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ਜੁਗ ਚਾਰੇ ਸਭ ਭਵਿ ਥਕੀ ਕਿਨਿ ਕੀਮਤਿ ਹੋਈ ॥
सारी दुनिया चारों युग भटकती हुई थक गई है किन्तु किसी ने भी उसका मूल्यांकन नहीं पाया।
ਸਤਿਗੁਰਿ ਏਕੁ ਵਿਖਾਲਿਆ ਮਨਿ ਤਨਿ ਸੁਖੁ ਹੋਈ ॥
सतगुरु ने मुझे एक परमात्मा दिखा दिया है, जिससे मन-तन सुखी हो गया है।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਸਦਾ ਸਲਾਹੀਐ ਕਰਤਾ ਕਰੇ ਸੁ ਹੋਈ ॥੭॥
गुरु के माध्यम से हमेशा भगवान् की स्तुति करते रहना चाहिए। वही होता है, जो परमात्मा करता हैं ॥७॥
ਸਲੋਕ ਮਹਲਾ ੨ ॥
श्लोक महला २॥
ਜਿਨਾ ਭਉ ਤਿਨ੍ਹ੍ਹ ਨਾਹਿ ਭਉ ਮੁਚੁ ਭਉ ਨਿਭਵਿਆਹ ॥
जिन लोगों को भगवान् का भय होता है, उन्हें अन्य कोई भय प्रभावित नहीं करता। परन्तु जिन्हें भगवान् का भय नहीं होता, उन्हें बहुत प्रकार के भय लगे रहते हैं।
ਨਾਨਕ ਏਹੁ ਪਟੰਤਰਾ ਤਿਤੁ ਦੀਬਾਣਿ ਗਇਆਹ ॥੧॥
हे नानक ! यह निर्णय उस मालिक के दरबार में जाते ही होता है। ॥१॥
ਮਃ ੨ ॥
महला २ ॥
ਤੁਰਦੇ ਕਉ ਤੁਰਦਾ ਮਿਲੈ ਉਡਤੇ ਕਉ ਉਡਤਾ ॥
नदियों को सागर मिल जाता है, वायु को वायु मिल जाती है। प्रचण्ड अग्नि अग्नि से मिल जाती है।
ਜੀਵਤੇ ਕਉ ਜੀਵਤਾ ਮਿਲੈ ਮੂਏ ਕਉ ਮੂਆ ॥
मिट्टी को शरीर रूपी मिट्टी मिल जाती है।
ਨਾਨਕ ਸੋ ਸਾਲਾਹੀਐ ਜਿਨਿ ਕਾਰਣੁ ਕੀਆ ॥੨॥
हे नानक ! उस परमात्मा की प्रशंसा करनी चाहिए, जिसने यह सारी कुदरत बनाई है। ॥२॥
ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी।
ਸਚੁ ਧਿਆਇਨਿ ਸੇ ਸਚੇ ਗੁਰ ਸਬਦਿ ਵੀਚਾਰੀ ॥
वास्तव में वही मनुष्य सत्यवादी हैं, जो शब्द-गुरु के चिंतन द्वारा सत्य का ध्यान करते हैं।
ਹਉਮੈ ਮਾਰਿ ਮਨੁ ਨਿਰਮਲਾ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਉਰਿ ਧਾਰੀ ॥
अहंकार को समाप्त कर उनका मन निर्मल हो जाता है और वे अपने हृदय में हरि नाम को बसा लेते हैं।
ਕੋਠੇ ਮੰਡਪ ਮਾੜੀਆ ਲਗਿ ਪਏ ਗਾਵਾਰੀ ॥
गँवार आदमी अपने सुन्दर घरों, भव्य महलों एवं भिन्न-भिन्न उद्योगों के मोह में लीन है।
ਜਿਨ੍ਹ੍ਹਿ ਕੀਏ ਤਿਸਹਿ ਨ ਜਾਣਨੀ ਮਨਮੁਖਿ ਗੁਬਾਰੀ ॥
