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ਜਾਪੈ ਆਪਿ ਪ੍ਰਭੂ ਤਿਹੁ ਲੋਇ ॥
जापै आपि प्रभू तिहु लोइ ॥
तीनों लोकों में प्रभु स्वयं ही व्यापत हैं।
ਜੁਗਿ ਜੁਗਿ ਦਾਤਾ ਅਵਰੁ ਨ ਕੋਇ ॥
जुगि जुगि दाता अवरु न कोइ ॥
युग-युगान्तर केवल वही परोपकारी हैं और उसके अतिरिक्त अन्य कोई नहीं है।
ਜਿਉ ਭਾਵੈ ਤਿਉ ਰਾਖਹਿ ਰਾਖੁ ॥
जिउ भावै तिउ राखहि राखु ॥
हे जगत् के रखवाले ! जैसे आपकी इच्छा होती है, वैसे ही आप जीवों को रखते हैं।
ਜਸੁ ਜਾਚਉ ਦੇਵੈ ਪਤਿ ਸਾਖੁ ॥
जसु जाचउ देवै पति साखु ॥
मैं आपकी स्तुति प्राप्त करना चाहता हूँ, जिससे मुझे गौरव और प्रतिष्ठा मिलती है।
ਜਾਗਤੁ ਜਾਗਿ ਰਹਾ ਤੁਧੁ ਭਾਵਾ ॥
जागतु जागि रहा तुधु भावा ॥
मैं यह प्रार्थना करता हूँ कि मैं हमेशा विकारों के प्रति सतर्क रहूँ और आपको खुश कर सकूँ।
ਜਾ ਤੂ ਮੇਲਹਿ ਤਾ ਤੁਝੈ ਸਮਾਵਾ ॥
जा तू मेलहि ता तुझै समावा ॥
यदि आप अपने साथ मिला ले तो मैं आप में ही विलीन हो जाऊँ।
ਜੈ ਜੈ ਕਾਰੁ ਜਪਉ ਜਗਦੀਸ ॥
जै जै कारु जपउ जगदीस ॥
हे जगदीश ! मैं आपकी ही जय-जयकार करता रहूँ और आपका ही नाम जपता रहूँ।
ਗੁਰਮਤਿ ਮਿਲੀਐ ਬੀਸ ਇਕੀਸ ॥੨੫॥
गुरमति मिलीऐ बीस इकीस ॥२५॥
गुरु की आज्ञाओं का पालन करने वाला व्यक्ति अवश्य ही परमेश्वर को प्राप्त करता है। ॥२५ ॥
ਝਖਿ ਬੋਲਣੁ ਕਿਆ ਜਗ ਸਿਉ ਵਾਦੁ ॥
झखि बोलणु किआ जग सिउ वादु ॥
जगत् से वाद-विवाद करने का क्या अभिप्राय है? यह व्यर्थ की बात के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।
ਝੂਰਿ ਮਰੈ ਦੇਖੈ ਪਰਮਾਦੁ ॥
झूरि मरै देखै परमादु ॥
जो इसमें संलग्न होता है, वह अपने अहंकार के संघर्ष में उलझा रहता है और आध्यात्मिक रूप से नष्ट हो जाता है।
ਜਨਮਿ ਮੂਏ ਨਹੀ ਜੀਵਣ ਆਸਾ ॥
जनमि मूए नही जीवण आसा ॥
वह जन्म-मरण में पड़ा रहता हैं परन्तु वास्तविक आध्यात्मिक जीवन की आशा नहीं रखता,
ਆਇ ਚਲੇ ਭਏ ਆਸ ਨਿਰਾਸਾ ॥
आइ चले भए आस निरासा ॥
वह जन्म लेकर जगत् में आता है और नाम धन की आशा के बिना निराश हो चल देता है।
ਝੁਰਿ ਝੁਰਿ ਝਖਿ ਮਾਟੀ ਰਲਿ ਜਾਇ ॥
झुरि झुरि झखि माटी रलि जाइ ॥
जो व्यक्ति इन व्यर्थ सांसारिक झगड़ों में फंस जाता है, वह अपना जीवन व्यर्थ कर देता है और अंत में पछताते-पछताते, शोक करता हुआ मृत्यु को प्राप्त होता है।
ਕਾਲੁ ਨ ਚਾਂਪੈ ਹਰਿ ਗੁਣ ਗਾਇ ॥
