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ਮਨਮੁਖ ਅਗਿਆਨੀ ਅੰਧੁਲੇ ਜਨਮਿ ਮਰਹਿ ਫਿਰਿ ਆਵੈ ਜਾਏ ॥
मनमुख अगिआनी अंधुले जनमि मरहि फिरि आवै जाए ॥
मनमुख अज्ञानी जीव आध्यात्मिक रूप से अंधकार में डूबे रहते हैं; और पुनः-पुनः जन्म और मृत्यु के चक्र में भटकते रहते हैं।
ਕਾਰਜ ਸਿਧਿ ਨ ਹੋਵਨੀ ਅੰਤਿ ਗਇਆ ਪਛੁਤਾਏ ॥
कारज सिधि न होवनी अंति गइआ पछुताए ॥
उसका कोई भी कार्य सिद्ध नहीं होता और अन्त में इस संसार से पछताता हुआ चल देता है।
ਜਿਸੁ ਕਰਮੁ ਹੋਵੈ ਤਿਸੁ ਸਤਿਗੁਰੁ ਮਿਲੈ ਸੋ ਹਰਿ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਧਿਆਏ ॥
जिसु करमु होवै तिसु सतिगुरु मिलै सो हरि हरि नामु धिआए ॥
जिस पर प्रभु-कृपा होती है, उसे सतगुरु मिल जाते हैं और फिर वह प्रभु-नाम का ही ध्यान करता रहता है।
ਨਾਮਿ ਰਤੇ ਜਨ ਸਦਾ ਸੁਖੁ ਪਾਇਨ੍ਹ੍ਹਿ ਜਨ ਨਾਨਕ ਤਿਨ ਬਲਿ ਜਾਏ ॥੧॥
नामि रते जन सदा सुखु पाइन्हि जन नानक तिन बलि जाए ॥१॥
जो नाम-रस में ओत-प्रोत हैं, वे निरंतर दिव्य शांति में स्थित रहते हैं; और भक्त नानक अपने तन-मन से उनके प्रति समर्पित हैं। ॥ १ ॥
ਮਃ ੩ ॥
मः ३ ॥
तृतीय गुरुः ३॥
ਆਸਾ ਮਨਸਾ ਜਗਿ ਮੋਹਣੀ ਜਿਨਿ ਮੋਹਿਆ ਸੰਸਾਰੁ ॥
आसा मनसा जगि मोहणी जिनि मोहिआ संसारु ॥
सांसारिक धन, संपत्ति और शक्ति की आशा एवं अभिलाषा जगत् को मोह लेने वाली है, जिसने पूरा संसार मोह लिया है।
ਸਭੁ ਕੋ ਜਮ ਕੇ ਚੀਰੇ ਵਿਚਿ ਹੈ ਜੇਤਾ ਸਭੁ ਆਕਾਰੁ ॥
सभु को जम के चीरे विचि है जेता सभु आकारु ॥
जितना भी यह जगत्-प्रसार है, हर कोई मृत्यु के वश में है।
ਹੁਕਮੀ ਹੀ ਜਮੁ ਲਗਦਾ ਸੋ ਉਬਰੈ ਜਿਸੁ ਬਖਸੈ ਕਰਤਾਰੁ ॥
हुकमी ही जमु लगदा सो उबरै जिसु बखसै करतारु ॥
मृत्यु का दानव भी परमेश्वर की आज्ञा से ही प्रहार करता है; केवल वही उससे बचता है, जिस पर सृष्टिकर्ता की अनुकंपा और क्षमा दृष्टि होती है।
ਨਾਨਕ ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਏਹੁ ਮਨੁ ਤਾਂ ਤਰੈ ਜਾ ਛੋਡੈ ਅਹੰਕਾਰੁ ॥
नानक गुर परसादी एहु मनु तां तरै जा छोडै अहंकारु ॥
