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ਜਨ ਨਾਨਕ ਕੈ ਵਲਿ ਹੋਆ ਮੇਰਾ ਸੁਆਮੀ ਹਰਿ ਸਜਣ ਪੁਰਖੁ ਸੁਜਾਨੁ ॥
हे नानक ! मेरा स्वामी हरि (गुरु अमरदास के) पक्ष में हो गया और वह चतुर प्रभु ही सज्जन है।
ਪਉਦੀ ਭਿਤਿ ਦੇਖਿ ਕੈ ਸਭਿ ਆਇ ਪਏ ਸਤਿਗੁਰ ਕੀ ਪੈਰੀ ਲਾਹਿਓਨੁ ਸਭਨਾ ਕਿਅਹੁ ਮਨਹੁ ਗੁਮਾਨੁ ॥੧੦॥
गुरु के द्वार पर अटूट लंगर मिलता देखकर सारे सेवक गुरु (अमरदास) के चरणों में आ पड़े हैं और गुरु ने सबके मन का गुमान दूर कर दिया है ॥१०॥
ਸਲੋਕ ਮਃ ੧ ॥
श्लोक महला ३॥
ਕੋਈ ਵਾਹੇ ਕੋ ਲੁਣੈ ਕੋ ਪਾਏ ਖਲਿਹਾਨਿ ॥
कोई हल जोतता है, कोई फसल काटता है और कोई दाने निकालने के लिए खलिहान डालता है।
ਨਾਨਕ ਏਵ ਨ ਜਾਪਈ ਕੋਈ ਖਾਇ ਨਿਦਾਨਿ ॥੧॥
गुरु नानक का कथन है कि यह समझ में नहीं आता कि अन्त में इस अन्न को कौन खाता है। १॥
ਮਃ ੧ ॥
महला १॥
ਜਿਸੁ ਮਨਿ ਵਸਿਆ ਤਰਿਆ ਸੋਇ ॥
जिसके मन में परमात्मा आ बसा है, वही संसार-सागर से पार हुआ है।
ਨਾਨਕ ਜੋ ਭਾਵੈ ਸੋ ਹੋਇ ॥੨॥
हे नानक ! जो उसे उपयुक्त लगता है, वही होता है॥ २ ॥
ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
ਪਾਰਬ੍ਰਹਮਿ ਦਇਆਲਿ ਸਾਗਰੁ ਤਾਰਿਆ ॥
दयालु परब्रह्म ने संसार-सागर से पार कर दिया है।
ਗੁਰਿ ਪੂਰੈ ਮਿਹਰਵਾਨਿ ਭਰਮੁ ਭਉ ਮਾਰਿਆ ॥
पूर्ण गुरु ने मेहरबान होकर भ्रम एवं भय दूर कर दिया है।
ਕਾਮ ਕ੍ਰੋਧੁ ਬਿਕਰਾਲੁ ਦੂਤ ਸਭਿ ਹਾਰਿਆ ॥
माया के विकराल दूत काम -क्रोध सब हार गए हैं।
ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਨਾਮੁ ਨਿਧਾਨੁ ਕੰਠਿ ਉਰਿ ਧਾਰਿਆ ॥
मैंने अमृत नाम रूपी खजाना अपने गले एवं हृदय में बसा लिया है।
ਨਾਨਕ ਸਾਧੂ ਸੰਗਿ ਜਨਮੁ ਮਰਣੁ ਸਵਾਰਿਆ ॥੧੧॥
हे नानक ! साधु की संगति में मिलकर जन्म-मरण संवर गया है ॥ ११॥
ਸਲੋਕ ਮਃ ੩ ॥
श्लोक महला ३॥
ਜਿਨ੍ਹ੍ਹੀ ਨਾਮੁ ਵਿਸਾਰਿਆ ਕੂੜੇ ਕਹਣ ਕਹੰਨ੍ਹ੍ਹਿ ॥
जिन्होंने परमात्मा का नाम भुला दिया है, उन्हें झूठे ही कहा जाता है।
ਪੰਚ ਚੋਰ ਤਿਨਾ ਘਰੁ ਮੁਹਨ੍ਹ੍ਹਿ ਹਉਮੈ ਅੰਦਰਿ ਸੰਨ੍ਹ੍ਹਿ ॥