कालु न चांपै हरि गुण गाइ ॥
जो भगवान् का गुणगान करता है, काल भी उसे निगल नहीं सकता।
ਪਾਈ ਨਵ ਨਿਧਿ ਹਰਿ ਕੈ ਨਾਇ ॥
पाई नव निधि हरि कै नाइ ॥
उसे ऐसा अनुभव होता है कि हरिनाम से ही नवनिधियों की प्राप्ति होती हैं और
ਆਪੇ ਦੇਵੈ ਸਹਜਿ ਸੁਭਾਇ ॥੨੬॥
आपे देवै सहजि सुभाइ ॥२६॥
यह नवनिधियाँ वह स्वयं ही सहज स्वभाव अपने भक्तों को देते हैं । ॥२६॥
ਞਿਆਨੋ ਬੋਲੈ ਆਪੇ ਬੂਝੈ ॥
ञिआनो बोलै आपे बूझै ॥
परमात्मा स्वयं ही गुरु के रूप में ज्ञान का उपदेश देते हैं और स्वयं ही शिष्य के रूप में इस ज्ञान को सुनते हैं।
ਆਪੇ ਸਮਝੈ ਆਪੇ ਸੂਝੈ ॥
आपे समझै आपे सूझै ॥
वह स्वयं ही ज्ञान को समझते और स्वयं हीं जानते हैं।
ਗੁਰ ਕਾ ਕਹਿਆ ਅੰਕਿ ਸਮਾਵੈ ॥
गुर का कहिआ अंकि समावै ॥
ज़ों गुरु के उपदेश को हृदय में बसा लेते हैं,
ਨਿਰਮਲ ਸੂਚੇ ਸਾਚੋ ਭਾਵੈ ॥
निरमल सूचे साचो भावै ॥
वे निर्मल और शुद्ध हो जाते हैं और वहीं परमेश्वर को प्रिय लगते हैं।
ਗੁਰੁ ਸਾਗਰੁ ਰਤਨੀ ਨਹੀ ਤੋਟ ॥
गुरु सागरु रतनी नही तोट ॥
गुरु गुणों का सागर है और उसमें गुण रूपी रत्नों की कोई कमी नहीं है।
ਲਾਲ ਪਦਾਰਥ ਸਾਚੁ ਅਖੋਟ ॥
लाल पदारथ साचु अखोट ॥
गुरु, नामरत्नों के अमूल्य खजाने से परिपूर्ण, शाश्वत ईश्वर का स्वरूप है।
ਗੁਰਿ ਕਹਿਆ ਸਾ ਕਾਰ ਕਮਾਵਹੁ ॥
गुरि कहिआ सा कार कमावहु ॥
वहीं कार्य करो, जो गुरु करने के लिए कहते हैं।
ਗੁਰ ਕੀ ਕਰਣੀ ਕਾਹੇ ਧਾਵਹੁ ॥
गुर की करणी काहे धावहु ॥
गुरु द्वारा बताये हुए मार्ग से पीछे क्यों भागते हो।
ਨਾਨਕ ਗੁਰਮਤਿ ਸਾਚਿ ਸਮਾਵਹੁ ॥੨੭॥
नानक गुरमति साचि समावहु ॥२७॥
हे नानक ! गुरु मतानुसार नाम-जपकर सत्य में विलीन हो जाओ ॥२७॥
ਟੂਟੈ ਨੇਹੁ ਕਿ ਬੋਲਹਿ ਸਹੀ ॥
टूटै नेहु कि बोलहि सही ॥
जब कोई अवज्ञा से बोलता है, तो प्रेम टूट जाता है।
ਟੂਟੈ ਬਾਹ ਦੁਹੂ ਦਿਸ ਗਹੀ ॥
टूटै बाह दुहू दिस गही ॥
जैसे दोनों तरफ से पकड़ी हुई बाजू टूट जाती हैं,
ਟੂਟਿ ਪਰੀਤਿ ਗਈ ਬੁਰ ਬੋਲਿ ॥
टूटि परीति गई बुर बोलि ॥
वैसे ही बुरे वचन बोलने से प्रीति टूट जाती है।
ਦੁਰਮਤਿ ਪਰਹਰਿ ਛਾਡੀ ਢੋਲਿ ॥
दुरमति परहरि छाडी ढोलि ॥
दुर्मति वाली पत्नी को उसका पति त्याग देता है।
ਟੂਟੈ ਗੰਠਿ ਪੜੈ ਵੀਚਾਰਿ ॥
टूटै गंठि पड़ै वीचारि ॥
यदि भूल पर विचार किया जाए तो टूटी हुई प्रेम की गांठ पुनः जुड़ जाती है।
ਗੁਰ ਸਬਦੀ ਘਰਿ ਕਾਰਜੁ ਸਾਰਿ ॥
