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ਜਿਨਿ ਨਾਮੁ ਦੀਆ ਤਿਸੁ ਸੇਵਸਾ ਤਿਸੁ ਬਲਿਹਾਰੈ ਜਾਉ ॥
जिनि नामु दीआ तिसु सेवसा तिसु बलिहारै जाउ ॥
जिसने मुझे नाम दिया है, उसकी ही सेवा करती हूँ और उस पर ही बलिहारी जाती हूँ।
ਜੋ ਉਸਾਰੇ ਸੋ ਢਾਹਸੀ ਤਿਸੁ ਬਿਨੁ ਅਵਰੁ ਨ ਕੋਇ ॥
जो उसारे सो ढाहसी तिसु बिनु अवरु न कोइ ॥
जो दुनिया को बनाता है, वही उसका नाश करने वाला है, उसके अतिरिक्त अन्य कोई समर्थ नहीं।
ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਤਿਸੁ ਸੰਮ੍ਹ੍ਲਾ ਤਾ ਤਨਿ ਦੂਖੁ ਨ ਹੋਇ ॥੩੧॥
गुर परसादी तिसु सम्हला ता तनि दूखु न होइ ॥३१॥
गुरु की कृपा से उसका ध्यान-मनन किया जाए तो तन को कोई दुःख नहीं होता ॥ ३१॥
ਣਾ ਕੋ ਮੇਰਾ ਕਿਸੁ ਗਹੀ ਣਾ ਕੋ ਹੋਆ ਨ ਹੋਗੁ ॥
णा को मेरा किसु गही णा को होआ न होगु ॥
मैं किसका सहारा लूँ ? कोई भी मेरा अपना नहीं हैं। भगवान् के अतिरिक्त न कोई साथी था और न ही कभी कोई होगा।
ਆਵਣਿ ਜਾਣਿ ਵਿਗੁਚੀਐ ਦੁਬਿਧਾ ਵਿਆਪੈ ਰੋਗੁ ॥
आवणि जाणि विगुचीऐ दुबिधा विआपै रोगु ॥
जीव जन्म-मरण के चक्र में नष्ट होता रहता है और उसे दुविधा का रोग सताता रहता है।
ਣਾਮ ਵਿਹੂਣੇ ਆਦਮੀ ਕਲਰ ਕੰਧ ਗਿਰੰਤਿ ॥
णाम विहूणे आदमी कलर कंध गिरंति ॥
नामविहीन आदमी रेत की दीवार की तरह ध्वस्त हो जाता है।
ਵਿਣੁ ਨਾਵੈ ਕਿਉ ਛੂਟੀਐ ਜਾਇ ਰਸਾਤਲਿ ਅੰਤਿ ॥
विणु नावै किउ छूटीऐ जाइ रसातलि अंति ॥
जो व्यक्ति श्रद्धा से भगवान् के नाम का स्मरण नहीं करता, वह संसार के बंधनों से कैसे छूट सकता है? अंततः उसे नरक तुल्य पीड़ा सहनी पड़ती है।
ਗਣਤ ਗਣਾਵੈ ਅਖਰੀ ਅਗਣਤੁ ਸਾਚਾ ਸੋਇ ॥
गणत गणावै अखरी अगणतु साचा सोइ ॥
यह सच्चा परमेश्वर अनंत है, किन्तु जीव अक्षरों द्वारा गिनती करता रहता है।
ਅਗਿਆਨੀ ਮਤਿਹੀਣੁ ਹੈ ਗੁਰ ਬਿਨੁ ਗਿਆਨੁ ਨ ਹੋਇ ॥
अगिआनी मतिहीणु है गुर बिनु गिआनु न होइ ॥
अज्ञानी जीव मतिहीन है और गुरु के बिना उसे ज्ञान नहीं होता।
ਤੂਟੀ ਤੰਤੁ ਰਬਾਬ ਕੀ ਵਾਜੈ ਨਹੀ ਵਿਜੋਗਿ ॥
तूटी तंतु रबाब की वाजै नही विजोगि ॥
जैसे रबाब की टूटी हुई तार टूटने के कारण बजती ही नहीं,वैसे ही जो मन ईश्वर से दूर है, वह न तो ध्यान में स्थिर हो सकता है, न ही दिव्यता को प्रकट कर सकता है।
ਵਿਛੁੜਿਆ ਮੇਲੈ ਪ੍ਰਭੂ ਨਾਨਕ ਕਰਿ ਸੰਜੋਗ ॥੩੨॥
