Page 1367
ਕਬੀਰ ਥੋਰੈ ਜਲਿ ਮਾਛੁਲੀ ਝੀਵਰਿ ਮੇਲਿਓ ਜਾਲੁ ॥
कबीर जी उद्बोधन करते हैं- (जीव रूपी) मछली थोड़े से जल में रहती है, काल रूपी मछुआरा जाल बिछाकर पकड़ लेता है।
ਇਹ ਟੋਘਨੈ ਨ ਛੂਟਸਹਿ ਫਿਰਿ ਕਰਿ ਸਮੁੰਦੁ ਸਮ੍ਹ੍ਹਾਲਿ ॥੪੯॥
जीव देवी-देवताओं की अर्चना करके मौत से नहीं बच सकता, अतः समुद्र रूप परमात्मा का स्मरण करना चाहिए ॥ ४६ ॥
ਕਬੀਰ ਸਮੁੰਦੁ ਨ ਛੋਡੀਐ ਜਉ ਅਤਿ ਖਾਰੋ ਹੋਇ ॥
कबीर जी समझाते हैं कि चाहे पानी कितना ही खारा हो (अर्थात् कितनी ही मुसीबतों का सामना करना पड़े) परमात्मा रूपी समुद्र को नहीं छोड़ना चाहिए।
ਪੋਖਰਿ ਪੋਖਰਿ ਢੂਢਤੇ ਭਲੋ ਨ ਕਹਿਹੈ ਕੋਇ ॥੫੦॥
दरअसल छोटे-छोटे तालाबों (देवी-देवताओं) का आसरा ढूंढने से कोई भला नहीं होता ॥ ५० ॥
ਕਬੀਰ ਨਿਗੁਸਾਂਏਂ ਬਹਿ ਗਏ ਥਾਂਘੀ ਨਾਹੀ ਕੋਇ ॥
कबीर जी कहते हैं कि निगुरे लोग संसार-समुद्र में बह गए हैं, दरअसल लंघाने वाला उनका कोई गुरु रूपी खेवट नहीं था।
ਦੀਨ ਗਰੀਬੀ ਆਪੁਨੀ ਕਰਤੇ ਹੋਇ ਸੁ ਹੋਇ ॥੫੧॥
हमें अपने धर्म एवं विनम्रता में अडिग रहना चाहिए, जो परमात्मा करता है, उसे खुशी-खुशी मानना चाहिए॥ ५१ ॥
ਕਬੀਰ ਬੈਸਨਉ ਕੀ ਕੂਕਰਿ ਭਲੀ ਸਾਕਤ ਕੀ ਬੁਰੀ ਮਾਇ ॥
हे कबीर ! वैष्णव की कुतिया भली एवं खुशकिस्मत है, परन्तु मायावी पुरुष की माँ बहुत बुरी है,
ਓਹ ਨਿਤ ਸੁਨੈ ਹਰਿ ਨਾਮ ਜਸੁ ਉਹ ਪਾਪ ਬਿਸਾਹਨ ਜਾਇ ॥੫੨॥
क्योंकि कुतिया तो नित्य परमात्मा का यशोगान सुनती है, लेकिन माँ अपने पुत्र के पापों की कमाई में हिस्सेदार बन जाती है।॥ ५२ ॥
ਕਬੀਰ ਹਰਨਾ ਦੂਬਲਾ ਇਹੁ ਹਰੀਆਰਾ ਤਾਲੁ ॥
हे कबीर ! जीव रूपी हिरण बहुत कमजोर है, संसार रूपी ताल विषय-विकारों के जल से हरियाला है।
ਲਾਖ ਅਹੇਰੀ ਏਕੁ ਜੀਉ ਕੇਤਾ ਬੰਚਉ ਕਾਲੁ ॥੫੩॥
जीव तो अकेला है परन्तु उसे लाखों ही पदार्थ रूपी शिकारी फॅसाने वाले हैं, फिर यह बेचारा कब तक काल से बच सकता है ॥ ५३ ॥
ਕਬੀਰ ਗੰਗਾ ਤੀਰ ਜੁ ਘਰੁ ਕਰਹਿ ਪੀਵਹਿ ਨਿਰਮਲ ਨੀਰੁ ॥
कबीर जी कथन करते हैं कि यदि गंगा के किनारे अपना घर बना लिया जाए तो रोज़ पावन जल का पान हो सकता है।