मनमुख आदमी मोह के घोर अंधेरे में फंसकर उस परमात्मा को नहीं जानते, जिसने उन्हें पैदा किया है।
ਜਿਸੁ ਬੁਝਾਇਹਿ ਸੋ ਬੁਝਸੀ ਸਚਿਆ ਕਿਆ ਜੰਤ ਵਿਚਾਰੀ ॥੮॥
सच तो यही है कि ये जीव बेचारे कुछ भी नहीं, वही समझता है, जिसे वह सूझ देता है॥ ८ ॥
ਸਲੋਕ ਮਃ ੩ ॥
श्लोक महला ॥३॥
ਕਾਮਣਿ ਤਉ ਸੀਗਾਰੁ ਕਰਿ ਜਾ ਪਹਿਲਾਂ ਕੰਤੁ ਮਨਾਇ ॥
जीव रूपी कामिनी को तो ही श्रृंगार करना चाहिए, यदि वह पहले अपने पति-प्रभु को प्रसन्न कर ले।
ਮਤੁ ਸੇਜੈ ਕੰਤੁ ਨ ਆਵਈ ਏਵੈ ਬਿਰਥਾ ਜਾਇ ॥
क्योंकि पति-प्रभु शायद हृदय रूपी सेज पर न आए तो किया हुआ पूरा श्रृंगार व्यर्थ ही चला जाता है।
ਕਾਮਣਿ ਪਿਰ ਮਨੁ ਮਾਨਿਆ ਤਉ ਬਣਿਆ ਸੀਗਾਰੁ ॥
जब जीव रूपी कामिनी के पति का मन प्रसन्न हुआ तो ही उसे श्रृंगार अच्छा लगा है।
ਕੀਆ ਤਉ ਪਰਵਾਣੁ ਹੈ ਜਾ ਸਹੁ ਧਰੇ ਪਿਆਰੁ ॥
उसका किया हुआ श्रृंगार तो ही मंजूर है, यदि प्रभु उसे प्रेम करे।
ਭਉ ਸੀਗਾਰੁ ਤਬੋਲ ਰਸੁ ਭੋਜਨੁ ਭਾਉ ਕਰੇਇ ॥
वह अपने प्रभु के भय को अपना श्रृंगार, हरि रस को पान एवं प्रेम को अपना भोजन बना लेती है।
ਤਨੁ ਮਨੁ ਸਉਪੇ ਕੰਤ ਕਉ ਤਉ ਨਾਨਕ ਭੋਗੁ ਕਰੇਇ ॥੧॥
हे नानक ! पति-प्रभु तो ही उससे रमण करता है, जब वह अपना तन, मन इत्यादि सबकुछ प्रभु को सौंप देती है| १॥
ਮਃ ੩ ॥
महला ३॥
ਕਾਜਲ ਫੂਲ ਤੰਬੋਲ ਰਸੁ ਲੇ ਧਨ ਕੀਆ ਸੀਗਾਰੁ ॥
जीव स्त्री ने आँखों में काजल, केशों में फूल, होंठों पर तंबोल रस का श्रृंगार किया है।
ਸੇਜੈ ਕੰਤੁ ਨ ਆਇਓ ਏਵੈ ਭਇਆ ਵਿਕਾਰੁ ॥੨॥
परन्तु प्रभु उसकी हृदय-सेज पर नहीं आया और उसका किया हुआ श्रृंगार व्यर्थ ही विकार बन गया है॥ २॥
ਮਃ ੩ ॥
महला ३॥
ਧਨ ਪਿਰੁ ਏਹਿ ਨ ਆਖੀਅਨਿ ਬਹਨਿ ਇਕਠੇ ਹੋਇ ॥
दरअसल उन्हें पति-पत्नी नहीं कहा जाता जो परस्पर मिलकर बैठते है।
ਏਕ ਜੋਤਿ ਦੁਇ ਮੂਰਤੀ ਧਨ ਪਿਰੁ ਕਹੀਐ ਸੋਇ ॥੩॥
पति-पत्नी उन्हें ही कहा जाता है, जिनके शरीर तो दो हैं पर उनमें ज्योति एक है। (अर्थात् दो शरीर एवं एक आत्मा है) ॥३॥
ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी।
ਭੈ ਬਿਨੁ ਭਗਤਿ ਨ ਹੋਵਈ ਨਾਮਿ ਨ ਲਗੈ ਪਿਆਰੁ ॥
श्रद्धा-भय बिना उसकी भक्ति नहीं होती और न ही नाम से प्यार लगता है।
