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ਗੁਰਮੁਖਿ ਸੇਵਕ ਭਾਇ ਹਰਿ ਧਨੁ ਮਿਲੈ ਤਿਥਹੁ ਕਰਮਹੀਣ ਲੈ ਨ ਸਕਹਿ ਹੋਰ ਥੈ ਦੇਸ ਦਿਸੰਤਰਿ ਹਰਿ ਧਨੁ ਨਾਹਿ ॥੮॥
गुरमुखि सेवक भाइ हरि धनु मिलै तिथहु करमहीण लै न सकहि होर थै देस दिसंतरि हरि धनु नाहि ॥८॥
गुरु की आज्ञा और शिक्षा के साथ विनम्रता से चलकर ही भगवान् के नाम का धन प्राप्त होता है; जो अभागे हैं, वे इसे गुरु से भी प्राप्त नहीं कर पाते; गुरु के बिना यह अमूल्य धन अन्यत्र नहीं मिलता।॥ ८ ॥
ਸਲੋਕ ਮਃ ੩ ॥
सलोक मः ३ ॥
श्लोक, तृतीय गुरु: ३॥
ਗੁਰਮੁਖਿ ਸੰਸਾ ਮੂਲਿ ਨ ਹੋਵਈ ਚਿੰਤਾ ਵਿਚਹੁ ਜਾਇ ॥
गुरमुखि संसा मूलि न होवई चिंता विचहु जाइ ॥
गुरुमुख को कदापि सन्देह नहीं होता और उसकी मन की चिन्ता दूर हो जाती है।
ਜੋ ਕਿਛੁ ਹੋਇ ਸੁ ਸਹਜੇ ਹੋਇ ਕਹਣਾ ਕਿਛੂ ਨ ਜਾਇ ॥
जो किछु होइ सु सहजे होइ कहणा किछू न जाइ ॥
वे मानते हैं कि जो कुछ होता है, वह सहज ही होता है और इस सन्दर्भ में कुछ भी वर्णित नहीं किया जा सकता।
ਨਾਨਕ ਤਿਨ ਕਾ ਆਖਿਆ ਆਪਿ ਸੁਣੇ ਜਿ ਲਇਅਨੁ ਪੰਨੈ ਪਾਇ ॥੧॥
नानक तिन का आखिआ आपि सुणे जि लइअनु पंनै पाइ ॥१॥
हे नानक ! परमात्मा स्वयं उनका निवेदन सुनते हैं, जिन्हें उन्होंने अपना सेवक बना लिया है॥ १॥
ਮਃ ੩ ॥
मः ३ ॥
तृतीय गुरु: ३॥
ਕਾਲੁ ਮਾਰਿ ਮਨਸਾ ਮਨਹਿ ਸਮਾਣੀ ਅੰਤਰਿ ਨਿਰਮਲੁ ਨਾਉ ॥
कालु मारि मनसा मनहि समाणी अंतरि निरमलु नाउ ॥
जिसके अन्तर्मन में परमात्मा का निर्मल नाम आ बसा है, उसने काल को भी जीत लिया है और उसकी अभिलाषा उसके मन में ही समा गई है।
ਅਨਦਿਨੁ ਜਾਗੈ ਕਦੇ ਨ ਸੋਵੈ ਸਹਜੇ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਪਿਆਉ ॥
अनदिनु जागै कदे न सोवै सहजे अम्रितु पिआउ ॥
वह नित्य मोह-माया से सचेत रहता है और कभी भी अज्ञान की निद्रा में नहीं सोता तथा सहज ही नामामृत पीता रहता है।
ਮੀਠਾ ਬੋਲੇ ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਬਾਣੀ ਅਨਦਿਨੁ ਹਰਿ ਗੁਣ ਗਾਉ ॥