हे नानक ! मनुष्य का चित्त आशाओं और इच्छाओं के बंधन से तभी मुक्त होता है, जब वह गुरु की कृपा से अपने अहंकार का परित्याग कर देता है।
ਆਸਾ ਮਨਸਾ ਮਾਰੇ ਨਿਰਾਸੁ ਹੋਇ ਗੁਰ ਸਬਦੀ ਵੀਚਾਰੁ ॥੨॥
आसा मनसा मारे निरासु होइ गुर सबदी वीचारु ॥२॥
गुरु-शब्द का चिंतन करके जीव अपनी आशा-अभिलाषा को मिटा कर सांसारिक इच्छाओं से विरक्त हो जाता है।॥ २ ॥
ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पौड़ी ॥
ਜਿਥੈ ਜਾਈਐ ਜਗਤ ਮਹਿ ਤਿਥੈ ਹਰਿ ਸਾਈ ॥
जिथै जाईऐ जगत महि तिथै हरि साई ॥
इस जगत् में जिधर भी जाएँ, उधर प्रभु ही वयाप्त हैं।
ਅਗੈ ਸਭੁ ਆਪੇ ਵਰਤਦਾ ਹਰਿ ਸਚਾ ਨਿਆਈ ॥
अगै सभु आपे वरतदा हरि सचा निआई ॥
सच्चा न्याय करने वाले परमात्मा आगे परलोक में भी स्वयं ही वयाप्त हैं।
ਕੂੜਿਆਰਾ ਕੇ ਮੁਹ ਫਿਟਕੀਅਹਿ ਸਚੁ ਭਗਤਿ ਵਡਿਆਈ ॥
कूड़िआरा के मुह फिटकीअहि सचु भगति वडिआई ॥
वहाँ झूठे लोगों का ही तिरस्कार होता है, लेकिन सच्चे प्रभु की भक्ति करने वाले को शोभा प्राप्त होती है।
ਸਚੁ ਸਾਹਿਬੁ ਸਚਾ ਨਿਆਉ ਹੈ ਸਿਰਿ ਨਿੰਦਕ ਛਾਈ ॥
सचु साहिबु सचा निआउ है सिरि निंदक छाई ॥
शाश्वत प्रभु के दिव्य न्याय के अधीन, निंदकों को अपने कर्मों के फलस्वरूप अपमान और पश्चाताप का सामना करना पड़ता है।
ਜਨ ਨਾਨਕ ਸਚੁ ਅਰਾਧਿਆ ਗੁਰਮੁਖਿ ਸੁਖੁ ਪਾਈ ॥੫॥
जन नानक सचु अराधिआ गुरमुखि सुखु पाई ॥५॥
हे नानक ! वे जिन्होंने गुरु के मार्गदर्शन में प्रेमभाव से शाश्वत प्रभु का स्मरण किया, वे सदा ही दिव्य शांति और आनंद का अनुभव करते हैं।॥५॥
ਸਲੋਕ ਮਃ ੩ ॥
सलोक मः ३ ॥
श्लोक, तृतीय गुरुः ३ ॥
ਪੂਰੈ ਭਾਗਿ ਸਤਿਗੁਰੁ ਪਾਈਐ ਜੇ ਹਰਿ ਪ੍ਰਭੁ ਬਖਸ ਕਰੇਇ ॥
पूरै भागि सतिगुरु पाईऐ जे हरि प्रभु बखस करेइ ॥
यदि प्रभु अनुकम्पा कर दे तो ही पूर्ण भाग्य से सतगुरु प्राप्त होता है।
ਓਪਾਵਾ ਸਿਰਿ ਓਪਾਉ ਹੈ ਨਾਉ ਪਰਾਪਤਿ ਹੋਇ ॥
ओपावा सिरि ओपाउ है नाउ परापति होइ ॥
नाम की प्राप्ति का श्रेष्ठतम उपाय है सतगुरु का संग प्राप्त करना और उनकी दिव्य शिक्षाओं पर चलना है।
ਅੰਦਰੁ ਸੀਤਲੁ ਸਾਂਤਿ ਹੈ ਹਿਰਦੈ ਸਦਾ ਸੁਖੁ ਹੋਇ ॥
अंदरु सीतलु सांति है हिरदै सदा सुखु होइ ॥