गुर सबदी घरि कारजु सारि ॥
गुरु के शब्द द्वारा सब कार्य पूर्ण हो जाते हैं।
ਲਾਹਾ ਸਾਚੁ ਨ ਆਵੈ ਤੋਟਾ ॥
लाहा साचु न आवै तोटा ॥
जिसे सत्य का लाभ प्राप्त हो जाता है, उसे कोई कमी नहीं आती।
ਤ੍ਰਿਭਵਣ ਠਾਕੁਰੁ ਪ੍ਰੀਤਮੁ ਮੋਟਾ ॥੨੮॥
त्रिभवण ठाकुरु प्रीतमु मोटा ॥२८॥
तीनों लोकों का स्वामी परमात्मा ही जीव के घनिष्ठ मित्र बनते हैं। ॥ २८ ॥
ਠਾਕਹੁ ਮਨੂਆ ਰਾਖਹੁ ਠਾਇ ॥
ठाकहु मनूआ राखहु ठाइ ॥
अपने मन को बाहर भटकने से रोको और इसे स्थिर रखो।
ਠਹਕਿ ਮੁਈ ਅਵਗੁਣਿ ਪਛੁਤਾਇ ॥
ठहकि मुई अवगुणि पछुताइ ॥
माया की मोह में लिप्त संसार आपस में द्वेषपूर्ण लड़ाई कर आध्यात्मिक रूप से पतित हो रहा है और अपने पापों पर पछतावा कर रहा है।
ਠਾਕੁਰੁ ਏਕੁ ਸਬਾਈ ਨਾਰਿ ॥
ठाकुरु एकु सबाई नारि ॥
सभी जीव एक ही स्वामी-परमेश्वर की जीव-स्त्रियाँ हैं।
ਬਹੁਤੇ ਵੇਸ ਕਰੇ ਕੂੜਿਆਰਿ ॥
बहुते वेस करे कूड़िआरि ॥
मिथ्या में डूबी जीव-स्त्री अनेक पाखण्ड़ करती रहती है।
ਪਰ ਘਰਿ ਜਾਤੀ ਠਾਕਿ ਰਹਾਈ ॥
पर घरि जाती ठाकि रहाई ॥
वह आत्मवधू जिसे भगवान् द्वैत (माया) के प्रेम में पड़ने से रोकते हैं
ਮਹਲਿ ਬੁਲਾਈ ਠਾਕ ਨ ਪਾਈ ॥
महलि बुलाई ठाक न पाई ॥
उस जीव-स्त्री को अपने पति-प्रभु के घर में जाने से किसी ने बाधा उत्पन्न नहीं की।
ਸਬਦਿ ਸਵਾਰੀ ਸਾਚਿ ਪਿਆਰੀ ॥
सबदि सवारी साचि पिआरी ॥
उसने शब्द द्वारा स्वयं को संवार लिया है और वह प्रभु की प्रिया बन गई है।
ਸਾਈ ਸੋੁਹਾਗਣਿ ਠਾਕੁਰਿ ਧਾਰੀ ॥੨੯॥
साई सोहागणि ठाकुरि धारी ॥२९॥
वही जीव-स्त्री सुहागिन है, जिसे ठाकुर जी ने धारण किया है।॥२९॥
ਡੋਲਤ ਡੋਲਤ ਹੇ ਸਖੀ ਫਾਟੇ ਚੀਰ ਸੀਗਾਰ ॥
डोलत डोलत हे सखी फाटे चीर सीगार ॥
हे सखी ! जैसे भटकते-भटकते मेरे सारे श्रृंगार एवं वस्त्र फट जाते हैं। वैसे ही द्वैत में किए गए सारे प्रयास व्यर्थ हो जाते हैं।
ਡਾਹਪਣਿ ਤਨਿ ਸੁਖੁ ਨਹੀ ਬਿਨੁ ਡਰ ਬਿਣਠੀ ਡਾਰ ॥
डाहपणि तनि सुखु नही बिनु डर बिणठी डार ॥
तृष्णाग्नि के कारण शरीर में सुख उपलब्ध नहीं होता और परमात्मा के भय बिना सबकुछ नाश हो गया है।
ਡਰਪਿ ਮੁਈ ਘਰਿ ਆਪਣੈ ਡੀਠੀ ਕੰਤਿ ਸੁਜਾਣਿ ॥
डरपि मुई घरि आपणै डीठी कंति सुजाणि ॥
प्रभु-भय द्वारा मैं हृदय-घर में आध्यात्मिक रूप से मृत पड़ी रहती थी, परन्तु चतुर पति-प्रभु ने मुझ पर करुणा-दृष्टि की है।
ਡਰੁ ਰਾਖਿਆ ਗੁਰਿ ਆਪਣੈ ਨਿਰਭਉ ਨਾਮੁ ਵਖਾਣਿ ॥