मीठा बोले अम्रित बाणी अनदिनु हरि गुण गाउ ॥
उसकी वाणी अमृतमय है, वह बड़ा मधुर बोलता है और दिन-रात प्रभु का गुणगान करता रहता है।
ਨਿਜ ਘਰਿ ਵਾਸਾ ਸਦਾ ਸੋਹਦੇ ਨਾਨਕ ਤਿਨ ਮਿਲਿਆ ਸੁਖੁ ਪਾਉ ॥੨॥
निज घरि वासा सदा सोहदे नानक तिन मिलिआ सुखु पाउ ॥२॥
हे नानक ! जिनका आत्म-स्वरूप में निवास हो जाता है, वे सदैव सुन्दर लगते हैं और उन्हें मिलने से बड़ा सुख प्राप्त होता है।॥ २॥
ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पौड़ी ॥
ਹਰਿ ਧਨੁ ਰਤਨ ਜਵੇਹਰੀ ਸੋ ਗੁਰਿ ਹਰਿ ਧਨੁ ਹਰਿ ਪਾਸਹੁ ਦੇਵਾਇਆ ॥
हरि धनु रतन जवेहरी सो गुरि हरि धनु हरि पासहु देवाइआ ॥
हरि-धन अमूल्य रत्न एवं जवाहर के समान है, गुरु ने वह धन अपने सेवक को हरि से दिलवाया है।
ਜੇ ਕਿਸੈ ਕਿਹੁ ਦਿਸਿ ਆਵੈ ਤਾ ਕੋਈ ਕਿਹੁ ਮੰਗਿ ਲਏ ਅਕੈ ਕੋਈ ਕਿਹੁ ਦੇਵਾਏ ਏਹੁ ਹਰਿ ਧਨੁ ਜੋਰਿ ਕੀਤੈ ਕਿਸੈ ਨਾਲਿ ਨ ਜਾਇ ਵੰਡਾਇਆ ॥
जे किसै किहु दिसि आवै ता कोई किहु मंगि लए अकै कोई किहु देवाए एहु हरि धनु जोरि कीतै किसै नालि न जाइ वंडाइआ ॥
यदि कोई किसी अन्य के पास सांसारिक धन देखकर मांग करता है, तो वह दिया जा सकता है; परंतु भगवान के नाम का धन किसी के साथ बलपूर्वक बांटा नहीं जा सकता।
ਜਿਸ ਨੋ ਸਤਿਗੁਰ ਨਾਲਿ ਹਰਿ ਸਰਧਾ ਲਾਏ ਤਿਸੁ ਹਰਿ ਧਨ ਕੀ ਵੰਡ ਹਥਿ ਆਵੈ ਜਿਸ ਨੋ ਕਰਤੈ ਧੁਰਿ ਲਿਖਿ ਪਾਇਆ ॥
जिस नो सतिगुर नालि हरि सरधा लाए तिसु हरि धन की वंड हथि आवै जिस नो करतै धुरि लिखि पाइआ ॥
जिस व्यक्ति के भाग्य में पूर्वनिर्धारित होता है, ईश्वर उसे सच्चे गुरु में विश्वास प्रदान करते हैं, और वह गुरु के माध्यम से ईश्वर के नाम के धन का अपना हिस्सा प्राप्त करता है।
ਇਸੁ ਹਰਿ ਧਨ ਕਾ ਕੋਈ ਸਰੀਕੁ ਨਾਹੀ ਕਿਸੈ ਕਾ ਖਤੁ ਨਾਹੀ ਕਿਸੈ ਕੈ ਸੀਵ ਬੰਨੈ ਰੋਲੁ ਨਾਹੀ ਜੇ ਕੋ ਹਰਿ ਧਨ ਕੀ ਬਖੀਲੀ ਕਰੇ ਤਿਸ ਕਾ ਮੁਹੁ ਹਰਿ ਚਹੁ ਕੁੰਡਾ ਵਿਚਿ ਕਾਲਾ ਕਰਾਇਆ ॥
इसु हरि धन का कोई सरीकु नाही किसै का खतु नाही किसै कै सीव बंनै रोलु नाही जे को हरि धन की बखीली करे तिस का मुहु हरि चहु कुंडा विचि काला कराइआ ॥