इससे मन को बड़ी शान्ति मिलती है और हृदय सदैव सुखी रहता है।
ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਖਾਣਾ ਪੈਨ੍ਹ੍ਹਣਾ ਨਾਨਕ ਨਾਇ ਵਡਿਆਈ ਹੋਇ ॥੧॥
अम्रितु खाणा पैन्हणा नानक नाइ वडिआई होइ ॥१॥
हे नानक ! जो अपने जीवन को अमृतस्वरूप नाम में समर्पित कर देता है, वही उसी नाम के प्रभाव से परम यश और महिमा को प्राप्त करता है। १॥
ਮਃ ੩ ॥
मः ३ ॥
तृतीय गुरुः ३॥
ਏ ਮਨ ਗੁਰ ਕੀ ਸਿਖ ਸੁਣਿ ਪਾਇਹਿ ਗੁਣੀ ਨਿਧਾਨੁ ॥
ए मन गुर की सिख सुणि पाइहि गुणी निधानु ॥
हे मन ! गुरु की दिव्य शिक्षाओं का पालन कर, इस प्रकार तुझे गुणों के भण्डार परमात्मा प्राप्त हो जाऐंगें।
ਸੁਖਦਾਤਾ ਤੇਰੈ ਮਨਿ ਵਸੈ ਹਉਮੈ ਜਾਇ ਅਭਿਮਾਨੁ ॥
सुखदाता तेरै मनि वसै हउमै जाइ अभिमानु ॥
तब तुम्हें दिव्य शांति के दाता ईश्वर का अपने हृदय में निवास करने का अनुभव होगा, और तेरा अहंकार एवं अभिमान दूर हो जाएगा।
ਨਾਨਕ ਨਦਰੀ ਪਾਈਐ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਗੁਣੀ ਨਿਧਾਨੁ ॥੨॥
नानक नदरी पाईऐ अम्रितु गुणी निधानु ॥२॥
हे नानक ! नामामृत एवं गुणों का कोष उसकी कृपा-दृष्टि से ही पाया जाता है।॥ २॥
ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पौड़ी॥
ਜਿਤਨੇ ਪਾਤਿਸਾਹ ਸਾਹ ਰਾਜੇ ਖਾਨ ਉਮਰਾਵ ਸਿਕਦਾਰ ਹਹਿ ਤਿਤਨੇ ਸਭਿ ਹਰਿ ਕੇ ਕੀਏ ॥
जितने पातिसाह साह राजे खान उमराव सिकदार हहि तितने सभि हरि के कीए ॥
दुनिया में जितने भी बादशाह, शाह, राजा, खान, उमराव एवं सरदार हैं, वे सभी ईश्वर के ही पैदा किए हुए हैं।
ਜੋ ਕਿਛੁ ਹਰਿ ਕਰਾਵੈ ਸੁ ਓਇ ਕਰਹਿ ਸਭਿ ਹਰਿ ਕੇ ਅਰਥੀਏ ॥
जो किछु हरि करावै सु ओइ करहि सभि हरि के अरथीए ॥
जो कुछ ईश्वर अपनी इच्छानुसार से उनसे करवाते हैं, वे वही कार्य करते हैं। वास्तव में वे सभी प्रभु के सन्मुख भिखारी हैं।
ਸੋ ਐਸਾ ਹਰਿ ਸਭਨਾ ਕਾ ਪ੍ਰਭੁ ਸਤਿਗੁਰ ਕੈ ਵਲਿ ਹੈ ਤਿਨਿ ਸਭਿ ਵਰਨ ਚਾਰੇ ਖਾਣੀ ਸਭ ਸ੍ਰਿਸਟਿ ਗੋਲੇ ਕਰਿ ਸਤਿਗੁਰ ਅਗੈ ਕਾਰ ਕਮਾਵਣ ਕਉ ਦੀਏ ॥
सो ऐसा हरि सभना का प्रभु सतिगुर कै वलि है तिनि सभि वरन चारे खाणी सभ स्रिसटि गोले करि सतिगुर अगै कार कमावण कउ दीए ॥