ਬਿਨੁ ਹਰਿ ਭਗਤਿ ਨ ਮੁਕਤਿ ਹੋਇ ਇਉ ਕਹਿ ਰਮੇ ਕਬੀਰ ॥੫੪॥
लेकिन हरि-भक्ति के बिना मुक्ति नहीं होती, यह कहकर कबीर जी राम-राम करते चले गए ॥ ५४॥
ਕਬੀਰ ਮਨੁ ਨਿਰਮਲੁ ਭਇਆ ਜੈਸਾ ਗੰਗਾ ਨੀਰੁ ॥
कबीर जी कहते हैं कि मेरा मन गंगाजल की तरह पावन हो गया है और
ਪਾਛੈ ਲਾਗੋ ਹਰਿ ਫਿਰੈ ਕਹਤ ਕਬੀਰ ਕਬੀਰ ॥੫੫॥
कबीर -कबीर कहता प्रभु मेरे पीछे लग गया है॥ ५५ ॥
ਕਬੀਰ ਹਰਦੀ ਪੀਅਰੀ ਚੂੰਨਾਂ ਊਜਲ ਭਾਇ ॥
कबीर जी कथन करते हैं- हल्दी पीली एवं चूना सफेद रंग का होता है।
ਰਾਮ ਸਨੇਹੀ ਤਉ ਮਿਲੈ ਦੋਨਉ ਬਰਨ ਗਵਾਇ ॥੫੬॥
जब रंग-भेद एवं ऊँची-नीची जाति के भेदभाव को दूर कर दिया जाता है तो भक्त परमात्मा में मिलकर दोनों एक रूप हो जाते हैं ॥ ५६ ॥
ਕਬੀਰ ਹਰਦੀ ਪੀਰਤਨੁ ਹਰੈ ਚੂਨ ਚਿਹਨੁ ਨ ਰਹਾਇ ॥
कबीर जी कथन करते हैं- हल्दी अपना पीलापन छोड़ देती है और चूने में सफेद रंग नहीं रहता।
ਬਲਿਹਾਰੀ ਇਹ ਪ੍ਰੀਤਿ ਕਉ ਜਿਹ ਜਾਤਿ ਬਰਨੁ ਕੁਲੁ ਜਾਇ ॥੫੭॥
ऐसा प्रेम करने वालों पर मैं कुर्बान जाता हूँ, जिससे ऊँची एवं निम्न जाति, कुल एवं वर्ण का भेद मिट जाता है।॥ ५७ ॥
ਕਬੀਰ ਮੁਕਤਿ ਦੁਆਰਾ ਸੰਕੁਰਾ ਰਾਈ ਦਸਏਂ ਭਾਇ ॥
कबीर जी समझाते हैं कि मुक्ति का द्वार राई के दसवें भाग के बराबर तंग है।
ਮਨੁ ਤਉ ਮੈਗਲੁ ਹੋਇ ਰਹਿਓ ਨਿਕਸੋ ਕਿਉ ਕੈ ਜਾਇ ॥੫੮॥
मन अभिमान करके हाथी समान बड़ा हो रहा है तो फिर वह तंग रास्ते में क्योंकर निकल सकता है॥ ५८ ॥
ਕਬੀਰ ਐਸਾ ਸਤਿਗੁਰੁ ਜੇ ਮਿਲੈ ਤੁਠਾ ਕਰੇ ਪਸਾਉ ॥
कबीर जी सन्मार्ग बताते हुए कहते हैं कि यदि कोई ऐसा सतिगुरु मिल जाए जो प्रसन्न होकर कृपा करे तो
ਮੁਕਤਿ ਦੁਆਰਾ ਮੋਕਲਾ ਸਹਜੇ ਆਵਉ ਜਾਉ ॥੫੯॥
मुक्ति का द्वार खुला हो जाएगा और उस में से सुगम ही आया-जाया जा सकता है॥ ५६
ਕਬੀਰ ਨਾ ਮੋੁਹਿ ਛਾਨਿ ਨ ਛਾਪਰੀ ਨਾ ਮੋੁਹਿ ਘਰੁ ਨਹੀ ਗਾਉ ॥
कबीर जी कहते हैं- न मेरी कोई कुटिया अथवा झोंपड़ी है, न मेरा कोई घर है और न ही रहने को गाँव है।
ਮਤ ਹਰਿ ਪੂਛੈ ਕਉਨੁ ਹੈ ਮੇਰੇ ਜਾਤਿ ਨ ਨਾਉ ॥੬੦॥
यदि ईश्वर ने पूछ लिया कि तू कौन है ? तो मेरी कोई जाति एवं नाम भी नहीं फिर भला मैं क्या बताऊँगा कि कौन हूँ॥ ६० ॥