भगवान् के नाम की इस अमूल्य दौलत में कोई भागीदार नहीं, न किसी का अधिकार है, और न ही इसकी कोई ऐसी सीमा है जिस पर विवाद हो सके; जो कोई इस धन की निंदा करता है, भगवान् उसे हर जगह अपमानित करते हैं।
ਹਰਿ ਕੇ ਦਿਤੇ ਨਾਲਿ ਕਿਸੈ ਜੋਰੁ ਬਖੀਲੀ ਨ ਚਲਈ ਦਿਹੁ ਦਿਹੁ ਨਿਤ ਨਿਤ ਚੜੈ ਸਵਾਇਆ ॥੯॥
हरि के दिते नालि किसै जोरु बखीली न चलई दिहु दिहु नित नित चड़ै सवाइआ ॥९॥
ईश्वर से आशीर्वादित धन के सामने किसी की शक्ति या ईर्ष्या टिक नहीं सकती; यह धन निरंतर बढ़ता ही रहता है।॥ ६ ॥
ਸਲੋਕ ਮਃ ੩ ॥
सलोक मः ३ ॥
श्लोक, तृतीय गुरु: ३॥
ਜਗਤੁ ਜਲੰਦਾ ਰਖਿ ਲੈ ਆਪਣੀ ਕਿਰਪਾ ਧਾਰਿ ॥
जगतु जलंदा रखि लै आपणी किरपा धारि ॥
हे परमात्मा ! यह जगत् तृष्णाग्नि में जल रहा है, अपनी कृपा करके इसकी रक्षा करो।
ਜਿਤੁ ਦੁਆਰੈ ਉਬਰੈ ਤਿਤੈ ਲੈਹੁ ਉਬਾਰਿ ॥
जितु दुआरै उबरै तितै लैहु उबारि ॥
जिस किसी तरीके से भी यह बच सकता है, इसे बचा लो।
ਸਤਿਗੁਰਿ ਸੁਖੁ ਵੇਖਾਲਿਆ ਸਚਾ ਸਬਦੁ ਬੀਚਾਰਿ ॥
सतिगुरि सुखु वेखालिआ सचा सबदु बीचारि ॥
सतगुरु के अनुसार, जब कोई ईश्वर की स्तुति के पावन शब्दों पर गहराई से चिंतन करता है, तो उसे परम शांति का अनुभव होता है।
ਨਾਨਕ ਅਵਰੁ ਨ ਸੁਝਈ ਹਰਿ ਬਿਨੁ ਬਖਸਣਹਾਰੁ ॥੧॥
नानक अवरु न सुझई हरि बिनु बखसणहारु ॥१॥
हे नानक ! ईश्वर के अतिरिक्त मुझे अन्य कोई भी क्षमावान् नजर नहीं आता ॥ १॥
ਮਃ ੩ ॥
मः ३ ॥
तृतीय गुरु: ३॥
ਹਉਮੈ ਮਾਇਆ ਮੋਹਣੀ ਦੂਜੈ ਲਗੈ ਜਾਇ ॥
हउमै माइआ मोहणी दूजै लगै जाइ ॥
सांसारिक धन और सत्ता रूपी माया मन में अहंकार भर देती है, जिससे व्यक्ति प्रेम के स्थान पर द्वंद्व में उलझ जाता है।
ਨਾ ਇਹ ਮਾਰੀ ਨ ਮਰੈ ਨਾ ਇਹ ਹਟਿ ਵਿਕਾਇ ॥
ना इह मारी न मरै ना इह हटि विकाइ ॥
यह न ही मारी जा सकती है और न ही इसे किसी दुकान पर बेचा जा सकता है।
ਗੁਰ ਕੈ ਸਬਦਿ ਪਰਜਾਲੀਐ ਤਾ ਇਹ ਵਿਚਹੁ ਜਾਇ ॥
गुर कै सबदि परजालीऐ ता इह विचहु जाइ ॥
