Guru Granth Sahib Translation Project

Guru Granth Sahib Hindi Page 701

Page 701

ਜੈਤਸਰੀ ਮਹਲਾ ੫ ਘਰੁ ੪ ਦੁਪਦੇ॥ जैतसरी महला ५ घरु ४ दुपदे राग जैतश्री, पंचम गुरु, चतुर्थ ताल, दो पद:
ੴ ਸਤਿਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ ईश्वर एक है, जिसे सतगुरु की कृपा से पाया जा सकता है।
ਅਬ ਮੈ ਸੁਖੁ ਪਾਇਓ ਗੁਰ ਆਗ੍ਯ੍ਯਿ ॥ अब मै सुखु पाइओ गुर आग्यि ॥ अब मैंने गुरु की आज्ञा में रहकर सुख प्राप्त कर लिया है।
ਤਜੀ ਸਿਆਨਪ ਚਿੰਤ ਵਿਸਾਰੀ ਅਹੰ ਛੋਡਿਓ ਹੈ ਤਿਆਗ੍ਯ੍ਯਿ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ तजी सिआनप चिंत विसारी अहं छोडिओ है तिआग्यि ॥१॥ रहाउ ॥ मैंने हर प्रकार की चतुराई को त्याग दिया है, अपनी चिन्ता को भुला दिया है और अपने अहंकार को पूर्णतया छोड़ दिया है॥१॥ रहाउ॥
ਜਉ ਦੇਖਉ ਤਉ ਸਗਲ ਮੋਹਿ ਮੋਹੀਅਉ ਤਉ ਸਰਨਿ ਪਰਿਓ ਗੁਰ ਭਾਗਿ ॥ जउ देखउ तउ सगल मोहि मोहीअउ तउ सरनि परिओ गुर भागि ॥ मैंने जब यह देखा कि दुनिया के सभी लोग माया के मोह में ही लिप्त हैं तो मैं तुरंत ही गुरु की शरण में भागकर आ गया।
ਕਰਿ ਕਿਰਪਾ ਟਹਲ ਹਰਿ ਲਾਇਓ ਤਉ ਜਮਿ ਛੋਡੀ ਮੋਰੀ ਲਾਗਿ ॥੧॥ करि किरपा टहल हरि लाइओ तउ जमि छोडी मोरी लागि ॥१॥ जब गुरु ने कृपा करके मुझे भगवान् की उपासना में लगाया तो यमों ने भी मेरा पीछा छोड़ दिया ॥१॥
ਤਰਿਓ ਸਾਗਰੁ ਪਾਵਕ ਕੋ ਜਉ ਸੰਤ ਭੇਟੇ ਵਡ ਭਾਗਿ ॥ तरिओ सागरु पावक को जउ संत भेटे वड भागि ॥ सौभाग्य से जब मेरी संतों से भेंट हुई तो जगत् के अग्नि सागर को पार कर लिया।
ਜਨ ਨਾਨਕ ਸਰਬ ਸੁਖ ਪਾਏ ਮੋਰੋ ਹਰਿ ਚਰਨੀ ਚਿਤੁ ਲਾਗਿ ॥੨॥੧॥੫॥ जन नानक सरब सुख पाए मोरो हरि चरनी चितु लागि ॥२॥१॥५॥ नानक का कथन है कि अब मैंने सर्व सुख प्राप्त कर लिए हैं चूंकि मेरा चित भगवान के सुन्दर चरणों में ही लग गया है ॥२॥१॥५॥
ਜੈਤਸਰੀ ਮਹਲਾ ੫ ॥ जैतसरी महला ५ ॥ राग जैतश्री, पंचम गुरु: ५ ॥
ਮਨ ਮਹਿ ਸਤਿਗੁਰ ਧਿਆਨੁ ਧਰਾ ॥ मन महि सतिगुर धिआनु धरा ॥ मैंने अपने मन में सतगुरु का ध्यान धारण किया,
ਦ੍ਰਿੜਿ੍ਹ੍ਹਓ ਗਿਆਨੁ ਮੰਤ੍ਰੁ ਹਰਿ ਨਾਮਾ ਪ੍ਰਭ ਜੀਉ ਮਇਆ ਕਰਾ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ द्रिड़्हिओ गिआनु मंत्रु हरि नामा प्रभ जीउ मइआ करा ॥१॥ रहाउ ॥ मैंने अपने मन में भगवान् का नाम-मंत्र एवं ज्ञान को दृढ़ कर लिया है, जिसके फलस्वरूप प्रभु ने मुझ पर बड़ी करुणा की है।॥१॥ रहाउ ॥
ਕਾਲ ਜਾਲ ਅਰੁ ਮਹਾ ਜੰਜਾਲਾ ਛੁਟਕੇ ਜਮਹਿ ਡਰਾ ॥ काल जाल अरु महा जंजाला छुटके जमहि डरा ॥ अब काल का जाल, सांसारिक बन्धनों का महा जंजाल एवं मृत्यु का भय अब सभी लुप्त हो चुके हैं।