विछुड़िआ मेलै प्रभू नानक करि संजोग ॥३२॥
हे नानक ! वैसे ही प्रभु संयोग बनाकर बिछुड़े जीवों को अपने साथ मिला लेते हैं। ॥३२॥
ਤਰਵਰੁ ਕਾਇਆ ਪੰਖਿ ਮਨੁ ਤਰਵਰਿ ਪੰਖੀ ਪੰਚ ॥
तरवरु काइआ पंखि मनु तरवरि पंखी पंच ॥
यह शरीर एक वृक्ष है और मन पक्षी है। पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ रूपी अन्य साथी पक्षी भी इस पर बैठे हुए हैं।
ਤਤੁ ਚੁਗਹਿ ਮਿਲਿ ਏਕਸੇ ਤਿਨ ਕਉ ਫਾਸ ਨ ਰੰਚ ॥
ततु चुगहि मिलि एकसे तिन कउ फास न रंच ॥
जब वे पाँचों के साथ मिल कर तत्व-ज्ञान रूपी फल चुगते रहते हैं तो इन्हें किंचित मात्र भी माया का फंदा नहीं पड़ता।
ਉਡਹਿ ਤ ਬੇਗੁਲ ਬੇਗੁਲੇ ਤਾਕਹਿ ਚੋਗ ਘਣੀ ॥
उडहि त बेगुल बेगुले ताकहि चोग घणी ॥
जो लोग अधिक चारे की लालच में बिना विवेक के उड़ पड़ते हैं, वे यह नहीं समझ पाते कि वह चारा माया रूपी जाल में बिछा हुआ है।
ਪੰਖ ਤੁਟੇ ਫਾਹੀ ਪੜੀ ਅਵਗੁਣਿ ਭੀੜ ਬਣੀ ॥
पंख तुटे फाही पड़ी अवगुणि भीड़ बणी ॥
उनके पंख टूट जाते हैं, वे उड़ने में असमर्थ हो जाते हैं; माया की मृत्यु-जाल में फँसकर, वे लालच की प्रवृत्ति के कारण भारी संकट में पड़ जाते हैं।
ਬਿਨੁ ਸਾਚੇ ਕਿਉ ਛੂਟੀਐ ਹਰਿ ਗੁਣ ਕਰਮਿ ਮਣੀ ॥
बिनु साचे किउ छूटीऐ हरि गुण करमि मणी ॥
जब तक कोई ईश्वर की स्तुति नहीं करता, वह संकट से मुक्त नहीं हो सकता; परंतु स्तुति करने की प्रेरणा भी केवल प्रभु की कृपा से ही प्राप्त होती है।
ਆਪਿ ਛਡਾਏ ਛੂਟੀਐ ਵਡਾ ਆਪਿ ਧਣੀ ॥
आपि छडाए छूटीऐ वडा आपि धणी ॥
वह मालिक-प्रभु स्वयं महान है, यदि वह स्वयं बन्धनों से मुक्त कराए तो ही छुटकारा हो सकता है।
ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਛੂਟੀਐ ਕਿਰਪਾ ਆਪਿ ਕਰੇਇ ॥
गुर परसादी छूटीऐ किरपा आपि करेइ ॥
जब वह स्वयं कृपा करते हैं तो गुरु की कृपा से जीव बन्धनों से छूट जाता है।
ਅਪਣੈ ਹਾਥਿ ਵਡਾਈਆ ਜੈ ਭਾਵੈ ਤੈ ਦੇਇ ॥੩੩॥
अपणै हाथि वडाईआ जै भावै तै देइ ॥३३॥
स्तुति करने का उपहार केवल उसकी इच्छा पर निर्भर है, और वह इसे केवल उन्हीं को देता है जो उसकी प्रीति अर्जित करते हैं। ॥ ३३ ॥
ਥਰ ਥਰ ਕੰਪੈ ਜੀਅੜਾ ਥਾਨ ਵਿਹੂਣਾ ਹੋਇ ॥
थर थर क्मपै जीअड़ा थान विहूणा होइ ॥