जब गुरु के उपदेश रूपी प्रकाश से अहंकार भस्म होता है, तभी व्यक्ति के अंतःकरण से अहंकार वास्तव में दूर होता है।
ਤਨੁ ਮਨੁ ਹੋਵੈ ਉਜਲਾ ਨਾਮੁ ਵਸੈ ਮਨਿ ਆਇ ॥
तनु मनु होवै उजला नामु वसै मनि आइ ॥
जब मन और तन शुद्ध हो जाते हैं, तब ईश्वर का नाम स्वयं उसके हृदय में प्रकाशित होता है।
ਨਾਨਕ ਮਾਇਆ ਕਾ ਮਾਰਣੁ ਸਬਦੁ ਹੈ ਗੁਰਮੁਖਿ ਪਾਇਆ ਜਾਇ ॥੨॥
नानक माइआ का मारणु सबदु है गुरमुखि पाइआ जाइ ॥२॥
हे नानक ! शब्द ही माया को नाश करने वाला है, परन्तु यह गुरु की शिक्षाओं का अनुसरण द्वारा ही प्राप्त होता है॥ २ ॥
ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पौड़ी॥
ਸਤਿਗੁਰ ਕੀ ਵਡਿਆਈ ਸਤਿਗੁਰਿ ਦਿਤੀ ਧੁਰਹੁ ਹੁਕਮੁ ਬੁਝਿ ਨੀਸਾਣੁ ॥
सतिगुर की वडिआई सतिगुरि दिती धुरहु हुकमु बुझि नीसाणु ॥
जब सच्चे गुरु अंगद देव जी ने इसे ईश्वर की इच्छा और आज्ञा माना, तब उन्होंने गुरु राम दास जी को गुरुगद्दी सौंपने का सम्मान दिया।
ਪੁਤੀ ਭਾਤੀਈ ਜਾਵਾਈ ਸਕੀ ਅਗਹੁ ਪਿਛਹੁ ਟੋਲਿ ਡਿਠਾ ਲਾਹਿਓਨੁ ਸਭਨਾ ਕਾ ਅਭਿਮਾਨੁ ॥
पुती भातीई जावाई सकी अगहु पिछहु टोलि डिठा लाहिओनु सभना का अभिमानु ॥
गुरु अंगद देव जी ने अपने पुत्रों, भतीजों, दामादों एवं अन्य संबंधियों को भलीभांति परख कर देख लिया था और सभी का अभिमान उतार दिया था।
ਜਿਥੈ ਕੋ ਵੇਖੈ ਤਿਥੈ ਮੇਰਾ ਸਤਿਗੁਰੂ ਹਰਿ ਬਖਸਿਓਸੁ ਸਭੁ ਜਹਾਨੁ ॥
जिथै को वेखै तिथै मेरा सतिगुरू हरि बखसिओसु सभु जहानु ॥
जिधर भी कोई देखता था, वहाँ ही मेरा सतगुरु होता था, परमात्मा ने सारे संसार पर ही कृपा स्वरूप सतगुरु दिए हैं, जो नाम के धन का दान करते हैं।
ਜਿ ਸਤਿਗੁਰ ਨੋ ਮਿਲਿ ਮੰਨੇ ਸੁ ਹਲਤਿ ਪਲਤਿ ਸਿਝੈ ਜਿ ਵੇਮੁਖੁ ਹੋਵੈ ਸੁ ਫਿਰੈ ਭਰਿਸਟ ਥਾਨੁ ॥
जि सतिगुर नो मिलि मंने सु हलति पलति सिझै जि वेमुखु होवै सु फिरै भरिसट थानु ॥
जो भी निष्ठापूर्वक गुरु को मिलता है, उसका लोक-परलोक संवर जाता है, जो गुरु से विमुख हो जाता है, वह भ्रष्ट स्थान पर फिरता रहता है।