डरु राखिआ गुरि आपणै निरभउ नामु वखाणि ॥
मेरे गुरु ने प्रभु-भय मेरे हृदय में स्थित कर दिया है और अब निर्भय प्रभु का नाम जपती रहती हूँ।
ਡੂਗਰਿ ਵਾਸੁ ਤਿਖਾ ਘਣੀ ਜਬ ਦੇਖਾ ਨਹੀ ਦੂਰਿ ॥
डूगरि वासु तिखा घणी जब देखा नही दूरि ॥
मेरा निवास संसार रूपी पहाड़ में है, पर मुझे नामामृत पान की बहुत प्यास लगी हुई है। अब जब मैं देखती हूँ तो मेरा प्रभु मुझे कहीं दूर नहीं लगता।
ਤਿਖਾ ਨਿਵਾਰੀ ਸਬਦੁ ਮੰਨਿ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਪੀਆ ਭਰਪੂਰਿ ॥
तिखा निवारी सबदु मंनि अम्रितु पीआ भरपूरि ॥
मैंने मन में नाम-सिमरन करके अपनी प्यास बुझा ली हैं और नामामृत का पाने कर लिया है।
ਦੇਹਿ ਦੇਹਿ ਆਖੈ ਸਭੁ ਕੋਈ ਜੈ ਭਾਵੈ ਤੈ ਦੇਇ ॥
देहि देहि आखै सभु कोई जै भावै तै देइ ॥
प्रत्येक जीव परमात्मा से नाम दान की कामना करता है, लेकिन यदि उसे स्वीकार हो तो ही वह देते हैं।
ਗੁਰੂ ਦੁਆਰੈ ਦੇਵਸੀ ਤਿਖਾ ਨਿਵਾਰੈ ਸੋਇ ॥੩੦॥
गुरू दुआरै देवसी तिखा निवारै सोइ ॥३०॥
सांसारिक इच्छाओं की तृष्णा केवल उसी व्यक्ति की शांत हो सकती है, जिसे भगवान् गुरु के माध्यम से नाम का अमृत प्रदान करते हैं। ३०
ਢੰਢੋਲਤ ਢੂਢਤ ਹਉ ਫਿਰੀ ਢਹਿ ਢਹਿ ਪਵਨਿ ਕਰਾਰਿ ॥
ढंढोलत ढूढत हउ फिरी ढहि ढहि पवनि करारि ॥
ईश्वर की खोज में जब मैं आगे बढ़ा, तब मैंने अनगिनत लोगों को सांसारिक कामनाओं से प्रेरित होकर विकारों के महासागर के किनारे डूबते देखा।
ਭਾਰੇ ਢਹਤੇ ਢਹਿ ਪਏ ਹਉਲੇ ਨਿਕਸੇ ਪਾਰਿ ॥
भारे ढहते ढहि पए हउले निकसे पारि ॥
पापों के बोझ से दबे हुए लोग तो संसार-सागर में गिर गए लेकिन पापों के भार से मुक्त जीव पार हो गए।
ਅਮਰ ਅਜਾਚੀ ਹਰਿ ਮਿਲੇ ਤਿਨ ਕੈ ਹਉ ਬਲਿ ਜਾਉ ॥
अमर अजाची हरि मिले तिन कै हउ बलि जाउ ॥
जिन्होंने शाश्वत और गुणसम्पन्न परमेश्वर से संबंध जोड़ लिया और भवसागर को पार किया, मैं उन पर बलिहारी जाता हैं।
ਤਿਨ ਕੀ ਧੂੜਿ ਅਘੁਲੀਐ ਸੰਗਤਿ ਮੇਲਿ ਮਿਲਾਉ ॥
तिन की धूड़ि अघुलीऐ संगति मेलि मिलाउ ॥
हे ईश्वर, मुझे ऐसे सत्पुरुषों का संग दो, जिनकी सेवा से ही मन की वासनाएँ शांत हो जाती हैं।
ਮਨੁ ਦੀਆ ਗੁਰਿ ਆਪਣੈ ਪਾਇਆ ਨਿਰਮਲ ਨਾਉ ॥
मनु दीआ गुरि आपणै पाइआ निरमल नाउ ॥
जो व्यक्ति गुरु की कृपा से अपना चित्त भगवान् को अर्पित करता है, उसे प्रभु का पावन नाम सहज ही प्राप्त हो जाता है।