जब असहाय प्राणी ईश्वर का सहारा खो देता है, तो वह भय से कांप उठता है;
ਥਾਨਿ ਮਾਨਿ ਸਚੁ ਏਕੁ ਹੈ ਕਾਜੁ ਨ ਫੀਟੈ ਕੋਇ ॥
थानि मानि सचु एकु है काजु न फीटै कोइ ॥
परंतु जिसे सत्य परमेश्वर ही इसे शरण एवं आदर देते हैं और फिर इसका कोई कार्य नहीं बिगड़ता।
ਥਿਰੁ ਨਾਰਾਇਣੁ ਥਿਰੁ ਗੁਰੂ ਥਿਰੁ ਸਾਚਾ ਬੀਚਾਰੁ ॥
थिरु नाराइणु थिरु गुरू थिरु साचा बीचारु ॥
वह नारायण स्थिर है, गुरु स्थिर है एवं उनके विचार शाश्वत हैं।
ਸੁਰਿ ਨਰ ਨਾਥਹ ਨਾਥੁ ਤੂ ਨਿਧਾਰਾ ਆਧਾਰੁ ॥
सुरि नर नाथह नाथु तू निधारा आधारु ॥
है परमेश्वर ! आप देवदूतों, मनुष्यों और योगियों के स्वामी हैं, आप दीन-दुखियों के आश्रय हैं।
ਸਰਬੇ ਥਾਨ ਥਨੰਤਰੀ ਤੂ ਦਾਤਾ ਦਾਤਾਰੁ ॥
सरबे थान थनंतरी तू दाता दातारु ॥
विश्व के सब स्थानों में आपका ही वास है और सभी समर्थकों के हितैषी हैं।
ਜਹ ਦੇਖਾ ਤਹ ਏਕੁ ਤੂ ਅੰਤੁ ਨ ਪਾਰਾਵਾਰੁ ॥
जह देखा तह एकु तू अंतु न पारावारु ॥
जिधर भी देखता हूँ, वहाँ केवल आप ही है और आपक विस्तार का कोई अन्त एवं सीमा नहीं है।
ਥਾਨ ਥਨੰਤਰਿ ਰਵਿ ਰਹਿਆ ਗੁਰ ਸਬਦੀ ਵੀਚਾਰਿ ॥
थान थनंतरि रवि रहिआ गुर सबदी वीचारि ॥
ईश्वर सर्वव्यापक हैं, पर इस तथ्य का ज्ञान गुरु के शब्द से ही होता है।
ਅਣਮੰਗਿਆ ਦਾਨੁ ਦੇਵਸੀ ਵਡਾ ਅਗਮ ਅਪਾਰੁ ॥੩੪॥
अणमंगिआ दानु देवसी वडा अगम अपारु ॥३४॥
वह अगम्य अपार परमेश्वर इतने महान हैं कि बिना माँगे ही जीवों को दान देते रहते हैं।॥ ३४ ॥
ਦਇਆ ਦਾਨੁ ਦਇਆਲੁ ਤੂ ਕਰਿ ਕਰਿ ਦੇਖਣਹਾਰੁ ॥
दइआ दानु दइआलु तू करि करि देखणहारु ॥
हे परम पिता ! आप करुणामय, उदार और दयालु हैं; सृजन के उपरांत आप उसकी देखभाल करते हैं।
ਦਇਆ ਕਰਹਿ ਪ੍ਰਭ ਮੇਲਿ ਲੈਹਿ ਖਿਨ ਮਹਿ ਢਾਹਿ ਉਸਾਰਿ ॥
दइआ करहि प्रभ मेलि लैहि खिन महि ढाहि उसारि ॥
हे प्रभु ! जिस पर आप दया करते हैं, उसे साथ मिला लेते हैं, आप अपनी इच्छा से एक क्षण में ही बनाकर नष्ट कर देते हैं।
ਦਾਨਾ ਤੂ ਬੀਨਾ ਤੁਹੀ ਦਾਨਾ ਕੈ ਸਿਰਿ ਦਾਨੁ ॥
दाना तू बीना तुही दाना कै सिरि दानु ॥
आप ही चतुर एवं सर्वज्ञाता है, आप संसार में सबसे बड़े दानवीर है।
ਦਾਲਦ ਭੰਜਨ ਦੁਖ ਦਲਣ ਗੁਰਮੁਖਿ ਗਿਆਨੁ ਧਿਆਨੁ ॥੩੫॥
दालद भंजन दुख दलण गुरमुखि गिआनु धिआनु ॥३५॥
आप दरिद्रता को मिटाने वाले और दुःखों को नाश करने वाले हैं, गुरु के माध्यम से ही जीव को ज्ञान-ध्यान की प्राप्ति होती हैं ॥३५ ॥