ਆਇਓ ਦੁਖ ਹਰਣ ਸਰਣ ਕਰੁਣਾਪਤਿ ਗਹਿਓ ਚਰਣ ਆਸਰਾ ॥੧॥ आइओ दुख हरण सरण करुणापति गहिओ चरण आसरा ॥१॥ हे करुणापति ! आप समस्त दुःख हरण करने वाला है, अतः मैं आपकी शरण में आया हूँ और आपके चरणों का ही सहारा लिया है॥१॥
ਨਾਵ ਰੂਪ ਭਇਓ ਸਾਧਸੰਗੁ ਭਵ ਨਿਧਿ ਪਾਰਿ ਪਰਾ ॥ नाव रूप भइओ साधसंगु भव निधि पारि परा ॥ साधु-संतों की संगति भवसागर से पार होने के लिए एक नाव का रूप है।
ਅਪਿਉ ਪੀਓ ਗਤੁ ਥੀਓ ਭਰਮਾ ਕਹੁ ਨਾਨਕ ਅਜਰੁ ਜਰਾ ॥੨॥੨॥੬॥ अपिउ पीओ गतु थीओ भरमा कहु नानक अजरु जरा ॥२॥२॥६॥ हे नानक ! अब मैंने नामामृत पान कर लिया है, जिससे मेरी दुविधा का नाश हो गया है तथा अजर अवस्था प्राप्त होने के कारण अब मुझे बुढ़ापा भी नहीं आ सकता ॥२॥२॥६॥
ਜੈਤਸਰੀ ਮਹਲਾ ੫ ॥ जैतसरी महला ५ ॥ राग जैतश्री, पंचम गुरु: ॥
ਜਾ ਕਉ ਭਏ ਗੋਵਿੰਦ ਸਹਾਈ ॥ जा कउ भए गोविंद सहाई ॥ जिस जीव का परमात्मा सहायक बन गया है,
ਸੂਖ ਸਹਜ ਆਨੰਦ ਸਗਲ ਸਿਉ ਵਾ ਕਉ ਬਿਆਧਿ ਨ ਕਾਈ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ सूख सहज आनंद सगल सिउ वा कउ बिआधि न काई ॥१॥ रहाउ ॥ वह आत्मिक सुख एवं हर्षोल्लास प्राप्त कर लेता है और उसे कोई भारी व्याधि प्रभावित नहीं करती ॥१॥ रहाउ॥
ਦੀਸਹਿ ਸਭ ਸੰਗਿ ਰਹਹਿ ਅਲੇਪਾ ਨਹ ਵਿਆਪੈ ਉਨ ਮਾਈ ॥ दीसहि सभ संगि रहहि अलेपा नह विआपै उन माई ॥ वह सब के साथ रहता दृष्टिगत होता है परन्तु फिर भी निर्लिप्त रहता है और माया उसे बिल्कुल भी स्पर्श नहीं करती।
ਏਕੈ ਰੰਗਿ ਤਤ ਕੇ ਬੇਤੇ ਸਤਿਗੁਰ ਤੇ ਬੁਧਿ ਪਾਈ ॥੧॥ एकै रंगि तत के बेते सतिगुर ते बुधि पाई ॥१॥ वह एक परमेश्वर के रंग में मग्न रहता है तथा तत्त्ववेता बन जाता है परन्तु यह बुद्धि भी उसे सतगुरु से ही प्राप्त हुई है॥१॥
ਦਇਆ ਮਇਆ ਕਿਰਪਾ ਠਾਕੁਰ ਕੀ ਸੇਈ ਸੰਤ ਸੁਭਾਈ ॥ दइआ मइआ किरपा ठाकुर की सेई संत सुभाई ॥ जिन पर ठाकुर जी की दया, मेहर एवं कृपा होती है, वही संत स्वभाव वाले हैं।
ਤਿਨ ਕੈ ਸੰਗਿ ਨਾਨਕ ਨਿਸਤਰੀਐ ਜਿਨ ਰਸਿ ਰਸਿ ਹਰਿ ਗੁਨ ਗਾਈ ॥੨॥੩॥੭॥ तिन कै संगि नानक निसतरीऐ जिन रसि रसि हरि गुन गाई ॥२॥३॥७॥ हे नानक ! जो महापुरुष प्रेमपूर्वक भगवान् का गुणगान करते हैं, उनकी संगति में रहने से मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है।॥२॥३॥७॥
ਜੈਤਸਰੀ ਮਹਲਾ ੫ ॥ जैतसरी महला ५ ॥ राग जैतश्री, पंचम गुरु: ५ ॥
ਗੋਬਿੰਦ ਜੀਵਨ ਪ੍ਰਾਨ ਧਨ ਰੂਪ ॥ गोबिंद जीवन प्रान धन रूप ॥ हे गोविन्द ! आप ही हमारा जीवन, प्राण, धन-दौलत एवं सौन्दर्य है।