ऐसा सर्वशक्तिमान ईश्वर सच्चे गुरु के पक्ष में है, उसने सभी वर्णो, चारों स्रोतों एवं सारी सृष्टि के जीवों को गुरु की सेवा में समर्पित कर दिया है।
ਹਰਿ ਸੇਵੇ ਕੀ ਐਸੀ ਵਡਿਆਈ ਦੇਖਹੁ ਹਰਿ ਸੰਤਹੁ ਜਿਨਿ ਵਿਚਹੁ ਕਾਇਆ ਨਗਰੀ ਦੁਸਮਨ ਦੂਤ ਸਭਿ ਮਾਰਿ ਕਢੀਏ ॥
हरि सेवे की ऐसी वडिआई देखहु हरि संतहु जिनि विचहु काइआ नगरी दुसमन दूत सभि मारि कढीए ॥
हे संतजनो ! ईश्वर-उपासना की महिमा देखो कि उसने काया रूपी नगरी में से सभी दुश्मन दूतों-काम, क्रोध, मोह, लोभ एवं अहंकार को नष्ट करके बाहर निकाल दिया है।
ਹਰਿ ਹਰਿ ਕਿਰਪਾਲੁ ਹੋਆ ਭਗਤ ਜਨਾ ਉਪਰਿ ਹਰਿ ਆਪਣੀ ਕਿਰਪਾ ਕਰਿ ਹਰਿ ਆਪਿ ਰਖਿ ਲੀਏ ॥੬॥
हरि हरि किरपालु होआ भगत जना उपरि हरि आपणी किरपा करि हरि आपि रखि लीए ॥६॥
हरि भक्तजनों पर कृपालु हो गए हैं और स्वयं अपनी दया से उन्हें सभी दोषों और दोषाणुओं से मुक्त किया है। ॥ ६ ॥
ਸਲੋਕ ਮਃ ੩ ॥
सलोक मः ३ ॥
श्लोक, तृतीय गुरुः ३ ॥
ਅੰਦਰਿ ਕਪਟੁ ਸਦਾ ਦੁਖੁ ਹੈ ਮਨਮੁਖ ਧਿਆਨੁ ਨ ਲਾਗੈ ॥
अंदरि कपटु सदा दुखु है मनमुख धिआनु न लागै ॥
मनमुख मन में कपट होने के कारण सदैव दुःख भोगता रहता है; इसलिए उसका ईश्वर में ध्यान नहीं लगता।
ਦੁਖ ਵਿਚਿ ਕਾਰ ਕਮਾਵਣੀ ਦੁਖੁ ਵਰਤੈ ਦੁਖੁ ਆਗੈ ॥
दुख विचि कार कमावणी दुखु वरतै दुखु आगै ॥
वह दुःख में ही कार्य करता है और न केवल वर्तमान जीवन में, बल्कि आने वाले जन्मों में भी वह दुःख ही भोगता रहेगा।
ਕਰਮੀ ਸਤਿਗੁਰੁ ਭੇਟੀਐ ਤਾ ਸਚਿ ਨਾਮਿ ਲਿਵ ਲਾਗੈ ॥
करमी सतिगुरु भेटीऐ ता सचि नामि लिव लागै ॥
यदि प्रभु-कृपा हो जाए तो सतगुरु से भेंट हो जाती है और सत्य-नाम में लगन लग जाती है।
ਨਾਨਕ ਸਹਜੇ ਸੁਖੁ ਹੋਇ ਅੰਦਰਹੁ ਭ੍ਰਮੁ ਭਉ ਭਾਗੈ ॥੧॥
नानक सहजे सुखु होइ अंदरहु भ्रमु भउ भागै ॥१॥
हे नानक ! फिर सहज ही सुख प्राप्त हो जाता है, जिससे मन में से भ्रम एवं मृत्यु का भय दूर हो जाता है ॥ १॥
ਮਃ ੩ ॥
मः ३ ॥
तृतीय गुरुः ३॥
ਗੁਰਮੁਖਿ ਸਦਾ ਹਰਿ ਰੰਗੁ ਹੈ ਹਰਿ ਕਾ ਨਾਉ ਮਨਿ ਭਾਇਆ ॥
गुरमुखि सदा हरि रंगु है हरि का नाउ मनि भाइआ ॥
गुरुमुख सदैव हरि-रंग में लीन रहता है और हरि का नाम ही उसे भाता है।