ਧਨਿ ਗਇਐ ਬਹਿ ਝੂਰੀਐ ਧਨ ਮਹਿ ਚੀਤੁ ਗਵਾਰ ॥
धनि गइऐ बहि झूरीऐ धन महि चीतु गवार ॥
मूर्ख आदमी का चित्त हर समय सांसारिक धन में ही लगा रहता है और धन के चले जाने से वह बहुत दुःखी होता हैं।
ਧਨੁ ਵਿਰਲੀ ਸਚੁ ਸੰਚਿਆ ਨਿਰਮਲੁ ਨਾਮੁ ਪਿਆਰਿ ॥
धनु विरली सचु संचिआ निरमलु नामु पिआरि ॥
किसी विरले ने ही नाम रुपी सच्चा धन संचित किया है और प्रभु के निर्मल नाम से ही प्यार लगाया हुआ हैं।
ਧਨੁ ਗਇਆ ਤਾ ਜਾਣ ਦੇਹਿ ਜੇ ਰਾਚਹਿ ਰੰਗਿ ਏਕ ॥
धनु गइआ ता जाण देहि जे राचहि रंगि एक ॥
यदि मन प्रभु के रंग में लीन है तो धन चले जाने से कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
ਮਨੁ ਦੀਜੈ ਸਿਰੁ ਸਉਪੀਐ ਭੀ ਕਰਤੇ ਕੀ ਟੇਕ ॥
मनु दीजै सिरु सउपीऐ भी करते की टेक ॥
मन अर्पित करके, अपना सिर सौंपकर भी जीव ईश्वर का सहारा ही लेता है।
ਧੰਧਾ ਧਾਵਤ ਰਹਿ ਗਏ ਮਨ ਮਹਿ ਸਬਦੁ ਅਨੰਦੁ ॥
धंधा धावत रहि गए मन महि सबदु अनंदु ॥
गुरु के दिव्य वचनों से मन युक्त होने पर, व्यक्ति में आनंद उत्पन्न होता है और सांसारिक उलझनों की सारी भटकन खत्म हो जाती है।
ਦੁਰਜਨ ਤੇ ਸਾਜਨ ਭਏ ਭੇਟੇ ਗੁਰ ਗੋਵਿੰਦ ॥
दुरजन ते साजन भए भेटे गुर गोविंद ॥
जब गोविंद गुरु से भेंट हो जाए तो दुर्जन भी सज्जन बन जाते हैं।
ਬਨੁ ਬਨੁ ਫਿਰਤੀ ਢੂਢਤੀ ਬਸਤੁ ਰਹੀ ਘਰਿ ਬਾਰਿ ॥
बनु बनु फिरती ढूढती बसतु रही घरि बारि ॥
जिस नाम रूपी वस्तु को ढूँढती हुई वन-वन में भटक रही थी, वह वस्तु तो हृदय-घर में ही मिल गई।
ਸਤਿਗੁਰਿ ਮੇਲੀ ਮਿਲਿ ਰਹੀ ਜਨਮ ਮਰਣ ਦੁਖੁ ਨਿਵਾਰਿ ॥੩੬॥
सतिगुरि मेली मिलि रही जनम मरण दुखु निवारि ॥३६॥
जब से सतगुरु ने परम सत्य से मिलाप करवाया है, जन्म-मरण का दुःख दूर हो गया है ॥३६॥
ਨਾਨਾ ਕਰਤ ਨ ਛੂਟੀਐ ਵਿਣੁ ਗੁਣ ਜਮ ਪੁਰਿ ਜਾਹਿ ॥
नाना करत न छूटीऐ विणु गुण जम पुरि जाहि ॥
अनेक प्रकार के कर्मकाण्ड करने से बन्धनों से छुटकारा नहीं होता और भक्ति के बिना मनुष्य को अत्यंत पीड़ा होती है, जैसे वह मृत्यु के दानव के राज्य में रहता हो।
ਨਾ ਤਿਸੁ ਏਹੁ ਨ ਓਹੁ ਹੈ ਅਵਗੁਣਿ ਫਿਰਿ ਪਛੁਤਾਹਿ ॥
ना तिसु एहु न ओहु है अवगुणि फिरि पछुताहि ॥
न ही उसका इहलोक और न ही परलोक संवरता है, अवगुणों के कारण वह पछताता है।