ਕਬੀਰ ਮੁਹਿ ਮਰਨੇ ਕਾ ਚਾਉ ਹੈ ਮਰਉ ਤ ਹਰਿ ਕੈ ਦੁਆਰ ॥
कबीर जी कहते हैं- मुझे मरने का बहुत चाव है परन्तु मुझे ईश्वर के द्वार पर मरने की ख्वाहिश है।
ਮਤ ਹਰਿ ਪੂਛੈ ਕਉਨੁ ਹੈ ਪਰਾ ਹਮਾਰੈ ਬਾਰ ॥੬੧॥
वो इसलिए शायद परमात्मा पूछ ले कि हमारे द्वार पर कौन पड़ा हुआ है॥ ६१
ਕਬੀਰ ਨਾ ਹਮ ਕੀਆ ਨ ਕਰਹਿਗੇ ਨਾ ਕਰਿ ਸਕੈ ਸਰੀਰੁ ॥
कबीर जी कहते हैं- न मैंने कुछ (अतीत में) किया है, न ही (भविष्य में) कुछ कर सकूंगा और न ही मेरा शरीर कुछ कर सकता है।
ਕਿਆ ਜਾਨਉ ਕਿਛੁ ਹਰਿ ਕੀਆ ਭਇਓ ਕਬੀਰੁ ਕਬੀਰੁ ॥੬੨॥
मैं यह भी नहीं जानता, सब परमात्मा ने ही किया, जिससे दुनिया में कबीर के नाम से मशहूर हो गया हूँ॥ ६२॥
ਕਬੀਰ ਸੁਪਨੈ ਹੂ ਬਰੜਾਇ ਕੈ ਜਿਹ ਮੁਖਿ ਨਿਕਸੈ ਰਾਮੁ ॥
कबीर जी कथन करते हैं- सपने में बड़बड़ाते हुए जिस व्यक्ति के मुँह से राम नाम निकले तो
ਤਾ ਕੇ ਪਗ ਕੀ ਪਾਨਹੀ ਮੇਰੇ ਤਨ ਕੋ ਚਾਮੁ ॥੬੩॥
हमारी इच्छा है कि हमारे शरीर की चमड़ी उसके पैरों की जूती बन जाए॥ ६३ ॥
ਕਬੀਰ ਮਾਟੀ ਕੇ ਹਮ ਪੂਤਰੇ ਮਾਨਸੁ ਰਾਖਿਓੁ ਨਾਉ ॥
कबीर जी बतलाते हैं- हम मिट्टी के पुतले हैं और हमारा नाम मनुष्य रखा हुआ है,
ਚਾਰਿ ਦਿਵਸ ਕੇ ਪਾਹੁਨੇ ਬਡ ਬਡ ਰੂੰਧਹਿ ਠਾਉ ॥੬੪॥
चार दिन के लिए इस संसार में मेहमान के तौर पर आए हैं लेकिन अधिकाधिक स्थानों पर कब्जा जमाने का कार्य करते हैं।॥ ६४ ॥
ਕਬੀਰ ਮਹਿਦੀ ਕਰਿ ਘਾਲਿਆ ਆਪੁ ਪੀਸਾਇ ਪੀਸਾਇ ॥
कबीर जी कहते हैं- मेहंदी की तरह अपने शरीर को पीस-पीस कर (जप-तप करके) मेहनत की।
ਤੈ ਸਹ ਬਾਤ ਨ ਪੂਛੀਐ ਕਬਹੁ ਨ ਲਾਈ ਪਾਇ ॥੬੫॥
परन्तु फिर भी हे प्रभु ! तूने हमारी बात न पूछी और न ही मेहनत करके पीसी हुई मेहंदी को कभी पैरों में लगाया ॥ ६५ ॥
ਕਬੀਰ ਜਿਹ ਦਰਿ ਆਵਤ ਜਾਤਿਅਹੁ ਹਟਕੈ ਨਾਹੀ ਕੋਇ ॥
हे कबीर ! जिस दर पर आने-जाने में कोई नहीं रोकता,
ਸੋ ਦਰੁ ਕੈਸੇ ਛੋਡੀਐ ਜੋ ਦਰੁ ਐਸਾ ਹੋਇ ॥੬੬॥
जो प्रभु का दर ऐसा हो, उस दर को कैसे छोड़ा जा सकता है॥ ६६ ॥
ਕਬੀਰ ਡੂਬਾ ਥਾ ਪੈ ਉਬਰਿਓ ਗੁਨ ਕੀ ਲਹਰਿ ਝਬਕਿ ॥
कबीर जी कथन करते हैं- मैं संसार-समुद्र में डूबने ही वाला था लेकिन हरि-गुणगान की लहरों के धक्के से बच गया।