ਸਤਿਗੁਰਿ ਮਿਲਿਐ ਭਉ ਊਪਜੈ ਭੈ ਭਾਇ ਰੰਗੁ ਸਵਾਰਿ ॥
सतगुरु को मिलकर ही श्रद्धा रूपी भय उत्पन्न होता है और उस श्रद्धा से भक्ति का सुन्दर रंग चढ़ता है।
ਤਨੁ ਮਨੁ ਰਤਾ ਰੰਗ ਸਿਉ ਹਉਮੈ ਤ੍ਰਿਸਨਾ ਮਾਰਿ ॥
अहंत्व एवं तृष्णा को समाप्त करके उसका मन-तन प्रभु के रंग में लीन हो गया है।
ਮਨੁ ਤਨੁ ਨਿਰਮਲੁ ਅਤਿ ਸੋਹਣਾ ਭੇਟਿਆ ਕ੍ਰਿਸਨ ਮੁਰਾਰਿ ॥
जिसका मन-तन निर्मल एवं अत्यंत सुन्दर हो गया है, उसे ही ईश्वर मिला है।
ਭਉ ਭਾਉ ਸਭੁ ਤਿਸ ਦਾ ਸੋ ਸਚੁ ਵਰਤੈ ਸੰਸਾਰਿ ॥੯॥
वह परम-सत्य समूचे संसार में प्रवृत्त है और भय एवं प्रेम सब उसका ही दिया हुआ है॥ ६॥
ਸਲੋਕ ਮਃ ੧ ॥
श्लोक महला १॥
ਵਾਹੁ ਖਸਮ ਤੂ ਵਾਹੁ ਜਿਨਿ ਰਚਿ ਰਚਨਾ ਹਮ ਕੀਏ ॥
वाह मालिक ! तू वाह-वाह है, जिसने यह सृष्टि-रचना करके हमें पैदा किया है।
ਸਾਗਰ ਲਹਰਿ ਸਮੁੰਦ ਸਰ ਵੇਲਿ ਵਰਸ ਵਰਾਹੁ ॥
तूने ही सागर, समुद्र की लहरें, सरोवर, वनस्पति की शाखाएँ एवं वर्षा करने वाले बादल पैदा किए हैं।
ਆਪਿ ਖੜੋਵਹਿ ਆਪਿ ਕਰਿ ਆਪੀਣੈ ਆਪਾਹੁ ॥
तू स्वयं ही सृष्टि रचना करके उसमें आधार बनकर स्वयं ही खड़ा है। तू स्वयंभू है, सबकुछ है।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਸੇਵਾ ਥਾਇ ਪਵੈ ਉਨਮਨਿ ਤਤੁ ਕਮਾਹੁ ॥
जो व्यक्ति सहज स्वभाव परमतत्व की सेवा करता है, उस गुरुमुख की सेवा ही परमात्मा को मंजूर होती है।
ਮਸਕਤਿ ਲਹਹੁ ਮਜੂਰੀਆ ਮੰਗਿ ਮੰਗਿ ਖਸਮ ਦਰਾਹੁ ॥
अपने मालिक के द्वार से माँग -माँग कर अपनी नाम की कमाई की मजदूरी लो।
ਨਾਨਕ ਪੁਰ ਦਰ ਵੇਪਰਵਾਹ ਤਉ ਦਰਿ ਊਣਾ ਨਾਹਿ ਕੋ ਸਚਾ ਵੇਪਰਵਾਹੁ ॥੧॥
गुरु नानक कहते हैं कि हे बेपरवाह प्रभु! तेरा घर खजानों से भरपूर है, तेरे घर में किसी वस्तु की कोई कमी नहीं और तू ही सच्चा बेपरवाह है ॥१॥
ਮਹਲਾ ੧ ॥
महला १॥
ਉਜਲ ਮੋਤੀ ਸੋਹਣੇ ਰਤਨਾ ਨਾਲਿ ਜੁੜੰਨਿ ॥
आदमी के सुन्दर शरीर में मोतियों जैसे सफेद दाँत एवं रत्नों जैसे नेत्र जड़ित होते हैं।
ਤਿਨ ਜਰੁ ਵੈਰੀ ਨਾਨਕਾ ਜਿ ਬੁਢੇ ਥੀਇ ਮਰੰਨਿ ॥੨॥
हे नानक ! जो बूढ़े होकर मरते हैं, बुढ़ापा उनका शत्रु है अर्थात् बुढ़ापा शरीर को नाश कर देता है| ॥२॥