Guru Granth Sahib Translation Project

Guru Granth Sahib Hindi Page 854

Page 854

ਜਨ ਨਾਨਕ ਕੈ ਵਲਿ ਹੋਆ ਮੇਰਾ ਸੁਆਮੀ ਹਰਿ ਸਜਣ ਪੁਰਖੁ ਸੁਜਾਨੁ ॥ जन नानक कै वलि होआ मेरा सुआमी हरि सजण पुरखु सुजानु ॥ हे नानक ! मेरे स्वामी-भगवान्, जो बुद्धिमान, सर्वव्यापी और सबके सच्चे मित्र हैं, सदा अपने भक्तों के पक्ष में रहते हैं।
ਪਉਦੀ ਭਿਤਿ ਦੇਖਿ ਕੈ ਸਭਿ ਆਇ ਪਏ ਸਤਿਗੁਰ ਕੀ ਪੈਰੀ ਲਾਹਿਓਨੁ ਸਭਨਾ ਕਿਅਹੁ ਮਨਹੁ ਗੁਮਾਨੁ ॥੧੦॥ पउदी भिति देखि कै सभि आइ पए सतिगुर की पैरी लाहिओनु सभना किअहु मनहु गुमानु ॥१०॥ जब लोगों ने सतगुरु से मिलने वाले आध्यात्मिक आहार को देखा, तो वे सभी उनकी शरण में आ गए; सतगुरु ने उनके मन का मिथ्या अहंकार दूर कर दिया। ॥१०॥
ਸਲੋਕ ਮਃ ੧ ॥ सलोक मः १ ॥ श्लोक, प्रथम गुरु:॥
ਕੋਈ ਵਾਹੇ ਕੋ ਲੁਣੈ ਕੋ ਪਾਏ ਖਲਿਹਾਨਿ ॥ कोई वाहे को लुणै को पाए खलिहानि ॥ कोई हल जोतता है, कोई फसल काटता है और फिर कोई अन्य आकर अनाज को साफ करता है।
ਨਾਨਕ ਏਵ ਨ ਜਾਪਈ ਕੋਈ ਖਾਇ ਨਿਦਾਨਿ ॥੧॥ नानक एव न जापई कोई खाइ निदानि ॥१॥ गुरु नानक का कथन है कि यह समझ में नहीं आता कि अन्त में इस अन्न को कौन खाता है(इसी प्रकार, यह भी पता नहीं है कि कब क्या होगा।)। १॥
ਮਃ ੧ ॥ मः १ ॥ प्रथम गुरु: १॥
ਜਿਸੁ ਮਨਿ ਵਸਿਆ ਤਰਿਆ ਸੋਇ ॥ जिसु मनि वसिआ तरिआ सोइ ॥ जिसके मन में परमात्मा आ बसा है, वही संसार-सागर से पार हुआ है।
ਨਾਨਕ ਜੋ ਭਾਵੈ ਸੋ ਹੋਇ ॥੨॥ नानक जो भावै सो होइ ॥२॥ हे नानक ! जो उसे उपयुक्त लगता है, वही होता है॥ २ ॥
ਪਉੜੀ ॥ पउड़ी ॥ पौड़ी ॥
ਪਾਰਬ੍ਰਹਮਿ ਦਇਆਲਿ ਸਾਗਰੁ ਤਾਰਿਆ ॥ पारब्रहमि दइआलि सागरु तारिआ ॥ दयालु पारब्रह्म ने उस व्यक्ति को संसार-सागर से पार कर दिया है।
ਗੁਰਿ ਪੂਰੈ ਮਿਹਰਵਾਨਿ ਭਰਮੁ ਭਉ ਮਾਰਿਆ ॥ गुरि पूरै मिहरवानि भरमु भउ मारिआ ॥ पूर्ण गुरु ने कृपालु होकर जिनका भ्रम एवं भय दूर कर दिया है।
ਕਾਮ ਕ੍ਰੋਧੁ ਬਿਕਰਾਲੁ ਦੂਤ ਸਭਿ ਹਾਰਿਆ ॥ काम क्रोधु बिकरालु दूत सभि हारिआ ॥ तब माया के विकराल दूत काम -क्रोध ने उसे पीड़ा देनी छोड़ दिया,
ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਨਾਮੁ ਨਿਧਾਨੁ ਕੰਠਿ ਉਰਿ ਧਾਰਿਆ ॥ अम्रित नामु निधानु कंठि उरि धारिआ ॥ क्योंकि उसने अमृत नाम रूपी खजाना अपने गले एवं हृदय में बसा लिया है।
ਨਾਨਕ ਸਾਧੂ ਸੰਗਿ ਜਨਮੁ ਮਰਣੁ ਸਵਾਰਿਆ ॥੧੧॥ नानक साधू संगि जनमु मरणु सवारिआ ॥११॥ हे नानक ! साधु की संगति में मिलकर जन्म-मरण संवर गया है ॥ ११॥
ਸਲੋਕ ਮਃ ੩ ॥ सलोक मः ३ ॥ श्लोक, तृतीय गुरु: ३॥
ਜਿਨ੍ਹ੍ਹੀ ਨਾਮੁ ਵਿਸਾਰਿਆ ਕੂੜੇ ਕਹਣ ਕਹੰਨ੍ਹ੍ਹਿ ॥ जिन्ही नामु विसारिआ कूड़े कहण कहंन्हि ॥ जिन्होंने परमात्मा का नाम भुला दिया है, उन्हें झूठे ही कहा जाता है।
ਪੰਚ ਚੋਰ ਤਿਨਾ ਘਰੁ ਮੁਹਨ੍ਹ੍ਹਿ ਹਉਮੈ ਅੰਦਰਿ ਸੰਨ੍ਹ੍ਹਿ ॥ पंच चोर तिना घरु मुहन्हि हउमै अंदरि संन्हि ॥ काम, क्रोध, लोभ, मोह एवं अहंकार ये पाँच चोर उनके हृदय-घर को लूटते रहते हैं और अहंकारवश वे सहज ही इनके सामने झुक जाते हैं।
ਸਾਕਤ ਮੁਠੇ ਦੁਰਮਤੀ ਹਰਿ ਰਸੁ ਨ ਜਾਣੰਨ੍ਹ੍ਹਿ ॥ साकत मुठे दुरमती हरि रसु न जाणंन्हि ॥ दुर्मति ने शाक्त जीवों को लूट लिया है, इसलिए वे हरि-रस की गूढ़ महत्ता को जानते ही नहीं।
ਜਿਨ੍ਹ੍ਹੀ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਭਰਮਿ ਲੁਟਾਇਆ ਬਿਖੁ ਸਿਉ ਰਚਹਿ ਰਚੰਨ੍ਹ੍ਹਿ ॥ जिन्ही अम्रितु भरमि लुटाइआ बिखु सिउ रचहि रचंन्हि ॥ जिन लोगों ने संदेहवश नामरूपी अमृत का तिरस्कार किया है, वे माया के मोह में डूबे रहते हैं, जो आत्मिक कल्याण के लिए विष के समान है।
ਦੁਸਟਾ ਸੇਤੀ ਪਿਰਹੜੀ ਜਨ ਸਿਉ ਵਾਦੁ ਕਰੰਨ੍ਹ੍ਹਿ ॥ दुसटा सेती पिरहड़ी जन सिउ वादु करंन्हि ॥ उनका दुष्टों से प्रेम बना होता है परन्तु भक्तजनों से नित्य झगड़ा करते रहते हैं।
ਨਾਨਕ ਸਾਕਤ ਨਰਕ ਮਹਿ ਜਮਿ ਬਧੇ ਦੁਖ ਸਹੰਨ੍ਹ੍ਹਿ ॥ नानक साकत नरक महि जमि बधे दुख सहंन्हि ॥ हे नानक ! श्रद्धाहीन निंदक आध्यात्मिक मृत्यु के वश में होकर, ऐसी यातना सहते हैं जैसे नरक की अग्नि में जल रहे हों।
ਪਇਐ ਕਿਰਤਿ ਕਮਾਵਦੇ ਜਿਵ ਰਾਖਹਿ ਤਿਵੈ ਰਹੰਨ੍ਹ੍ਹਿ ॥੧॥ पइऐ किरति कमावदे जिव राखहि तिवै रहंन्हि ॥१॥ हे भगवान, प्राणी अपने पूर्व निर्धारित भाग्य के अनुसार ही कर्म करते हैं और वैसे ही जीवन यापन करते हैं, जैसे आप उन्हें रखते हैं। १ ॥
ਮਃ ੩ ॥ मः ३ ॥ तृतीय गुरु: ३॥