काम, क्रोध, लोभ, मोह एवं अहंकार ये पाँच चोर उनके हृदय-घर को लूटते रहते हैं और अहंकार उनके हृदय-घर में सेंध लगाता है।
ਸਾਕਤ ਮੁਠੇ ਦੁਰਮਤੀ ਹਰਿ ਰਸੁ ਨ ਜਾਣੰਨ੍ਹ੍ਹਿ ॥
दुर्मति ने शाक्त जीवों को लूट लिया है, इसलिए वे हरि-रस को जानते ही नहीं।
ਜਿਨ੍ਹ੍ਹੀ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਭਰਮਿ ਲੁਟਾਇਆ ਬਿਖੁ ਸਿਉ ਰਚਹਿ ਰਚੰਨ੍ਹ੍ਹਿ ॥
जिन्होंने भ्रम में फंसकर नामामृत लुटा दिया है, वे माया रूपी विष में ही लीन रहते हैं।
ਦੁਸਟਾ ਸੇਤੀ ਪਿਰਹੜੀ ਜਨ ਸਿਉ ਵਾਦੁ ਕਰੰਨ੍ਹ੍ਹਿ ॥
उनका दुष्टों से प्रेम बना होता है परन्तु भक्तजनों से नित्य झगड़ा करते रहते हैं।
ਨਾਨਕ ਸਾਕਤ ਨਰਕ ਮਹਿ ਜਮਿ ਬਧੇ ਦੁਖ ਸਹੰਨ੍ਹ੍ਹਿ ॥
हे नानक ! यम के बंधे हुए शाक्त जीव नरकों में बड़ा दुख सहन करते हैं।
ਪਇਐ ਕਿਰਤਿ ਕਮਾਵਦੇ ਜਿਵ ਰਾਖਹਿ ਤਿਵੈ ਰਹੰਨ੍ਹ੍ਹਿ ॥੧॥
अपने भाग्य के अनुसार ही कर्म करते हैं और जैसे परमात्मा उन्हें रखता है, वैसे ही वे रहते हैं।१॥
ਮਃ ੩ ॥
महला ३॥
ਜਿਨ੍ਹ੍ਹੀ ਸਤਿਗੁਰੁ ਸੇਵਿਆ ਤਾਣੁ ਨਿਤਾਣੇ ਤਿਸੁ ॥
जिसने सतगुरु की सेवा की है, उस दुर्बल को बल मिल गया है।
ਸਾਸਿ ਗਿਰਾਸਿ ਸਦਾ ਮਨਿ ਵਸੈ ਜਮੁ ਜੋਹਿ ਨ ਸਕੈ ਤਿਸੁ ॥
जो साँस -ग्रास लेते वक्त सर्वदा परमात्मा को याद करता रहता है, वह उसके मन में आ बसता है और उसे यम भी प्रभावित नहीं कर सकता।
ਹਿਰਦੈ ਹਰਿ ਹਰਿ ਨਾਮ ਰਸੁ ਕਵਲਾ ਸੇਵਕਿ ਤਿਸੁ ॥
जिसके हृदय में हरि-नाम रूपी रस बसा रहता है, माया भी उसकी सेविका बन जाती है।
ਹਰਿ ਦਾਸਾ ਕਾ ਦਾਸੁ ਹੋਇ ਪਰਮ ਪਦਾਰਥੁ ਤਿਸੁ ॥
जो हरि के दासों का दास बन जाता है, उसे परम पदार्थ (मोक्ष) प्राप्त हो जाता है।
ਨਾਨਕ ਮਨਿ ਤਨਿ ਜਿਸੁ ਪ੍ਰਭੁ ਵਸੈ ਹਉ ਸਦ ਕੁਰਬਾਣੈ ਤਿਸੁ ॥
हे नानक ! जिसके मन-तन में प्रभु आ बसता है, मैं सदैव उस पर कुर्बान जाता हूँ।
ਜਿਨ੍ਹ੍ਹ ਕਉ ਪੂਰਬਿ ਲਿਖਿਆ ਰਸੁ ਸੰਤ ਜਨਾ ਸਿਉ ਤਿਸੁ ॥੨॥
जिसके भाग्य में पूर्व से ही ऐसा लिखा हुआ है, उसे ही संतजनों से मिलकर रस प्राप्त होता है॥ २ ॥
ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
ਜੋ ਬੋਲੇ ਪੂਰਾ ਸਤਿਗੁਰੂ ਸੋ ਪਰਮੇਸਰਿ ਸੁਣਿਆ ॥
पूर्ण सतगुरु जो कुछ बोलता है, उसे परमेश्वर सुनता है।
ਸੋਈ ਵਰਤਿਆ ਜਗਤ ਮਹਿ ਘਟਿ ਘਟਿ ਮੁਖਿ ਭਣਿਆ ॥
वही कुछ जगत् में हुआ है और हरेक मनुष्य ने उसे अपने मुँह से कहा है।
ਬਹੁਤੁ ਵਡਿਆਈਆ ਸਾਹਿਬੈ ਨਹ ਜਾਹੀ ਗਣੀਆ ॥
मेरे मालिक की बहुत बड़ी महिमा है, जो गिनी नहीं जा सकती।
ਸਚੁ ਸਹਜੁ ਅਨਦੁ ਸਤਿਗੁਰੂ ਪਾਸਿ ਸਚੀ ਗੁਰ ਮਣੀਆ ॥
सतगुरु के पास सत्य, सहज शान्ति एवं आनंद है और गुरु की सच्ची शिक्षा अमूल्य रत्न के सम्मान है।
ਨਾਨਕ ਸੰਤ ਸਵਾਰੇ ਪਾਰਬ੍ਰਹਮਿ ਸਚੇ ਜਿਉ ਬਣਿਆ ॥੧੨॥
हे नानक ! परब्रह्म ने संतों को संवार दिया है और वे सत्य जैसे ही बन गए हैं।१२॥
ਸਲੋਕ ਮਃ ੩ ॥
श्लोक महला ३॥
ਅਪਣਾ ਆਪੁ ਨ ਪਛਾਣਈ ਹਰਿ ਪ੍ਰਭੁ ਜਾਤਾ ਦੂਰਿ ॥
जो व्यक्ति अपने आपको नहीं पहचानता, वह प्रभु को भी दूर ही समझता है।
ਗੁਰ ਕੀ ਸੇਵਾ ਵਿਸਰੀ ਕਿਉ ਮਨੁ ਰਹੈ ਹਜੂਰਿ ॥
जब उसे गुरु की सेवा ही भूल गई है तो उसका मन परमात्मा में कैसे टिक सकता है?
ਮਨਮੁਖਿ ਜਨਮੁ ਗਵਾਇਆ ਝੂਠੈ ਲਾਲਚਿ ਕੂਰਿ ॥
झूठे लालच में फँस कर मनमुख ने अपना जन्म व्यर्थ ही गंवा दिया है।
ਨਾਨਕ ਬਖਸਿ ਮਿਲਾਇਅਨੁ ਸਚੈ ਸਬਦਿ ਹਦੂਰਿ ॥੧॥
हे नानक ! जो शब्द के चिन्तन में लीन रहते हैं, परमात्मा ने उन्हें क्षमा करके स्वयं ही साथ मिला लिया है॥ १ ॥
ਮਃ ੩ ॥
महला ३॥
ਹਰਿ ਪ੍ਰਭੁ ਸਚਾ ਸੋਹਿਲਾ ਗੁਰਮੁਖਿ ਨਾਮੁ ਗੋਵਿੰਦੁ ॥
सच्चे प्रभु का यशगान करो, गुरुमुख बनकर उसका ही नाम स्मरण करो।
ਅਨਦਿਨੁ ਨਾਮੁ ਸਲਾਹਣਾ ਹਰਿ ਜਪਿਆ ਮਨਿ ਆਨੰਦੁ ॥
नित्य नाम की स्तुति करनी चाहिए, हरि का नाम जपने से मन में आनंद पैदा हो जाता है।
ਵਡਭਾਗੀ ਹਰਿ ਪਾਇਆ ਪੂਰਨੁ ਪਰਮਾਨੰਦੁ ॥
किसी भाग्यशाली ने ही पूर्ण परमानंद परमात्मा को प्राप्त किया है।
ਜਨ ਨਾਨਕ ਨਾਮੁ ਸਲਾਹਿਆ ਬਹੁੜਿ ਨ ਮਨਿ ਤਨਿ ਭੰਗੁ ॥੨॥
हे नानक ! जिन्होंने नाम की स्तुति की है, उनके मन-तन में पुनः कभी कोई रुकावट नहीं आई॥ २॥