ਅਗਿਆਨ ਮੋਹ ਮਗਨ ਮਹਾ ਪ੍ਰਾਨੀ ਅੰਧਿਆਰੇ ਮਹਿ ਦੀਪ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ अगिआन मोह मगन महा प्रानी अंधिआरे महि दीप ॥१॥ रहाउ ॥ अज्ञान के कारण प्राणी मोह में मग्न रहता है और इस अज्ञानता के अन्धेरे में परमेश्वर ही एकमात्र ज्ञान का दीपक है॥ १॥ रहाउ ॥
ਸਫਲ ਦਰਸਨੁ ਤੁਮਰਾ ਪ੍ਰਭ ਪ੍ਰੀਤਮ ਚਰਨ ਕਮਲ ਆਨੂਪ ॥ सफल दरसनु तुमरा प्रभ प्रीतम चरन कमल आनूप ॥ हे प्रियतम प्रभु ! आपके चरण कमल बड़े अनुपम हैं और आपके दर्शन बड़े फलदायक हैं।
ਅਨਿਕ ਬਾਰ ਕਰਉ ਤਿਹ ਬੰਦਨ ਮਨਹਿ ਚਰ੍ਹਾਵਉ ਧੂਪ ॥੧॥ अनिक बार करउ तिह बंदन मनहि चर्हावउ धूप ॥१॥ मैं बार-बार आपकी ही वन्दना करता हूँ एवं अपने मन को धूप-सामग्री के रूप में अर्पण करता हूँ॥ १॥
ਹਾਰਿ ਪਰਿਓ ਤੁਮ੍ਹ੍ਹਰੈ ਪ੍ਰਭ ਦੁਆਰੈ ਦ੍ਰਿੜ੍ਹ੍ਹੁ ਕਰਿ ਗਹੀ ਤੁਮ੍ਹ੍ਹਾਰੀ ਲੂਕ ॥ हारि परिओ तुम्हरै प्रभ दुआरै द्रिड़्हु करि गही तुम्हारी लूक ॥ हे प्रभु ! मायूस होकर अब मैं आपके द्वार पर आया हूँ और अब केवल आपके समर्थन में अटूट विश्वास है।
ਕਾਢਿ ਲੇਹੁ ਨਾਨਕ ਅਪੁਨੇ ਕਉ ਸੰਸਾਰ ਪਾਵਕ ਕੇ ਕੂਪ ॥੨॥੪॥੮॥ काढि लेहु नानक अपुने कउ संसार पावक के कूप ॥२॥४॥८॥ नानक प्रार्थना करते हैं कि हे प्रभु ! इस संसार रूपी अग्नि के कुएँ में से मुझे बाहर निकाल दो॥
ਜੈਤਸਰੀ ਮਹਲਾ ੫ ॥ जैतसरी महला ५ ॥ राग जैतश्री, पंचम गुरु: ५ ॥
ਕੋਈ ਜਨੁ ਹਰਿ ਸਿਉ ਦੇਵੈ ਜੋਰਿ ॥ कोई जनु हरि सिउ देवै जोरि ॥ कोई महापुरुष मुझे भगवान् के साथ मिला दे तो
ਚਰਨ ਗਹਉ ਬਕਉ ਸੁਭ ਰਸਨਾ ਦੀਜਹਿ ਪ੍ਰਾਨ ਅਕੋਰਿ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ चरन गहउ बकउ सुभ रसना दीजहि प्रान अकोरि ॥१॥ रहाउ ॥ मैं उसके चरण पकड़ लूं, अपनी जीभा से शुभ वचन बोलूं तथा अपने प्राण भी उसे ही अर्पण कर दूँ॥ १॥ रहाउ ॥
ਮਨੁ ਤਨੁ ਨਿਰਮਲ ਕਰਤ ਕਿਆਰੋ ਹਰਿ ਸਿੰਚੈ ਸੁਧਾ ਸੰਜੋਰਿ ॥ मनु तनु निरमल करत किआरो हरि सिंचै सुधा संजोरि ॥ अपने मन एवं तन को निर्मल क्यारियाँ बनाकर मैं उन्हें हरिनामामृत से भलीभांति सींचता हूँ।
ਇਆ ਰਸ ਮਹਿ ਮਗਨੁ ਹੋਤ ਕਿਰਪਾ ਤੇ ਮਹਾ ਬਿਖਿਆ ਤੇ ਤੋਰਿ ॥੧॥ इआ रस महि मगनु होत किरपा ते महा बिखिआ ते तोरि ॥१॥ भगवान् की कृपा से ही प्राणी इस अमृत में मग्न होता है और विषय-विकारों से अलग हो जाता है॥१॥
ਆਇਓ ਸਰਣਿ ਦੀਨ ਦੁਖ ਭੰਜਨ ਚਿਤਵਉ ਤੁਮ੍ਹ੍ਹਰੀ ਓਰਿ ॥ आइओ सरणि दीन दुख भंजन चितवउ तुम्हरी ओरि ॥ हे दीनों के दुःख नष्ट करने वाले प्रभु ! मैं आपकी ही शरण में आया हूँ और आपकी ओट को ही स्मरण करता रहता हूँ।


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