ਜਿਨ੍ਹ੍ਹੀ ਸਤਿਗੁਰੁ ਸੇਵਿਆ ਤਾਣੁ ਨਿਤਾਣੇ ਤਿਸੁ ॥ जिन्ही सतिगुरु सेविआ ताणु निताणे तिसु ॥ शक्तिहीन व्यक्ति भी यदि सच्चे गुरु की वाणी को अपने जीवन में उतार ले, तो वह आत्मिक रूप से इतना सबल हो जाता है कि किसी भी पाप या बुराई के सम्मुख अडिग रह सकता है।
ਸਾਸਿ ਗਿਰਾਸਿ ਸਦਾ ਮਨਿ ਵਸੈ ਜਮੁ ਜੋਹਿ ਨ ਸਕੈ ਤਿਸੁ ॥ सासि गिरासि सदा मनि वसै जमु जोहि न सकै तिसु ॥ जो साँस-ग्रास के साथ सर्वदा परमात्मा को याद करता रहता है, उसके भीतर ऐसी आत्मिक स्थिरता होती है कि मृत्यु भी उसे भयभीत नहीं कर सकती।
ਹਿਰਦੈ ਹਰਿ ਹਰਿ ਨਾਮ ਰਸੁ ਕਵਲਾ ਸੇਵਕਿ ਤਿਸੁ ॥ हिरदै हरि हरि नाम रसु कवला सेवकि तिसु ॥ जिसके हृदय में हरि-नाम रूपी रस बसा रहता है, माया भी उसकी सेविका बन जाती है।
ਹਰਿ ਦਾਸਾ ਕਾ ਦਾਸੁ ਹੋਇ ਪਰਮ ਪਦਾਰਥੁ ਤਿਸੁ ॥ हरि दासा का दासु होइ परम पदारथु तिसु ॥ जो हरि के दासों का दास बन जाता है, उसे परम पदार्थ (मोक्ष) प्राप्त हो जाता है।
ਨਾਨਕ ਮਨਿ ਤਨਿ ਜਿਸੁ ਪ੍ਰਭੁ ਵਸੈ ਹਉ ਸਦ ਕੁਰਬਾਣੈ ਤਿਸੁ ॥ नानक मनि तनि जिसु प्रभु वसै हउ सद कुरबाणै तिसु ॥ हे नानक ! जिसके मन-तन में प्रभु निवास करते हैं, मैं सदैव उन पर बलिहारी जाता हूँ।
ਜਿਨ੍ਹ੍ਹ ਕਉ ਪੂਰਬਿ ਲਿਖਿਆ ਰਸੁ ਸੰਤ ਜਨਾ ਸਿਉ ਤਿਸੁ ॥੨॥ जिन्ह कउ पूरबि लिखिआ रसु संत जना सिउ तिसु ॥२॥ जिसके भाग्य में पूर्व से ही ऐसा लिखा हुआ है, उसे ही संतजनों से मिलकर रस प्राप्त होता है॥ २ ॥
ਪਉੜੀ ॥ पउड़ी ॥ पौड़ी ॥
ਜੋ ਬੋਲੇ ਪੂਰਾ ਸਤਿਗੁਰੂ ਸੋ ਪਰਮੇਸਰਿ ਸੁਣਿਆ ॥ जो बोले पूरा सतिगुरू सो परमेसरि सुणिआ ॥ पूर्ण सतगुरु जो कुछ बोलते है, उसे परमेश्वर सुनते है।
ਸੋਈ ਵਰਤਿਆ ਜਗਤ ਮਹਿ ਘਟਿ ਘਟਿ ਮੁਖਿ ਭਣਿਆ ॥ सोई वरतिआ जगत महि घटि घटि मुखि भणिआ ॥ सतगुरु का अमृत वचन जगत् में व्याप्त है, जो हर व्यक्ति अपने मुख से उद्घाटित करता है।
ਬਹੁਤੁ ਵਡਿਆਈਆ ਸਾਹਿਬੈ ਨਹ ਜਾਹੀ ਗਣੀਆ ॥ बहुतु वडिआईआ साहिबै नह जाही गणीआ ॥ मेरे प्रभु की महिमा बहुत महान है, जो गिनी नहीं जा सकती।
ਸਚੁ ਸਹਜੁ ਅਨਦੁ ਸਤਿਗੁਰੂ ਪਾਸਿ ਸਚੀ ਗੁਰ ਮਣੀਆ ॥ सचु सहजु अनदु सतिगुरू पासि सची गुर मणीआ ॥ सतगुरु से शाश्वत नाम, सहज शान्ति एवं आनंद प्राप्त होता है और गुरु की सच्ची शिक्षा अमूल्य रत्न के सम्मान है।
