग्नि हैं, और कितने ही रूप कृष्ण व रुद्र (शिव) के हैं।
ਕੇਤੇ ਬਰਮੇ ਘਾੜਤਿ ਘੜੀਅਹਿ ਰੂਪ ਰੰਗ ਕੇ ਵੇਸ ॥ कितने ही ब्रह्मा इस सृष्टि में अनेकानेक रूप-रंगों के भेष में जीव पैदा करते हैं।
ਕੇਤੀਆ ਕਰਮ ਭੂਮੀ ਮੇਰ ਕੇਤੇ ਕੇਤੇ ਧੂ ਉਪਦੇਸ ॥ कितनी ही कर्म-भूमियों, सुमेर-पर्वत, ध्रुव भक्त व उनके उपदेष्टा हैं।
ਕੇਤੇ ਇੰਦ ਚੰਦ ਸੂਰ ਕੇਤੇ ਕੇਤੇ ਮੰਡਲ ਦੇਸ ॥ इन्द्र व चंद्रमा भी कितने हैं, कितने ही सूर्य, कितने ही मण्डल व मण्डलांतर्गत देश हैं।
ਕੇਤੇ ਸਿਧ ਬੁਧ ਨਾਥ ਕੇਤੇ ਕੇਤੇ ਦੇਵੀ ਵੇਸ ॥ कितने ही सिद्ध, विद्वान व नाथ हैं, कितने ही देवियों के स्वरूप हैं।
ਕੇਤੇ ਦੇਵ ਦਾਨਵ ਮੁਨਿ ਕੇਤੇ ਕੇਤੇ ਰਤਨ ਸਮੁੰਦ ॥ कितने ही देव, दैत्य व मुनि हैं और रत्नों से भरपूर कितने ही समुद्र हैं।
ਕੇਤੀਆ ਖਾਣੀ ਕੇਤੀਆ ਬਾਣੀ ਕੇਤੇ ਪਾਤ ਨਰਿੰਦ ॥ कितने ही उत्पत्ति के स्रोत हैं (अण्डज-जरायुजादि), कितनी प्रकार की वाणी है (परा, पश्यन्ती आदि) कितने ही बादशाह हैं और कितने ही राजा हैं।
ਕੇਤੀਆ ਸੁਰਤੀ ਸੇਵਕ ਕੇਤੇ ਨਾਨਕ ਅੰਤੁ ਨ ਅੰਤੁ ॥੩੫॥ कितनी ही वेद-श्रुतियाँ हैं, उनके सेवक भी कितने ही हैं, गुरु नानक जी कहते हैं कि उसकी रचना का कोई अन्त नहीं है; इन सबके अन्त का बोध ज्ञान-खण्ड में जाने से होता है, जहाँ पर जीव ज्ञानवान हो जाता है ॥ ३५ ॥
ਗਿਆਨ ਖੰਡ ਮਹਿ ਗਿਆਨੁ ਪਰਚੰਡੁ ॥ ज्ञान खण्ड में जो ज्ञान कथित है वह प्रबल है।
ਤਿਥੈ ਨਾਦ ਬਿਨੋਦ ਕੋਡ ਅਨੰਦੁ ॥ इस खण्ड में रागमयी, प्रसन्नतापूर्ण व कौतुकी आनंद विद्यमान है।


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