ਨਾਨਕ ਸੰਤ ਸਵਾਰੇ ਪਾਰਬ੍ਰਹਮਿ ਸਚੇ ਜਿਉ ਬਣਿਆ ॥੧੨॥ नानक संत सवारे पारब्रहमि सचे जिउ बणिआ ॥१२॥ हे नानक ! पारब्रह्म ने संतों को संवार दिया है और वे स्वयं शाश्वत भगवान् जैसे ही बन गए हैं।१२॥
ਸਲੋਕ ਮਃ ੩ ॥ सलोक मः ३ ॥ श्लोक, तृतीय गुरुः ३॥
ਅਪਣਾ ਆਪੁ ਨ ਪਛਾਣਈ ਹਰਿ ਪ੍ਰਭੁ ਜਾਤਾ ਦੂਰਿ ॥ अपणा आपु न पछाणई हरि प्रभु जाता दूरि ॥ जो व्यक्ति अपने आपको नहीं पहचानता, वह प्रभु को भी दूर ही समझता है।
ਗੁਰ ਕੀ ਸੇਵਾ ਵਿਸਰੀ ਕਿਉ ਮਨੁ ਰਹੈ ਹਜੂਰਿ ॥ गुर की सेवा विसरी किउ मनु रहै हजूरि ॥ जब उसे गुरु की सेवा ही भूल गई है तो उसका मन परमात्मा में कैसे टिक सकता है?
ਮਨਮੁਖਿ ਜਨਮੁ ਗਵਾਇਆ ਝੂਠੈ ਲਾਲਚਿ ਕੂਰਿ ॥ मनमुखि जनमु गवाइआ झूठै लालचि कूरि ॥ झूठे लालच में फँस कर मनमुख ने अपना जन्म व्यर्थ ही गंवा दिया है।
ਨਾਨਕ ਬਖਸਿ ਮਿਲਾਇਅਨੁ ਸਚੈ ਸਬਦਿ ਹਦੂਰਿ ॥੧॥ नानक बखसि मिलाइअनु सचै सबदि हदूरि ॥१॥ हे नानक ! जो शब्द के चिन्तन में लीन रहते हैं, परमात्मा ने उन्हें क्षमा करके स्वयं ही साथ मिला लिया है॥ १ ॥
ਮਃ ੩ ॥ मः ३ ॥ तृतीय गुरुः ३॥
ਹਰਿ ਪ੍ਰਭੁ ਸਚਾ ਸੋਹਿਲਾ ਗੁਰਮੁਖਿ ਨਾਮੁ ਗੋਵਿੰਦੁ ॥ हरि प्रभु सचा सोहिला गुरमुखि नामु गोविंदु ॥ शाश्वत परमेश्वर, जो समस्त ब्रह्मांड के स्वामी है; उसकी महिमा और नाम का दिव्य नाद वही अनुभव कर सकता है जो गुरु की वाणी का अनुसरण करता है।
ਅਨਦਿਨੁ ਨਾਮੁ ਸਲਾਹਣਾ ਹਰਿ ਜਪਿਆ ਮਨਿ ਆਨੰਦੁ ॥ अनदिनु नामु सलाहणा हरि जपिआ मनि आनंदु ॥ नित्य नाम की स्तुति करनी चाहिए, हरि का नाम जपने से मन में आनंद पैदा हो जाता है।
ਵਡਭਾਗੀ ਹਰਿ ਪਾਇਆ ਪੂਰਨੁ ਪਰਮਾਨੰਦੁ ॥ वडभागी हरि पाइआ पूरनु परमानंदु ॥ ईश्वर, जो आनंदरूप पूर्ण अवतार है, उसका साक्षात्कार केवल विरले भाग्यशालियों को ही होता है।
ਜਨ ਨਾਨਕ ਨਾਮੁ ਸਲਾਹਿਆ ਬਹੁੜਿ ਨ ਮਨਿ ਤਨਿ ਭੰਗੁ ॥੨॥ जन नानक नामु सलाहिआ बहुड़ि न मनि तनि भंगु ॥२॥ हे नानक ! जिन्होंने नाम की स्तुति की है, उनके मन-तन में फिर कभी उनसे अलग नहीं हुआ। ॥ २॥


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